Valmikiya Ramayan वाल्मीकीय रामायण-४३ से आगे
पीड़िता सीता हेतु हनुमान श्रीराम के दूत बन कर आये थे जिन्हें सफलता की अधिक सम्भावनाओं को देखते हुये विशेष चिह्न एवं सन्देश भी देने को कहा गया था। सीता सन्धान में सफल हो एवं उन्हें स्वामी राम का सन्देश दे उस वज्राङ्ग वानर ने दौत्य एवं अन्वेषण कर्म की पूर्ति कर दी थी। आगे का उनका अभियान पीड़क की शक्ति को परखना, उसे सन्देश देना तथा उसकी वास्तविकता से साक्षात होना जैसे उद्देश्यों के साथ था। जो आञ्जनेय पीड़िता सीता के साथ ध्वनि की तीव्रता व राक्षसियों के जाग जाने जैसी घटनाओं को ले कर सावधान थे, वही मिलने व सन्देश पहुँचाने का कर्म सम्पन्न कर अपने उद्धत अप्रतिहत रूप में आ गये। वे विशेष अर्थसिद्धि हेतु जो चुने गये थे – विशेषेण तु सुग्रीवो हनूमति अर्थमुक्तवान् । स हि तस्मिन्हरि श्रेष्ठे निश्चितार्थो अर्थ साधने ॥
हनुमान देश काल व नीति के पण्डित थे। उन्हें कार्यसिद्धि में निश्चित रूप से सक्षम मान कर लङ्का की दिशा में भेजा गया था –
त्वयि एव हनुमन् अस्ति बलम् बुद्धिः पराक्रमः । देश काल अनुवृत्तिः च नयः च नय पण्डित ॥
ततः कार्य समासंगम् अवगम्य हनूमति । विदित्वा हनुमन्तम् च चिन्तयामास राघवः ॥
सर्वथा निश्चित अर्थोऽयम् हनूमति हरीश्वरः । निश्चित अर्थतरः चापि हनूमान् कार्य साधने ॥
तत् एवम् प्रस्थितस्य अस्य परिज्ञातस्य कर्मभिः । भर्त्रा परिगृहीतस्य ध्रुवः कार्य फलोदयः ॥
प्रत्यक्ष रूप से उन्हें रावण को परखने जैसे किसी काम को करने का आदेश नहीं था किन्तु सेवक कैसा जो स्वामी के हित ऐसे काम भी न सम्पन्न कर दे जो अयाचित हों! उन्हें विदा करते समय श्रीराम ने जो कहा था, उसे पुन: देखते हैं :अतिबल बलमाश्रितः तवाहं,
हरिवर विक्रम विक्रमैः अनल्पैः ।
पवनसुत यथाऽधिगम्यते सा,
जनकसुता हनुमन् तथा कुरुष्व ॥हे अत्यन्त बलशाली हरिश्रेष्ठ! मैंने तुम्हारे बल का आश्रय लिया है। हे हनुमान! जिस प्रकार से जनकसुता सीता की प्राप्ति हो, तुम अपने महान् बल विक्रम से वैसा ही करो।
मात्र ढूँढ़ने व संदेश देने तक हनुमान को आदेश नहीं था, लक्ष्यप्राप्ति हो इस हेतु काम करना था। और हनुमान उसे पूर्णत: समझ कर ही वहाँ से प्रस्थान किये थे।
गोपनीयता का समय समाप्त हो चुका था। नीतिविशारद हनुमान को अब घोष पूर्वक अनेक उद्देश्य सिद्ध करने थे। रावण की क्षमताओं का पता लगाना था; उसकी सैन्य की शक्ति व सङ्गठन कैसे हैं, जानना था; अधिकारियों का क्रम कैसा है? सङ्कट आने पर राक्षस बल कैसे प्रतिक्रिया करता है? ये सब तो जानने ही थे, साथ में अपने को सुरक्षित भी रखना था। ऐसा तब ही सम्भव था जब राक्षस तन्त्र में भय का सञ्चार हो एवं साथ ही यह भी ज्ञापित हो कि आगन्तुक एक उत्पाती वानर मात्र न हो बली व युद्धविशारद भी है। यह भी दर्शाना था कि आगन्तुक महत्त्वपूर्ण है जिसको मान दे उसके साथ संवाद भी किया जाना चाहिये।
