Valmikiya Ramayan वाल्मीकीय रामायण -38 से आगे
हे कपिश्रेष्ठ, उन्हें स्मृति दिलाना कि वह कौआ पुन: लौट आया तथा मेरे स्तनों के बीच सहसा पञ्जों से प्रहार किया, मैं उनकी गोद से नींद से जाग कर उठ गई तब भी बारम्बार प्रहार किया।
वायसस्सहसागम्य विददार स्तनान्तरे। पुनः पुनरथोत्पत्य विददार स मां भृशम् ॥
मेरी देह से निकली रक्त की बूँदें उन पर पड़ीं तथा सुख पूर्वक सोते हुये शत्रुविनाशी राम जाग गये । उन्हें बताना कि मेरे आहत स्तनों को देख कर वह क्रुद्ध हो गये थे एवं सर्प की भाँति फुफकारते हुये बोल पड़े थे – स मां दृष्ट्वा महाबाहुर्वितुन्नां स्तनयोस्तदा ॥ आशीविष इव क्रुद्धश्वसन्वाक्यमभाषत ।
केन ते नागनासोरु विक्षतं वै स्तनान्तरम् ॥ कः क्रीडति सरोषेण पञ्चवक्त्रेण भोगिना।
हे हाथी के सूँड़ के समान उरुओं वाली ! किसने तुम्हारे स्तनों को आहत किया है? कौन रोष से भरे पञ्चमुखी सर्प से खेल रहा है?
संयोग शृंगार का कोमल समय था, कामदेव को पुष्पधन्वा, पाँच पुष्पबाणों वाला कहा गया है। अपनी प्रिया के साथ ऐसा कृत्य देख कामभाव से भरे राघव रुष्ट पञ्चमुखी सर्प की भाँति फुफकार उठे थे।
देवी सीता हनुमान के माध्यम से श्रीराम को स्मृतिसंदेश देती चली गईं :
आप ने चारो ओर अपनी दृष्टि दौड़ाई एवं तीखे रक्त सने नखों के साथ मुझे देखता वह कौआ दिखा – नखैस्सरुधिरैस्तीक्ष्णैर्मामेवाभिमुखं स्थितम्। वह निश्चय ही इन्द्र का पुत्र था जो लम्बी दूरी पार कर वायु के समान तीव्र गति से वहाँ आ पहुँचा था :
पुत्त्रः किल स शक्रस्य वायसः पततां वरः ॥ धरान्तरगतश्शीघ्रं पवनस्य गतौ समः ।
तब आप ने क्रोध से अपने नेत्र घुमाते हुये उस कौवे के प्रति करणीय कर्म का निश्चय कर लिया – वायसे कृतवान्क्रूरां मतिं मतिमतां वरः। आप ने आसनी से एक दर्भ तृण लिया तथा उसे ब्रह्मास्त्र से अभिमन्त्रित कर छोड़ दिया। वह तृण कालाग्नि की ज्वाला के समान दीप्त हो कर उस कौवे की दिशा में बढ़ चला – स दीप्त इव कालाग्निर्जज्वालाभिमुखो द्विजम् । स तं प्रदीप्तं चिक्षेप दर्भं तं वायसं प्रति ॥
अनुसृष्टस्तदा काको जगाम विविधां गतिम् ॥ लोककाम इमं लोकं सर्वं वै विचचार ह।
स पित्रा च परित्यक्तस्सुरैश्च समहर्षिभिः ॥ त्रीन्लोकान्सम्परिक्रम्य तमेव शरणं गतः।
उससे बचने को भागते हुये वह कौआ संसार भर में अनेक स्थानों पर गया, तीनों लोक घूमा, अपने पिता, देवताओं एवं महर्षियों द्वारा परित्यक्त हो जाने के पश्चात आप की शरण में आ गया। हे काकुत्स्थ ! आप ने भूमि पर गिर कर शरणागत हुये उस कौवे को कृपा करते हुये बचा लिया यद्यपि वह वध के योग्य था।
स तं निपतितं भूमौ शरण्यश्शरणागतम् ॥ वधार्हमपि काकुत्स्थ: कृपया पर्यपालयत्।
आप ने उससे कहा कि ब्रह्मास्त्र व्यर्थ नहीं जा सकता, तुम बताओ क्या करें? उस कौवे ने अपनी दाहिनी आँख नष्ट करने को कहा तथा अपने प्राण बचाये :
