Vyanjan Sandhi व्यञ्जन सन्धि या हल् संंधि – १ से आगे
८. ङ मुट्आगम:
सूत्र – 8.3.32 ङमो ह्रस्वादचि ङमुण्नित्यम् (ङम: ह्रस्वात्अचि ङमुट्नित्यम् च)। [पदस्य]
यह संधि दो प्रत्याहारों ङम् एवं अच् प्रत्याहारों से सम्बन्धित है।
⦁ ङम्- ङ्, ण्, न्
⦁ अच् – अ इ उ ऋ लृ ए ओ ऐ औ, अर्थात स्वर।
यदि किसी पद के अन्त में ङ्, ण्, न्में से कोई हो, उससे पूर्व ह्रस्व मात्रा हो तथा पश्चात कोई स्वर हो तो संधि में पदान्त के ङ्, ण्, न् का द्वित्व हो जाता है अर्थात ङ् के साथ एक और ङ्, ण् के साथ एक और ण् और न् के साथ एक और न्लग जाते हैं।
उदाहरण के लिये भगवद्गीता में प्रयुक्त ‘विषीदन्निम्’ को देखें –
कृपया परया आविष्टः विषीदन् इदम् अब्रवीत् ।
दृष्ट्वा इमम् स्वजनम् कृष्ण युयुत्सुम् समुपस्थितम् ॥
विषीदन् एवं इम् की संधि हुई है। पहले शब्द के अंत में ‘न्’ है, उससे पहले ‘द’ ह्रस्व ‘अ’ युक्त है तथा ‘इम्’ का पहला अक्षर ‘इ’ एक स्वर है। अत:, विषीदन्+इदम् = विषीदन्+न्+इदम् = विषीदन्+(न्+इ)+दम्= विषीदन्+नि+दम्= विषीदन्निदम्।
९. मूर्धन्य-त्वम्
सूत्र है – 8.3.59 आदेशप्रत्यययोः । [अपदान्तस्य मूर्धन्य: स: इण्को:]
इस सूत्र में एक पारिभाषिक शब्द आया है – आदेश। व्याकरण में ‘आदेश’ प्रतिस्थापन को कहते हैं अर्थात किसी संधि नियम से यदि कोई वर्ण (यथा क्) किसी अन्य वर्ण (यथा ग्) से प्रतिस्थापित किया जाता है तो कहते हैं कि अमुक संधि में ग्आदेश है या ग्का आदेश है। सामान्यतया ऐसा किसी एक वर्ण हेतु न हो कर प्रत्याहार हेतु होता है।
इस सूत्र के अनुसार यदि किसी पूर्व ‘आदेश’ के कारण स्हुआ हो या प्रत्यय (शब्द के अंत में लग कर अर्थ विस्तार कराने वाला प्रत्यय कहलाता है।) में स्हो तथा उससे पूर्व यदि प्रत्याहार इण्(इ उ ऋ लृ ए ओ ऐ औ ह य व र ल) या कुवर्ग (क ख ग घ ङ) में से कोई हो तो दन्त्य स्का ष्आदेश हो जाता है अर्थात स्का ष्में परिवर्तन हो जाता है।
यदि स्पद के अन्त में होगा तो यह नियम नहीं लगेगा – अपदान्तस्य !
यथा – सर्वे+सु = सर्वेषु, नदी+सु = नदीषु आदि।
१०. ण-त्वम्
इस संधि में तीन सूत्र प्रयुक्त होते हैं :
(१) 8.4.1 रषाभ्यां नो णः समानपदे (र-षाभ्याम्न: ण: समानपदे)।
समान पद में ही यदि न् के पूर्व र् या ष् आयें तो न् के स्थान पर ण् का आदेश होता है। यथा, परि+नाम = परिणाम।
(२) 8.4.2 अट्कुप्वाङ्नुम्व्यवायेऽपि (अट्कु पु आङ्नुम्व्यवाये अपि)।
यदि र्/ष् एवं न् के बीच में अट् प्रत्याहार (अ इ उ ऋ लृ ए ओ ऐ औ ह य व र) या कु(क-वर्ग) या पु(प-वर्ग) या आङ् उपसर्ग या नुम् आगम में से कोई हो/हों तब भी न् का ण् हो जाता है। यथा, राम+अयन = रामायण, विप्र+हन्+अच् = विप्रहण।
(३) 8.4.37 पदान्तस्य । [न न: ण:] – न् से ण् का परिवर्तन पद के अन्त में नहीं होता।
रामेण जैसे रूप इसी सूत्र के कारण बनते हैं। संस्कृतेतर भाषाओं में ण के स्थान पर न का उच्चारण इस नियम की सरलीकरण उपेक्षा के कारण भी होता है।
११. श्चु-त्वम् / ष्टु-त्वम्
इसमें दो सूत्र लगते हैं।
(१) 8.4.40 स्तोः श्चुना श्चुः ।
दन्त्य स् या तु (त-वर्ग, त्, थ्, द्, ध्, न्) यदि तालव्य रूपों, क्रमश: श् या चु (च-वर्ग, च्, छ्, ज्, झ्, ञ्) के सम्पर्क में आयें तो स् का श् में एवं तु का सङ्गत तालव्य चु में परिवर्तन हो जाता है। उदाहरण :
रामस्+च = रामश्च; मनस्+शिला = मनश्शिला; सत्+चित् = सच्चित्; सद्+जन = सज्जन।
पुरुष सूक्त में देखें – गावो॑ ह जज्ञिरे॒ तस्मा॒त्तस्मा॑ज्जा॒ता अ॑जा॒वय॑:। तस्माद्+जाता में दन्त्य द् अपने त-वर्ग में तीसरा है, अत: सन्धि पश्चात च-वर्ग के तीसरे ज् में परिवर्तित हो जायेगा – तस्माज्+जाता = तस्माज्जाता।
(२) 8.4.41 ष्टुना ष्टुः । [स्तो:]