हनुमान की तीक्ष्ण प्रत्युत्पन्नमति व त्वरित प्रभावी कार्र्वाइयों के दर्शन सीता से विदा ले कर रावण के सम्मुख पहुँचने तक होते हैं। वे अपने आप में बहुत सधे हुये व स्पष्ट हैं। उनकी ललकार में तो रावण हेतु संदेश छिपे ही हुये हैं, सामरिक स्थिति लेने व सधे हुये प्रहारों में अद्भुत योद्धा का कर्म साक्षात होता है। पीड़िता से पीड़क तक पहुँचने की यात्रा में उनका रौद्र रूप तो दर्शनीय है ही, वाणी की मारकता भी स्पष्ट है।
वायुपुत्र मारुति हनुमान ने ऊँचे तोरणद्वार पर अपने को स्थापित कर लिया। चैत्याकार विशाल भवन के शिखर से तोरण तक उछल कूद कर मार करते भीमाकार मारुति में मानो सूर्य व वायु एक हो गये थे। भय हो या भीम, इन शब्दों के आरम्भ अक्षर भ की उस विराट सत्ता के दर्शन हनुमान के रूप में होते हैं जो विस्तृत आकाश की भी एक संज्ञा है।
प्रशस्त प्रासादों की ऊँचाइयों पर उड़ता सा, आकाश को मापता हुआ विशाल सूर्यसम रूप लिये किलकारी भरता, पूँछ पटकता, जाँघों व बाहों पर ताल दे धमकाता विकट वानर लङ्का के योद्धाओं पर बहुत भारी पड़ा –
चैत्यप्रासादमाप्लुत्य मेरुशृङ्गमिवोन्नतम् । आरुरोह हरिश्रेष्ठो हनुमान् मारुतात्मजः ॥
आरुह्य गिरिसङ्काशं प्रासादं हरियूथपः । बभौ स सुमहातेजाः प्रतिसूर्य इवोदितः ॥
संप्रधृष्य च दुर्धर्षं चैत्यप्रासादमुत्तमम् । हनुमान् प्रज्वलन् लक्ष्म्या पारियात्रोपमोऽभवत् ॥
विविध ध्वनि अर्थों वाले शब्दों की झड़ी में बीच बीच में हनुमान का अपना, श्रीराम व सुग्रीव का नाम ले महत्ता का उद्घोष अद्भुत प्रभाव उत्पन्न करता है। मारुति ने प्रमदावन का ध्वंस कर रावण को रुला दिया था। उसके द्वारा अपने समान बलवान भेजे गये किङ्कर राक्षस हनुमान पर वैसे ही टूट पड़े जैसे आग पर पतङ्गे पड़ते हों, अनिवार्यत: विनाश की नियति को प्राप्त – पतङ्गा इव पावकम्। कपि द्वारा प्रतिकार के सूचक ध्वन्यात्मक अर्थ व श्रुति वाले शब्दों की छटा देखते ही बनती है –
हनुमानपि तेजस्वी श्रीमान् पर्वतसन्निभिः । क्षितावाविध्य लांगूलं ननाद च महास्वनम् ॥
स भूत्वा सुमहाकायो हनुमान् मारुतात्मजः । धृष्टमास्फोटयामास लङ्कां शब्देन पूरयन् ॥
तस्यास्फोटितशब्देन महता सानुनादिना । पेतुर्विहङ्गा गगनादुच्चैश्चेदमघोषयत् ॥
उन्होंने गगनभेदी घोषणा की –
जयत्यतिबलो रामो लक्ष्मणश्च महाबलः । राजा जयति सुग्रीवो राघवेणाभिपालितः ॥
