धर्मक्षेत्र।
भारत युद्ध में उपदिष्ट भगवद्गीता के चौथे अध्याय के आठवें श्लोक में श्रीकृष्ण वह कहते हैं जिसे राज्य के तीन आदर्शों के रूप में भी लिया जा सकता है:
- परित्राणाय साधूनाम्
- विनाशाय दुष्कृताम्
- धर्म संस्थापनाय
पहला सूत्र उपचारात्मक है, यदि सज्जन पीड़ित है तो उसे पीड़ा से मुक्ति दी जाय, अन्याय को समाप्त किया जाय, क्षतिपूर्ति की जाय। दूसरा सूत्र रोकथाम से सम्बंधित है कि जो दुष्ट हैं, उनकी पहचान कर उनका विनाश कर दिया जाय। ये दोनों वांछित आदर्श तो हैं किंतु अत्युच्च आदर्श नहीं।
अत्युच्च आदर्श स्थिति वह होगी कि इन दो की आवश्यकता ही न पड़े! तीसरा सूत्र ‘धर्म संस्थापनार्थाय’ इसे सुनिश्चित करता है – न कोई प्रताड़ित करने वाला दुष्ट हो, न प्रताड़ित होने वाला साधु। धर्म यह सुनिश्चित करता है। भारतीय मनीषा सुदूर समय में ऐसे समाज की स्थापना का आख्यान कहती है, गाती है, मञ्चित कर जन जन तक पहुँचाती है।
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कुरुवंश।
तेरह वर्ष का वनवास बीत चुका था। धर्म राज्य की स्थापना का उद्योग पर्व आरम्भ हुआ। एक अंधे राजा धृतराष्ट्र ने दूसरे निर्वासित राजा धर्म के पास सूत सञ्जय से शांति सन्देश भेजवाया। भय कारण था, टोह लेना उद्देश्य।
यथा राज्ञः क्रोधदीप्तस्य सूत; मन्योरहं भीततरः सदैव।
अलं तपोब्रह्मचर्येण युक्तः संकल्पोऽयं मानसस्तस्य सिध्येत्॥
मैं भीमार्जुन योद्धाओं से नहीं डरता, मुझे युधिष्ठिर से सदैव भय रहता है जो तपस्वी और ब्रह्मचर्यव्रती है। उसके मन में जो संकल्प होगा, वह सिद्ध हो कर रहेगा।
शांति संदेश क्या था, युद्ध में न पड़ कर भीख माँग कर जीवन व्यतीत करने का खल पक्ष द्वारा दबाव था कि युद्ध हुआ तो महाविनाश होगा। प्रत्युत्तर में युधिष्ठिर ने इंद्रप्रस्थ पाये बिना शांति की सम्भावना असम्भव बतायी – ददस्व वा शक्रपुरीं ममैव युध्यस्व वा भारतमुख्य वीर, एवं श्रीकृष्ण ने पुत्र आसक्ति ग्रस्त धृतराष्ट्र को दर्पण समान संदेश भेजा। संदेश का उपसंहार करते हुये युधिष्ठिर ने मात्र पाँच गाँव मिल जाने पर भी संकट अवसान की बात स्पष्ट रूप से कह दी।
सञ्जय लौटे एवं धृतराष्ट्र को उपदेश देने के पश्चात खरी खोटी भी सुनाये कि संसार में आप के जैसा पुत्रासक्त मैंने नहीं देखा, आप अकेले ऐसे राजा हैं जो पुत्र के वश में हो सर्वनाश को निमंत्रण दे रहा है – त्वमेवैको जातपुत्रेषु राजन्वशं गत्वा सर्वलोके नरेन्द्र।
… रथयात्रा में वेग से हिलने डुलने के कारण मेरी देह श्रांत हो गयी है, आज्ञा हो तो शयन को जाऊँ। कल कुरु सभा में युधिष्ठिर का संदेश सुना दूँगा।
सञ्जय के जाने के पश्चात धृतराष्ट्र को इतनी घबराहट हुई कि उसी समय विदुर को बुलावा भेज दिये। पधारे विदुर से धृतराष्ट्र ने कहा कि युधिष्ठिर का संदेश जान न पाया, मेरे अंग जल रहे हैं, इंद्रियाँ विकल हैं, शांति नहीं, नींद उड़ गयी है!
