Valmikiya Ramayan Sundarkand वाल्मीकीय रामायण सुन्दरकाण्ड भाग – 35 से आगे
नीरवता के उन चुराये क्षणों में प्रिय का दूत समक्ष था। बहुत दिनों के पश्चात कोई हीतू मिला था, उससे अपनी व्यथा, अपनी शङ्का, अपनी दशा कह देने में कोई हानि नहीं थी। पति की स्थिति जान कर सुखी दुखी सीता देवी के मुख से निर्वेद एवं करुणा भरे उद्गार बह निकले :
ऐश्वर्ये वा सुविस्तीर्णे व्यसने वा सुदारुणे
रज्ज्वेव पुरुषं बद्ध्वा कृतान्तः परिकर्षति
मनुष्य विस्तीर्ण ऐश्वर्य में स्थित हो या अत्यन्त दारुण विपत्ति में, काल उसे ऐसे खींच लेता है जैसे कि वह रस्सी से बँधा हो।
विधिर्नूनमसंहार्यः प्राणिनां प्लवगोत्तम
सौमित्रिं मां च रामं च व्यसनैः पश्य मोहितान्
हे वानरशिरोमणि ! प्राणियों की भवितव्यता निश्चित ही अमिट है। देखो, लक्ष्मण, मैं एवं राम कैसे कैसे दु:ख झेल रहे हैं।
शोकस्यास्य कदा पारं राघवोऽधिगमिष्यति
प्लवमानः परिश्रान्तो हतनौः सागरे यथा
राक्षसानां क्षयं कृत्वा सूदयित्वा च रावणम्
लङ्कामुन्मूलितां कृत्वा कदा द्रक्ष्यति मां पतिः
नौका टूट जाने पर सागर में तैरते परिश्रान्त मनुष्य की भाँति राघव प्रयत्न करके भी इस शोक से (जाने) कब पार होंगे ?
राक्षसों का क्षय कर, रावण का वध कर एवं लङ्का को समूल उखाड़ कर (जाने) कब मेरे पति मुझे देखेंगे ?
स वाच्यः संत्वरस्वेति यावदेव न पूर्यते
अयं संवत्सरः कालस्तावद्धि मम जीवितम्
वर्तते दशमो मासो द्वौ तु शेषौ प्लवंगम
रावणेन नृशंसेन समयो यः कृतो मम
उनसे कहना कि शीघ्रता करें। यह संवत्सर जब तक पूरा नहीं हो जाता, तब तक ही मेरा जीवन है। हे वानर ! नृशंस रावण ने मेरे जीवन हेतु जो अवधि रखी है, उसमें से दस महीने बीत चुके हैं, दो ही शेष हैं।
विभीषण ने मेरा निर्यात करने अर्थात मुझे लौटाने को अनुनय विनय प्रयत्न किये किंतु काल के वशीभूत रावण को वह प्रस्ताव नहीं रुचा।
हे कपि ! विभीषण की ज्येष्ठा पुत्री नला को स्वयं उसकी माता ने भेज यह सूचना दी थी :
ज्येष्ठा कन्यानला नाम विभीषणसुता कपे
तया ममैतदाख्यातं मात्रा प्रहितया स्वयम्
मेधावी, विद्वान, धीर, बुद्धिमान, सुशील, सम्मानित वृद्ध राक्षसपुङ्गव अविन्ध्य ने भी उसे श्रीराम के हाथों राक्षस विनाश का अवसर आया बता कर मुझे लौटाने को चेताया किन्तु वह दुष्टात्मा हित की बातें नहीं सुनता है।
देवी सीता ने कह लिया, वेदना बह गयी, मन स्थिर हुआ तो श्रीराम के सामर्थ्य की स्मृति हो आई :
आशंसेति हरिश्रेष्ठ क्षिप्रं मां प्राप्स्यते पतिः
अन्तरात्मा हि मे शुद्धस्तस्मिंश्च बहवो गुणाः
उत्साहः पौरुषं सत्त्वमानृशंस्यं कृतज्ञता
विक्रमश्च प्रभावश्च सन्ति वानरराघवे
हे हरिश्रेष्ठ ! मुझे तो यह आशा हो रही है कि मेरे पति शीघ्र ही मुझसे आ मिलेंगे, क्योंकि मेरी अन्तरात्मा शुद्ध है तथा हे वानर ! राघव में बहुत से गुण – उत्साह, पौरुष, बल, दयालुता, कृतज्ञता, विक्रम एवं प्रभाव विद्यमान हैं।
श्रीराम के सङ्ग एवं सामर्थ्य की स्मृति सान्द्र होती गयी, प्रेम पयोधि बढ़ती गयी एवं अन्तत: वैदेही की आँखों से बह चली :
चतुर्दशसहस्राणि राक्षसानां जघान यः
