अनेक सनातन सिद्धान्तों सिद्धान्तों का पूर्णरूप से संज्ञान नहीं होने के कारण हम बहुधा उनके संकीर्ण अर्थ निकाल लेते हैं। ऐसे ही सिद्धान्तों में एक है— अनासक्ति। अनासक्ति की चर्चा हमने पिछले कई लेखांशों में की परन्तु आज की कड़ी में प्रेम और सम्बंधों के परिपेक्ष्य में अनासक्ति की चर्चा करते हैं। प्रेम और अनासक्ति परस्पर विरोधी बातें प्रतीत होती हैं। परिवार, मित्र, और प्रेम से बने सम्बन्ध मानवीय समाज के अभिन्न अंग हैं। जटिल होते हुए भी ऐसे सम्बन्ध मानव के अतिरिक्त अन्य प्रजातियों में भी पाए जाते हैं जिनका अध्ययन जीव विज्ञानी करते रहे हैं। आधुनिक विज्ञान में इन बातों के सूक्ष्म अध्ययन भी किये गए हैं जिनमें हारमोन (अन्त:स्राव), प्रतिरक्षा तंत्र (immune system) तथा तंत्रिका सम्बन्धी अध्ययन भी हैं। प्रेमी युगलों को जीवविज्ञानी दीर्घकालिक युगल सम्बन्ध (long term pair bonds) के नाम से जानते हैं। ऐसे सम्बन्धों में अनासक्ति का भला क्या प्रयोजन ?
इन सम्बन्धों के वैज्ञानिक अध्ययन में प्रयोगशालाओं में तथा जीव-संसार में उन कारकों का अध्ययन किया जाता है जिनसे सम्बन्ध मधुर या कटु होते हैं। तथा सम्बन्धों के मधुर या कटु होने के जीवन पर प्रभाव का अध्ययन भी किया जाता है। नार्थ वेस्टर्न विश्विद्यालय में मनोविज्ञान की प्रोफ़ेसर तथा How Emotions Are Made: The Secret Life of the Brain की लेखिका लिसा फेल्डमैन बर्रेट दशकों से भावनाओं तथा सम्बन्धों का वैज्ञानिक अध्ययन करती रही हैं। अपने शोध के वैज्ञानिक निष्कर्ष के साथ सनातन बौद्ध दर्शन में अद्भुत समानता होने पर वह प्रश्न करती हैं कि यदि सम्बन्धों का मूल ही घनिष्ठ लगाव और अनुरक्ति है तो सम्बन्धों के मधुर होने की प्रेरणा किसी ऐसे दर्शन से कैसे आ सकती है जिसका मूल ही अनासक्ति है ! इस विषय पर आधुनिक विज्ञान का दृष्टिकोण क्या है? इन प्रश्नों के उत्तर के लिए वह अनेक आधुनिक अध्ययनों को आधार बनाती हैं।
अपने सहयोगियों के साथ नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक शोध में वह कहती हैं कि मस्तिष्क का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य होता है हमारे जैविक तंत्र का प्रबंधन करना जिससे हमारे अंग, अन्त:स्राव, पाचन तंत्र इत्यादि दक्षता से कार्य करते रहें। मस्तिष्क इस कार्य में अनवरत व्यस्त रहता है और शरीर को जहाँ भी संसाधन की आवश्यकता होती है वहाँ उसकी पूर्ति करता रहता है। यथा, रक्त चाप को नियंत्रित करना, यदि हमें शर्करा की आवश्यकता हो तो उस हेतु हमारे मन में इच्छा उत्पन्न करना इत्यादि। मस्तिष्क का कार्य आय-व्यय का लेखा रखने सदृश है। वैज्ञानिक इस प्रक्रिया को Allostasis कहते हैं।
यहाँ रोचकता इस बात में भी है कि यदि किसी कार्यवश हमें नियमित रूप से संसाधनों की आवश्यकता पड़ने लगे तो हमारे अंग, अन्त:स्राव, पाचन तंत्र इत्यादि को संसाधनों की कमी होने लगेगी। न्यूनता होने से यह प्रक्रिया बाधित भी हो जाती है, जिससे एक क्रम सा बन जाता है और शरीर में अनेकानेक व्याधियाँ उत्पन्न होने लगती है। इसका एक अन्य रोचक पक्ष यह है कि मानव एक दूसरे को इन संसाधनों की पूर्ति करते हैं। वर्ष २०१७ में छपे शोध In Sickness and in Health: The Co-Regulation of Inflammation and Social Behavior में इस तथ्य की पुष्टि की गयी अर्थात मस्तिष्क आय-व्यय के प्रबन्धन हेतु आवश्यकता होने पर सामाजिकता तथा सम्बन्धों की सहायता लेता है। सरल शब्दों में मस्तिष्क अभाव में भी तनाव में नहीं आता और वह संसाधनों की न्यूनता का नियंत्रण कर पाता है।
इससे यह भी स्पष्ट होता है कि आधुनिक तनाव तथा व्यस्त जीवन में सम्बन्धों का महत्त्व अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है। इस अध्ययन की एक व्याख्या यह भी है कि किस प्रकार सारे आधुनिक सुख के मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में स्वस्थ सम्बन्धों को सुख का सबसे महत्त्वपूर्ण कारक पाया जाता है। एकाकी जीवन का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने पाया कि अकेले रहने वाले व्यक्तियों पर मृत्यु का संकट तीस प्रतिशत अधिक होता है अर्थात अकेलेपन से जूझ रहे व्यक्ति के मस्तिष्क में संसाधनों की क्षति होने से उसका प्रतिरक्षी तंत्र निर्बल होता जाता है जिससे अनेक प्रकार की व्याधियाँ होने लगती हैं। इसके विपरीत मधुर सम्बन्ध में यह मस्तिष्क के संसाधनों की आय-व्यय सदृश प्रक्रिया परस्पर अन्योन्याश्रित रहती है जिससे तनाव की अवस्था भी व्यक्ति सहज ही पार कर लेता है।
प्रो. लिसा फेल्डमैन बर्रेट इन अध्ययनों के सार के रूप में कहती हैं कि हमारे प्रतिरक्षी और तंत्रिका तंत्र के लिए सर्वोत्तम यदि कुछ हैं तो वे हैं मधुर प्रेम सम्बन्ध परन्तु साथ में वह यह भी कहती हैं कि इसके लिए निकृष्टतम भी यदि कुछ हैं तो वे भी सम्बन्ध ही हैं– विफल एवं कटु सम्बन्ध। आधुनिक विज्ञान की इस समझ से हमें किस प्रकार लाभ मिल सकता है?
