पुराणों की सबसे बड़ी विशेषता उनका लोकोन्मुख होना है। उनमें समाज के प्रत्येक वर्ग एवं प्रत्येक अभिरुचि वाले व्यक्ति के कल्याण हेतु विविध मार्ग बताये गये हैं।
पढ़ते समय सहज ही इस विशेषता पर ध्यान जाता है कि पुराणकारों की दृष्टि से कुछ बचा नहीं तथा भारत में ऐसी जीवन्त परम्परा शताब्दियों तक प्रवाहमान रही। विश्व में स्यात ही कोई ऐसा उदाहरण अन्यत्र मिले !
पुराणकार सहज हो कर सत्य को स्वीकार करते हैं तथा उसका सामना भी। दृष्टि समाधान पर रहती है, समस्या के हल पर एवं दिक्काल समायोजन पर भी। उनका भारत वह भारत है जो भीतर के समस्त उपद्रवों एवं बाहर से होने वाले समस्त आक्रमणों पर चलता हुआ मार्ग बनाता है। हरि वासुदेव से ओतप्रोत पुराणकारों के शब्दकोश में किंकर्तव्यविमूढ़ता नहीं है। पुराण आस्थावान मनुष्य के विजय ग्रंथ हैं, आश्चर्य नहीं कि इन्हें भी ‘जय’ कहा गया।
पुराणों को पढ़ते हुये सावधानी भी आवश्यक है। जिन इक्ष्वाकुओं का सम्बन्ध इक्षु अर्थात ईंख की मूल धरती से है, (Vishnu Puran विष्णुपुराण में) उन्हें मनु की छींक से उत्पन्न बताया गया है :
क्षुतवतश्च मनोरिक्ष्वाकुः पुत्रो जज्ञे घ्राणतः ॥ ४,२.११ ॥
विष्णुपुराण पराशर द्वारा मैत्रेय को प्रोक्त है। अन्त:साक्ष्यों से ही इसके कृष्ण द्वैपायन व्यास प्रणीत सूत लोमहर्षण प्रोक्त पुराण परम्परा से भिन्न होना प्रमाणित होता है जिसमें कि व्यास के पिता पराशर ही पुराण रचयिता बताये गये हैं। कतिपय पाण्डुलिपियों में प्रथम श्लोक के पूर्व मात्र एक बार सूत उवाच एवं जय धारा का श्लोक ‘नारायणं नमस्कृत्य … ‘ मिलता है जो कि अनावश्यक है क्योंकि पहला श्लोक स्वयं ही मैत्रेय द्वारा पराशर से प्रश्न है। यह इस पुराण को व्यास परम्परा से जोड़ने का प्रयत्न मात्र है जो कि अधिकांश पांडुलिपियों में मिलता ही नहीं है। पूरे ग्रंथ में कहीं भी सूत लोमहर्षण का वाचक या श्रोता रूप में नाम तक नहीं आया है।
पराशर द्वारा अपने पुत्र व्यास के भी यत्र तत्र उल्लेख एवं उनसे जुड़े बताये गये प्रकरण मिलते हैं जिनके बारे में अनेक सम्भावनायें हो सकती हैं। अन्य अनेक पुराणों की तुलना में यह पुराण अधिक सुगठित है । पुराणकारों द्वारा अट्ठारह की रूढ़ संख्या निश्चित करने में यह अनदेखा किया गया है कि श्रीमद्भागवत के नाम से दो पुराण (वैष्णव एवं देवी या शाक्त) मिलते हैं तथा कतिपय सूचियों में वायु एवं शिव में से एक ही लिये गये हैं। सम्भव है कि यह पुराण वैष्णव श्रीमद्भागवत के स्थान पर रहा हो तथा वैष्णवों ने वैष्णव श्रीमद्भागवत को प्रविष्ट कराते हुये देवी भागवत को सूची से बाहर कर दिया हो तथा क्षतिपूर्ति के रूप में देवी की महिमा रख दी गयी हो। ध्यान देने योग्य है कि शाक्त, तन्त्रादि सम्प्रदायों में गोपन तो है ही, लोक में उतना प्रचलन भी नहीं है तथा उनसे सामान्य विरक्ति के भी दर्शन होते हैं।
मैत्रेय की पृच्छा के उत्तर में पराशर अपने पितामह वसिष्ठ से जुड़ा प्रकरण बताते हैं जिसमें कि विश्वामित्र की प्रेरणा से पराशर के पिता को राक्षस द्वारा खा लिया जाना, प्रतिशोध में पराशर द्वारा राक्षसों के संहार हेतु यज्ञ आयोजन एवं वसिष्ठ द्वारा यज्ञ को रोका जाना उल्लिखित हैं। जनमेजय के नाग यज्ञ की प्रतिध्वनि यहाँ दिखती है।
अचानक ही ब्रह्मा के पुत्र एवं पुलह के बड़े भाई पुलस्त्य वहाँ पधारते हैं। पुलस्त्य पराशर को अयाचित वरदान देते हैं कि तुमने वैरभाव रहते हुये भी बड़े बूढ़े वसिष्ठ की बात मानी है अत: समस्त शास्त्रों के ज्ञाता होगे – भवाञ्च्छास्त्राणि वेत्स्यति। आगे कहते हैं कि तुमने क्रुद्ध होते हुये भी मेरी सन्तान (राक्षस कुल) का उच्छेद नहीं किया अत: मैं तुम्हें महा वरदान देता हूँ कि तुम पुराणसंहिता के कर्ता होगे तथा देवताओं के परम अर्थ को जान जाओगे:
सन्ततेर्न ममोच्छेद: क्रुद्धेनापि यत: कृत: । त्वया तस्मान्महाभाग ददाम्यन्यं महावरम् ॥ १,१.२५ ॥
पुराणसंहिताकर्ता भवान्वत्स भविष्यति । देवतापारमार्थ्यं च यथावद्वेत्स्यते भवान् ॥ १,१.२६ ॥
उनके इस वरदान का वसिष्ठ अनुमोदन करते हुये कहते हैं कि ऐसा ही होगा – पुलस्त्येन यदुक्तं ते सर्वमेतद्भविष्यति ।
राक्षस रावण का कुल पुलस्त्य का था जिसे पौलस्त्य भी कहा जाता है। पुलस्त्य उसके पितामह थे, जब कि वसिष्ठ श्रीराम के कुलगुरु। भिन्न धारा एवं उसके मुख्य धारा से समायोजन का प्रयास स्पष्ट है।
अपने वर्तमान रूप में यह पुराण अपेक्षतया नवीन प्रतीत होता है जब विष्णु के साथ साथ जनार्दन एवं श्रीकृष्ण आराधना पद्धतियाँ एक हो चुकी थीं । श्रीकृष्ण का अवतार रूप रूढ़ हो चुका था। अब तक के पढ़े पुराणों में यह पहला है जिसमें ‘परशुराम’ संज्ञा का प्रयोग सामग्री में हुआ है, न कि केवल उवाच के साथ (1) । इस पुराण में राधा का उल्लेख नहीं हैं किन्तु रास का वर्णन है तथा एक अंश ऐसा भी है जो आगे राधा के गढ़न की प्रेरणा रहा होगा (2)। अत: यह पुराण उस कालखण्ड में अपना रूप प्राप्त कर चुका था जब परशुराम संज्ञा प्रचलित हो गयी थी, वासुदेव श्रीकृष्ण का विष्णु अवतार होना पूर्णत: स्थापित हो चुका था (3) तथा राधा से सम्बंधित सम्प्रदाय अभी भविष्य के गर्भ में थे।
विष्णोः सकाशादुद्भूतं जगत्तत्रैव च स्थितम् ।
स्थितिसंयमकर्ताऽसौ जगतोऽस्य जगच्च सः ॥ १,१.३१ ॥
इसके आरम्भ को पराशर पद्मयोनि ब्रह्मा द्वारा दक्षादि ऋषियों को सुनाया गया बताते हैं । नर्मदा तट पर दक्षादि ऋषियों ने राजा पुरुकुत्स को, पुरुकुत्स ने सारस्वत को तथा सारस्वत ने पराशर से उसे सुनाया । नर्मदा तट के कारण सम्भव है कि यह मार्कण्डेय पुराण से मिलती जुलती धारा का हो।
कल्प के आरम्भ नारायणात्मक भगवान् ब्रह्मा प्रजा की सृष्टि करते हैं। इस पुराण में दुहराया गया है कि नर से उत्पन्न होने के कारण जल नार कहलाता है तथा पूर्व में नार में ही अयन करने के कारण भगवान नारायण कहे गये हैं । पहले के कल्पों में मत्स्य एवं कूर्म की भाँति ही इस कल्प में नारायण द्वारा पृथ्वी के उद्धार हेतु वाराह रूप धारण करना उल्लिखित है –
मत्स्यकूर्मादिकां तद्वद्वाराहं वपुरास्थितः ॥ १,४.८ ॥
वेदयज्ञमयं रूपमशेषजगतः स्थितौ ।
पृथ्वी द्वारा की गयी स्तुति में वासुदेव (नारायण) के रूपों को अवतार बताया गया है जिनकी देवता आराधना करते हैं:
भवतो यत्परं तत्त्वं तन्न जानाति कश्चन । अवतारेषु यद्रूपं तदर्चन्ति दिवौकसः ॥ १,४.१७ ॥
