Valmikiya Ramayan वाल्मीकीय रामायण – 40 से आगे
अकेले ही सागर सन्तरण का महान कर्म करने वाले हनुमान का पराक्रम देवी सीता जान चुकी थीं। ऐसे जाने कितने वानरों की विशाल सैन्य एवं राक्षसों के बल, विक्रम, सामर्थ्य की तुलना करती सीता के मन में एक बात सर्वोपरि थी – राघव का यश कि सैन्य सहित उपयुक्त क्षात्र कर्म द्वारा ही उनका उद्धार हो जिससे कि राम का यश बढ़े। हनुमान को परवीरघ्न कहती सीता के मन में मानों आगत का भान था :
काममस्य त्वमेवैकः कार्यस्य परिसाधने । पर्याप्तः परवीरघ्न यशस्यस्ते बलोदयः ॥
बलैः समग्रैर्यदि मां रावणं जित्य संयुगे । विजयी स्वपुरं यायात्तत्तु मे स्याद्यशस्करम् ॥
बलैस्तु संकुलां कृत्वा लङ्कां परबलार्दनः । मां नयेद्यदि काकुत्स्थस्तत्तस्य सदृशं भवेत् ॥
तद्यथा तस्य विक्रान्तमनुरूपं महात्मनः । भवेदाहव शूरस्य तथा त्वमुपपादय ॥
हे शत्रुवीर संहारक, तुम अकेले ही इस कार्य को (मेरी मुक्ति की इच्छा को) साधने में पर्याप्त हो (परन्तु) तुम्हारे बलकर्म का यश (तो तुम्हारा) है। यदि वे जयी (श्रीराम) समस्त सेना के साथ युद्ध में रावण को जीत कर मुझे अपनी पुरी ले जायें तो स्यात उनके लिये (अधिक) यशस्कर होगा। शत्रुसेना का संहार करने वाले काकुत्स्थ श्रीराम यदि अपनी सेना द्वारा लङ्का का दलन कर मुझे अपने साथ ले जायें तो वही उनके योग्य होगा। अत: तुम ऐसा उपाय करो जिससे शूर श्रीराम का उनके अनुरूप विक्रम प्रकट हो।
देवी सीता की इन शिष्ट बातों में तीन गुण थे – अर्थयुक्त अर्थात नीतियुक्त, तर्कयुक्त तथा परस्पर सङ्गत होना – तदर्थोपहितं वाक्यं सहितं हेतुसंहितम्।
हनुमान ने उत्तर देना आरम्भ किया :
देवी! वानरों एवं भालुओं की सैन्य के अधीश्वर सुग्रीव सत्त्वसम्पन्न हैं तथा आप के कार्य हेतु दृढ़ निश्चय कर चुके हैं – देवि हर्यृक्षसैन्यानामीश्वरः प्लवतां वरः। सुग्रीवः सत्त्वसंपन्नस्तवार्थे कृतनिश्चयः ॥
उनमें राक्षसों के संहार की सामर्थ्य है तथा शीघ्र ही सहस्रो कोटि वानरों के साथ वे अभियान करेंगे। उनमें राक्षसों का संहार करने की शक्ति है तथा इनके पास पराक्रमी, धैर्यशाली एवं महापराक्रमी वानर योद्धा हैं –
तस्य विक्रमसंपन्नाः सत्त्ववन्तो महाबलाः । उन महातेजस्वी वानरों की ऊपर-नीचे एवं तिर्यक गतियाँ हैं तथा जिनके साहस का कभी लोप नहीं होता। उन्होंने अत्यंत उत्साह से पूर्ण हो भूमि एवं वायु मार्गों का अनिसरण करते हुये सागर एवं पर्वतों सहित इस धरा की अनेक बार प्रदक्षिणा की है – असकृत्तैर्महोत्सहैः ससागरधराधरा । प्रदक्षिणीकृता भूमिर्वायुमार्गानुसारिभिः ॥
सुग्रीव की सेना में मेरे समान एवं मुझसे भी बढ़ कर पराक्रमी वानर हैं, मुझसे न्यूनतर कोई नहीं – मद्विशिष्टाश्च तुल्याश्च सन्ति तत्र वनौकसः । मत्तः प्रत्यवरः कश्चिन्नास्ति सुग्रीवसंनिधौ ॥