दासोऽहं कोसलेन्द्रस्य रामस्याक्लिष्टकर्मणः । हनुमान् शत्रुसैन्यानां निहन्ता मारुतात्मजः ॥
न रावणसहस्रं मे युद्धे प्रतिबलं भवेत् । शिलाभिस्तु प्रहरतः पादपैश्च सहस्रशः ॥
अर्दयित्वा पुरीं लङ्कामभिवाद्य च मैथिलीम् । समृद्धार्थो गमिष्यामि मिषतां सर्वरक्षसाम् ॥
“अत्यन्त बलवान राम व महाबली लक्ष्मण की जय हो! राघव राम द्वारा अभिपालित राजा सुग्रीव की जय हो! मैं अनायास ही महान पराक्रम करने वाले कोसलनरेश राम का दास हूँ। मैं शत्रुओं का नाश करने वाला मरुतपुत्र हनुमान हूँ। जब मैं सहस्रो वृक्षों व शिलाओं से प्रहार करूँगा तो सहस्रो रावण भी मिल कर मेरा सामना नहीं कर सकते। लङ्कापुरी का मर्दन कर, मैथिली सीता का अभिवादन कर व अपना कार्य सिद्ध कर मैं सभी राक्षसों के देखते देखते चला जाऊँगा।”
प्रतिकार में आये हुये किङ्कर योद्धाओं हेतु नहीं, रावण के नीतिज्ञाता परामर्शदाताओं हेतु इस घोष में अनेक संदेश छिपे हुये थे। रावण ने समर्थ व सङ्गठित राजन्य एवं विविध व्यापक परास की शक्तियों वाले शत्रु को छेड़ा था, उसका एक दास मात्र ऐसा था तथा वह यहाँ साक्षात विध्वंस बना समक्ष था। कोसल व मिथिला नाम तो थे ही, सुग्रीव के कौशल के साथ वृक्ष एवं शिलाओं से मार करने वाली सैन्य का आसन्न सङ्कट बन कर भी कपि वहाँ आ पहुँचा था जो कि कोई साधारण वानर नहीं था।
हनुमान ने केवल बात से ही नहीं, काम दिखा कर भी अपने संदेश की गुरुता स्पष्ट कर दी। उन्होंने तोरण पर पड़े परिघ को उठा कर उससे समस्त किङ्कर राक्षसों को मार डाला! उसके पश्चात यह सोच कि अशोकवन को तो नष्ट कर दिया, चैत्यप्रासाद तो बचा ही हुआ है, उसे भी नष्ट कर दिया –
वनं भग्नं मया चैत्यप्रसादो न विनाशितः । तस्मात् प्रासादमप्येव भीमं विध्वंसयाम्यहम् ॥
टूटते प्रासाद की विविध ध्वनियों के बीच उन्होंने अपना घोष दुहराया जैसे कि कोई सम्पुट पाठ कर रहे थे! प्रासाद रक्षकों से घिरे मारुति मानो गङ्गा में उठे किसी भँवर का केन्द्र हो गये थे –
आवर्त इव गङ्गायास्तोयस्य विपुलो महान् । परिक्षिप्य हरिश्रेष्ठं स बभौ रक्षसां गणः ॥
उन्होंने प्रासाद से ही एक शताधारी स्तम्भ उखाड़ लिया तथा उससे रक्षकों का विनाश करने लगे। स्तम्भ के घर्षण से अग्नि उत्पन्न हुई और प्रासाद धू धू कर जल उठा –
तत्र चाग्निः समभवत् प्रासादश्चाप्यदह्यत । दह्यमानं ततो दृष्ट्वा प्रासादं हरियूथपः ॥
स राक्षसशतं हत्वा वज्रेणेन्द्र इवासुरान् ।
वे असुरों का विनाश करते इन्द्र की भाँति लग रहे थे। देखें तो वायुपुत्र हनुमान क्षिति, जल, पावक व गगन को भी साथ ले मानो लङ्का की भूति के विनाश की प्रस्तावना लिख रहे थे। उन्होंने आतङ्क का प्रसार करते हुये अन्तरिक्ष समान ऊँचाई से अग्नि उद्घोष किया, यह उद्घोष मात्र नहीं, राम के महत अभियान की सूचना भी थी जिसकी भावी विकरालता स्वध्वनित थी –