मोघं कर्तुं न शक्यं तु ब्राह्ममस्त्रं तदुच्यताम् । हिनस्तु दक्षिणाक्षि त्वच्छर इत्यथ सोऽब्रवीत् ॥
ततस्तस्याक्षि काकस्य हिनस्ति स्म स दक्षिणम् । दत्त्वा स दक्षिणं नेत्रं प्राणेभ्यः परिरक्षितः ॥
मत्कृते काकमात्रे तु ब्रह्मास्त्रं समुदीरितम्। कस्माद्यो मां हरेत्त्वत्तः क्षमसे तं महीपते॥
स कुरुष्व महोत्साहः कृपां मयि नरर्षभ। त्वया नाथवती नाथ ह्यनाथा इव दृश्यते ॥
हे महीपति ! मेरे लिये आप ने एक कौवे मात्र पर ब्रह्मास्त्र चला दिया था, अब ऐसा क्या है जो आप उसे क्षमा कर रहे हैं जिसने मेरा अपहरण कर लिया है? हे नरश्रेष्ठ ! आप मेरे प्रति बहुत प्रेमिल हैं, मुझ पर कृपा करें। जिसने आप में अपने नाथ को पा लिया, वह (सीता) अनाथ सी हो गयी है !
आनृशंस्यं परो धर्मस्तवत्त्त ऐव मया श्रुतः। जानामि त्वां महावीर्यं महोत्साहं महाबलम् ॥
अपारपारमक्षोभ्यं गाम्भीर्यात्सागरोपमम्। भर्तारं ससमुद्राया धरण्या वासवोपमम् ॥
एवमस्त्रविदां श्रेष्ठस्सत्यवान्बलवानपि। किमर्थमस्त्रं रक्षस्सु न योजयसि राघव ॥
दया करना सबसे बड़ा धर्म है, यह मैंने आप से ही सुना है। मैं आप को अच्छे से जानती हूँ। आप का बल, पराक्रम एवं उत्साह महान हैं। आप अपार हैं, असीम हैं, गाम्भीर्य में सागर के तुल्य हैं। आप समुद्रपर्यन्त धरती के स्वामी हैं, इन्द्र के समान तेजस्वी हैं एवं अस्त्रविदों में श्रेष्ठ, सत्यवान एवं बलवान भी हैं। हे राघव ! क्या कारण है कि आप राक्षसों पर अस्त्र प्रयोग नहीं करते?
स्मृतिसंदेश देते देते देवी सीता अपने प्रिय से मानों एकात्म हो गई थीं। पुन: हनुमान को सम्बोधित करते हुये बोलीं :
न नागा नाऽपि गन्धर्वा नासुरा न मरुद्गणाः। रामस्य समरे वेगं शक्ताः प्रतिसमाधितुं ॥
तस्य वीर्यवतः कश्चिद्यद्यस्ति मयि सम्भ्रमः। किमर्थं न शरैस्तीक्ष्णै: क्षयं नयति राक्षसान् ॥
भ्रातुरादेशमादाय लक्ष्मणो वा परन्तपः। कस्य हेतोर्न मां वीरः परित्राति महाबलः ॥
यदि तौ पुरुषव्याघ्रौ वाय्वग्निसमतेजसौ। सुराणामपि दुर्धर्षौ किमर्थं मामुपेक्षतः ॥
ममैव दुष्कृतं किञ्चिन्महदस्ति न संशयः। समर्थावपि तौ यन्मां नावेक्षेते परन्तपौ ॥
न नाग, न गंधर्व, न देवता, न मरुद्गण; कोई भी समराङ्गण में श्रीराम का वेग नहीं सह सकते, न ही प्रतिप्रहार कर सकते हैं। क्या उन परमपराक्रमी राम के मन में मुझे ले कर थोड़ी भी व्याकुलता है? यदि है तो वे अपने तीखे सायकों से राक्षसों का संहार क्यों नहीं कर डालते? अथवा शत्रुओं को संतप्त करने वाले महावीर लक्ष्मण ही अपने भ्राता की आज्ञा ले कर मेरा उद्धार क्यों नहीं करते हैं? वे दोनों पुरुषव्याघ्र वायु एवं इन्द्र के समान तेजस्वी हैं। यदि वे देवताओं के लिये भी दुर्जेय हैं तो किस कारण मेरी उपेक्षा करते हैं? प्रतीत होता है कि मुझ से ही कोई महान दुष्कृत्य हो गया है, इसमें संशय नहीं, जिससे कि वे दोनों शत्रुसन्तापी वीर समर्थ होते हुये भी मेरी सुध नहीं ले रहे !