जनस्थाने विना भ्रात्रा शत्रुः कस्तस्य नोद्विजेत्
न स शक्यस्तुलयितुं व्यसनैः पुरुषर्षभः
अहं तस्यानुभावज्ञा शक्रस्येव पुलोमजा
शरजालांशुमाञ्शूरः कपे रामदिवाकरः
शत्रुरक्षोमयं तोयमुपशोषं नयिष्यति
इति सञ्जल्पमानां तां रामार्थे शोककर्शिताम्
अश्रुसम्पूर्णवदनामुवाच हनुमान्कपिः
जनस्थान में बिना भाई की सहायता के ही उन्हों ने चौदह हजार राक्षसों का संहार कर डाला,उनसे कौन शत्रु नहीं काँपेगा ! वे पुरुषोत्तम हैं, सङ्कटों से विचलित हो जायें, हो नहीं सकता। जैसे पुलोमा इन्द्र के प्रभाव को जानती हैं, उसी प्रकार मैं भी उन (राम) के प्रभाव को जानती हूँ।
हे कपि! श्रीराम वह शूर दिवाकर हैं जो अपने बाणजाल रूपी किरणों से शत्रु राक्षस रूपी जलाशय के जल को सोख उसे सुखा देंगे। श्रीराम के के विषय में इस प्रकार बातें करती हुई शोकमग्ना देवी सीता का मुख बहते आँसुओं से भीग गया, उनसे कपि हनुमान कहने लगे :
श्रुत्वैव तु वचो मह्यं क्षिप्रमेष्यति राघवः
चमूं प्रकर्षन्महतीं हर्यृक्षगणसंकुलाम्
अथ वा मोचयिष्यामि तामद्यैव हि राक्षसात्
अस्माद्दुःखादुपारोह मम पृष्ठमनिन्दिते
त्वं हि पृष्ठगतां कृत्वा संतरिष्यामि सागरम्
शक्तिरस्ति हि मे वोढुं लङ्कामपि सरावणाम्
मुझसे आप का सन्देश सुनते ही राघव ऋक्ष एवं वानरों से भरी बड़ी विशाल सेना ले शीघ्र ही यहाँ आ जायेंगे।
अथवा अनिन्दिते ! मैं आज ही आप को इन राक्षसों से मुक्ति दिला देता हूँ। आप मेरी पीठ पर आरूढ़ हों। मैं आप को पीठ पर बिठा सागर पार कर जाऊँगा। मुझमें इतनी शक्ति है कि मैं लङ्का सहित रावण को भी ले जा सकता हूँ !
सान्त्वना देते कपि अपार आत्मविश्वास से भर उठे। रक्षसंस्कृति के विरुद्ध देव उपमाओं एवं रूपकों की झड़ी सी लग गई :
अहं प्रस्रवणस्थाय राघवायाद्य मैथिलि
प्रापयिष्यामि शक्राय हव्यं हुतमिवानलः
द्रक्ष्यस्यद्यैव वैदेहि राघवं सहलक्ष्मणम्
व्यवसाय समायुक्तं विष्णुं दैत्यवधे यथा
त्वद्दर्शनकृतोत्साहमाश्रमस्थं महाबलम्
पुरन्दरमिवासीनं नागराजस्य मूर्धनि
पृष्ठमारोह मे देवि मा विकाङ्क्षस्व शोभने
योगमन्विच्छ रामेण शशाङ्केनेव रोहिणी
कथयन्तीव चन्द्रेण सूर्येणेव सुवर्चला
मत्पृष्ठमधिरुह्य त्वं तराकाशमहार्णवम्
हे मैथिली ! मैं प्रस्रवणगिरि स्थित राघव हेतु आप को उन्हें आज उसी भाँति पहुँचा दूँगा जिस भाँति हविष्य को अग्नि इन्द्र हेतु ले जाते हैं।
हे वैदेही ! आप आज ही लक्ष्मण के साथ राघव को दैत्यवध हेतु उद्योगरत विष्णु की भाँति देखेंगी।
आप के दर्शन के उत्साह में महाबली राम आश्रम में उसी प्रकार स्थित हैं जिस प्रकार ऐरावत पर इन्द्र विराजमान होते हैं।
हे देवी ! मेरा आरोहण करें। शोभने ! मन को न रोकें, सोच विचार न करें। राम से मिलने के लिये वैसे ही इच्छा करें जैसे रोहिणी चन्द्रमा से एवं सुवर्चला सूर्य से मिलने हेतु करती हैं। मेरी पीठ पर आरूढ़ हो चन्द्र से बातें करते आकाशमार्ग से महासागर पार करें।
हविष्य, अग्नि, इन्द्र, विष्णु, ऐरावत, चन्द्र, रोहिणी, सुवर्चला, सूर्य – नियति के विधान से दु:खी देवी सीता के समक्ष हनुमान जी ने शुभ शुभ की ढेरी सी लगा दी !
