Valmikiya Ramayan Sundarkand वाल्मीकीय रामायण सुन्दरकाण्ड भाग – 36 से आगे
सीताया वचनं श्रुत्वा हनुमान्मारुतात्मजः। चिन्तयामास लक्ष्मीवान्नवं परिभवं कृतम्॥
मारुति हनुमान ने सीता के वचन सुने तथा सोचने लगे कि यह तो मेरा नया तिरस्कार हो गया ! कवि ने उनके लिये लक्ष्मीवान् (लक्ष्मी – लक्ष्-इ मुट् च) संज्ञा का भी प्रयोग किया है क्यों कि वे सम्पदा से युक्त थे। सम्पदा क्या थी? उन्हें बल बुद्धि सम्पन्न कहा गया है तथा सीता को लक्ष्मी रूप। लक्ष्मी को लक्ष्मीवान् का मर्म नहीं ज्ञात – न मे जानाति सत्त्वं वा प्रभावं, जो ऐसी बातें करती हैं !
विचार करने के पश्चात कपि वृक्ष से नीचे कूद पड़े तथा देवी सीता देख कर प्रतीति कर लें, इस हेतु अपने को बढ़ाना आरम्भ किये – हे वैदेही! मेरा रूप देखें – पश्यतु वैदेही यद्रूपं मम कामतः ।
देवी सीता के समक्ष अग्नि की भाँति प्रदीप्त एवं मेरु मन्दर समान विशाल उत्तम वानर उपस्थित हो गया – मेरुमन्दरसङ्काशो बभौ दीप्तानलप्रभः।
पर्वत समान लगते, लाल मुख एवं वज्रमणि समान कठोर दाँतों एवं नखों वाले भीमाकार महाबली !
हरिः पर्वतसङ्काशस्ताम्रवक्त्रो महाबलः।
वज्रदंष्ट्रनखो भीमो वैदेहीमिदमब्रवीत् ॥
कपि ने देवी सीता से कहा,”वन, पर्वत, अट्टालिकाओं, प्राकार एवं तोरणों से युक्त समस्त लङ्का को उसके स्वामी सहित ले जाने में मैं समर्थ हूँ – सपर्वतवनोद्देशां साट्टप्राकारतोरणाम्।
लङ्कामिमां सनाथां वा नयितुं शक्तिरस्ति मे ॥
हे जनकपुत्री ! इतना तो पर्याप्त है? व्यर्थ की आशङ्का से मुक्त हो स्थिर मति हों तथा (मेरे साथ चल) लक्षमण सहित राघव राम को शोकमुक्त करें – तदवस्थाप्यतां बुद्धिरलं देवि विकाङ्क्षया।
विशोकं कुरु वैदेहि राघवं सहलक्ष्मणम् ॥”
उस विशाल रूप को कमलपत्र समान विशाल नेत्रों वाली जानकी ने देखा एवं उत्तर दिया :
तव सत्त्वं बलं चैव विजानामि महाकपे।
वायोरिव गतिं चैव तेजश्चाग्नेरिवाद्भुतम् ॥
प्राकृतोऽन्यः कथं चेमां भूमिमागन्तुमर्हति।
उदधेरप्रमेयस्य पारं वानरपुङ्गव ॥
जानामि गमने शक्तिं नयने चापि ते मम।
अवश्यं सम्प्रधार्याशु कार्यसिद्धिर्महात्मनः ॥
अयुक्तं तु कपिश्रेष्ठ मम गन्तुं त्वयाऽनघ।
वायुवेगसवेगस्य वेगो मां मोहयेत्तव ॥
अहमाकाशमापन्ना ह्युपर्युपरि सागरम्।
प्रपतेयं हि ते पृष्ठाद्भयाद्वेगेव गच्छतः ॥
हे महाकपि! मैं तुम्हारे बल एवं पराक्रम को जान गयी हूँ। तुम्हारी गति वायु के समान एवं तेज अग्नि के समान अद्भुत है। हे वानरश्रेष्ठ! क्या कोई साधारण जन अपरिमित सागर को पार कर इस भूमि पर आ पाता? मैं जानती हूँ कि तुममें दूर तक चलने की एवं मुझे ले जाने की शक्ति है किन्तु हे महात्मा! शीघ्रतापूर्वक कार्य की सिद्धि होने के सम्बन्ध में मुझे स्वयं भी सोच विचार लेना चाहिये। हे निष्पाप कपिश्रेष्ठ! मेरा तुम्हारे साथ चलना ठीक नहीं क्यों कि वायु के समान तुम्हारा तीव्र वेग जाते समय मुझे मूर्च्छित कर देगा। मैं समुद्र के ऊपर आकाश में पहुँच जाने पर अधिक वेग से चलते हुये तुम्हारी पीठ से नीचे गिर सकती हूँ।