त्वामाराध्य परं ब्रह्म याता मुक्तिं मुमुक्षवः । वासुदेवमनाराध्य को मोक्षं समवाप्स्यति ॥ १,४.१८ ॥
एक रोचक प्रकरण यक्षों एवं राक्षसों से सम्बंधित है जिसमें कि ब्रह्मा द्वारा क्षुधाग्रस्त सृष्टि की रचना से दाढ़ी मूँछ वाले कुरुप जन की उत्पत्ति का उल्लेख है। वे ब्रह्मा की दिशा में दौड़े। जो उन्हें खाने के लिये दौड़े, वे यक्ष एवं जो ऐसा न करो, इनकी रक्षा करो, ऐसा कहते हुये रक्षा करने को दौड़े, वे राक्षस कहलाये ।
क्षुत्क्षामानन्धकारेथ सोसृजद्भगवांस्ततः । वुरूपाः श्मश्रुला जातास्तेभ्यधावं स्ततः प्रभुम् ॥ १,५.४२ ॥
मैवं भो रक्ष्यतामेष यैरुक्तं राक्षसास्तु ते । ऊचुः खादाम इत्यन्ये ये ते यक्षास्तु जक्षणात् ॥ १,५.४३ ॥
राक्षसों के प्रति सहानुभूति का यह दूसरा उदाहरण है। बढ़ती जनसंख्या के कारण एक ही वर्ग में दो भिन्न प्रवृत्तियों एवं कर्म वाले समूहों का जाना यहाँ संकेतित है जिसका सम्बन्ध प्राकृतिक आहार संसाधनों से हो सकता है। प्रजापति संज्ञा पीछे के श्लोक में आई भी है, प्रजा का पोषण प्रजापति का काम है।
सृज्य शक्ति की प्रेरणा से भगवान ब्रह्मा द्वारा पुन: पुन: कल्प आरम्भ में सृष्टि की रचना करने का उल्लेख शाक्त प्रभाव दर्शाता है :
करोत्येवंविधां सृष्टिं कल्पादौ स पुनः पुनः । सिसृक्षाशक्तियुक्तोसौ सृज्यशक्तिप्रचोदितः ॥ १,५.६६ ॥
इस पुराण में ब्रह्मा अपने स्वाभाविक सर्जक रूप में वर्णित हैं। लक्ष्मी से सम्बंधित पृच्छा में पराशर का उत्तर मानों समस्त देवताओं एवं देवियों को विष्णु लक्ष्मीमय कर देता है :
देवतिर्यङ्मनुष्यादौ पुन्नामा भगवान्हरिः । स्त्रीनाम्नी श्रीश्च विज्ञेया नानयोर्विद्यते परम् ॥ १,८.३५ ॥
समुद्र मंथन प्रकरण में विष्णु कूर्म रूप धारण कर मन्दराचल को धारण करते हैं तथा अन्य रूप से देव दैत्यों के साथ मन्थन भी। एक अन्य अदृश्य रूप धारण कर पर्वत को ऊपर से दबाये भी रहते हैं :
क्षीरो दमध्ये भगवान्कूर्मरूपी स्वयं हरिः । मन्थनाद्रेरधिष्ठानं भ्रमतोऽभून्महामुने ॥ १,९.८८ ॥
रूपेणान्येन देवानां मध्ये चक्रगदाधरः ।चकर्ष नाग राजानं दैत्यमध्येऽपरेण च ॥ १,९.८९ ॥
उपर्याक्रान्तवाञ्च्छैलं बृहद्रूपेण केशवः । तथापरेण मैत्रेय यन्न दृष्टं सुरासुरैः ॥ १,९.९० ॥
विष्णु का स्त्री रूप भी उल्लखित है – मायया मोहयित्वा तान्विष्णुः स्त्रीरूपसंस्थितः ।
श्री लक्ष्मी की बृहद स्तुति के पश्चात पुराणकार एक महत्त्वपूर्ण संकेत देते हैं :
एवं यदा जगत्स्वामी देवदेवो जनार्दनः । अवतारं करोत्येषा तदा श्रीस्तत्महायिनि ॥ १,९.१४२ ॥
पुनश्च पद्मादुत्पन्ना आदित्योभूद्यदा हरिः । यदा तु भार्गवो रामस्तदाभूद्धरणी त्वियम् ॥ १,९.१४३ ॥
राघवत्वेऽभवत्सीता रुक्मिणी कृष्णजन्मनि । अन्येषु चावतारेषु विष्णोरेषानपायिनि ॥ १,९.१४४ ॥
देवत्वे देवदेहेयं मनुष्यत्वे च मानुषी । विष्णोर्देहानुरूपां वै करोत्येषात्मनस्तनुम् ॥ १,९.१४५ ॥
यहाँ विष्णु के विविध अवतारों के समय उनके साथ लक्ष्मी के भी अवतार बताये गये हैं। जिन तीन नामों को बताया गया है, वे हैं – भार्गव राम (धरणी अर्थात धरती), राघव (सीता) एवं कृष्ण (रुक्मिणी) । भार्गव राम संज्ञा का प्रयोग उस समय का अवशेष है जब परशुराम संज्ञा प्रचलित नहीं हुई थी अर्थात यह अंश पुराना है। भार्गव राम के साथ लक्ष्मी रूपी धरती की बात महत्त्वपूर्ण है जो कि क्षत्रिय भूपालों के साथ भार्गवों के चले लम्बे सङ्घर्ष का कारण वस्तुत: भौमिक प्रसार सिद्ध करती है, न कि किसी प्रतिशोध को।
ऋषि जमदग्नि की हत्या के कारण भार्गव राम द्वारा सहस्रार्जुन वध की पुरानी घटना में पुराणकारों ने भौमिक संघर्षों को जोड़ ब्राह्मण-क्षत्रिय, दो प्रतिद्वंद्वी वर्णों के सङ्घर्ष का विरूप गढ़ दिया जिसका उद्देश्य सङ्घर्ष को पौराणिक रूप दे भार्गव श्रेष्ठता का प्रतिपादन भी था, विकृतियों पर पहले लिखा जा चुका है। यह शोध रोचक होगा कि भार्गव राम का चिरञ्जीवी होना कब प्रचलित हुआ क्यों कि सहस्रार्जुन के पश्चात इक्कीस बार सम्पूर्ण धरा से समस्त क्षत्रियों के समूल नाश के गल्प को यह परिकल्पना ही आधार प्रदान करती है । ऋषि राम से प्रतिहिंसक राम से चिरञ्जीवी अतिमानवीय सर्व क्षत्रान्तक परशुराम की पौराणिक अवतारी यात्रा में शताब्दियाँ लगी होंगी जिसके नेपथ्य में भारत के आन्तरिक उपद्रव एवं अस्थिर राजसत्तायें रही होंगी । यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि आज अनुसूचित एवं पिछड़ी मानी जाने वाली ऐसी जातियाँ हैं जो कि परशुराम से अपने को जोड़ती हैं या जिनका गोत्र भार्गव है। परशुराम के सहयोगियों के रूप में कृष्णाजिन क्षेत्र से बाहर के व्रात्य एवं भ्रष्ट जन के नाम भी पुराणों में मिलते हैं। क्षत्रियों के भी भार्गवों के साथ सम्मिलन के अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं। सम्भव है कि अत्याचारी परन्तु निर्बल राजाओं के विरुद्ध भार्गवों के नेतृत्त्व में इन समस्त लोगों ने अस्त्र उठाये हों तथा विजयी भी हुये हों। समस्त धरा को जीत कर बारम्बार ब्राह्मणों को दान में दे देने के पौराणिक गल्प का सच जय के पश्चात भार्गवों द्वारा वैकल्पिक शासन की स्थापना भी हो सकता है।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि परवर्ती काल में ब्राह्मण समाज में भार्गवों को कोई बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त नहीं रहा जिसके कारक इन्हीं संघर्षों एवं पौराणिक स्थापनाओं में हैं।
तेरहवें अध्याय में पृथु के दाहिने हाथ में चक्र का चिह्न देख कर उन्हें विष्णु अंश बताया गया है तथा समस्त चक्रवर्ती राजाओं के हाथ में चक्र चिह्न की बात की गयी है :
हस्ते तु दक्षिणे चक्रं दृष्ट्वा तस्य पितामहः । विष्णोरंशं पृथुं मत्वा परितोषं परं ययै ॥ १,१३.४५ ॥
विष्णुचक्र करे चिह्नं सर्वेषां चक्रवर्तिनाम् । भवत्यव्याहतो यस्य प्रभावस्त्रिदशेरपि ॥ १,१३.४६ ॥
पृथु से पृथ्वी बताया गया है- प्राणप्रदाता स पृथुर्यस्माद्भूमेरभीत्पिता । ततस्तु पृथिवीसंज्ञामवापाखिलाधारिणी ॥