देवी सीता के उत्साहवर्द्धन हेतु कपिप्रबोधन ऊँचाइयों के सोपान चढ़ता गया – जब मैं ही यहाँ आ गया, तब अन्य महाबलियों के आने में क्या संदेह? – अहं तावदिह प्राप्तः किं पुनस्ते महाबलाः। सनेसिया (जो कि मैं हूँ) बना कर हीनतर जन ही भेजे जाते हैं, श्रेष्ठ जन नहीं – न हि प्रकृष्टाः प्रेष्यन्ते प्रेष्यन्ते हीतरे जनाः (जब मैं पार आ पहुँचा तो अन्यों के बारे में सोचना ही नहीं!)। एक ही छलाँग में वानरयूथपति लङ्का पहुँच जायेंगे – एकोत्पातेन ते लङ्कामेष्यन्ति हरियूथपाः ।
मम पृष्ठगतौ तौ च चन्द्रसूर्याविवोदितौ ।
त्वत्सकाशं महासत्त्वौ नृसिंहावागमिष्यतः ॥
उदयकाल के सूर्य एवं चंद्रमा की भाँति शोभायमान दोनों महावीर पुरुषसिंह मेरी पीठ पर आसीन हो आप के पास आ पहुँचेंगे। कपि ने दु:ख भरी रात के बीत जाने को सूर्य रूपी राम के उदय से व्यक्त किया तो रात की स्थिति को भी लक्ष्मण संकेतित पूर्णचंद्र के उदय से कि अब तो शोक रहना ही नहीं चाहिये!
वे अपने सायकों से लङ्का नगरी का विध्वंस कर डालेंगे। राघव रावण को उसके सैनिकों सहित मार कर आप को साथ ले अपनी पुरी लौटेंगे। आप आश्वस्त हों, प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी राम आप को शीघ्र दर्शन देंगे – नचिराद्द्रक्ष्यसे रामं प्रज्वजन्तमिवानिलम्। आप उनसे ऐसे ही मिलेंगी जैसे चंद्रमा से रोहिणी – त्वं समेष्यसि रामेण शशाङ्केनेव रोहिणी।
राम का उग्र रूप अग्नि समान है तो प्रेमिल रूप शीतल चंद्र की भाँति प्रकाशित। दोनों के प्रयोग से कपि ने दर्शा दिया कि श्रीराम सम्पूर्णता के साथ अभियान करेंगे।
प्रस्थान की सोच हनुमान ने देवी सीता से पुन: कहा, कहा क्या राम के भयङ्कर भावी अभियान का बिम्ब ही प्रस्तुत कर दिया :
तमरिघ्नं कृतात्मानं क्षिप्रं द्रक्ष्यसि राघवम् । लक्ष्मणं च धनुष्पाणिं लङ्काद्वारमुपस्थितम् ॥
नखदंष्ट्रायुधान्वीरान्सिंहशार्दूलविक्रमान् । वानरान्वारणेन्द्राभान्क्षिप्रं द्रक्ष्यसि संगतान् ॥
शैलाम्बुदनिकाशानां लङ्कामलयसानुषु । नर्दतां कपिमुख्यानामार्ये यूथान्यनेकशः ॥
अंत में समझाने हेतु कपि ने दाम्पत्य प्रेम का भी आश्रय लिया :
स तु मर्मणि घोरेण ताडितो मन्मथेषुणा
न शर्म लभते रामः सिंहार्दित इव द्विपः
मा रुदो देवि शोकेन मा भूत्ते मनसोऽप्रियम्
शचीव पथ्या शक्रेण भर्त्रा नाथवती ह्यसि
(आप से बिछड़ने से) श्रीराम के मर्मस्थल में कामदेव की घोर चोट पहुँची है। वे सुख नहीं पाते मानों सिंह से पीड़ित गजराज हों। हे देवी! आप शोक में रूदन न करें, आप के मन को अप्रिय का भय न रहे। जिस प्रकार शचि के इन्द्र हैं, उस प्रकार ही आप अपने पति राम द्वारा रक्षित हैं।
रामाद्विशिष्टः कोऽन्योऽस्ति कश्चित्सौमित्रिणा समः
अग्निमारुतकल्पौ तौ भ्रातरौ तव संश्रयौ
नास्मिंश्चिरं वत्स्यसि देवि देशे; रक्षोगणैरध्युषितोऽतिरौद्रे
न ते चिरादागमनं प्रियस्य; क्षमस्व मत्संगमकालमात्रम्
श्रीराम से बढ़ कर दूसरा कौन है? सौमित्र लक्ष्मण के समान भी कौन है? अग्नि एवं वायु के तुल्य तेजस्वी वे दोनों भाई आप के आश्रय हैं। देवी! राक्षसों द्वारा सेवोत इस अत्यंत भयंकर देश में आप को अधिक दिनों तक नहीं रहना पड़ेगा। आप के प्रियतम के आने में अब अधिक समय नहीं है, मेरी उनसे भेंट होने तक के समय मात्र के लिये क्षमा दें।
अग्नि एवं वायु के उल्लेख से क्या कपि लङ्कादहन का संकेत कर रहे थे?
