Vedic Aesthetics वैदिक साहित्य शृंगार 1, 2, 3, 4 से आगे
यथायं वाहो अश्विना समैति सं च वर्तते ।
एवा मामभि ते मनः समैतु सं च वर्तताम् ॥१॥
आहं खिदामि ते मनो राजाश्वः पृष्ट्यामिव ।
रेष्मछिन्नं यथा तृणं मयि ते वेष्टतां मनः ॥२॥
आञ्जनस्य मदुघस्य कुष्ठस्य नलदस्य च ।
तुरो भगस्य हस्ताभ्यामनुरोधनमुद्भरे ॥३॥
[अथर्व वेद, प्रथम खण्ड, काण्ड ६, अध्याय १०, सूक्त १०२]
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हे अश्विगणों! प्रार्थना सुनो!
जिस भांति प्रशिक्षित अश्वों का,
चालन आरोही मनभाया।
वैसे ही मेरी ओर झुकी,
मम अनुगत हो मेरी जाया॥१॥
हे नारि! मेरा आकर्षण गुन!
जिस भाँति अश्व के चर्म-अभिषु,
खोल कर काष्ठ के खूँटे से।
अश्वारोही एक बली अश्व,
आरोहण को बलात् खींचे।।
प्रभञ्जन प्रबल के वश में
उत्पाटित तृण अविराम भ्रमे।
बस उसी भाँति तेरा भी मन,
मेरे मन में ही नित्य रमे॥२॥
अनुरोधन स्नेह सहित करके
त्रिककृत शिखर से समुद्भूत
अपने हाथों तेरे भग पर
नीलाञ्जन, कूट, खस और मधूक।
तेरा रतिजन्य खेद हर दूँ!
आ! तनिक तुझे उबटन कर दूँ!!॥३॥