दन्त्य स् या तु (त-वर्ग, त्, थ्, द्, ध्, न्) यदि मूर्धन्य रूपों, क्रमश: ष् या टु (ट-वर्ग, ट्, ठ्, ड्, ढ्, ण्) के सम्पर्क में आयें तो सङ्गत मूर्धन्य रूपों में अर्थात स् से ष् एवं तु से मूर्धन्य टु में परिवर्तन हो जाते हैं। उदाहरण :
उद्+डयनम्=उड्डनयम्; बालास्+षड्=बालाष्षड्; तत्+टीका= तट्टीका; इस कथन में देखें – ढुण्ढनाड्ढुण्ढिरपि प्राप्नोति = ढूँढ़ने पर ढुण्ढि (गणेश) भी प्राप्त होते हैं। ढुण्ढनाद् + ढुण्ढिः = ढुण्ढनाड्ढुण्ढिः। द् अपने वर्ग में तीसरा है, अत: सन्धि पश्चात ट-वर्ग के तीसरे वर्ण ड् में परिवर्तित हो जायेगा।
१२. अनुनासिक:
सूत्र – 8.4.45 यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको वा (यर: अनुनासिके अनुनासिक: वा)। [पदस्य]
यह यर् प्रत्याहार से सम्बन्धित है तथा इसका प्रयोग शुद्ध स्तोत्र एवं मन्त्र पाठ हेतु अति आवश्यक है। यर् प्रत्याहार में ‘ह’ के अतिरिक्त शेष समस्त ३२ व्यञ्जन आते हैं।
पदान्त में इनके पश्चात अनुनासिकों ङ्, ञ्, ण्, न्, म् में से कोई आने पर ये अपने सङ्गत अनुनासिकों में परिवर्तित हो जाते हैं अर्थात –
⦁ क-वर्ग/ च-वर्ग/ ट-वर्ग/ त-वर्ग/ प-वर्ग के अक्षर क्रमश: ङ्/ ञ्/ ण्/ न्/ म् में परिवर्तित होंगे।
⦁ य्, व्, ल् क्रमश: यँ, वँ, लँ में परिवर्तित हो जायेंगे, और
⦁ र्, श, ष्, स् में समान अनुनासिक ध्वनियों की अनुपस्थिति के कारण परिवर्तन नहीं होगा।
उदाहरण – वाक्+मे में क् अपने अनुनासिक ङ् में परिवर्तित हो जायेगा अत: संधि पश्चात रूप होगा – वाङ्मे। जगत्+मिथ्या = जगन्मिथ्या; बृहद्+नला = बृहन्नला।
महामृत्युञ्जय मन्त्र में देखें –
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धि पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॥
इसका पदच्छेद होगा –
त्र्यम्बकम् . यजामहे . सुगन्धिम् . पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकम्. इव. बन्धनात् . मृत्योः . मुक्षीय . मा . अमृतात् ॥
इसमें बन्धनात् एवं मृत्योर्मुक्षीय की सन्धि में प्रथम शब्द के अन्तिम ‘त्’ के पश्चात मृत्यु का म् आया है अत: संधि पश्चात त् का परिवर्तन सवर्गी अनुस्वार न् में हो कर बन्धनान् हो जायेगा।
उच्चारण शुद्धि हेतु श्री सूक्त में देखें। ‘दुराधर्षाम् नित्यपुष्टाम् करीषिणीम्’ में पहले शब्द के म् के पश्चात दूसरे शब्द का पहला वर्ण न् है अत: उच्चारण के समय पहले शब्द के म् का उच्चारण न् होगा – दुराधर्षान्नित्यपुष्टा। दूसरे शब्द के अंत के म् के पश्चात तीसरे शब्द का पहला अक्षर क् है, अत: एक अन्य नियम के अनुसार यहाँ म् का परिवर्तन क-वर्ग के पञ्चमाक्षर ङ् में हो जायेगा। शुद्ध उच्चारण दर्शाने हेतु इसे ऐसे लिखेंगे – दुराधर्षान्नित्यपुष्टाङ्करीषिणीम्। वह अन्य नियम कौन सा है? पता लगायें तो!
(अगले अङ्क में Vyanjan Sandhi व्यञ्जन सन्धि के शेष पाँच प्रकार)
आभार व सन्दर्भ :
1. Ashtadhyayi of Panini, Sris Chandra Vasu, Benares, 1898 CE,
2. Enjoyable Sanskrit Grammar Series, Volume 2 Phonetics & Sandhi, Ed. Medha Michika, Arsha Avinash Foundation, Coimbatore, 2016 CE,
3. Sanskrit Introduction, Heiko Kretschmer, BoD Books on Demand, 2015 CE,
4. The Sanskrit Language: An Introductory Grammar and Reader, Vol. I, W H Maurer, RoutledgeCurzon, Taylor & Francis Group, London & New York, 2004 CE,
5. SL Abhyankar, भारतीयविद्वत्परिषत्, Google Group, 2018 CE
6. https://www.sanskritjagat.co.in
7. http://geetaasandarbha.blogspot.com/
बहुत ही अच्छा
परन्तु एक पृष्ठ से अगले पर जाने की कडी नही मिल रही।
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