Valmikiya Ramayan Sundarkand वाल्मीकीय रामायण सुन्दरकाण्ड भाग – 37 से आगे
देवी सीता के वचन सुन कर वाक्यविशारद कपिश्रेष्ठ हनुमान को सन्तोष हुआ एवं कहने लगे,” हे शुभदर्शना देवी ! आप ने जो कुछ कहा वह एक साध्वी एवं विनयसम्पन्न स्त्री के स्वभाव अनुसार है। पीठ पर अधिष्ठित हो विस्तीर्ण शतयोजनी सागर पारने में एक स्त्री समर्थ नहीं ही होगी। हे विनयशीला ! आप ने जो दूसरा कारण राम के अतिरिक्त किसी अन्य का स्पर्श नहीं करने का बताया वह उन महात्मा की पत्नी के ही सदृश है। अन्य कौन ऐसे वचन कह सकती है?
एतत्ते सदृशं देवि पत्न्यास्तस्य महात्मनः। का ह्यन्या त्वामृते देवि ब्रूयाद्वचनमीदृशम्॥
मैं काकुत्स्थ राम को आप के द्वारा कहा एवं किया बिना कुछ छोड़े बताऊँगा।
कारणैर्बहुभिर्देवि रामप्रियचिकीर्षया। स्नेहप्रस्कन्नमनसा मयैतत्समुदीरितम्॥
हे देवी ! मैंने आप से जो कहा उसके बहुत से कारण हैं। मैं राम का प्रिय करना चाहता था तथा मेरा मन स्नेह से शिथिल सिक्त हो रहा था।
लङ्काया दुष्प्रवेशत्वाद्दुस्तरत्वान्महोदधेः। सामर्थ्यादात्मनश्चैव मयैतत्समुदीरितम्॥
महासागर को पार कर लङ्का में प्रवेश दुष्कर है तथा मुझमें सामर्थ्य है (मैंने कर लिया है), अत: मैंने वह सब कहा।
इच्छामि त्वां समानेतुमद्यैव रघुबन्धुना। गुरुस्नेहेन भक्त्या च नान्यथैतदुदाहृतम्॥
श्रेष्ठ (स्वामी राम) के प्रति स्नेह एवं भक्ति के कारण मैंने आप को आज ही (आप के) बन्धु राम के पास ले जाने को कहा, किसी अन्य कारण से नहीं।
यदि नोत्सहसे यातुं मया सार्धमनिन्दिते। अभिज्ञानं प्रयच्छ त्वं जानीयाद्राघवो हि यत्॥
हे निष्कलुष देवी ! यदि मेरे साथ जाने को आप उत्साहित नहीं हैं तो मुझे अपना (कोई) अभिज्ञान(चिह्न) दें जिससे कि राघव जान लें (कि मैं यहाँ आया एवं आप से मिला।)”
एवमुक्ता हनुमता सीता सुरसुतोपमा। उवाच वचनं मन्दं बाष्पप्रग्रथिताक्षरम्॥
इदं श्रेष्ठमभिज्ञानं ब्रूयास्त्वं तु मम प्रियम्।
तुम्हें कौन सा चिह्न दूँ हनुमान?
स्मृतियाँ, स्मृतियाँ भौतिक वस्तु नहीं होतीं, उनके साथ लगाव गहन होता है तथा वे नष्ट नहीं हो सकतीं, न खो सकती हैं, भौतिक वस्तु तो ले जाये जाते समय बिला भी सकती है ! यदि दाम्पत्य के ऐसे क्षण साझा कर सकूँ जिन्हें दो प्रेमी पति पत्नी ही जानते हैं तो उससे बड़ा क्या प्रमाण हो सकता है हनुमान कि तुम मुझे ढूँढ़ लिये थे !