प्रजा का अनुरञ्जन करने के कारण पृथु राजा कहलाये – प्रजास्तेनानुरञ्चिताः, अनुरागात्ततस्तस्य नाम राजेत्यजायत। पृथ्वी पर राजा को विष्णु रूप माने जाने के व्यवहार को यह अंश दर्शाता है। इसी अंश में पृथु द्वारा धरा को समतल कर पुर, ग्राम, व्यापार, कृषि, वणिक कर्म, गोरक्षा आदि सबका आरम्भ पृथु के समय से बताया गया है जो कि अति प्राचीन काल में राज्य के रूप के स्थिरीकरण का अलङ्कारिक वर्णन है । पृथु यह सब अपने धनुष की कोटि से करते हैं। यहाँ धनुष शब्द बहुअर्थी हो सकता है :
न हि पूर्वविसर्गे वै विषमे पृथिवीतले । प्रवीभागः पुराणां वा ग्रामाणां वा पुराभवात् ॥ १,१३.८३ ॥
न सस्यानि न गोरक्ष्यं न कृषिर्न वणिक्पथः । वैन्यात्प्रभृति मैत्रेय सर्वस्यैतस्य सम्भवः ॥ १,१३.८४ ॥
यत्रयत्र समं त्वस्य भूमेरासीद्द्द्वजोत्तम । तत्रतत्र प्रजाः सर्वा निवासं समरोचयन्त् ॥ १,१३.८५ ॥
औषधियों के विलुप्त होने से आहार हेतु पृथ्वी रूपी गाय से धान्य रूपी दूध दूहने के उल्लेख हैं जो कि विविध वर्गों में कृषि कर्म के प्रसार के द्योतक हैं –
स्वपाणौ पृथिवीनाथो दुदोह पृथिवीं पृथुः । सस्याजातानि सर्वाणि प्रजानां हितकाम्यया ॥
…
ततश्च देवैर्मुनिभिर्दैत्यै रक्षोभिरद्रिभिः । गन्धर्वैरुरगैर्यक्षैः पितृभिस्तरुभिस्तथा ॥
स्पष्टत: यह अंश भार्गवों के संघर्ष काल से बहुत पुराना है जिसे उनके लिये भी प्राचीन ही मानना होगा।
नृसिंह अवतार की पूर्वपीठिका में प्रह्लाद को कृष्ण में आसक्त बताया गया है जब कि कृष्णावतार तो दूर की बात है, नृसिंह अवतार ही नहीं हुआ – स त्वासक्तमतिः कृष्णे दश्यमानो महोरगैः ! आगे गोविन्द नाम भी आया है – स्मरतस्तस्य गोविन्दमिभदन्ताः सहस्रशः । ये सभी प्रमाण हैं कि इस पुराण को तब अंतिम रूप दिया गया जब श्रीकृष्ण को सर्वोच्च विष्णु मान लिया गया था जो कि दिक्काल से परे हैं। कथावाचकों द्वारा कल्पभेदादि की बात कर ऐसे प्रसंगों में कोई विसङ्गति न होना बताना विशिष्ट पुराणाचार है जिसे गम्भीरता से नहीं लिया जाना चाहिये।
इस पुराण का नरसिंह अवतार वर्णन अनूठा है। अनूठा क्या, वर्णन है ही नहीं, उल्लेख मात्र है वह भी बिना किसी भयानकता के उल्लेख के, केवल एक श्लोक में।
पिता द्वारा पीड़ित प्रह्लाद की स्तुति पर विष्णु प्रकट होते हैं तथा प्रह्लाद उनसे पिता हेतु समस्त विष्णुद्वेषजनित पापों से मुक्ति माँगते हैं :
त्वयि भक्तिमतो द्वेषादघं तत्संभवं च यत् । त्वत्प्रसादात्प्रभो सद्यस्तेन मुच्यतु मे पिता ॥ १,२०.२४ ॥
विष्णु वरदान दे कर दूसरा वर माँगने को कहते हैं तो प्रह्लाद अपने को कृतकृत्य बताते हुये कहते हैं कि आप की कृपा से आप में मेरी अविचल भक्ति रहेगी, मुझे धर्म, अर्थ, काम से क्या काम? मुक्ति तो निश्चल भक्ति वाले की मुट्ठी में रहती है :
कृतकृत्योस्मि भगवन्वरे णानेन यत्त्वयि । भवित्री त्वत्प्रसादेन भक्तिरव्यभिचारिणी ॥ १,२०.२६ ॥
धर्मार्थकामैः किं तस्य मुक्तिस्तस्य करे स्थिता । समस्तजगतां मूले यस्य भक्तिः स्थिरा त्वयि ॥ १,२०.२७ ॥
श्रीभगवानुवाच
यथा ते निश्चलं चेतो मयि भक्तिसमन्वितम् । तथा त्वं मत्प्रसादेन निर्वाणम्परमाप्स्यसि ॥ १,२०.२८ ॥
भगवान उन्हें परम निर्वाणपद प्राप्तकर्ता बता कर अन्तर्धान हो जाते हैं तथा हिरण्यकशिपु पुत्र का सिर सूँघ कर गलदश्रु कण्ठ से स्नेह वश पूछता है – पुत्र, तू जीता तो है?
तं पिता मूर्ध्न्युपाघ्राय परिष्वज्य च पीडितम् । जीवसीत्याह वत्सेति बाष्पार्द्रनयनोद्विज ॥ १,२०.३० ॥
आगे पुराणकार सूचित करते हैं कि महासुर हिरण्यकशिपु पुत्र के साथ प्रेमपूर्वक रहने लगा – प्रीतिमांश्चाभवत्तस्मिन्ननुतापी महासुरः । पुराणकार मात्र यह सूचित करता है कि नरसिंहरूप धारी विष्णु के हाथों पिता के मारे जाने पर प्रह्लाद राजा हुये :
पितर्युपरतिं नीते नरसिंह स्वरूपिणा । विष्णुना सोऽपि दैत्यानां मैत्रेयाभूत्पतिस्ततः ॥ १,२०.३२ ॥
जब सब ठीक हो गया था तो नरसिंह विष्णु ने हिरण्यकशिपु को क्यों मारा? पुराण इस बारे में मौन है। लोकमान्यता के विपरीत यह अनूठा वर्णन भक्तिमार्ग के उस प्रौढ़ चरण का सङ्केतक है जिसमें अवतार के हाथों वधित होने के कारण दैत्य राक्षसादि भी पावन हो निन्दित वर्णनों के विषय नहीं रह जाते। अवतारवाद का भी यह प्रौढ़ स्तर है जो कि इस अंश को बहुत नवीन सिद्ध करता है।
आगे समस्त राजाओं सहित समस्त भूतों के अधीश्वरों का विष्णुरूप होना बता कर भक्तिमार्ग की समदर्शिता ही पुष्ट की गयी है :
एते सर्वे प्रवृत्तस्य स्थितौ विष्णोर्महात्मनः । विभूतिभूता राजानो ये चान्ये मुनिसत्तम ॥ १,२२.१६ ॥
ये भविष्यन्ति ये भूताः सर्वे भूतेश्वरा द्विज । ते सर्वे सर्वभूतस्य विष्णोरंशा द्विजोत्तम ॥ १,२२.१७ ॥
ये तु देवाधिपतयो ये च दैत्याधिपास्तथा । दानवानां च ये नाथा ये नाथाः पिशिताशिनाम् ॥ १,२२.१८ ॥
पशुनां ये च पतयः पतयो ये च पक्षिणाम् । मनुष्याणां च सर्पाणां नागानामधिपाश्च ये ॥ १,२२.१९ ॥
वृक्षाणां पर्वतानां च ग्रहाणां चापि येऽधिपाः । अतीता वर्तमानाश्च ये भविष्यन्ति चापरे ।
ते सर्वे सर्वभूतस्य विष्णोरंशसमुद्भावाः ॥ १,२२.२० ॥
न हि पालनसामर्थ्यमृते सर्वेश्वरं हरिम् । स्थितं स्थितौ महाप्राज्ञ भवत्यन्यस्य कस्यचित् ॥ १,२२.२१ ॥
तीसरे भाग के पहले अध्याय में सात मन्वन्तरों में विष्णु अंशों को माताओं के नाम के साथ सम्भूत बताया गया है जिसमें कि वर्तमान सातवें में अदिति के पुत्र वामन हैं :
विष्णुशक्तिरनौपम्या सत्त्वोद्रिक्ता स्थितौ स्थिता । मन्वन्तरेष्वशेषेषु देवत्वेनाधितिष्ठति ॥ ३,१.३५ ॥
अंशेन तस्या जज्ञेऽसौ यज्ञःस्वायंभुवेन्तरे । आकूत्यां मानसो देव उत्पन्नः प्रथमेन्तरे ॥ ३,१.३६ ॥
ततः पुनः स वै देवः प्राप्ते स्वारोचिषेन्तरे । तुषितायां समुत्पन्नो ह्याजिषस्तुषितैः सह ॥ ३,१.३७ ॥
औत्तमप्यन्तरे देवस्तुषितस्तु पुनःस वै । सत्यायामभवत्सत्यः सत्यैः सह सुरोत्तमैः ॥ ३,१.३८ ॥
तामसस्यान्तरे चैव संप्राप्तो पुनरेव हि । हर्यायां हरिभिः सार्ध हरिरेव बभूव ह ॥ ३,१.३९ ॥
रैवतेप्यन्तरे देवःसंभूत्यां मानसो हरिः । संभूतो रैवतैः सार्ध देवैर्देववरो हरिः ॥ ३,१.४० ॥
चाक्षुषे चान्तरे देवो वैकुण्ठः पुरुषोत्तमः । विकुण्ठायामसौ जज्ञे वैकुण्ठैर्दैवतैः सह ॥ ३,१.४१ ॥
मन्वन्तरेत्र संप्राप्ते तथा वैवस्वतेद्विज । वामनः काश्यपाद्विष्णुरदित्यां संबभूव ह ॥ ३,१.४२ ॥
त्रिभिः क्रमैरिमांल्लोकाञ्जित्वा येन महात्मना । पुरन्दराय त्रैलोक्यं दत्तं निहतकण्टकम् ॥ ३,१.४३ ॥
इत्येतास्तनवस्तस्य सप्तमन्वन्तरेषु वै । सप्तस्वेवाभवन्विप्र याभिः संवर्धिताः प्रजाः ॥ ३,१.४४ ॥