देवी देवताओं की ही भाँति वाहन बना निज आरोहण का प्रकट आह्वान था तो ‘शोभने’ सम्बोधन में मानों सङ्केत भी था कि ऐसा करना अशोभन होगा, मैं तो प्रस्तुत हूँ !
न हि मे सम्प्रयातस्य त्वामितो नयतोऽङ्गने
अनुगन्तुं गतिं शक्ताः सर्वे लङ्कानिवासिनः
यथैवाहमिह प्राप्तस्तथैवाहमसंशयम्
यास्यामि पश्य वैदेहि त्वामुद्यम्य विहायसं
अङ्गने ! मैं आप को ले कर जब यहाँ से चलूँगा, उस समय समस्त लङ्कावासी मिल कर भी मेरा पीछा नहीं कर सकते।
वैदेही! जिस प्रकार मैं यहाँ आया हूँ, उसी प्रकार आप को ले कर चला जाऊँगा, इसमें संशय नहीं। आप मेरा उद्यम देखें।
‘अङ्गने’ शब्द का अर्थ सुंदरी सम्बोधन है किन्तु अङ्ग को रेखाङ्कित कर मानों कपि ने पुन: अपने प्रस्ताव का इतर पक्ष सङ्केतित किया कि उस स्थिति में अङ्गस्पर्श होगा, विचार लें !
मैथिली तु हरिश्रेष्ठाच्छ्रुत्वा वचनमद्भुतम्
हर्षविस्मितसर्वाङ्गी हनूमन्तमथाब्रवीत्
वानरश्रेष्ठ हनुमान के अद्भुत वचन सुन कर मैथिली के समस्त अङ्ग हर्ष एवं विस्मय पूरित हो गये। उन्हों ने हनुमन्त से इस प्रकार कहा :
हनूमन्दूरमध्वनं कथं मां वोढुमिच्छसि
तदेव खलु ते मन्ये कपित्वं हरियूथप
कथं वाल्पशरीरस्त्वं मामितो नेतुमिच्छसि
सकाशं मानवेन्द्रस्य भर्तुर्मे प्लवगर्षभ
हनुमान ! मुझे लिये हुये तुम इतनी दूर कैसे जा सकोगे? वानरश्रेष्ठ ! मुझे तो तुम्हारी यह बात वानरोचित चपलता ही प्रतीत होती है !
हे वानरोत्तम ! तुम इतनी लघु शरीर द्वारा यहाँ से मुझे मेरे पति मानवेन्द्र श्रीराम के समक्ष ले जाने की इच्छा कैसे करते हो?
अगले अङ्क में :
यह तो मेरा तिरस्कार हो गया ! ये मेरा बल प्रभाव नहीं जानतीं ! देखो मुझे !!
मेरुमन्दरसंकाशो बभौ दीप्तानलप्रभः । अग्रतो व्यवतस्थे च सीताया वानरर्षभः ॥
हरिः पर्वतसंकाशस्ताम्रवक्त्रो महाबलः । वज्रदंष्ट्रनखो भीमो वैदेहीमिदमब्रवीत् ॥
सपर्वतवनोद्देशां साट्टप्राकारतोरणाम् । लङ्कामिमां सनथां वा नयितुं शक्तिरस्ति मे ॥