तब देवकन्या के समान तेजस्विनी सीता ने ये हितकारी वचन कहे – तुमसे इतना प्रिय संवाद सुन कर मुझमें हर्ष भर आया है, वही स्थिति है जो वर्षा का पानी पड़ने से (जलाभाव से ग्रस्त) आधी जमी हुयी सस्य वाली वसुंधरा की होती है (तुम्हारे आगमन से जो आस बँधी थी, वह तुम्हारी बातों से प्रफुल्लित हो उठी है)।
मुझ पर दया करो जिससे कि शोक के कारण दुर्बल हुये अङ्गों वाली मैं सकामा हो पुरुषव्याघ्र श्रीराम का स्पर्श कर सकूँ – संस्पृशेयं सकामाहं तथा कुरु दयां मयि। दुष्ट कौवे की आँख फोड़ने हेतु चलाये गये सींक के बाण की स्मृति दिला उन्हें मेरा अभिज्ञान देना – अभिज्ञानं च रामस्य दद्या हरिगणोत्तम, क्षिप्तामिषीकां काकस्यकोपादेकाक्षिशातनीम् ।
नहीं रहा गया तो देवी सीता ने संयोग शृङ्गार के एक कोमल क्षण को भी अभिज्ञान हेतु बताने को कहा :
मनःशिलायास्तिकलो गण्डपार्श्वे निवेशितः
त्वया प्रनष्टे तिलके तं किल स्मर्तुमर्हसि
हे नाथ! उस समय का स्मरण करो जब एक बार मेरे गालों पर लगा तिलक मिट गया था तो तुमने वहाँ मैनसिल का तिलक लगाया था।
एष चूडामणिर्दिव्यो मया सुपरिरक्षितः
एतं दृष्ट्वा प्रहृष्यामि व्यसने त्वामिवानघ
एष निर्यातितः श्रीमान्मया ते वारिसंभवः
अतः परं न शक्ष्यामि जीवितुं शोकलालसा
असह्यानि च दुःखानि वाचश्च हृदयच्छिदः
राक्षसीनां सुघोराणां त्वत्कृते मर्षयाम्यहम्
धारयिष्यामि मासं तु जीवितं शत्रुसूदन
मासादूर्ध्वं न जीविष्ये त्वया हीना नृपात्मज
आप तो महेंद्र एवं वरुण समान पराक्रमी हैं, आप यहाँ होता हुआ मेरा तिरस्कार कैसे सहन कर रहे हैं? जो चूड़ामणि मैं भेज रही हूँ उसे मैंने बड़े यत्न से सुरक्षित रखा था एवं (एक यही थी) जिसे संकट के समय देख कर मानो मुझे आप का ही दर्शन हो गया हो, उस प्रकार के हर्ष का मैं अनुभव करती थी (अब तो उसे भी भेज रही हूँ, मेरे पास कुछ बचा ही नहीं!)।
समुद्र के जल से उत्पन्न वह मणि आज आप को लौटा रही हूँ। अत: अब शोक से आतुर होने के कारण मैं अधिक समय जीवित नहीं रह सकूँगी। दु:सह दु:ख, हृदय को छेदने वाली बातें एवं राक्षसियों के साथ निवास – ये सब कुछ मैं आप के लिये ही सह रही हूँ। हे राजकुमार! हे शत्रुसूदन ! मैं आप की प्रतीक्षा में किसी प्रकार एक मास तक तो जीवन धारण करूँगी किंतु आप के बिना उससे आगे जीवित नहीं रह सकूँगी।
घोरो राक्षसराजोऽयं दृष्टिश्च न सुखा मयि
त्वां च श्रुत्वा विपद्यन्तं न जीवेयमहं क्षणम्
सागर से उत्पन्न चूड़ामणि थी या सागर पार बंदिनी का उतना ही विशाल एवं गहरा मूर्तिमान दु:ख जिसे उन्होंने प्रियतम के पास स्थिति की दारुणता का अभिज्ञान कराने हेतु प्रेषित कर दिया!