यस्माद्विष्टमिदं विश्वं यस्य शक्त्या महात्मनः । तस्मात्स प्रोच्यते विष्णुर्विशोर्धातोः प्रवेशनात् ॥ ३,१.४५ ॥
सर्वे च देवा मनवःसमस्ताःसप्तर्षयो ये मनुसूनवश्च । इन्द्रश्चयोऽयं त्रिदशेशभूतो विष्णोरशोषास्तु विभूतयस्ताः ॥ ३,१.४६ ॥
देवता, मनु, इंद्र सहित समस्त मनुसंतति को विष्णु शक्ति से व्याप्त एवं उन्हीं की विभूति बताया गया है। ‘विश्’ धातु का अर्थ प्रवेश करना है अत: सबमें व्याप्त वे विष्णु कहलाते हैं। यहाँ दशावतार का सङ्केत तक नहीं है, वामन हैं किंतु उनसे पूर्व के मत्स्यादि नहीं हैं।
‘भविष्य’ के शेष सात मन्वन्तरों में कोई विष्णु अंश या अवतार नहीं है। आगे सतयुग में कपिल, त्रेता में चक्रवर्ती भूपाल, द्वापर में वेदव्यास एवं कलियुग के अंत में कल्कि विष्णु के रूप बताये गये हैं।
रोचक बात यह है कि अगले मन्वन्तर के सप्तर्षियों में भार्गव राम के साथ द्रोणपुत्र अश्वत्थामा एवं कृप भी हैं :
दीप्तिमान् गालवो रामः कृपो द्रोणिस्तथा परः । मत्पुत्रश्च तथा व्यास ऋष्यशृङ्गश्च सप्तमः ॥ ३,२.१७ ॥
महाभारत के कृप एवं द्रोणपुत्र सप्तर्षियों में होने की क्या अर्हता रखते हैं, समझ के बाहर है। महाभारत में आचार्य द्रोण के अवसान के समय का दैवी वातावरण हो या यह प्रसंग, संकीर्ण जातिवादी तत्त्वों द्वारा क्षेपक ही प्रतीत होते हैं। जातिवादियों द्वारा बिना मूल को छेड़े समान्तर प्रतिष्ठा धारा चला देना एक महत्त्वपूर्ण पौराणिक प्रवृत्ति है।
आगे पराशर के मुख से बताया गया है कि भगवान विष्णु वेदव्यास रूप में प्रत्येक द्वापर में वेदों के विभाग करते हैं तथा कृष्ण द्वैपायन तक अट्ठाइस व्यास हो चुके हैं, भविष्य का वेदव्यास द्रोणपुत्र अश्वत्थामा होगा :
द्वापरेद्वापरे विष्णुर्व्यासरूपी महामुने । वेदमेकं सुबहुधा कुरुते जगतो हितः ॥ ३,३.५ ॥
…
वेदव्यासा व्यतीता ये ह्यष्टर्विंशति सत्तम । चतुर्धा यैः कृतो वेदो द्वापरेषु पुनः पुनः ॥ ३,३.१० ॥
…
भविष्ये द्वापरे चापि द्रौणिर्व्यासो भविष्यति । व्यतीते मम पुत्रेस्मिन् कृष्णद्वैपायने मुने ॥ ३,३.२१ ॥
उल्लेखनीय है कि पराशर स्वयं को भी वेदव्यास बताते हैं, तत्पश्चात जातुकर्ण व्यास होते हैं तथा कृष्ण द्वैपायन उनके अनन्तर अन्तिम वेदव्यास हैं। इसी अंश में भार्गव ऋक्ष को पराशर के पिता शक्ति से पहले का वेदव्यास बताया गया है। भार्गव ऋक्ष ही वाल्मीकि कहलाये – ऋक्षोभूद्भार्गवस्तस्माद्वाल्मीकिर्योभिधीयते । यह अंश स्वार्थी क्षेपकों के साथ साथ भार्गवों द्वारा पुराणों एवं आख्यानों के सम्पादन को तो दर्शाता ही है, साथ ही किसी ऐसी समान्तर धारा का भी संकेत देता है, विकृत होते होते जिसका अभिज्ञान नष्ट हो चुका है।
पराशर कहते हैं कि जैसे कृष्ण द्वैपायन ने वेदों का विभाग किया, मैं भी पहले कर चुका हूँ। जहाँ द्वापर द्वापर वेदविभाग की बात है, वहाँ पुत्र एवं पिता के बीच दो द्वापरों का अंतर होना पौराणिक कालबोध का यथार्थ साक्षात कर देता है। पराशर कहते हैं कि हे मैत्रेय ! जिस प्रकार मेरे पुत्र कृष्णद्वैपायन ने वेदों का विभाग किया, उसी प्रकार मैं भी पहले कर चुका हूँ। ऐतिहासिक सत्य का आधार ले कर हास्यास्पद गल्प गढ़ने की यह पराकाष्ठा है । ऐसे प्रकरणों के कारण ही लोग पुराणों की विश्वसनीयता पर सन्देह करने लगते हैं :
यथा च तेन वै व्यस्ता वेदव्यासेन धीमता । वेदास्तथा समस्तैस्तैर्व्यस्ता व्यस्तैस्तथा मया ॥ ३,४.३ ॥
यह अंश इस हेतु महत्त्वपूर्ण है कि कृष्णद्वैपायन को नारायण बताया गया है जिसका आधार है उनका महाभारत रचनाकार होना, इस संसार में महाभारत जैसी कृति बिना नारायण के अन्य कौन रच सकता है?
कृष्णद्वैपायनं व्यासं विद्धि नारायणं प्रभुम् । को ह्यन्यो भुवि मैत्रेय महाभारतकृद्भवेत् ॥ ३,४.५ ॥
सिद्ध होता है कि वर्तमान पुराण परम्परा महाभारत प्रणयन की पश्चवर्ती है। सूत रोमहर्षण को कृष्णद्वैपायन का इतिहास पुराण शिष्य बताया गया है :
रोमहर्षणनामानं महाबुद्धिं महामुनिः । सूतं जग्राह शिष्यं स इतिहासपुराणयोः ॥ ३,४.१० ॥
वेदविभाग एवं गुरु से विवाद के प्रकरण में याज्ञवल्क्य द्वारा की गयी सूर्य स्तुति में सूर्य को विष्णुरूप बताया गया है जो कि वैदिक निरूपण है। व्यास द्वारा रोमहर्षण सूत को पुराणसंहिता प्रदान की गयी जिनके छ: शिष्यों में से तीन ने अपने गुरु रोमहर्षण की संहिता का आधार ले कर संहितायें बनाईं तथा उन चारो संहिताओं का सार इस विष्णुपुराण संहिता में है :
सुमतिश्चाग्निवर्चाश्च मित्रायुःशांसपायनः । अकृतव्रणसावर्णिष्पट्शिष्यास्तस्य चाभवन् ॥ ३,६.१७ ॥
काश्यपः संहिताकर्ता सावर्णिः शांसपायनः । रोमहर्षाणिकाचान्या तिसॄणां मूलसंहिता ॥ ३,६.१८ ॥
चतुष्टयेन भेदेन संहितानामिदं मुने ॥ ३,६.१९ ॥
इसके ठीक पश्चात अट्ठारह पुराणों की चर्चा आती है :
आद्यं सर्वपुराणानां पुराणं ब्राह्ममुच्यते । अष्टादशपुराणानि पुराणज्ञाः प्रचक्षते ॥ ३,६.२० ॥
ब्राह्मं पाद्मं वैष्णवं च शैवं भागवतं तथा । तथान्यं नारदीयं च मार्कण्डेयं च सप्तमम् ॥ ३,६.२१ ॥
आग्नेयमष्टमं चैव भविष्यन्नवमं स्मृतम् । दशमं ब्रह्मवैवर्तं लैङ्गमेकादशं स्मृतम् ॥ ३,६.२२ ॥
वाराहं द्वादशं चैव स्कान्दं चात्र त्रयोदशम् । चतुर्दशंवामनं च कौर्मं पञ्चदशं तथा ।
मात्स्यं च गारुडं चैव ब्रह्माण्डं च ततः परम् । महापुराणान्येतानि ह्यष्टादश महामुने ॥ ३,६.२३ ॥
हम देख चुके हैं कि इस पुराण में सूत रोमहर्षण मुख्य वक्ता नहीं हैं तथा पराशर इसे मैत्रेय को सुनाते हैं । इस तथ्य के आलोक में ऊपर के श्लोकों से सिद्ध होता है कि वर्तमान में उपलब्ध अट्ठारह पुराण वे पुराण नहीं हैं जिनका सङ्कलनकर्त्ता कृष्णद्वैपायन व्यास को बताया जाता है। दो के बीच संक्रमणकालीन पुराण रहे हैं जिनकी संख्या अट्ठारह नहीं थी तथा जिन पर भार्गवों ने काम कर वर्तमान अट्ठारह पुराणों का रूप दिया। यह भी स्पष्ट है कि सूत रोमहर्षण से भी स्वतन्त्र धारायें रही होंगी जिनके अवशेष विविध पुराणों में रह गये हैं । सृष्टि के आदि में ही पुराणों के रहने को तथा उनकी महिमा को इन अन्त:साक्ष्यों से समझा जा सकता है तथा उनके बारे में अनुमान भी लगाये जा सकते हैं।