मादृशानां सहस्राणि विसृष्टानि महात्मनाम् । बलिनां वानरेन्द्राणां सुग्रीववशवर्तिनाम् ।
अटन्ति वसुधां कृत्स्नां वयमन्ये च वानराः ॥
दशनागबलाः केचित् केचिद्दशगुणोत्तराः । केचिन्नागसहस्रस्य बभूवुस्तुल्यविक्रमाः ॥
सन्ति चौघबलाः केचित् केचिद्वायुबलोपमाः । अप्रमेयबलाश्चान्ये तत्रासन् हरियूथपाः ॥
ईदृग्विधैस्तु हरिभिर्वृतो दन्तनखायुधैः । शतैः शतसहस्रैश्च कोटीभिरयुतैरपि ।
आगमिष्यति सुग्रीवः सर्वेषां वो निषूदनः ॥
नेयमस्ति पुरी लङ्का न यूयं न च रावणः । यस्मादिक्ष्वाकुनाथेन बद्धं वैरं महात्मना ॥
“मेरी भाँति ही बली व महान सहस्रो वानर आ रहे हैं। वे सुग्रीव के अधीन हैं और मैं तथा वे समस्त अन्य वानर सम्पूर्ण पृथ्वी पर भ्रमण करते रहते हैं। उनमें से कोई दस हाथियों के समान बल वाला है तो कोई उसका दसगुना। और कुछ में हजार हाथियों के तुल्य बल है। किन्हीं का बल जल के महान प्रवाह सा है, कुछ वायु के समान बली हैं। अन्य वानर ऐसे हैं जिनके बल का पारावार नहीं है।
दाँत एवं नख ही जिनके आयुध हैं, ऐसे अनन्त बलशाली सैकड़ों, दसियो हजार, लाखों और करोड़ों वानरों से घिरे हुये सुग्रीव यहाँ आयेंगे, जो तुम सब राक्षसों का संहार करेंगे। न तो यह लङ्कापुरी रहेगी, न तुम लोग रहोगे।”
महान इक्ष्वाकुओं के गौरव को रेखाङ्कित करते हुये हनुमान ने अन्त में कहा – और न वह रावण रहेगा जिसने इक्ष्वाकुवंशी वीर महात्मा राम से बैर बाँध रखा है! स्पष्टत: यह राजा के विरुद्ध उसकी प्रजा को भड़काने का प्रयास था।
रावण ने सूचना पाई और प्रहस्त के पुत्र जम्बुमाली को हनुमान का सामना करने को भेजा। पदानुक्रम का पालन करने वाली लङ्का से निकला यह पहला रथी धनुर्धर था। वह गधों से जुते रथ पर सवार था – रथेन खरयुक्तेन तमागतमुदीक्ष्य सः।
उसके धनुष की टङ्कार इन्द्रधनु से निकले वज्र की भाँति अर्थात तड़ित स्वर जैसी थी – विष्फारयाणो वेगेन वज्राशनिसमस्वनम्। टङ्कार से समस्त दिशायें व नभ व्याप्त हो गये –
तस्य विष्फारघोषेण धनुषो महता दिशः
प्रदिशश्च नभश्चैव सहसा समपूर्यत
तोरणद्वार के शीर्ष पर स्थित हनुमान को उसे देख बहुत हर्ष हुआ कि कोई तो आया ढङ्ग का लड़ने! उन्हों ने हर्षनाद किया – हनुमान्वेगसम्पन्नो जहर्ष च ननाद च। उसके बाणों से आहत तो रक्तस्नात हनुमान का ताम्रवर्णी मुख ऐसे लगने लगा जैसे शरद ऋतु में सूर्य किरणों से आहत फुलाया हुआ कमल हो! आकाश में उनका रक्तरञ्जित मुख ऐसे सुशोभित हो रहा था जैसे रक्त महापद्म पर रक्तचन्दन की बूँदें छिटकी हों!