महाकपि, वानरपुङ्गव, कपिश्रेष्ठ जैसे सम्बोधनों से सीता ने हनुमान का प्रबोधन किया, साथ ही अनघ अर्थात पापरहित कह कर यह इङ्गित भी कर दिया कि उन पर प्रत्येक दृष्टि से विश्वास भी है किन्तु अन्य समस्यायें भी तो थीं। जिसका उद्धार करना है, उसमें उद्धार विधि के साथ निर्वहन कर लेने की क्षमता तो हो! – तुम्हारी पीठ से गिर गयी तो मुझ विवश को समुद्र के प्राणी उत्तम आहार मान चट कर जायेंगे।
प्रिय से वियोग को बहुत दिन बीत गये थे, मानसिक सन्त्रास तो था ही, समर्थ शक्तिशाली उद्धारकर्त्ता समक्ष था किन्तु वैदेही ने धैर्य रख सभी पक्षों पर विचार किया। वाल्मीकि जी देवी सीता को मनस्विनी ऐसे ही नहीं कहते! सीता कहती चली गयीं।
हे शुत्रुविनाशन ! मैं तुम्हारे साथ नहीं चल सकूँगी। स्यात तुम भी एक स्त्री को ले जाते हुये सङ्कट में पड़ जाओगे, इसमें संशय नहीं है – कलत्रवति सन्देहस्त्वय्यपि स्यादसंशयः। [कलत्र शब्द का एक अर्थ स्त्री भी होता है, पत्नी किन्तु यहाँ इसका एक अन्य अर्थ अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है जो कि राजदुर्ग है। राजाओं हेतु वसुधा कलत्र मानी जाती थी, राजमहिषी उनकी श्री प्रतीक – वसुमत्या हि नृपाः कलत्रिणः। सीता सामान्य नारी नहीं थीं, रघु राजवंश की भावी महिषी थीं। रावण भी उन्हें सामान्य रीति से नहीं, छल से ही हर कर ले आ पाया था। उन्हें साथ ले जाने के विशेष सङ्कट थे क्यों कि ऐसी विशिष्ट अपहृत स्त्री की सुरक्षा हेतु अनेक व्यवस्थायें रही होंगी।]
तुम्हारे द्वारा मुझे ले जाया जाता देख दुरात्मा रावण के आदेश से अत्यन्त पराक्रमी राक्षस तुम्हारा पीछा करेंगे। वे विविध अस्त्रों से तुम पर आक्रमण करेंगे। तुम सङ्कट में पड़ जाओगे। वे बड़ी संख्या में आयुध सहित होंगे, तुम आकाश में निरायुध। ऐसे में तुम उनके साथ युद्ध एवं मेरी रक्षा, दोनों साथ साथ कैसे कर सकोगे? – सायुधा बहवो व्योम्नि राक्षसास्त्वं निरायुधः। कथं शक्ष्यसि संयातुं मां चैव परिरक्षितुम् ॥
कपिसत्तम ! उन क्रूरकर्माओं के साथ तुम्हारे युद्धरत रहते हुये मैं भयार्त हो कर तुम्हारी पीठ से अवश्य ही गिर जाऊँगी। या उन्हों ने तुम्हें पराजित कर दिया या उनसे युद्ध करते हुये तुम्हारा ध्यान मुझसे विमुख हुआ तथा मैं गिर कर उनके हाथ पकड़ गयी तो क्या होगा? या वे मुझे तुमसे छीन कर ले जा कर मेरे टुकड़े कर सकते हैं। युद्ध में जय एवं पराजय की स्थिति निश्चित नहीं होती – मां वा हरेयुस्त्वद्धस्ताद्विशसेयुरथापि वा। अव्यवस्थौ हि दृश्येते युद्धे जयपराजयौ ॥ या उनके द्वारा पकड़ी एवं डाँटी डपटी जाने से मारे भय के मेरे प्राण निकल गये तो तुम्हारा सारा प्रयत्न निष्फल ही हो जायेगा – त्वत्प्रयत्नो हरिश्रेष्ठ भवेन्निष्फल एव तु।
ऐसी बातों से पुन: कपि को निराशा न हो, इस हेतु सीता ने बात को श्रीराम की कीर्ति की दिशा में मोड़ दिया जो कि हनुमान हेतु सबसे प्रिय थी।
कामं त्वमपि पर्याप्तो निहन्तुं सर्वराक्षसान् । राघवस्य यशो हीयेत्त्वया शस्तैस्तु राक्षसैः ॥