आगे विष्णु का जो मायामोह रूप आया है, वह दैत्यों को छल से वेदमार्ग से विरत कर देता है। इस अंश में बुद्ध का नाम नहीं है तथा मुण्डित-दिगम्बर-बर्हि:पच्छ्धारी (मयूर पङ्ख?) की साम्यता से इसका सङ्केत धर्म की ओर होता है। नीचे दिये अंशों को देखा जा सकता है। यह साम्प्रदायिक मतविभिन्नता के कारण रचा हुआ प्रसंग है जो पौराणिक वर्णनों के ढङ्ग पर प्रकाश डालता है कि किस प्रकार तथ्य को कल्पना से मिश्रित कर प्रस्तुत किया जाता है । सूक्ष्म पक्ष यह है कि बुद्ध हों या जैन, उनको भी विष्णु रूप बताते हुये उनकी शिक्षाओं को मानने वालों का पतन देवहित दर्शाया जाता है । इस प्रवृत्ति का एक कारण यह हो सकता है कि आज की भाँति पंथीय विभाजन तब नहीं था तथा सामान्य जन आराध्यों के वैविध्य को स्वीकार कर सबको पूजते चलते थे । सीधा विरोध या प्रहार अवांछित परिणाम ही देता ।
ततो दिगंबरो मुण्डो बर्हिपिच्छधरो द्विज । मायामोहोऽसुरान् श्लक्ष्णमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ३,१८.२ ॥
…
कुरुध्वं मम वाक्यानि यदि मुक्तिमभीप्सथ । अर्हध्वं धर्ममेतं च सर्वे यूयं महाबलाः ॥ ३,१८.५ ॥
…
एवंप्रकारैर्बहुभिर्युक्तिदर्शनचर्चितैः । मायामोहेन ते दैत्या वेदमार्गादपा कृताः ॥ ३,१८.८ ॥
…
दिग्वाससामयं धर्मो धर्मोयं बहुवाससाम् ॥
…
इत्यनेकान्तवादं च मायामोहेन नैकधा ।
…
अर्हतैतं महाधर्मं मायामोहेन ते यतः । प्रोक्तास्तमाश्रिता धर्ममर्हतास्तेन तेऽभवन् ॥ ३,१८.१३ ॥
…
पुनश्च रक्तांबरधृङ्मायामोहो जितेन्द्रियः । अन्यानाहासुरान् गत्वामृद्धल्पमधुराक्षरम् ॥ ३,१८.१६ ॥
स्वर्गार्थं यदि वो वाञ्छा निर्वाणार्थमथासुराः । तदलं पशुघातादिदुष्चधर्मैर्निबोधत ॥ ३,१८.१७ ॥
…
नैनद्युक्तिसहं वाक्यं हिंसाधर्माय चेष्यते । हवींष्यनलदघ्धानि फलायेत्यर्थकोदितम् ॥ ३,१८.२६ ॥
यज्ञैरनेकैर्देवत्वमवाप्येन्द्रेण भुज्यते । शम्यादि यदि चेत्काष्ठं तद्वरं पत्रभुक्पशु ॥ ३,१८.२७ ॥
निहतस्य पशोर्जज्ञे स्वर्गप्राप्तिर्यदीष्यते । स्वपिता यजमानेन किन्नु तस्मान्न हन्यते ॥ ३,१८.२८ ॥
तृप्तये जायते पुंसो भुक्तमन्येन चेत्ततः । कुर्याच्छ्राद्धं श्रमायान्नं न वहेयुः प्रवासिनः ॥ ३,१८.२९ ॥
जनश्रद्धेयमित्येतदवगम्य ततोत्र वः । उपेक्षा श्रेयसे वाक्यं रोचतां यन्मयेरितम् ॥ ३,१८.३० ॥
न ह्यप्तवादा नभसो निपतन्ति महीं सुराः । युक्तिमद्वचनं ग्राह्यं मयान्यैश्च भवद्विधैः ॥ ३,१८.३१ ॥
दिगम्बर एवं नग्नता का आश्रय ले कर नग्न की परिभाषा भी दी गई है कि वेदत्रयीस्वरूप वस्त्र को त्याग देने वाला नग्न है :
नग्नास्ते तैर्यतस्त्यक्त त्रयीसंवरणं तथा । कृताश्च तेऽसुरा देवैर्नाना वेदविनिन्दकाः ॥३,१८.३६ ॥
ऐसे पाखण्डियों से सम्भाषण तक निषिद्ध बताया गया है :
किं पुनर्यैस्तु संत्यक्ता त्रयी सर्ंवात्मना द्विज । पाषण्डभोजिभिः पापौर्वेदवादविरोधिभिः ॥ ३,१८.९९ ॥
सहालापस्तु संसर्गः सहास्या चातिपापिनी । पाषण्डिभिर्दुराचारैस्तस्मात्तां परिवर्जयेत् ॥ ३,१८.१०० ॥
चतुर्थ अंश गद्य पद्य मिश्रित है जिसमें गद्य भाग अधिक है। श्लोक में लिखे जाने की परिपाटी से यह विचलन इसे अपेक्षतया नवीन सिद्ध करता है। इस अंश में भी भार्गव राम हेतु परशुराम संज्ञा प्रयुक्त हुई है। विष्णु अवतार की चर्चा करते हुये ब्रह्मा कृष्ण के भाई बलदेव को केशव अंश बताते हैं :
यस्मिञ्जगद्यो जगदेतदाद्यो यश्चाश्रितोऽस्मिञ्जगति स्वयम्भूः । स सर्वभूतप्रभवो धरित्र्यां स्वांशेन विष्णुर्नृपतेऽवतीर्णः ॥ ४,१.९० ॥
कुशस्थली या तव भूप रम्या पुरी पुराभूदमरावतीव । सा द्वारका सम्प्रति तत्र चास्ते स केशवांशो बलदेवनामा ॥ ४,१.९१ ॥
इस पुराण में राजर्षि शशाद के पुत्र पुरञ्जय के शरीर में विष्णु अंश का अवतार बताया गया है जिसने वृषभ रूपी इन्द्र की पीठ पर बैठ कर दैत्यसेना का वध किया एवं बैल के कुकुद पर आसीन होने कारण कुकुत्स्थ कहलाया। इसी वंश में आगे चल कर भगवान विष्णु अपने अंश से दशरथ के चार पुत्रों के रूप में जन्म लिये :
अजाद्दशरथः ॥ ४,४.८६ ॥
तस्यापि भगवानब्जनाभो जगतः स्थित्यर्थमात्मांशेन रामलक्ष्मणभरतशत्रुघ्नरूपेण चतुर्धा पुत्रत्वमायासीत् ॥ ४,४.८७ ॥
श्रीराम चरित्र वर्णन में ही सकल क्षत्रिय क्षयकारक परशुराम का उल्लेख आता है किन्तु उन्हें विष्णु का अवतार या अंश नहीं बताया गया है :
सकलक्षत्रियक्षयकारिणमशेषहैहयकुलधूमकेतुभूतं च परशुराममपास्तवीर्यबलावलेपं चकार ॥ ४,४.९४ ॥
यद्यपि श्रीराम चरित्र को किञ्चित विस्तार से बताया गया है किन्तु सीता त्याग का न कोई उल्लेख है, न ही संकेत।
जमदग्नि विश्वामित्र प्रकरण में परशुराम को अशेषक्षत्रहन्ता बताया गया है :
तस्यां चाशेषक्षत्रहन्तारं परशुरामसंज्ञं भगवतःसकललोकगुरोर्नारायणस्यांशं जमदग्निरजीजनत् ॥ ४,७.३६ ॥
काश्यप वंश वर्णन में धन्वन्तरि को दीर्घतपा का पुत्र बताया गया है जो जन्म से ही सर्वशास्त्र ज्ञाता थे तथा जिन्हें पूर्वजन्म में विष्णु ने काशिराज के वंश में उत्पन्न हो कर सम्पूर्ण आयुर्वेद को आठ भागों में विभक्त करने एवं यज्ञ भाग का भोक्ता होने का वरदान दिया था :
धन्वन्तरिस्तु दीर्घतपसः पुत्रोऽभवत् ॥ ४,८.८ ॥
स हि संसिद्धकार्यकरमःसकलसंभूतिष्वशेषज्ञानविदा भगवता नारायणेन चातीत संभूतौ तस्मै वरो दत्तः ॥ ४,८.९ ॥
काशीराजगोत्रेऽवतीर्य त्वमष्टधा सम्यगायुर्वेदं करिष्यसि यज्ञभागभुग्भविष्यसीति ॥ ४,८.१० ॥
यदुवंश का वर्णन करते हुये उसकी महिमा भगवान विष्णु के अपरिमित महत्त्वशाली अंश से अवतरित श्रीकृष्ण के कारण बताई गयी है जिन्हें पर ब्रह्म का अवतार भी कहा गया है :
अतः परं ययातेः प्रथमपुत्रस्य यदोर्वंशमहं कथयामि ॥ ४,११.१ ॥
यत्राशेषलोकनिवासो मनुष्यसिद्धगन्धर्वयक्षराक्षसगुह्यककिंपुरुषाप्सरोरगविहगदैत्यदानवादित्यरुद्रवस्वश्विमरुद्देवर्षिभिर्मुमुक्षुभिर्धर्मार्थकाममोक्षार्थिभिश्च तत्तत्फललाभाय सदाभिष्टुतोऽपरिच्छेद्यमाहात्म्यांशेन भगवाननादिनिधनो विष्णुरवततार ॥ ४,११.२ ॥
अत्र श्लोकः ॥ ४,११.३ ॥
यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते । यत्रावतीर्णं कृष्णाख्यंपरं ब्रह्मनराकृति ॥ ४,११.४ ॥
इस कुल में ही रावण को पशु के समान बाँधने वाले एवं अत्रिकुलीन भगवदंश दत्तात्रेय के भक्त सहस्रार्जुन का जन्म हुआ जिसका वध नारायण अंश से अवतीर्ण परशुराम ने किया :
योऽसौ भगवदंशमत्रिकुलप्रसूतं दत्तात्रेयाख्यमाराध्य बाहुसहस्रमधर्मसेवानिवारणं स्वधर्मसेवित्वं रणे पृथिवीजयं धर्मतश्चानुपालनमारातिभ्योऽपराजयमखिलजगत्प्रख्यातपुरुषाच्च मृत्युमित्येतान्वरानभिलषितवांल्लेभे च ॥ ४,११.१२ ॥
तेनेयमशेषद्वीपवती पृथिवी सम्यक्परीपालिता ॥ ४,११.१३ ॥