इन वैज्ञानिक निष्कर्षों या परिणामों का उत्तर प्रो. बर्रेट को बौद्ध दर्शन में मिलता है। इसके लिए वह बौद्ध दर्शन के अनित्यता के सिद्धान्त को उद्धृत करती हैं। स्वयं (self) को वह निरन्तर परिवर्तनशील और अनित्य के रूप में देखने को कहती हैं। स्वयं को अपरिवर्तनशील मानकर व्यक्ति अस्मिता एवं अहम् से आसक्त हो जाता है। जिससे उसे हर बात प्रभावित करने लगती है और वह अंततः दीर्घकालिक संसाधनों की न्यूनता में चला जाता है जो किसी भी शारीरिक व्याधि से अधिक गंभीर होती है क्योंकि वह अनेक शारीरिक व्याधियों का कारण होती है।
प्रो. बर्रेट भ्रान्ति से निकल सम्बन्धों और संसार को वस्तुनिष्ठ रूप में देखने की संस्तुति करती हैं। भौतिक सुख की इच्छा को मायारूप स्वर्ण हथकड़ी कहते हुए वह कहती हैं कि योग तथा ध्यान से व्यक्ति भ्रान्तियों को दूर कर सम्बन्धों को वस्तुनिष्ठ रूप में देख सकता है। जैसे यदि मस्तिष्क संसाधनों की कमी से शरीर में परिवर्तन लाने लगे, व्यग्रता की अनुभूति हो और मस्तिष्क उसके लिए संसाधन की आपूर्ति करने को तत्पर हो तो इस हेतु हम ध्यान से अपने मस्तिष्क को प्रशिक्षित कर सकते हैं कि वह इसे मात्र एक क्षणिक शारीरिक संवेदना समझे, न कि स्थायी मानसिक अवस्था अर्थात ध्यान से हानिकारक भावनाओं और अनुभूतियों को विखण्डित करने की क्षमता विकसित करना जिससे व्यक्ति का प्रतिरक्षी तंत्र अप्रभावित रहे। वह कहती हैं कि यह सहज तो नहीं परन्तु असंभव भी नहीं।
वैज्ञानिक मस्तिष्क की इन बातों को पढ़ते हुए इसका सारांश मात्र इतना प्रतीत होता है कि प्रवाह में अनासक्त होकर जीने की कला सुख का आधार है। ये विमर्ष और सिद्धान्त विदेह जनक और गृहस्थाश्रम के सनातन दर्शनों की विशेषावस्था प्रतीत होते हैं। प्रो बर्रेट कहती हैं कि पहली दृष्टि में तो अनासक्ति का बोध मधुर सम्बन्धों का विरोधाभासी प्रतीत होता है परन्तु बौद्ध दर्शन के अनासक्ति में मधुर सम्बन्धों के अकाट्य सुझाव हैं जिनमें उभरते ‘सम्बन्ध विज्ञान’ की बातें प्रतिबिंबित हैं। सम्बन्धों को मधुर बनाने और सुख पर वह अनेक सुझाव देती हैं जिनका सार मात्र बौद्ध दर्शन से प्रेरित अनुकम्पा और मोह से अनासक्त हो वस्तुनिष्ठ होने की बात है। भ्रान्ति से परे सम्बन्धों और संसार को समझने की बात है। सुखमय प्रेम और दाम्पत्य के लिए उनके सुझाव वैज्ञानिक एवं प्रभावी तो हैं परन्तु उनका गहन अध्ययन करने पर उनके निष्कर्ष पूरी तरह सनातन दर्शन की व्याख्या मात्र प्रतीत होते हैं। वह स्वयं भी इस बात को स्वीकार करते हुए कहती हैं कि हमारे वैज्ञानिक अध्ययन अभी तो अपूर्ण ही हैं और तब तक तो मधुर सम्बन्धों को बनाने और बनाए रखने में बौद्ध दर्शन अद्भुत रूप से प्रभावी है।