यद्यपि तुम भी समस्त राक्षसों के वध हेतु पर्याप्त हो, तुम्हारे द्वारा राक्षसों के संहार करने से राघव राम का यश क्षीण होगा (लोग कहेंगे कि श्रीराम न कर सके!)।
अथ वादाय रक्षांसि न्यसेयुस्सम्वृते हि माम् । यत्र ते नाभिजानीयुर्हरयो नापि राघव:॥
आरम्भस्तु मदर्थोऽयं ततस्तव निरर्थकः । त्वया हि सह रामस्य महानागमने गुणः ॥
या राक्षस मुझे ले जा कर किसी ऐसे स्थान में छिपा देंगे जिसके बारे में न वानरों को ज्ञात होगा, न राघव राम को। यदि ऐसा हुआ तो मेरे लिये तुम्हारे द्वारा किया गया यह सारा उद्योग निरर्थक हो जायेगा। तुम्हारे साथ श्रीराम यहाँ आयें तो बड़ा लाभ होगा।
मयि जीवितमायत्तं राघवस्य महात्मनः । भ्रातॄणां च महाबाहो तव राजकुलस्य च ॥
तौ निराशौ मदर्थे तु शोकसंतापकर्शितौ । सह सर्वर्क्षहरिभिस्त्यक्ष्यतः प्राणसंग्रहम् ॥
हे महाबाहु ! महात्मा राम, उनके भाइयों, तुम्हारा एवं राजकुल का जीवन मुझ पर ही निर्भर है। मेरे कारण शोक संतप्त रहने वाले दोनों भाई निराश हो गये तो उनका जीवित बने रहना नहीं हो पायेगा, समस्त वानर भालू भी अपने प्राण गवाँ देंगे।
भर्तुर्भक्तिं पुरस्कृत्य रामादन्यस्य वानर । नाहं स्प्रष्टुं पदा गात्रमिच्छेयं वानरोत्तम ॥
यदहं गात्रसंस्पर्शं रावणस्य गता बलात् । अनीशा किं करिष्यामि विनाथा विवशा सती ॥
हे वानर ! मैं पतिव्रता हूँ, अपनी इच्छा से परपुरुष का स्पर्श मैं पाँव से (भी) न करूँ ! बलात अपहरण के कारण मुझे रावण के शरीर का स्पर्श हुआ। उस समय मैं सती असमर्थ थी, अनाथ एवं विवश थी, क्या करती?
यदि रामो दशग्रीवमिह हत्वा सराक्षसं । मामितो गृह्य गच्छेत तत्तस्य सदृशं भवेत् ॥
यदि राम यहाँ आ कर राक्षसों सहित दशग्रीव का वध कर मुझे यहाँ से ले चलें तो यह उनके योग्य कार्य होगा।
श्रुता हि दृष्टाश्च मया पराक्रमा; महात्मनस्तस्य रणावमर्दिनः ।
न देवगन्धर्वभुजंगराक्षसा; भवन्ति रामेण समा हि संयुगे ॥
समीक्ष्य तं संयति चित्रकार्मुकं; महाबलं वासवतुल्यविक्रमम् ।
सलक्ष्मणं को विषहेत राघवं; हुताशनं दीप्तमिवानिलेरितम् ॥
सलक्ष्मणं राघवमाजिमर्दनं; दिशागजं मत्तमिव व्यवस्थितम् ।
सहेत को वानरमुख्य संयुगे; युगान्तसूर्यप्रतिमं शरार्चिषम् ॥
स मे हरिश्रेष्ठ सलक्ष्मणं पतिं; सयूथपं क्षिप्रमिहोपपादय ।
चिराय रामं प्रति शोककर्शितां; कुरुष्व मां वानरमुख्य हर्षिताम् ॥
मैंने युद्ध में शत्रुओं का मर्दन करने वाले श्रीराम के पराक्रम अनेक बार देखे एवं सुने हैं। देवता, गन्धर्व, नाग एवं राक्षस सब मिल कर भी सङ्ग्राम में उनकी समानता नहीं कर सकते। युद्धस्थल में विचित्र धनुष धारण करने वाले इन्द्रतुल्य पराक्रमी महाबली राम लक्ष्मण के साथ रह वायु का आश्रय ले प्रज्ज्वलित अग्नि की भाँति उदीप्त हो उठते हैं। वानरश्रेष्ठ ! समराङ्गण में अपने बाणरूपी तेज से प्रलयकालीन सूर्य के समान प्रकाशित होने वाले एवं मत्त दिग्गज की भाँति खड़े रणमर्दन श्रीराम और लक्ष्मण का सामना कौन कर सकता है?
अत: हे हरिश्रेष्ठ ! तुम प्रयत्न कर के सैन्य सहित मेरे पति एवं लक्ष्मण को शीघ्र यहाँ ले आओ। मैं श्रीराम के लिये चिरकाल से शोकाकुल हो रही हूँ। मुझे हर्ष प्रदान करो !
(क्रमश:)