दशयज्ञसहस्राण्यसावयजत् ॥ ४,११.१४ ॥
तस्य च श्लोकोऽद्यापि गीयते ॥ ४,११.१५ ॥
न नूनं कार्तवीर्यस्य गातिं यास्यन्ति पार्थिवाः ।
यज्ञैर्दानैस्तपोभिर्वा प्रश्रयेण श्रुतेन च ॥ ४,११.१६ ॥
अनष्टद्रव्यता च तस्य राज्येऽभवत् ॥ ४,११.१७ ॥
एवं च पञ्चाशीतिवर्षसहस्रण्यव्याहतेरोग्यश्रीबलपराक्रमो राज्यमकरोत् ॥ ४,११.१८ ॥
माहिष्मत्यां दिग्विजयाभ्यागतो स्थापितः ॥ ४,११.१९ ॥
यश्च पञ्चाशीतिवर्शसहस्रोपलक्षणकालावसाने भगवन्नारायणांशेन परशुरामेणोपसंहृतः ॥ ४,११.२० ॥
आगे सत्राजित स्यमंतक मणि प्रकरण में श्रीकृष्ण को भगवान सम्बोधन के साथ धरा का भार उतारने को आदि पुरुष के अंश से मनुष्य रूप में अवतरित बताया गया है :
द्वारकावासी जनस्तु तमायान्तमवेक्ष्य भगवन्तमादिपुरुषं पुरुषोत्तममवनिभारावतरणायांशेन मानुषरूपधारिमं प्रणिपत्याह ॥ ४,१३.२० ॥
भगवन् भवन्तं द्रष्ट्रं नूनमयमादित्य आयातीत्युक्तो भगवानुवाच ॥ ४,१३.२१ ॥
आगे जामवन्त भी उन्हें श्रीराम की ही भाँति नारायण का अवतार बताते हैं :
भवतास्मत्स्वामिना रामेणेन नारायणस्य सकलजगत्परायणस्यांशेन भगवता भवितव्यमित्युक्तस्तस्मै भगवानखिलावनिभारावतरणार्थमवतरणमाचचक्षे ॥ ४,१३.५३ ॥
श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव का एक नाम आनकदुन्दुभि भी है क्यों कि उनके जन्म के समय आगत देख कर कि इनके पुत्र रूप में भगवान अवतार लेंगे, देवताओं ने आनकदुन्दुभियाँ बजाई थीं :
वसुदेवस्य जातमात्रस्यैव तद्गृहे भगवदंशावतारमव्याहतदृष्ट्या पश्यद्भिर्देवैर्दिव्यानकदुन्दुभयो वादिताः ॥ ४,१४.२८ ॥
ततश्चसावानकदुन्दुभिसंज्ञामवाप ॥ ४,१४.२९ ॥
शिशुपाल जन्म की कथा में नृसिंह अवतार उल्लिखित है :
दैत्येश्वरस्य वधायाशिललोकोत्पत्तिस्थितिविनाशकारिणा पूर्वं तनुग्रहणं कुर्वता नृसिंह रूपमाविष्कृतम् ॥ ४,१५.४ ॥
आगे दाशरथि राम को भगवान बताया गया है – भगवता दाशरथि रूपधारिणा ।
भविष्य के राजाओं का वर्णन करते हुये महापद्म नन्द को दूसरे परशुराम के समान अखिलक्षत्रान्तकारी बताया गया है, तब से अनेक शूद्र राजा होंगे :
महानन्दि नस्ततः शूद्रगर्भोद्भवोतिलुब्धोतिबलो महापद्मनामा नन्दः परशुराम इवारपोऽखिलक्षत्रान्तकरी भविष्यति ॥ ४,२४.२० ॥
ततः प्रभृति शूद्रा भूपाला भविष्यन्ति ॥ ४,२४.२१ ॥
कलि के अंतिम चरण में ब्राह्मण विष्णुयश के पुत्र के रूप में भगवान के कल्कि अवतार का वर्णन इस प्रकार है :
भगवतो वासुदेवस्यांशः शंबलग्रामप्रधानब्राह्मणस्य विष्णुयशसो गहेष्टगुणर्धिसमन्वितः कल्किरूपीजगत्यत्रावतीर्य सकलम्लेच्छदस्युदुष्टाचरमचेतसामशेषाणामपरिच्छिन्नशक्तिमाहात्म्यः क्षयं करिष्यति स्वधर्मेषु चा खिलमेव संस्थापयिष्यति ॥ ४,२४.९८ ॥
कल्कि अवतार की बात बताने के साथ ही गद्य भाग समाप्त हो जाता है तथा ‘अत्रोच्यते‘ के साथ श्लोक छन्द पुन: आरम्भ हो जाते हैं। समस्त गद्य अंश अर्वाचीन है तथा इसमें वर्णित कथानक वर्तमान में प्रचलित अवधारणाओं से मेल खाता है । अन्य पुराणों के साथ इस अंश की तुलना करने पर इसकी कालभिन्नता उभर कर आती है।
आगे पद्य अंश में पुरु एवं देवापि राजाओं को ले कर जो कहा गया है वह राजा के विष्णु समान ही अवतरित होने का संकेतक है :
देवापिः पौरवो राजा पुरुश्चेक्ष्वाकुवंशजः । महायोगबलोपेतौ कलापग्रमसंश्रितौ ॥ ४,२४.११८ ॥
कृते युगे त्विहागम्य क्षत्रप्रावर्त्तकौ हि तौ । भविष्यतो मनोर्वशबीजभूतौ व्यवस्थितौ ॥ ४,२४.११९ ॥
एतेन क्रमयोगेन मनुपुत्रैर्वसुन्धरा । कृतत्रेताद्वापराणि युगानि त्रीणि भुज्यते ॥ ४,२४.१२० ॥
कलौ ते बीजभूता वै केचित्तिष्ठन्ति वै मुने । यथैव देवापिपुरू साम्प्रतं समधिष्ठितौ ॥ ४,२४.१२१ ॥
मनु के वंश के राजाओं को विष्णु के अंश का अंश बताया गया है :
इत्येष कथितः सम्यङ्मनोर्वंशो मया तव । यत्र स्थितिप्रवृत्तस्य विष्णोरंशांशका नृपाः ॥ ४,२४.१३८ ॥
इस पुराण का पञ्चम अंश कृष्णावतार को समर्पित है जिन्हें अंशावतार बताया गया है :
अंशावतारो ब्रह्मर्षे योऽयं यदुकुलोद्भवः । विष्णोस्तं विस्तरेणाहं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ ५,१.२ ॥
चकार यानि कर्माणि भगवान् पुरुषोत्तमः । अंशांशेनावतीर्योर्व्यां तत्र तानि मुने वद ॥ ५,१.३ ॥
आगे भूमि द्वारा समस्त संसार को विष्णुमय बताया गया है :
भूमिरुवाच
अग्निःसुवर्णस्य गुरुर्गवां सूर्यः परो गुरुः । ममाप्यखिललो कानां कुरुर्नारायणो गरुः ॥ ५,१.१४ ॥
प्रजापतिपतिर्ब्रह्म पूर्वेषामपि पूर्वजः । कलाकाष्ठानिमेषात्मा कालश्चाव्यक्तमूर्तिमान् ॥ ५,१.१५ ॥
तदंशभूतःसर्वैषां समूहो वःसुरोत्तमाः ॥ ५,१.१६ ॥
आदित्या सरुतःसाध्या रुद्रा वस्वश्विवह्नयः । पितरो ये च लोकानां स्रष्टारोऽत्रिपुरोगमाः ॥ ५,१.१७ ॥
एते तस्याप्रमेयस्य विष्णो रूपं महात्मनः ॥ ५,१.१८ ॥
यक्षराक्षसदैतेयपिशाचोरगदानवाः । गन्धर्वाप्सरसश्चैवरूपं विष्णोर्महात्मनः ॥ ५,१.१९ ॥
ग्रहर्क्षतारकाचित्रगगनाग्निजलानिलाः । अहं च विषयाश्चैव सर्व विष्णुमयं जगत् ॥ ५,१.२० ॥
ब्रह्मा द्वारा की गयी विष्णु स्तुति में सूर्य के वैदिक विष्णु रूप का प्रभाव है :
त्वं विश्वतश्चक्षुरनन्तमूर्ते त्रेधा पदं त्वं निदधासि धातः ॥ ५,१.४४ ॥
एक विचित्र बात यहाँ यह मिलती है कि विष्णु ने ब्रह्मा की स्तुति के पश्चात अपने दो, एक श्वेत एक श्याम, केश उखाड़े तथा कहा कि मेरे ये दो केश पृथ्वी पर अवतार ले कर उसका भार दूर करेंगे :
वं संस्तूयमानस्तु भगवान्परमेश्वरः । उज्जहारात्मनः केशौ सितकृष्णौ महामुने ॥ ५,१.६० ॥
उवाच च सुरानेतौ मत्केशौ वसुधातले । अवतीर्य भुवो भारक्लेशहानिं करिष्यतः ॥ ५,१.६१ ॥
पीछे हम इक्ष्वाकु संज्ञा हेतु छींक का कारण देख चुके हैं, यहाँ केशव संज्ञा हेतु दो श्वेत श्याम केशों की उद्भावना की गयी है जो क्रमश: सङ्कर्षण बलराम एवं श्रीकृष्ण हेतु हैं । अन्य पुराणों में हम देख चुके हैं कि दशावतार सूची में बलराम तो हैं किन्तु श्रीकृष्ण नहीं। सम्भावनायें अनेक हो सकती हैं किन्तु ग्राह्य यही प्रतीत होती है कि उन उद्धरणों में श्रीकृष्ण को स्वयं नारायण मान कर अन्यों को अंशावतार के रूप में दर्शाया गया किन्तु इस अंश में केशव संज्ञा से दोनों को विष्णु का अंशावतार बताया गया है । अनेक मान्यताओं एवं कालक्रम की सामग्री का मिश्रण होने का परिणाम यह है कि कुछ ही श्लोक आगे भगवान सङ्कर्षण को स्वयं का अंश बताते हैं तथा अपने आप को देवकी का आठवाँ गर्भ !