तस्य तच्छुशुभे ताम्रं शरेणाभिहतं मुखम्
शरदीवाम्बुजं फुल्लं विद्धं भास्कररश्मिना
तत्तस्य रक्तं रक्तेन रञ्जितं शुशुभे मुखम्
यथाकाशे महापद्मं सिक्तं चन्दनबिन्दुभिः
जम्बुमाली पर शिला एवं साल वृक्ष से आक्रमण का कोई प्रभाव नहीं हुआ, उसने उन्हें अपने बाणों से काट डाला तथा हनुमान जी को भी घातल कर दिया। तब उन्होंने पहले वाला परिघ उठा कर उसे उत्कट बल के साथ घुमाते हुये संवेग प्रदान किया तथा जम्बुमाली पर प्रहार किया –
अतिवेगोऽतिवेगेन भ्रामयित्वा बलोत्कटः । परिघं पातयामास जम्बुमालेर्महोरसि ॥
सिर, बाँह, जाँघ, रथ, खर अश्व, धनुष, आभूषण आदि सहित जम्बुमाली का कुछ नहीं बचा, वह चूर्ण हो गया –
तस्य चैव शिरो नास्ति न बाहू न च जानुनी । न धनुर्न रथो नाश्वा:[1] तत्रादृश्यन्त नेषवः ॥
स हतस्सहसा तेन जम्बुमाली महाबलः। पपात निहतो भूमौ चूर्णिताङ्गविभूषणः ॥
रावण ने जम्बुमाली का वध सुना तथा उसकी आँखों में मारे क्रोध के रक्त उतर आया – चुक्रोध रावणश्शुत्वा कोपसंरक्तलोचनः।
उसके आदेश से सात मन्त्रीपुत्र हनुमान से युद्ध करने निकले। पदानुक्रम में वे प्रहस्तपुत्र से ऊपर रहे होंगे। लङ्का का सैन्य प्रशासन तन्त्र इन सङ्घर्षों में अपने अनेक भेद खोलता जाता है। उनके रथों में बली अश्व जुते हुये थे, वाजि – वाजियुक्तैर्महारथैः। वे अस्त्रविद्या के विशिष्ट ज्ञाता महाबली थे – महाबलपरीवारा धनुष्मन्तो महाबलाः। कृतास्त्रास्त्रविदां श्रेष्ठाः परस्परजयैषिणः ॥ उनके धनुष पिघले हुये सोने की भाँति कान्तियुक्त थे, जब वे महाघोष करते हुये प्रासाद से निकले तो लगा जैसे कि बादल तड़ित विद्युत के साथ आ रहे हों – तप्तकाञ्चनचित्राणि चापान्यमितविक्रमाः। विस्फारयन्तस्संहृष्टास्तटित्वन्त इवाम्बुदाः ॥
किङ्करों की जो गति हनुमान जी ने की थी, उसका समाचार पसर चुका था। उन सात मंत्रीपुत्रों की मातायें तथा अन्य सुहृद उनकी भावी दुर्गति की आशङ्का में शोकग्रस्त हो गये – जनन्यस्तास्ततस्तेषां विदित्वा किंकरान्हतान् । बभूवुः शोकसंभ्रान्ताः सबान्धवसुहृज्जनाः ॥
उछल कूद कर आकाशगामी प्रतीत होते कपि ने उनके आक्रमणों से स्वयं को बचाते हुये कुछ समय क्रीड़ा की –
रथवेगांश्च वीराणां विचरन्विमलेऽम्बरे ॥ स तैः क्रीडन्धनुष्मद्भिर्व्योम्नि वीरः प्रकाशते ।
उनसे घिरे मारुति ऐसे दिख रहे थे जैसे मेघों के साथ मारुत अर्थात वायुदेवता क्रीड़ा कर रहे हों। प्रकाश के विविध गतिज बिम्ब आदिकवि को प्रिय तो हैं ही, आकाश के विविध रूप भी – यथा मेघैर्मारुतः प्रभुरम्बरे। सुन्दरकाण्ड में आकाश के विविध बिम्बों अनेक स्थलों पर सुन्दरता के साथ चित्रित हैं।
विशिष्ट अस्त्रविद्याओं के ज्ञाता उन महारथियों को मारुति हनुमान ने अपने विकट निनाद एवं आत्मरक्षा के आदिम दैहिक उपादानों नख, लात, मुक्का आदि के प्रयोग से ही मार डाला !