वैदेह्या वचनं श्रुत्वा करुणं साश्रुभाषितम्। अथाब्रवीन्महातेजा हनुमान्मारुतात्मजः ॥
वैदेही के अश्रुपूर्ण करुण वचन सुन कर महातेजस्वी मारुति हनुमान इस प्रकार बोले :
त्वच्छोकविमुखो रामो देवि सत्येन ते शपे। रामे दुःखाभिपन्ने च लक्ष्मणः परितप्यते ॥
कथञ्चिद्भवती दृष्टा न कालः परिदेवितुम्। इमं मुहूर्तं दुःखानां द्रक्ष्यस्यन्तमनिन्दिते ॥
तावुभौ पुरुषव्याघ्रौ राजपुत्रौ महाबलौ। त्वद्दर्शनकृतोत्साहौ लङ्कां भस्मीकरिष्यतः ॥
हत्त्वा च समरे क्रूरं रावणं सहबान्धवम्। राघवस्त्वां विशालाक्षि नेष्यति स्वां पुरीं प्रति॥
ब्रूहि यद्राघवो वाच्यो लक्ष्मणश्च महाबलः। सुग्रीवो वापि तेजस्वी हरयोऽपि समागताः ॥
हे देवी ! मैं सत्य की शपथ ले कर कहता हूँ कि श्रीराम आप के शोक में (अन्य कार्यों से) विमुख हो गये हैं। श्रीराम के दु:खी रहने से लक्ष्मण भी परितप्त रहते हैं। किसी प्रकार से ही मैं आप को देख पाया, यह समय दु:ख प्रकट करने का नहीं है। हे अनिन्दिता ! इस मुहूर्त ही आप अपने दु:खों का अन्त होते देखेंगी। आप के दर्शन हेतु मन से उत्साहित वे दोनों पुरुषव्याघ्र महाबली राजपूत लङ्का को भस्म कर डालेंगे एवं हे विशालाक्षी, समर में क्रूर रावण को उसके बंधुओं सहित मार कर राघव आप को अपनी पुरी ले जायेंगे।
अब राघव, महाबली लक्ष्मण, तेजस्वी सुग्रीव एवं एकत्र हुये वानरों के प्रति आप को जो कुछ कहना हो, वह कहिये।
ऐसा सुन कर शोकसंतप्त सुरसुतोपमा सीता ने प्लवङ्ग हनुमान से कहा :
कौसल्या लोकभर्तारं सुषुवे यं मनस्विनी । तं ममार्थे सुखं पृच्छ शिरसा चाभिवादय ॥
मनस्विनी कौसल्या ने जिन्हें जन्म दिया है तथा जो सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं, उनका मेरी ओर से मस्तक झुका कर अभिवादन करना एवं कुशल पूछना।
भारतीय विवाहिता नारी का देवर से विशेष जुड़ाव होता है। बहुत बार जो बातें पति से नहीं कही जातीं, देवर के माध्यम से बता दी जाती हैं। उस विषम स्थिति में संदेश देती देवी सीता को देवर लक्ष्मण की स्मृति घनी हो आई, ऐसे लक्ष्मण जिनका समर्पण एक आदर्श था। उन्हें संदेश देती देवी सीता ने मानों अपने समस्त भाव उड़ेल दिये :
स्रजश्च सर्वरत्नानि प्रिया याश्च वराङ्गनाः । ऐश्वर्यं च विशालायां पृथिव्यामपि दुर्लभम् ॥
पितरं मातरं चैव संमान्याभिप्रसाद्य च । अनुप्रव्रजितो रामं सुमित्रा येन सुप्रजाः ॥