वीर हनुमान ने उन्हें पुन: धैर्य बँधाया :
त्वच्छोकविमुखो रामो देवि सत्येन ते शपे
रामे शोकाभिभूते तु लक्ष्मणः परितप्यते
दृष्टा कथंचिद्भवती न कालः परिशोचितुम्
इमं मुहूर्तं दुःखानामन्तं द्रक्ष्यसि भामिनि
तावुभौ पुरुषव्याघ्रौ राजपुत्रावनिन्दितौ
त्वद्दर्शनकृतोत्साहौ लङ्कां भस्मीकरिष्यतः
हत्वा तु समरे क्रूरं रावणं सह बान्धवम्
राघवौ त्वां विशालाक्षि स्वां पुरीं प्रापयिष्यतः
मणि ले कर हनुमान जाने को उद्यत हुये। सीता ने पुन: दोनों भाइयों सहित सुग्रीव एवं अन्य सबको अनामयता का सन्देश दिया :
हनूमन्सिंहसंकाशौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ
सुग्रीवं च सहामात्यं सर्वान्ब्रूया अनामयम्
दु:ख के महासागर से अपने को तारने हेतु राघव को पुन: कहा –
यथा च स महाबाहुर्मां तारयति राघवः
अस्माद्दुःखाम्बुसंरोधात्तत्समाधातुमर्हसि
तत्पश्चात हनुमान को आशीर्वाद दिया कि जाओ वानरप्रवीर, तुम्हारी यात्रा शिवमयी हो – शिवश्च तेऽध्वास्तु हरिप्रवीर।
हनुमान को जैसे केवल यही सुनना था, वे स्वयं को कृतार्थ मान प्रसन्नचित्त हो गये।
स राजपुत्र्या प्रतिवेदितार्थः; कपिः कृतार्थः परिहृष्टचेताः
तदल्पशेषं प्रसमीक्ष्य कार्यं; दिशं ह्युदीचीं मनसा जगाम
कपि का क्या, अब तो थोड़ा सा कार्य शेष रह गया था, विचार करते हुये उन्होंने उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान किया।
स च वाग्भिः प्रशस्ताभिर्गमिष्यन्पूजितस्तया
तस्माद्देशादपक्रम्य चिन्तयामास वानरः
अल्पशेषमिदं कार्यं दृष्टेयमसितेक्षणा
कजरारे नेत्रों वाली देवी सीता का दर्शन तो कर लिया, अब मेरे इस कार्य का अल्प अंश शेष रह गया है (शत्रु की शक्ति का अनुमान तो कर लूँ!)
त्रीनुपायानतिक्रम्य चतुर्थ इह दृश्यते
न साम रक्षःसु गुणाय कल्पते; न दानमर्थोपचितेषु वर्तते
न भेदसाध्या बलदर्पिता जनाः; पराक्रमस्त्वेष ममेह रोचते
चार उपाय हैं – साम, दाम, भेद एवं दण्ड। राक्षसों को समझाने से कोई लाभ होता प्रतीत नहीं होता, धन इनके पास प्रचुर है अत: दान की भी कोई उपयोगिता नहीं। ये बल के दर्प में रहते हैं अत: भेदनीति द्वारा भी साधे नहीं जा सकते। ऐसे में मुझे यहाँ पराक्रम प्रदर्शन (एवं उसके द्वारा दण्ड देना) ही रुचता है। कपि अपनी इस ‘रुचि’ का विश्लेषण करते चले गये …
(क्रमश:)