स कृत्वा निनदं घोरं त्रासयंस्तां महाचमूम्
चकार हनुमान्वेगं तेषु रक्षःसु वीर्यवान्
तलेनाभिहनत्कांश्चित्पादैः कांश्चित्परंतपः
मुष्टिनाभ्यहनत्कांश्चिन्नखैः कांश्चिद्व्यदारयत्
प्रममाथोरसा कांश्चिदूरुभ्यामपरान्कपिः
केचित्तस्यैव नादेन तत्रैव पतिता भुवि
ततस्तेष्ववपन्नेषु भूमौ निपतितेषु च
उस घोर दुर्गतिकारक किन्तु आदिम प्रहार कर्म द्वारा उन्होंने मानो रावण एवं लङ्का को यह सन्देश दिया कि वानरों की शक्ति के बारे में मैंने जो उद्घोष किया था, वह कोई डींग मात्र नहीं था; तुम्हारे शस्त्रास्त्रविदों से इसी प्रकार निपटने में वे वानर सक्षम हैं। हनुमान भौतिक युद्ध के साथ मनोवैज्ञानिक आक्रमण भी कर रहे थे। राक्षस योद्धाओं व प्रजा का मनोबल तोड़ कर अपने प्रभु एवं अपनी महिमा भी स्थापित कर रहे थे जिससे कि पकड़े जाने पर उन्हें साधारण अपराधी न समझ महत्त्वपूर्ण माना जाय तथा आगे सुभीता रहे।
सात मन्त्रीपुत्रों के मारे जाने पर सबको रुलाने वाले रावण की लङ्का विविध विकृत स्वरों में रोदन कर उठी – विविधैश्च स्वरैर्लङ्का ननाद विकृतं तदा।
और आगे भी युद्ध की इच्छा लिये कपि पुन: सामरिक रूप से सुरक्षित तोरणद्वार पर आकाश में ऊँची स्थिति के कारण आतङ्क बनाये रखने की मंशा से विराजमान हो प्रतीक्षा करने लगे कि देखें, अब कौन आता है?