विदुर ने जो कुछ समझाया बुझाया, महाभारत ग्रंथ के आठ अध्यायों में पसरा वह खण्ड ‘विदुर नीति’ कहलाया – बलवान से जिसका विरोध हो, उस साधनहीन दुर्बल को, कामी को एवं चोर को नींद नहीं आती। राजन्! कहीं आप का इन दोषों से सम्पर्क तो नहीं हो गया है?
विदुर ने ‘पण्डित कौन, प्रबुद्ध कौन, मूढ़ कौन’ सब बताया, नीति समझायी, ज्ञान की जाने कितनी सुबोध बातें कहीं। न्याय क्या है, राजा का कर्तव्य क्या है? यह बताने के लिये सुधन्वा का आख्यान भी सुनाया।
सब सुन लेने के पश्चात, उतनी पीड़ा में होते हुये भी धृतराष्ट्र ने उत्तर दिया,”तुम जो कह रहे हो, परिणाम में हितकर है, प्राज्ञजन सम्मत है। यह भी ठीक है कि जिस ओर धर्म होता है, उसी पक्ष की जीत होती है, तो भी मैं अपने पुत्र का त्याग नहीं कर सकता। … तुम्हारे प्रतिदिन के उपदेश भी ठीक हैं किंतु दुर्योधन से मिलते ही मेरी बुद्धि परिवर्तित हो जाती है। प्रारब्ध का उल्लंघन करने की शक्ति किसी में नहीं है, वह अचल है, उसके आगे पुरुषार्थ व्यर्थ हैं!
सर्वं त्वमायतीयुक्तं भाषसे प्राज्ञसंमतम् ।
न चोत्सहे सुतं त्यक्तुं यतो धर्मस्ततो जयः ॥“
पहली बार जड़ अंधे राजा के मुँह से ‘यतो धर्मस्ततो जय:’ का उच्चार हुआ तो भी नकारते हुये!
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शांतिदूत बन कर गये श्रीकृष्ण कर्ण से मिले, उसे पाण्डवों के पक्ष में करने के प्रयास किये। उसके जन्म का गोपन भी बता दिया। कर्ण ने उन्हें अपना एक स्वप्न विस्तार से बताते हुये स्पष्ट कहा कि जान पड़ता है कि युद्ध में पाण्डव हम सबका विनाश कर देंगे। मुझे यह भी विदित है कि जिस ओर धर्म होता है, उसी पक्ष की जीत होती है।
क्षपयिष्यति नः सर्वान्स सुव्यक्तं महारणे ।
विदितं मे हृषीकेश यतो धर्मस्ततो जय: ॥
दूसरी बार ‘यतो धर्मस्ततो जय:’ उसके द्वारा कहा गया जिसने सब कुछ जानते समझते हुये भी नहीं मानी, अपनी ही की!
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युद्ध आरम्भ होने के पूर्व द्वैपायन व्यास पधारे। धृतराष्ट्र ने उनसे कहा कि ज्ञातिवध तो देखा नहीं जायेगा, सुन सकूँ, ऐसा उपाय कर दीजिये। सञ्जय को दिव्यदृष्टि सम्पन्न, सर्वज्ञ, परिश्रम एवं थकावट से मुक्त, शस्त्र अवध्य एवं युद्ध अनन्तर भी बना रहने वाला बना कर द्वैपायन ने संकेत किया कि मैं कुरुवंश की कीर्ति का प्रसार करूँगा। हे राजन! दैव का विधान है, कोई टाल नहीं सकता। तुम्हें सोच में नहीं पड़ना चाहिये, जिस ओर धर्म है, विजय उधर ही होगी।
दिष्टमेतत्पुरा चैव नात्र शोचितुमर्हसि ।
न चैव शक्यं संयन्तुं यतो धर्मस्ततो जयः ॥
जैसे मृतकों के भावी अंत्येष्टि मंत्र पढ़ रहे थे, परोक्ष रूप से चेता रहे थे कि अब भी समय है। उन्होंने अनेक अपशकुन भी सुनाये किंतु धृतराष्ट्र पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। तीसरी बार ‘यतो धर्मस्ततो जय:’ स्वयं व्यास ने कहा एवं असफल रहे!
