पिछले भाग से आगे
हारवर्ड विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक डेविड पर्किन्स तर्क-विचारों (reasoning) के अध्ययन के लिए जाने जाते हैं। Informal Reasoning and Education में वह दैनिक जीवन में उत्पन्न होने वाले विचारों का विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत करते हैं। एक रोचक अध्ययन में उन्होंने अवलोकन किया कि सोचने की प्रक्रिया अर्थ विशेष तक पहुँचने के लिए ही चलती है जिसे वह makes sense stopping rule कहते हैं अर्थात हमारे सोचने की प्रक्रिया हमारे स्वयं के दृष्टिकोण के समर्थन में तथ्यों को ढूँढने तक चलती है और जैसे ही हमें अपने दृष्टिकोण का समर्थन करने वाली बात मिल जाती है, हमारे सोचने की प्रक्रिया रुक जाती है। इसका एक सटीक उपयोग तो यही है कि राजनीतिक विचारधारा के वे लोग जो दो मतों के बीच में झूल रहे होते हैं, उन्हें यदि किसी एक विचारधारा के समर्थन की बातें दिखती रहें तो उनका मस्तिष्क परिवर्तन किया जा सकता है जैसे वर्तमान युग में संचार माध्यमों (social media) पर चल रही बातें और मत प्रचार सच में प्रभावी होते हैं।
अर्थात बिना पूर्ण रूप से विचारे हमें अपने मस्तिष्क पर भी भरोसा नहीं करना चाहिये। कुछ वैसी ही बात जो भर्तृहरि नीतिशतकम में करते हैं-
गुणवदगुणवद्वा कुर्वता कार्यजातं। परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन ।
अतिरभसकृतानां कर्मणामाविपत्तेः। भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः |
या जिसे हम ‘बिना विचारे जो करे’ के रूप में भी जानते हैं। साथ ही हमारा मस्तिष्क हमारी भूलों एवं त्रुटियों के समर्थन में वे कारण ढूँढने लगता हैं जिनसे वे त्रुटियाँ, वे भूलें त्रुटि या भूल ही न लगें। जैसे परीक्षा में अल्प अंक पाने वाले इस बात के तर्क ढूँढ़ने लगते हैं कि अंक महत्वपूर्ण ही नहीं होते। नियमित चाय-कॉफ़ी पीने वाले ऐसे शोध पढ़ कर स्मृति में सँजो लेते हैं जिनमें इनके लाभ गिनाये गये होते हैं। संभवतः यह एक कारण है जिसके लिये मदिरा उत्पादक व्यवसायी ऐसे शोध को बढ़ावा देते हैं जिनमें यह दिखाया जाता है कि कम मात्रा में मदिरा सेवन के लाभ होते हैं। सामाजिक मनोविज्ञान में अनेकों अध्ययन हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि किसी अधिवक्ता की भाँति मस्तिष्क हमारी मान्यताओं और कार्यकलापों के समर्थन में तर्क ढूँढते रहता है एवं बहुधा मस्तिष्क ऐसे तर्क ढूँढ भी लेता है, तथा इससे उपजती है – वस्तुपरकता की भ्रान्ति (the illusion of objectivity) अर्थात यह विश्वास कि हमारा दृष्टिकोण तर्कसंगत और वस्तुनिष्ठ है !
प्रकृति ने हमारे मस्तिष्क को बनाया ही कुछ इस प्रकार है। हम धर्मात्मा हों न हों अपनी दृष्टि में हम स्वयं को वैसा देख लेते हैं। पर यहाँ सीखने को यह भी है कि हर व्यक्ति का मस्तिष्क ऐसा ही है। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों की एक अत्यंत रोचक बात यह है कि हम जब दूसरों का मूल्याङ्कन करते हैं तो हमें यह बात स्पष्ट दिखती है। हम दूसरों के ढोंग और अभिनय को देख पाते हैं परन्तु स्वयं वैसे ही होते हुए भी स्वयं को धर्मात्मा के रूप में ही देखते हैं। पेन्सिल्वेनिया विश्वविद्यालय के विकासवादी मनोवैज्ञानिक रोबर्ट कुर्ज्बान की रोचक पुस्तक Why Everyone (Else) Is a Hypocrite: Evolution and the Modular Mind का सार ही यही है। इसीलिये जब हम अपने कार्यकलापों और जीवनी की तुलना दुसरे व्यक्तियों से करते हैं तो हमारा मस्तिष्क इस बात के पक्ष में तर्क जुटाता रहता है कि हम दूसरों से अच्छे हैं, हमारा व्यवहार और कर्म पूर्णत: सटीक हैं, हमारें व्यवहार में कहीं स्वार्थ नहीं; जबकि दूसरों के स्वार्थ हम भली भाँति देख पाते हैं।
दर्शनशास्त्र के सरल यथार्थवाद (naive realism) से प्रेरित होकर प्रिंसटन विश्वविद्यालय की एमिली प्रोनिन और स्टैनफोर्ड के ली रोस इसे मनोविज्ञान का सरल यथार्थवाद (naive realism) कहते हैं जिसका अर्थ है कि हमें लगता है कि हम तो संसार को वस्तुनिष्ठ रूप में देखते हैं अर्थात जो कुछ है वह हम पूर्णत: देख और समझ पाते हैं, अत: अन्य लोगों को हमसे सहमत होना चाहिये। यदि वे सहमत नहीं हो रहे तो इसका अर्थ हम यह निकालते हैं कि या तो उन्होंने हमारी भाँति यथार्थ का अनुभव ही नहीं किया या वे अपनी विचारधारा एवं स्वार्थपरता में अंधे हैं, अन्य सभी ऐसे हैं, केवल स्वयं हमें छोड़कर। स्वयं के लिए हमें यही लगता है कि हम यथार्थ देख रहे हैं। ये बात उन विचारधाराओं के लिए भी होती है जिनमें हमारा दृढ़ विश्वास होता है। मनोविज्ञान का यह सरल यथार्थवाद कई संज्ञानात्मक भ्रांतियों की जड़ है।