युयुत्सुरन्यैः पुनरेव राक्षसै स्तमेव वीरोऽभिजगाम तोरणम्।
इस समाचार पर रावण ने अपने शोकभाव छिपा कर मन ही मन एक अच्छी योजना बनाई – रावणस्संवृताकारश्चकार मतिमुत्तमाम्।
उसे हनुमान की विलक्षणता पर विश्वास हो चुका था। उसने अपने पाँच सेनाग्रनायकों विरूपाक्ष, यूपाक्ष, दुर्धर, प्रघस एवं भासकर्ण को हनुमान को पकड़ने को भेजा जिनकी गति वायु समान थी – वायुवेगसमान्युधि। मारने के स्थान पर देशकाल के अनुसार निर्णय ले दण्डित कर पकड़ लाने का आदेश परोक्ष रूप से हनुमान सी समस्त सोच के अनुकूल ही था –
सन्दिदेश दशग्रीवो वीरान्नयविशारदान्
हनुमद्ग्रहणव्यग्रान्वायुवेगसमान्युधि
यात सेनाग्रगास्सर्वे महाबलपरिग्रहाः
सवाजिरथमातङ्गास्स कपिश्शास्यतामिति
यत्नैश्च खलु भाव्यं स्यात्तमासाद्य वनालयम्
कर्म चापि समाधेयं देशकालाविरोधिनम्
उसने कहा कि इसने अब तक जो किया है उस पर तर्क वितर्क करने से मुझे यह कोई कपि न लग कर महाबली प्राणी लगता है – न ह्यहं तं कपिं मन्ये कर्मणा प्रतितर्कयन्। सर्वथा तन्महद्भूतं महाबलपरिग्रहम् ॥
मुझे यह इन्द्र द्वारा तपोबल से उत्पन्न किया हुआ लगता है – भवेदिन्द्रेण[2] वा सृष्टमस्मदर्थं तपोबलात्। मैंने तुम लोगों की सहायता से नाग, यक्ष, गन्धर्व, देव, असुर व महर्षियों को भी वश में किया है – सनागयक्षगन्धर्वा देवासुरमहर्षयः। इस कारण वे मेरा अनिष्ट करना चाहते हैं, ऐसा ही है।
रावण को अन्य वानरवीरों से पुराने सङ्घर्षों का स्मरण हो आया। नील, द्विविद, वाली, सुग्रीव, जाम्बवान आदि में भी इस वानर के समान न तो भयङ्कर वेग था, न तेज, न ही ऐसा पराक्रम –
वाली च सह सुग्रीवो जाम्बवांश्च महाबलः
नीलः सेनापतिश्चैव ये चान्ये द्विविदादयः
नैव तेषां गतिर्भीमा न तेजो न पराक्रमः
न मतिर्न बलोत्साहो न रूपपरिकल्पनम्
महत्सत्त्वमिदं ज्ञेयं कपिरूपं व्यवस्थितम्
उसने आदेश दिया – उसे प्रयत्नपूर्वक पकड़ लाओ, प्रयत्नं महदास्थाय क्रियतामस्य निग्रहः । वह धीर व पराक्रमी वीर है, उसे तुच्छ न समझना, नावमान्यश्च युष्माभिर्हरिर्धीरपराक्रम:।
उसके मन में भय घर कर गया था, उसने अपने योद्धाओं को सावधान भी किया – प्रयत्नपूर्वक अपनी रक्षा करना क्योंकि विजयश्री बड़ी चञ्चला होती है, आत्मा रक्ष्यः प्रयत्नेन युद्धसिद्धिर्हि चञ्चला।
पाँचो योद्धाओं को तोरण पर ऊँचे महाकपि दिखे जो अपने तेज से ऐसे प्रकाशित हो रहे थे मानो उगते हुये सूर्य हों। वे उत्साह, सत्त्व व महत बल से युक्त थे।
ततस्तं ददृशुर्वीरा दीप्यमानं महाकपिम्
रश्मिमन्तमिवोद्यन्तं स्वतेजोरश्मिमालिनम्
तोरणस्थं महोत्साहं महासत्त्वं महाबलम्
उन सबने उन पर घेर कर बाणों से आक्रमण कर दिया। मारुति ने उन बाणों से अपने को वैसे ही दूर रखा जैसे वर्षाकाल के अंत (शरद आरम्भ) में मारुत(वायु) बादलों को बरसने नहीं देते – वृष्टिमन्तं पयोदान्ते पयोदमिव मारुतः।
हनुमान ने साँसे भरीं तथा दुर्धर के रथ पर वैसे ही महावेग से साथ गिरे जैसे पहाड़ पर बिजली – निपपात महावेगो विद्युद्राशिर्गिराविव। वह अपने सम्पूर्ण युद्धक उपादानों सहित चूर चूर हो गया। यह देख विरूपाक्ष एवं यूपाक्ष ने उन पर एक साथ आक्रमण किया जिन्हें हनुमान जी ने साल का वृक्ष उखाड़ उससे प्रहार कर मार डाला –
स सालवृक्षमासाद्य समुत्पाट्य च वानरः
तावुभौ राक्षसौ वीरौ जघान पवनात्मजः
ऐसा देख बचे हुये प्रघस एवं भासकर्ण ने उन पर आक्रमण किया। उनके द्वारा घायल करने से क्रुद्ध हनुमान ने उन्हें एक शिला उखाड़ कर मार डाला –
समुत्पाट्य गिरेश्शृङ्गं समृगव्यालपादपम्
जघान हनुमान् वीरो राक्षसौ कपिकुञ्जरः
तदुपरान्त हनुमान ने उनके साथ आई सेना का वैसे ही संहार कर डाला जैसे सहस्राक्ष इन्द्र असुरों का विनाश कर डालते हैं – स कपिर्नाशयामास सहस्राक्ष इवासुरान्। सहस्राक्ष सञ्ज्ञा यहाँ महत्त्वपूर्ण है कि एक ही योद्धा ने समस्त सैन्य का ऐसे संहार कर डाला मानो उनके पास हजार आँखों की दृष्टि हो तथा सबके आक्रमण का प्रतिकार करने में वे सक्षम हों!