अंशांशोनादरे तस्याःसप्तमः संभविष्यति ॥ ५,१.७३ ॥
…
ततोऽहं संभविष्यामि देवकीजठरे शुभे । भर्गं त्वया यशोदाया गन्तव्यमविलंबितम् ॥ ५,१.७७ ॥
जो अविद्या से जग को मोहती है उस योगनिद्रा को वैष्णवी महामाया बताया गया है :
योगनिद्रा महामाया वैष्णवी मोहितं यया । अविद्यया जगत्सर्वं तामाह भगवान्हरिः ॥ ५,१.७१ ॥
समन्वयी दृष्टि आगे बढ़ती हुई योगनिद्रा में ही दुर्गादि देवी संज्ञाओं को मांस मदिरा से तृप्त होने वाली बताये हुये स्वीकारती चली है । योगनिद्रा को कृष्ण पश्चात इन्द्र द्वारा भगिनी रूप में स्वीकार करना दर्शाया गया है :
कंसश्च त्वामुपादाय देवि शैलशिलातले । प्रक्षेप्स्यत्यन्तारिक्षे च संस्थानं त्वमवाप्स्यसि ॥ ५,१.८० ॥
ततस्त्वां शतदृक्छक्रः प्रणम्य मम गौरवात् । प्रणिपातानतशिरा भगिनीत्वे ग्रहीष्यति ॥ ५,१.८१ ॥
त्वं च शुंभनिशुंभादीन्हत्वा दैत्यान्सहस्रशः । स्थानैरनेकैः पृथिवीमशेषां मण्डयिष्यसि ॥ ५,१.८२ ॥
त्वं भूतिः सन्नतिः क्षान्तिः कान्तिर्द्यौः पृथिवी धृतिः । लज्जापुष्टी रुषा या तु काचिदन्या त्वमेव सा ॥ ५,१.८३ ॥
ये त्वामार्येति दुर्गेति वेदगर्भांबिकेति च । भद्रेति भद्रकालीति क्षेमदा भग्यदेति च ॥ ५,१.८४ ॥
प्रातश्चैवापराह्ने च स्तोष्यन्त्यानम्रमूर्तयः । तेषां हि प्रार्थितं सर्वं मत्प्रसादाद्भविष्यति ॥ ५,१.८५ ॥
सुरामांसोपहरैश्च भक्ष्यभोज्यैश्च पूजिता । नॄणामशेषसामांस्त्वं प्रसन्ना संप्रदास्यसि ॥ ५,१.८६ ॥
ते सर्वे सर्वदा भद्रे मत्प्रसादादसंशयम् । असंदिग्धा भविष्यन्ति गच्छ देवि यथोदितम् । ५,१.८७ ॥
यह अंश वैष्णव एवं शाक्त मतों के परस्पर स्वीकार्यता एवं समन्वय का उत्तम उदाहरण है ।
आगे पुन: श्रीकृष्ण को विष्णु का अंश ही बताया गया है – विष्णोरंशे भुवं याते ऋतवश्चाबभुः शुभाः ॥ ५,२.४ ॥
श्रीकृष्ण एवं महामाया की अवतरण तिथियाँ क्रमश: नभ मास की अष्टमी एवं नवमी बताई गई हैं :
प्रावृट्काले च नभसि कृष्णाष्टम्यामहं निशि । उत्पत्स्यामि नवम्यां तु प्रसूतिं त्वमवाप्स्यसि ॥ ५,१.७८ ॥
नभ श्रावण नाक्षत्र मास है अर्थात अमान्त पद्धति से श्रीकृष्ण की जन्मतिथि दी हुई है । इसका एक अन्य गणितीय पक्ष है जिसकी मीमांसा इस लेख के विषयक्षेत्र से बाहर है ।
श्रीकृष्ण जन्म के प्रसंग में यहाँ वर्षा है, तरङ्गों एवं वर्तुलों से भरी यमुना हैं तथा श्रीकृष्ण को ले कर यमुना पार होते वसुदेव पर मेघों से छाया कर पीछे चलते शेष भी हैं । यह अंश भी उन अन्य पुराणों से भिन्न है क्यों कि वहाँ श्रीकृष्ण के जन्म के साथ ही प्रकृति का मनोरम एवं मन्द समीर युक्त हो जाना बताया गया है।
शक्रमख (इन्द्रयज्ञ) के स्थान पर गिरियज्ञ आयोजन प्रकरण अपने आप में विविध प्राचीन एवं नवीन मान्यताओं एवं तथ्यों को लिये हुये है। इसी में इन्द्र अर्जुन को अपना अंशावतार बताते हैं – मनांश: पुरुषव्याघ्र पृथिव्यां पृथिवीधर । अवतीर्णिऽर्जुनो नाम संरक्ष्यो भवता सदा ॥
आगे अक्रूर श्रीकृष्ण के बारे में सोचते हैं – मत्स्य कूर्मवराहाश्वसिंहरूपादिभिः, जिसमें अवतारी के मत्स्य, कूर्म, वराह, अश्व (हयग्रीव) एवं सिंह (नृसिंह) आदि रूपों का उल्लेख है । ध्यातव्य है कि वर्तमान दशावतार सूची में नहीं पाये जाने वाले हयग्रीव यहाँ विराजमान हैं तथा इन सब में पशु रूप है। ध्यान अन्य पुराणों में प्राप्त वर्णन पर जाता है जहाँ अवतारों को दिव्यावतार एवं मनुष्यावतार, दो वर्गों में रखा गया है। पशुओं का क्रम भी ध्यातव्य है। पृथ्वी को अपने मस्तक पर धारण करने वाले अनन्त के अवतार भी उनके मन में हैं :
योनन्तः पृथिवीं धत्ते शेखरस्थितिसंस्थिताम् । सोऽवतीर्णो जगत्यर्थे माम क्रूरेति वक्ष्यति ॥ ५,१७.१२ ॥
सर्प भी मानवेतर सरीसृप जन्तु श्रेणी ही है।
अक्रूर भक्तिरस में पूर्णत: डूबे हुये हैं – तस्मादहं भक्तिविनम्रचेता व्रजामि सर्वेश्वमीश्वराणाम् । बलि के व्याज से वामन रूप का भी उल्लेख माना जा सकता है – यत्रांबु विन्यस्य बलिर्मनोज्ञानवाप भोगान्वसुधातवलस्थः ।
भक्तिरस से पूर्ण यह प्रसङ्ग नवीनतर इससे सिद्ध होता है कि अभी किशोर वय के श्रीकृष्ण मथुरा में प्रवेश करने वाले हैं किन्तु अक्रूर उनके सन्तति रूपों प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध की भी स्तुति कर डालते हैं !