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कौरवों की विशाल सेना देख युधिष्ठिर विषादग्रस्त हुये तब अर्जुन ने उन्हें ब्रह्मा द्वारा देवासुर संग्राम में देवतार्थ कथन सुनाया कि अधर्म, लोभ, मोह त्याग उद्यम का आश्रय ले अहंकारशून्य हो युद्ध करो। जहाँ धर्म है उसी पक्ष की विजय होती है।
त्यक्त्वाधर्मं च लोभं च मोहं चोद्यममास्थिताः ।
युध्यध्वमनहंकारा यतो धर्मस्ततो जयः ॥
‘यतो धर्मस्ततो जयः’ से आगे ‘यत: कृष्णस्ततो जय:’ भी कह भाई का उत्साह बढ़ाने वाले अर्जुन स्वयं ही युद्धभूमि में मोहग्रस्त हो गये एवं श्रीकृष्ण को गीता गायन करना पड़ा!
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पुत्रों का विनाश होता जानने पर संतप्त धृतराष्ट्र ने सञ्जय से कारण पूछा। सञ्जय ने अन्य बातों के साथ पुन: ‘यत: धर्मस्ततो जय:’ कहा किंतु धृतराष्ट्र पुन: वही ढाक के तीन पात!
न ते युद्धान्निवर्तन्ते धर्मोपेता महाबलाः।
श्रिया परमया युक्ता यतो धर्मस्ततो जयः॥
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भीष्म ने दुर्योधन से यहाँ तक कह दिया कि जहाँ कृष्ण हैं, वहाँ धर्म है, जहाँ धर्म है वहाँ जय है। दुर्योधन भला कहाँ मानने वाला था!
राजन्सत्त्वमयो ह्येष तमोरागविवर्जितः ।
यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः ॥
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उद्योग, भीष्म, द्रोण, शल्य, स्त्री एवं अनुशासन पर्वों में ‘यत: धर्मस्ततो जय:’ अंश घूमता रहता है, महाविनाश और जनहानि घटित हो ही जाते हैं।
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पाँच हजार वर्ष पश्चात के भारत में अब सब कुछ संविधान में निहित है। आसन्न ‘महाभारत’ के जाने किस किनारे पर या मध्य में भारतवंशी पड़े हैं? प्रतिद्वंद्वी जाने कौन हैं? ‘धर्म’ जाने कहाँ, किधर है, जाने ‘जय’ किसकी होनी है, पराजय किसकी? जाने विनाश किसका होना है, परित्राण किसका? धर्मसंस्थापना जाने होनी भी है या नहीं?
‘निरपेक्ष’ तंत्र में न्यायदान की सर्वोच्च संस्था का आदर्श वाक्य है, वही – यतो धर्मस्ततो जय: !
अथा॑तः प॑वमानानामेवा॒भ्यारोहः स वै ख॑लु प्रस्तोता सा॑म प्र॑स्तौति स य॑त्र प्रस्त्युआत्त॑देता॑नि जपेद॑सतो मा स॑द्गमय त॑मसो मा ज्यो॑तिर्गमय मृत्यो॑र्मामॄतं गमये॑ति।
स यदाहास॑तो मा स॑द्गमये॑ति मृत्युर्वा अ॑सत्स॑दमॄतम्मृत्यो॑र्मामॄतं गमयामॄतम्मा कुर्वि॑त्येवइ॒त॑दाह।
तमसो मा ज्यो॑तिर्गमये॑ति मृत्युर्वै त॑मो ज्यो॑तिरमॄतम्मृत्यो॑र्मामॄतं गमयामॄतम्मा कुर्वि॑त्येवइ॒त॑दाह मृत्यो॑र्मामॄतं गमये॑ति ना॑त्र तिरो॑हितमिवास्ति।
(शतपथ माध्यंदिन, 14.4.1.30-32)
बहुत बढ़िया पैटर्न आपने बताया है | बात वास्तव में ऐसी ही है जिसे जो सुनना है, वह वही सुनता है बाकी को अनसुना कर देता है | इसीलिये कान सही हों न हों ह्रदय सही होना चाहिए “यतो धर्मस्ततोजयः” !!
यतो धर्मस्ततो जय:
मघा के पूराने अंकों की सारणी नहीं दिख रही ! सोचा रहा था कि एक एक कर सभी अंक पढूंगा, अभी सुरू के चार अंक ही पढा था कि सारणी गायब हो गयी | कृपया प्राचीन अंकों की सारणी मघा के पेज पर उपलब्ध कराएं |
@रवि शंकर मिश्र, (कृपया प्राचीन अंकों की सारणी मघा के पेज पर उपलब्ध कराएं।)
आपके आग्रह पर मुखपृष्ठ पर लगा दी गयी है। मघा के कलेवर पर काम चल रहा है, इसलिए ऐसा हुआ है।