वनप्रान्तर में प्रियतम के साथ बिताये गये कोमल प्रेमिल प्रसङ्ग मन में उमड़ने लगे।
हनुमान से देवकन्या सम सीता ने मन्द वाष्पपूरित शब्दों में कहना आरम्भ किया,”प्रिय को मेरा यह श्रेष्ठ अभिज्ञान ही बताना…
शैलस्य चित्रकूटस्य पादे पूर्वोत्तरे पुरा ॥ तापसाश्रमवासिन्याः प्राज्यमूलफलोदके।
तस्मिन्सिद्धाश्रमे देशे मन्दाकिन्या विदूरतः॥
तस्योपवनषण्डेषु नानापुष्पसुगन्धिषु। विहृत्य सलिल क्लिन्ना तवाऽङ्केऽहम् उपाऽऽविशम्॥
मनश्शिला मयं भाले तिलकं मे कृतं त्वया। तदा दाशरथेस्तावद् एवं चिह्नं ब्रवीमि ते॥
बहुत पहले मंदाकिनी नदी के निकट, चित्रकूट शैल के पूर्वोत्तर आधार के सिद्धाश्रम क्षेत्र में जहाँ कि फल, मूल एवं जल का आधिक्य था, जहाँ के तापस आश्रम में (हम) निवास करते थे, वहाँ के नाना पुष्पों से सुवासित उपवनों में जलक्रीड़ा कर भीगी देह लिये मैं आप के अङ्क में समा गयी। (हे प्रिय!) तुमने मन:शिला से रंग ले मेरे भाल पर तिलक लगाया था।
ततो मांससमायुक्तो वायसः पर्यतुण्डयत्। तमहं लोष्टमुद्यम्य वारयामिस्म वायसम्॥
तब एक मांसलोलुप कौए ने मुझे चोंच मार दिया, मैंने ढेला उठाया एवं उसे भगा दिया।
दारयन्स च मां काकस्तत्त्रैव परिलीयते। न चाप्युपारमन्मांसाद्भक्षार्थि बलिभोजनः॥
मुझे चोंच मार कर वह कौआ वहीं छिप जाता तथा मांस का भूखा वह बलिभोजी (हटाने पर भी) हट नहीं रहा था (अर्थात चोंच मारे ही जा रहा था।)
उत्कर्षन्त्यां च रशनां क्रुद्धायां मयि पक्षिणि। स्रस्यमाने च वसने ततो दृष्टा त्वया ह्यहम्॥
मैं उस पक्षी पर क्रुद्ध हो गयी एवं कटिबन्ध ऊपर करती उठी कि मेरा वस्त्र सरक गया। तुम (राम) ने मुझे उस स्थिति में देख लिया।
त्वयाऽपहसिता चाहं क्रुद्धा संलज्जिता तदा। भक्षगृध्नेन काकेन दारिता त्वामुपागता॥
तुमने मेरा उपहास किया एवं मैं क्रुद्ध हो गयी, लजा गयी। उस भक्षलोलुप काक से पीड़ित मैं तुम्हारी शरण हुई।
आसीनस्य च ते श्रान्ता पुनरुत्सङ्गमाविशम्। क्रुध्यन्ती च प्रहृष्टेन त्वयाऽहं परिसान्त्विता॥
पुन: थकी हुई मैं तुम्हारे अङ्क में समा गई। मेरा क्रुद्ध मुख देख तुमने हँसी करते हुये मुझे सांत्वना दी।
बाष्पपूर्णमुखी मन्दं चक्षुषी परिमार्जती। लक्षिताऽहं त्वया नाथ वायसेन प्रकोपिता॥
हे नाथ ! वायस से कुपित मेरा आँसुओं से भरा मुख एवं मुझे धीमे धीमे आँसू पोंछते तुमने देखा (एवं मुझे सांत्वना दी)।
परिश्रमात्प्रसुप्ता च राघवाङ्केऽप्यहं चिरम्। पर्यायेण प्रसुप्तश्च ममाङ्के भरताग्रजः॥
और (हे हनुमान !) परिश्रान्त हो जाने के कारण मैं राघव की गोद में लम्बे समय तक सोई भी रही। तब उनकी बारी आई तथा भरत के बड़े भाई श्रीराम मेरे अङ्क में सो गये।
(Valmikiya Ramayan वाल्मीकीय रामायण में क्रमश:)
कः क्रीडति सरोषेण पञ्चवक्त्रेण भोगिना।
क्रुद्ध पञ्चमुखी सर्प से कौन खिलवाड़ कर रहा है?
Valmikiya Ramayan – 39