ॐ नमो वासुदेवाय नमःसंकर्षणाय च । प्रद्युम्नाय नमस्तुभ्यमनिरुद्धाय ते नमः ॥ ५,१८.५८ ॥
नरकासुर प्रकरण में पृथ्वी ने श्रीकृष्ण से उसे सूकर (वराह) रूप के समय उन के स्पर्श से जन्मा बताया है :
यदाहमुद्धृता नाथ त्वया सूकरमूर्तिना । त्वत्स्पर्शसंभवः पुत्रस्तदायं मय्यजायत ॥ ५,२९.२३ ॥
बाणासुर प्रकरण में श्रीकृष्ण शङ्कर से अपना ऐक्य बताते हैं :
त्वया यदभयं दत्तं तद्दत्तमखिलं मया । मत्तोऽविभिन्नमात्मानं द्रष्टुमर्हसि शङ्कर ॥ ५,३३.४७ ॥
योहं स त्वं जगच्चेदं सदेवासुरमानुषम् । मत्तो नान्यदशेषं यत्तत्त्वञ्ज्ञातुमिहार्हसि ॥ ५,३३.४८ ॥
अविद्यामोहितात्मानः पुरुषा भिन्नदर्शिनः । वदन्ति भेदं पश्यन्ति चावयोरन्तरं हर ॥ ५,३३.४९ ॥
सुदर्शन चक्र द्वारा काशीदहन का प्रसङ्ग प्रकारान्तर से इस वैष्णव पुराण द्वारा शैवों से श्रेष्ठता प्रतिपादन ही है जिसका इतर रूप शिव श्रेष्ठता दर्शाने वाले पुराणों में नृसिंह अवतार के शिव गण द्वारा वध में मिलता है। साम्प्रदायिक आग्रहों के साथ साथ समन्वय को भी ले कर चलना पुराणों की एक विशेषता है।
छठे एवं अन्तिम अंश में इस पुराण की परम्परा दी हुई है । दो भिन्न पाठ मिलते हैं, एक में मूलत: इसे ऋषि नारायण प्रणीत बताया गया है तथा पराशर इसकी स्मृति रह जाने को वसिष्ठ की कृपा बताते हैं। दूसरे पाठ में नारायण नहीं है, परम्परा ब्रह्मा से आरम्भ होती है तथा पराशर इसकी स्मृति रह जाने को पुलस्त्य की कृपा बताते हैं। दधीचि शेष दोनों पाठों में समान है । ऊपर, आरम्भ में, वसिष्ठ की उपस्थिति में पुलस्त्य द्वारा दिया वरदान उल्लिखित है। ब्रह्मा से पूर्व नारायण ऋषि का होना एक अन्य प्रमाण है कि सूत रोमहर्षण की व्यास परम्परा से भिन्न भी कोई धारा रही होगी जिसकी स्मृति मात्र शेष रही। इसे आर्षपुराण कहा जाना भी एक इङ्गित है :
इदमार्षं पुरा प्राह ऋभवे कमलोद्भवः । ऋभुः प्रियव्रतायाह स च भागुरयेऽब्रवीत् ॥ ६,८.४३ ॥
भागुरिस्तम्भमित्राय दधीचाय स चोक्तवान् । सारस्वताय तेनोक्तं भृगुः सारस्वतेन च ॥ ६,८.४४ ॥
भृगुणा पुरुकुत्साय नर्मदायै स चोक्तवान् । नर्मदा धृतराष्ट्रायनागायापूरणाय च ॥ ६,८.४५ ॥
ताभ्यां च नागराजाय प्रोक्तं वासुकये द्विज । वासुकिः प्राह वत्साय वत्सश्चाश्वतराय वै ॥ ६,८.४६ ॥
कंबलाय च तेनोक्तमेलापुत्राय तेन वै ॥ ६,८.४७ ॥
पातालं समनुप्राप्तः ततो वेदशिरा मुनिः । प्राप्तवानेतदखिलं स च प्रमतये ददौ ॥ ६,८.४८ ॥
दत्तं प्रमतिना चैतज्जातुकर्णाय धीमते । जातुकर्णेन चैवोक्तमन्येषां पुण्यकर्मणाम् ॥ ६,८.४९ ॥
पुलस्त्यवरदानेन ममाप्येतत्स्मृतिं गतम् । मयापि तूभ्यं मैत्रेय यथावत्कथितं त्बिदम् ॥ ६,८.५० ॥
(नारायण>)ब्रह्मा>ऋभु>प्रियव्रत>भागुरि>स्तम्भमित्र>दधीचि>सारस्वत>भृगु>पुरुकुत्स>नर्मदा
नर्मदा>धृतराष्ट्र, पूरणनाग>वासुकी>वत्स>अश्वतर>कम्बल>एलापुत्र
वेदशिरा>प्रमति>जातुकर्ण
भविष्य में मैत्रेय द्वारा शिनीक को।
इस प्रकार से एक स्वतन्त्र परम्परा का वर्णन भी इसे स्वतन्त्र शाखा की श्रेणी में रखता है।
अत: इस पुराण से निम्न बिन्दु निस्सृत होते हैं :
१. यह सूत परम्परा से स्वतन्त्र शाखा का पुराण हो सकता है जिसका सम्बंध किसी विलुप्त अति प्राचीन परम्परा से है। कृष्णद्वैपायन एवं रोमहर्षण सूत को बताते हुये भी पिता पराशर द्वारा अपनी स्वतन्त्र परम्परा पर बल दिया गया है ।
२. इस पुराण में अति प्राचीन से ले कर नवीनतर काल तक के अंश हैं जिनसे इसके अंतिम रूप में आने का वास्तविक काल निर्धारण अति कठिन है।
३. इसमें दशावतार शब्द या उस प्रकार की कोई धारणा नहीं है, अवतारों के उल्लेख हैं तथा विष्णु के समान्तर राजन्य एवं अन्य के भी अवतरण के उल्लेख हैं।
४. इस पुराण में बुद्ध को अवतारों में रखना दूर की बात है, उल्लेख तक नहीं है। जैन धर्म से सम्बंधित प्रकरण में बुद्ध शब्द के रूप प्रयुक्त हैं जिन्हें कतिपय विद्वानों ने परोक्ष संकेतक माना है।.नवीनतम अंश गद्यात्मक हैं जिनमें परशुराम संज्ञा का प्रयोग हुआ है । आन्तरिक साक्ष्यों से ही ‘परशुराम’ सङ्कल्पना की नवीनता सामने आ जाती है।
५. यह राधा पूजक सम्प्रदाय की स्थापना से पूर्व एवं जामदग्न्य राम के सर्वक्षत्रहन्ता परशुराम रूप के स्थापित हो जाने के पश्चात के कालखण्ड में आज उपलब्ध रूप लिया हो सकता है।
संदर्भ :
(1)
सकलक्षत्रियक्षयकारिणमशेषहैहयकुलधूमकेतुभूतं च परशुराममपास्तवीर्यबलावलेपं चकार ॥ ४,४.९४ ॥
तस्यां चाशेषक्षत्रहन्तारं परशुरामसंज्ञं भगवतःसकललोकगुरोर्नारायणस्यांशं जमदग्निरजीजनत् ॥ ४,७.३६ ॥
यश्च पञ्चाशीतिवर्शसहस्रोपलक्षणकालावसाने भगवन्नारायणांशेन परशुरामेणोपसंहृतः ॥ ४,११.२० ॥
महानन्दि नस्ततः शूद्रगर्भोद्भवोतिलुब्धोतिबलो महापद्मनामा नन्दः परशुराम इवारपोऽखिलक्षत्रान्तकरी भविष्यति ॥ ४,२४.२० ॥
(2)
कापि तेन समायाता कृतपुण्या मदालसा । पदानि तस्याश्चैतानि घनान्यल्पतनूनि च ॥ ५,१३.३३ ॥
पुष्पापचयमत्रोच्चैश्चक्रे दामोदरे ध्रुवम् । येनाग्राक्रान्तमात्राणि पदान्यत्र महात्मनः ॥ ५,१३.३४ ॥
अत्रोपविश्य वै तेन काचित्पुष्पैरलङ्कृता । अन्यजन्मनि सर्वात्मा विष्णुरभ्यर्चितस्तया ॥ ५,१३.३५ ॥
पुष्पबन्धनसंमानकृतमानामपास्य ताम् । नन्दगोपसुतो यातो मार्गेणानेन पश्यत ॥ ५,१३.३६ ॥
अनुयातैनमत्रान्या नितंबभरमन्थरा । या गन्तव्ये द्रुतं याति निम्नपादाग्रसंस्थितिः ॥ ५,१३.३७ ॥
हस्तन्यस्ताग्रहस्तेयं तेन याति तथा सखी । अनायत्तपदन्यासा लक्ष्यते पदपद्धतिः ॥ ५,१३.३८ ॥
हस्तसंस्पर्शमात्रेण धूर्तेनैषा विमानिता । नैराश्यान्मन्दगामिन्या निवृत्तं लक्ष्यते पदम् ॥ ५,१३.३९ ॥
नूनमुक्ता त्वरामीति पुनरेष्यामितेन्तिकम् । तेन कृष्णेन येनैषा त्वरिता पदपद्धतिः ॥ ५,१३.४० ॥
प्रविष्टो गहनं कृष्णः पदमत्र न लक्ष्यते । निवर्तध्वं शशाङ्कस्य नैतद्दी धितिगोचरे ॥ ५,१३.४१ ॥
(3)
अविकाराय शुद्धाय नित्याय परमात्मने । सदैकरूपरूपाय विष्णवे सर्वजिष्णवे ॥ १,२.१ ॥
नमो हिरण्यगर्भाय हरये शङ्कराय च । वासुदेवाय ताराय सर्वस्थित्यन्तकारिणे ॥ १,२.२ ॥
…
तमोद्रेकी च कल्पान्ते रुद्ररूपी जर्नादनः । मैत्रेयाखिलभूतानि भक्षयत्यतिदारूणः ॥ १,२.६३ ॥
भक्षयित्वा च भूतानि जगत्येकाणवीकृते । नागपर्यङ्कशयने शेते च परमेश्वरः ॥ १,२.६४ ॥
प्रबुद्धश्च पुनः सृष्टिं करोति ब्रह्मरूपधृक् ॥ १,२.६५ ॥
सृष्टिस्थित्यन्तकरणीं ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाम् । स संज्ञां याति भगवानेक एव जनार्दनः ॥ १,२.६६ ॥
स्त्रष्टा सृजति चात्मानं विष्णुः पाल्यं च पाति च । उपसंह्रियते चान्ते संहर्ता च स्वयं प्रभुः ॥ १,२.६७ ॥
…
आराध्य वरदं विष्णुमिष्टप्राप्तिमसंशयम् । समेति नान्यथा मर्त्यः किम न्यत्कथयामि वः ॥ १,१४.१४ ॥
तस्मात्प्रजा विवृद्ध्यर्थं सर्वभूतप्रभुं हरिम् । आराधयत गोविन्दं यदि सिद्धिमभीप्सथः ॥ १,१४.१५ ॥
धर्ममर्थं च कामं च मोक्षं चान्विच्छतां सदा । आराधनीयो भगवाननादिपुरुषोत्तमः ॥ १,१४.१६ ॥