२०१० में प्रकाशित Handbook of Social Psychology में सरल यथार्थवाद को मानवीय दृष्टिकोण, अनुभूति, प्रेरणा और व्यवहार को गहरी दृष्टि देने वाले सामाजिक मनोविज्ञान के चार गुह्य सिद्धांतों में स्थान दिया गया। अनेक प्रयोगों में इस सिद्धांत की पुष्टि भी हुई। १९५४ में जब डार्टमोथ और प्रिंसटन विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को एक विवादित मैच का एक ही वीडियो दिखाया गया तो दोनों विश्विद्यालयों के छात्रों विचार भिन्न निकले। दोनों ही विश्वविद्यालयों के छात्रों ने कहा कि उनकी टीम का दृष्टिकोण उचित था एवं अपर टीम का व्यवहार पक्षपाती! संसार को वस्तुनिष्ठ रूप में देखने और स्वयं के दोषों के अभिजान हेतु ही तो कहा गया है – बुरा जो देखन मैं चला…। मनुस्मृति में दूसरों में दोष देखने को अठ्ठारह स्वभावगत बुराइयों में से एक माना गया है। श्रीमद्भागवत महापुराण के चतुर्थ स्कन्ध में सती भगवान् शंकर के बारे में बात करते हुए अपने पिता और द्विजों से कहती हैं कि साधु पुरुष आपकी भाँति दूसरों के गुणों में भी दोष नही देखते। यही नहीं, जो लोग दोष क्या दूसरों के किञ्चित गुण को भी बड़े रूप में देखना चाहते हैं, वे ही श्रेष्ठ हैं। इस सुभाषित में तो शब्दशः यही बात ही है :
खल: सर्षपमात्राणि पराच्छिद्राणि पश्यति । आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ॥
और फिर महाभारत के सौप्तिक पर्व, तृतीय अध्याय में अश्वत्थामा का वचन भी अद्भुत रूप से यही है। एक अंश का अवलोकन करें तो !
पुरुषे पुरुषे बुद्धिर्याया भवति शोभना। तुष्यन्ति च पृथक्सर्वे प्रज्ञया ते स्वयास्वया ॥
सर्वो हि मन्यते लोक आत्मानं बुद्धिमत्तरम्। सर्वस्यात्मा बहुमतः सर्वोत्मानं प्रशंसति ॥
सर्वस्य हि स्वका प्रज्ञा साधुवादे प्रतिष्ठिता। परबुद्धिं च निन्दन्ति स्वां प्रशंसन्ति चासकृत् ॥
भारतीय दर्शन के दो सत्यों की परिकल्पना में भी इस आधुनिक सिद्धांत की जड़ें दिखती हैं। इन्हीं सिद्धातों से जुड़ा हुआ है वैरी संचार माध्यम प्रभाव (Hostile media effect) जिसमें बहुधा संचार माध्यमों को विपरीत विचारधारा वाले दोनों ही वर्ग, विरोधी विचारधारा के समर्थन का दोषी बता देते हैं। एक ही समाचार देखकर दोनों विरोधी वर्ग उसे अपने विरुद्ध पक्षपात बता देते हैं।
मनोवैज्ञानिक रॉय बौमिस्टर ने अपने अध्ययन में पाया कि अपराधी, घरेलू हिंसा से लेकर सामूहिक नरसंहार करने वाले तक, कदाचित ही ये सोचते हैं कि वे कोई गर्हित कर्म कर रहे हैं। यही नहीं, वे स्वयं को पीड़ित बताते हुये ये भी कहते हैं कि उन्होंने तो उकसाहट एवं आक्रमणों की प्रतिक्रिया में उचित कार्य ही किया। इसका उदाहरण तो हर पीड़ित कहा जाने वाला आतंकवादी है ही और हर वह व्यक्ति भी जो ऐतिहासिक एवं धार्मिक नरसंहारों के लिए यह कहता है कि धर्म विशेष की पुस्तकों में विरोधियों के नरसंहार की बात केवल उकसाहट एवं आक्रमणों की प्रतिक्रिया के लिए लिखी गयी है।
इन सिद्धांतों से दुनिया के ही भ्रान्ति (माया) सम होने की बात सत्य प्रतीत होती है। प्रश्न यह उठता है कि इसके लिए हम कर क्या सकते हैं? यही प्रश्न सामाजिक मनोवैज्ञानिक जोनाथन हैद्ट उठाते हैं, जिसका उत्तर वह देते हैं – The first step is to see it as a game and stop taking it so seriously. The great lesson that comes out of ancient India is that life as we experience it is a game called ‘samsara’. It is a game in which each person plays out his ‘dharma’, his role or part in a giant play. In the game of samsara, good things happen to you, and you are happy. Then bad things happen, and you are sad or angry. And so it goes, until you die. Then you are reborn back into it, and it repeats. The message of the Bhagavad Gita (a central text of Hinduism) is that you can’t quit the game entirely; you have a role to play in the functioning of the universe, and you must play that role. But you should do it in the right way, without being attached to the ‘fruits’ or outcomes of your action.
Buddha went a step further. He, too, counseled indifference to the ups and downs of life, but he urged that we quit the game entirely. Buddhism is a set of practices for escaping samsara and the endless cycle of rebirth.