प्राणियों का प्रलय के समय नाश करने वाले कालवत हनुमान सबका विनाश कर पुन: तोरण पर जा विराजे –
ततः कपिस्तान्ध्वजिनीपतीन्रणे; निहत्य वीरान्सबलान्सवाहनान्
तदेव वीरः परिगृह्य तोरणं; कृतक्षणः काल इव प्रजाक्षये
योद्धाओं का पदानुक्रम समाप्त हो चुका था, अब राजवंश की बारी थी! समाचार को सुन रावण ने अपने पुत्र अक्षकुमार की ओर देखा। देखना मात्र ही पर्याप्त था, अक्षकुमार तुरन्त ऐसे खड़ा हो गया जैसे द्विजों द्वारा आहुति देने पर अग्नि भभक उठती है!
समीक्ष्य राजा समरोद्धतोन्मुखं; कुमारमक्षं प्रसमैक्षताक्षतम्
स तस्य दृष्ट्यर्पणसंप्रचोदितः; प्रतापवान्काञ्चनचित्रकार्मुकः
समुत्पपाताथ सदस्युदीरितो; द्विजातिमुख्यैर्हविषेव पावकः
रक्षराजकुल के विनाश का आरम्भ लिखा जाने वाला था।
अग्नि एवं आहुति उपमा प्रयोगों से आदिकवि ने एक साथ अनेक अर्थ साध लिये हैं। अक्षकुमार तेजस्वी है अत: अग्नि की लपटों के समान है। पावक के रूप में पवित्र करने मारुति सङ्कट बन कर आ पहुँचे हैं तथा रावण का हठ ही वह आहुति है जो उनके विनाशक रूप को और प्रज्ज्वलित किये दे रहा है! (क्रमश:)
[1]अश्व सञ्ज्ञा को अंग्रेजी के ass से मिला कर देखें। वर्तमान में उपलब्ध अश्वों एवं गधों की तुलना में रामायण में ऐसी खर प्रजाति के पर्याप्त सङ्केत हैं जो इन दोनों से भिन्न थी, पाल्य थी तथा अब विलुप्त है। काञ्चन मृग हो या ऐसे खर, रामायण अपनी प्राचीनता के अन्तर्साक्ष्य बारम्बार प्रस्तुत करता है।
[2] रामायण में वैदिक देवताओं के सन्दर्भ विपुल हैं तथा इन्द्र, वायु, मरुद्गण आदि की बड़ी महत्ता है।
Valmikiya Ramayan वाल्मीकीय रामायण शृङ्खला के अगले भाग में –
हिमक्षये सूर्य इवाभिवर्धते
(जैसे शीत के अन्त में सूर्य बढ़ने लगते हैं।)
बहुत सुन्दर , पठनीय ,रुचिकर ,आनंदप्रद , जय श्रीराम !!!