आनुकूल्येन धर्मात्मा त्यक्त्वा सुखमनुत्तमम् । अनुगच्छति काकुत्स्थं भ्रातरं पालयन्वने ॥
सिंहस्कन्धो महाबाहुर्मनस्वी प्रियदर्शनः । पितृवद्वर्तते रामे मातृवन्मां समाचरन् ॥
ह्रियमाणां तदा वीरो न तु मां वेद लक्ष्मणः । वृद्धोपसेवी लक्ष्मीवाञ्शक्तो न बहुभाषिता ॥
राजपुत्रः प्रियश्रेष्ठः सदृशः श्वशुरस्य मे । मत्तः प्रियतरो नित्यं भ्राता रामस्य लक्ष्मणः ॥
नियुक्तो धुरि यस्यां तु तामुद्वहति वीर्यवान् । यं दृष्ट्वा राघवो नैव वृद्धमार्यमनुस्मरत् ॥
स ममार्थाय कुशलं वक्तव्यो वचनान्मम । मृदुर्नित्यं शुचिर्दक्षः प्रियो रामस्य लक्ष्मणः ॥
तत्पश्चात विशाल भूमण्डल में भी जिसका मिलना कठिन है, ऐसे उत्तम ऐश्वर्य का, भाँति भाँति के हारों, सब प्रकार के रत्नों तथा मनोहर सुंदरी स्त्रियों का भी परित्याग कर माता पिता को सम्मानित एवं सहमत कर जो श्रीराम के साथ वन में चले आये, जिनके कारण सुमित्रा देवी उत्तम संतान वाली कही जाती हैं, जिनका चित्त सदा धर्म में लगा रहता है, जो सर्वोत्तम सुख को त्याग कर वन में अपने भाई काकुत्स्थ श्रीराम की रक्षा करते हुये सदा उनके अनुकूल चलते हैं, जिनके कन्धे सिंह के समान और जो महाबाहू हैं, जो देखने में प्रिय लगते हैं तथा मनस्वी हैं, जिनका श्रीराम के प्रति पिता के समान एवं मेरे प्रति माता के समान आचरण बना रहता है, जिन वीर लक्ष्मण को उस समय मेरे हरण की बात नहीं ज्ञात हो सकी थी, जो बड़े बूढ़ों की सेवा में संलग्न रहने वाले, श्रीमान, शक्तिमान तथा अल्पभाषी हैं, आर्यपुत्र के प्रिय व्यक्तियों में जिनका सबसे ऊँचा स्थान है, जो मेरे श्वसुर के सदृश पराक्रमी हैं तथा राम का जिन भाई लक्ष्मण के प्रति सदा मुझसे भी अधिक प्रेम रहता है, जो पराक्रमी वीर अपने ऊपर डाले गये कार्यभार का बड़ी योग्यता के साथ वहन करते हैं तथा जिन्हें देख कर राघव अपने मृत पिता का भी स्मरण नहीं करते (अर्थात जो पिता के समान श्रीराम के पालन में दत्तचित्त रहते हैं); जो नित्य कोमल, पवित्र, दक्ष तथा श्रीराम के प्रिय लक्ष्मण हैं उन से भी तुम मेरी ओर से कुशल पूछना।
राजा दशरथ की स्मृति एवं रक्षण के भाव को बता कर देवी सीता ने दिवङ्गत श्वसुर के कर्तव्य का भी मानों देवर लक्ष्मण पर आरोपण कर दिया कि वे रहते तो क्या मेरे अपहरण पर ऐसे चुप बैठते ?
