Vyanjan Sandhi व्यञ्जन सन्धि या हल् संंधि – २ से आगे
Vyanjan Sandhi व्यञ्जन सन्धि
१३. चर्त्त्वम्
सूत्र – 8.4.55 खरि च । [झलाम् चर्] ,
झल् प्रत्याहार के पश्चात खर् आये तो झल् का चर् प्रत्याहार में परिवर्तन हो जाता है।
झल् – झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष स ह
(क ख ग घ, च छ ज झ, ट ठ ड ढ, त थ द ध, प फ ब भ, श ष स, ह)
खर् – ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष स
(क ख, च छ, ट ठ, त थ, प फ, श ष स)
चर् – च ट त क प श ष स
(क, च, ट, त, प, श ष स)
तीनों प्रत्याहार समूहों को नियमित क्रम में करने पर स्पष्ट हो जाता है कि यह सन्धि सरलीकरण की दिशा में है। प्रत्येक वर्ग के पञ्चमाक्षर छोड़ कर व श ष स ह को मिला कर झल् होता है। संधि पश्चात उसके वर्णों का परिवर्तन अपने वर्ग के सङ्गत प्रथम वर्ण में हो जाता है। उदाहरण – तद्+काल: = तत् काल: = तत्काल:
एक रोचक परिवर्तन अन्य नियमों के साथ इस प्रकार होता है। ऋचा, ऋक् व ऋग् प्रयोगों से हम साक्षात होते रहते हैं। देखें कि च्, क् या ग् के परिवर्तन यादृच्छ नहीं हैं, वे नियमानुसार बनते हैं –
ऋच् + सु
= ऋक्+ सु [8.2.30 चो: कु:]
= ऋग्+सु [8.2.39 झलां जशोऽन्ते]
= ऋग्+षु [8.3.59 आदेशप्रत्ययो:]
= ऋक्+षु [8.4.55 खरि च]
मरुद् का मरुत् इसी प्रकार होगा।
8.4.56 वाऽवसाने । [झलाम् चर्]
वाक्य के अन्त (अवसान) में झल् आये तो झल् का चर् में परिवर्तन वैकल्पिक है अर्थात वाक्य के अन्त में मरुत्/मरुद्; ऋत्विग्/ऋत्विक्; वाग्/वाक्; उपनिषद्/उपनिषत्; वाग्/वाक्; विराड्/विराट्; सम्राड्/सम्राट् जैसे युग्मों के दोनों ही रूप मान्य हैं। भगवद्गीता एवं पुरुष सूक्त में ऐसे प्रयोगों के उदाहरण स्वयं देखें।
१४. परसवर्ण:
सूत्र – 8.4.58 अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः।
यह सन्धि पञ्चमाक्षरों पर केन्द्रित है। हिन्दी में समस्त पञ्चमवर्णों ङ्, ञ्, ण्, न् एवं म् हेतु अनुस्वार का प्रयोग प्रचलित है, मान्य है यथा सम्बन्ध को संबंध या सञ्ज्ञा को संज्ञा लिखा जाता है। किन्तु संस्कृत में संधि नियमानुसार अनुस्वार परसवर्ण (आगे आने वाले वर्ण के सङ्गत पञ्चमाक्षर) में परिवर्तित हो जाता है। इसमें प्रयुक्त प्रत्याहार है – यय्।
यय् – य व र ल ञ म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प
(क ख ग घ ङ; च छ ज झ ञ; ट ठ ड ढ ण; त थ द ध न; प फ ब भ म; य र ल व)
अर्थात ऊष्म अक्षरों श, ष, स, ह के अतिरिक्त समस्त २९ व्यञ्जन। परिवर्तन ऐसे होंगे –
कवर्ग – शं+का = शङ्का; गम्+गा >गं+गा>गङ्गा
टवर्ग – दं+ड = दण्ड । इसी प्रकार अन्य वर्गों हेतु भी बनाये जा सकते हैं।
अनुस्वार पश्चात य, ल एवं व होने पर उसका परिवर्तन क्रमश: य्ँ, ल्ँ, व्ँ में हो जाता है। इसके उदाहरण वेदपाठ में मिलते हैं। यथा श्रीसूक्त के ‘चन्द्रां प्रभासां यशसा’ का पाठ ‘चन्द्राम्प्रभासाय्ँयशसा’ एवं ‘श्री श्रयतां यश:’ का ‘श्रीश्रयताय्ँयश:’ पाठ किया जाता है।
यदि अनुस्वार पश्चात र, श, ष, स, ह हों तो उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता, यथा संहिता, दंश आदि।
8.4.59 वा पदान्तस्य ।
इस नियम के अनुसार अनुस्वार के पदान्त में होने पर परिवर्तन वैकल्पिक है। ऐसा बहुधा उपसर्गों के साथ होता है। उपसर्गों को भी पद माना जाता है। सम् उपसर्ग के साथ देखें, दोनों रूप मान्य हैं –
सम् + काश: = संकाश:/सङ्काश:
सम्+ ताप: = संताप:/सन्ताप:
१५. तोर्लि
सूत्र – 8.4.60 तोर्लि (तो: लि)। [परसवर्ण:]
तवर्ग अर्थात त्, थ्, द्, ध्, न् के पश्चात यदि ल् हो आये तो तवर्ग के अक्षर परसवर्णों ल् या ल्ँ में परिवर्तित हो जाते हैं।
- त्, थ्, द्, ध् > ल् । उदाहरण – उद् +लेख: = उल्+लेख: = उल्लेख:
- न् > ल्ँ । उदाहरण – श्रीसूक्त में ‘श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्’ का पाठ ‘श्रियल्ँलोकेदेवजुष्टामुदाराम्’ तोर्लि नियम के अनुसार होता है। भगवद्गीता में ‘श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्पर:’ का पाठ ‘श्रद्धावाल्ँलभतेज्ञानन्तत्पर:’ होगा।
१६. झयो होऽन्यतरस्याम्
सूत्र – 8.4.62 झय: ह: अन्यतरस्याम्। [पूर्वस्य सवर्ण:]
पिछले सूत्र में हमने परसवर्ण प्रयोग देखा। इस सूत्र में पूर्वसवर्ण का प्रयोग होता है अर्थात वर्ण ‘ह्’ के पूर्व यदि झय् प्रत्याहार का कोई वर्ण आये तो ‘ह्’ का परिवर्तन पूर्व वर्ण के सवर्णी घोष महाप्राण व्यञ्जन में हो जाता है, वर्ग के चौथे अक्षर में।
झय् – झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प
(अर्थात पञ्चमाक्षरों के अतिरिक्त समस्त स्पर्श वर्ण)
सरल संस्कृत माला में पूर्ववर्ती वर्णतालिका पर ध्यान दें तो सवर्णी परिवर्तन इस प्रकार होंगे :
ह् के पूर्व (क ख ग घ) => ह् -> घ्
ह् के पूर्व (च छ ज झ) => ह् -> झ्
ह् के पूर्व (ट ठ ड ढ) => ह् -> ढ्
ह् के पूर्व (त थ द ध) => ह् -> ध्
ह् के पूर्व (प फ ब भ) => ह् -> भ्
उदाहरण –
उद् + हृतम् = उद् + धृतम् = उद्धृतम्
१७. शश्छोऽटि
सूत्र – 8.4.63 शश्छोऽटि (श: छ: अटि)। [झय: अन्यतरस्याम्]
यह नियम ‘श्’ पर केन्द्रित है। ‘श्’ का शुद्ध उच्चारण स्थान न जानने के कारण बहुधा लोग उसे ‘स्’ या ‘ष्’ बोलते हैं, लोकभाषाओं में तो चलन है ही। इस सूत्र के अनुसार यदि श् के पूर्व झय् प्रत्याहार में से कोई वर्ण हो तथा आगे अट् प्रत्याहार में से कोई वर्ण हो तो ‘श’ का वैकल्पिक रूप से परिवर्तन ‘छ्’ हो जाता है। दोनों प्रत्याहार इस प्रकार हैं :
झय् – झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प
(अर्थात पञ्चमाक्षरों के अतिरिक्त समस्त स्पर्श वर्ण)
अट् – अ इ उ ऋ लृ ए ओ ऐ औ ह य व र
(अर्थात समस्त स्वर एवं ल के अतिरिक्त समस्त अर्द्धस्वर)
उदाहरण हेतु विविध पूर्ववर्ती सूत्रों के अनुसार यह व्युत्पत्ति देखें –
श्रीमद् + शङ्कर:
= श्रीमज् + शङ्कर: [ स्तो: श्चुना श्चु:]
= श्रीमच् + शङ्कर: [खरि च]
= श्रीमच् + छङ्कर: [शश्छोऽटि]
= श्रीमच्छङ्कर:
(अगले अङ्क से समास)
आभार व सन्दर्भ :
1. Ashtadhyayi of Panini, Sris Chandra Vasu, Benares, 1898 CE,
2. Enjoyable Sanskrit Grammar Series, Volume 2 Phonetics & Sandhi, Ed. Medha Michika, Arsha Avinash Foundation, Coimbatore, 2016 CE,
3. Sanskrit Introduction, Heiko Kretschmer, BoD Books on Demand, 2015 CE,
4. The Sanskrit Language: An Introductory Grammar and Reader, Vol. I, W H Maurer, RoutledgeCurzon, Taylor & Francis Group, London & New York, 2004 CE,
5. https://www.sanskritjagat.co.in
6. http://geetaasandarbha.blogspot.com/
बहुत बहुत धन्यवाद मान्यवर।
महोदय झल् का चर् प्रत्याहार में परिवर्तन किस प्रकार होगा अर्थात् झल् के अंतर्गत तो 24 वर्ण है और चर् के अंतर्गत 8 वर्ण आते है परिवर्तन किस आधार पर होगा। बताने की कृपा करें🙏😌