कुशल संदेश देने के पश्चात देवी सीता ने हनुमान से कहा कि अधिक क्या कहूँ? जिस प्रकार यह कार्य सिद्ध हो सके, वही उपाय तुम्हें करना चाहिये। इस विषय में तुम्हीं प्रमाण हो, इसका सारा भार तुम्हारे ऊपर है।
इदं ब्रूयाश्च मे नाथं शूरं रामं पुनः पुनः । जीवितं धारयिष्यामि मासं दशरथात्मज ॥
ऊर्ध्वं मासान्न जीवेयं सत्येनाहं ब्रवीमि ते । रावणेनोपरुद्धां मां निकृत्या पापकर्मणा ॥
त्रातुमर्हसि वीर त्वं पातालादिव कौशिकीम् ।
तुम मेरे नाथ शूरवीर राम से बारम्बार कहना कि हे दशरथनन्दन ! मेरे जीवन का बस महीना भर बचा है, सत्य कहती हूँ कि उससे आगे मैं जीवित नहीं रहूँगी। हे वीर, मेरा त्राण वैसे ही करें जैसे कभी पाताल से इन्द्र की लक्ष्मी का किया था।
ततो वस्त्रगतं मुक्त्वा दिव्यं चूडामणिं शुभम् ॥
प्रदेयो राघवायेति सीता हनुमते ददौ । प्रतिगृह्य ततो वीरो मणिरत्नमनुत्तमम् ॥
अङ्गुल्या योजयामास न ह्यस्या प्राभवद्भुजः । मणिरत्नं कपिवरः प्रतिगृह्याभिवाद्य च ॥
सीतां प्रदक्षिणं कृत्वा प्रणतः पार्श्वतः स्थितः ।
ऐसा कह कर देवी सीता ने वस्त्र में बँधी हुई सुन्दर दिव्य चूड़ामणि को निकाला और ‘इसे राघव को दे देना’ ऐसा कह कर हनुमान को दे दिया। उस मणिरत्न को लेकर कपिश्रेष्ठ हनुमान ने उसे अपनी अङ्गुली में डाल लिया क्यों कि वह उनकी भुजा में नहीं समा रही थी।
वह मणिरत्न ले कर कपिवर हनुमान ने सीता जी को प्रणाम किया तथा उनकी प्रदक्षिणा कर विनीत भाव से उनके पार्श्व में खड़े हो गये।
हर्षेण महता युक्तः सीतादर्शनजेन सः ॥ हृदयेन गतो रामं शरीरेण तु विष्ठितः ।
सीतादर्शन से उन्हें महान हर्ष प्राप्त हुआ था। हनुमान का शरीर तो वहीं था किन्तु हृदय से वह श्रीराम के पास पहुँच गये थे।
कैसी अनुभूति रही होगी जो शरीर से परे हो उन्हों ने स्वयं के भीतर श्रीराम एवं सीता को उस मार्मिक क्षण में मिला दिया !
मणिवरमुपगृह्य तं महार्हं जनकनृपात्मजया धृतं प्रभावात्।
गिरिरिव पवनावधूतमुक्तः सुखितमनाः प्रतिसङ्क्रमं प्रपेदे ॥
जनक राजतनया ने जिसे छिपा कर धारण कर रखा था, उस बहुमूल्य श्रेष्ठ मणि को लेकर हनुमान मन ही मन उस पुरुष की भाँति सुखी एवं प्रसन्न हुये, जो किसी श्रेष्ठ पर्वत के ऊपरी भाग से उठते हुये चपल पवन के वेग से कम्पित हो कर पुन: उसके प्रभाव से मुक्त हो गया हो। वह वहाँ से लौटने को उद्यत हो गये।
…
पवन के समान गति से इन्द्रपुत्र आया था, उसको दिये दण्ड का स्मृतिसंदेश देवी सीता ने पवनपुत्र हनुमान को सुनाया जो कि उनका चिह्न पाने तक किसी चपल पवन के चपेट में थे। आदिकवि द्वारा इस गोपन प्रसङ्ग में सुंदर अभिव्यञ्जना की गयी है।
(क्रमश:)
जय श्री राम!