सोच सङ्कट : आपन बाति
136 वर्ष से कुछ अधिक दिन पहले क्रमश: दो और चार जनवरी को ‘महरट्ट’ और ‘केसरी’ नामधारी दो पत्र लोकमान्य बालगङ्गाधर टिळ्क (तिलक) ने प्रकाशित करने प्रारम्भ किये। इन पत्रों के माध्यम से जो सार्थक परिवर्तन घटित हुये वे अब इतिहास का अङ्ग हैं। भारत को सांस्कृतिक और राजनैतिक रूप से जागृत करने के उद्योग हेतु टिळक और स्वामी विवेकानन्द में आपसी सहमति थी। दोनों ‘संकट’ को ले ‘सोच’ में थे और जो कर सकते थे, कर गये।
कहीं पढ़ा था – सोच सङ्कट है। जाने लिखने वाले ने किस मन:स्थिति में किस उद्देश्य और अर्थ में लिखा था किंतु कुछ बातें बहुआयामी हो इङ्गित की सीमाओं को तोड़ती हैं, यह अंश भी वैसा ही है। ‘संकट के कारण सोच में पड़ा हुआ है’ या ‘सोच के कारण संकट में है’, देखें तो विशाल हिन्दी भू भाग ऐसी स्थिति में ही है। नये भारत के कोष की कुञ्जी इस क्षेत्र में कहीं खोई हुयी है। आवश्यकता सोच और संकट से आगे बढ़ उद्योग की है। संसार के सबसे बड़े भाषिक समूहों में से एक इस अद्भुत उर्वर क्षेत्र की विराट संभावनायें तो अभी पत्र के स्तर तक भी नहीं आई हैं। करने को बहुत कुछ है।
‘मघा’ के ‘औपचारिक पत्र’ का यह पहला शून्याङ्क है। शून्याङ्क, वह भी पहला? क्या दूसरे तीसरे भी आयेंगे? इन प्रश्नों के उत्तर हेतु मध्यकालीन उड़िया क्षेत्र में प्रचलित ‘वर्ष अङ्क’ पद्धति को देखना रोचक होगा। पद्धति कुछ भी हो, यदि व्यवस्थित तंत्र के साथ है तो उद्देश्य पूरे करती है। पितरों से सीधे संवादित होने वाले नक्षत्र की नामधारी इस पत्रिका की परास में अनुछुई या उपेक्षित आधुनिक चिंतायें और विषय होंगे। विज्ञान, कृषि, उद्योग, अर्थ, तकनीकी, पर्यावरण, भारतविद्या, भारतवर्ष इत्यादि से जुड़े आलेख होंगे। ‘मघा’ के लिये हिन्दी एक विराट भू भाग का प्रतिनिधित्त्व तो करती ही है, चलती फिरती वह बानी भी है जो समस्त भारतवर्ष को जोड़ती है। हिन्दी क्षेत्र, हिन्दी जन, हिन्दी बानी के विकसित हुये बिना भारत विकसित नहीं हो सकता।
‘विकास’ शब्द के आते ही सामान्यतया अट्टालिकायें, राजमार्ग, चमकते मॉल और वैसी जाने कितनी संरचनाओं की चौंध लगने लगती है। क्या वास्तव में ‘बिकसवा’ केवल यही सब है? या ये सब उसके द्योतक हार्डवेयर भर हैं? ऐसी संरचनाओं के मूर्तिमान होने से पहले सॉफ्टवेयर आवश्यक होता है। वह सॉफ्टवेयर जन जन के स्तर पर विकसित होता है। उसके लिये चेतना के स्तर पर सामूहिक प्रयास, उद्योग आदि करने होते हैं। चाल, चलन, चरित्र और सोच बदलनी पड़ती है। यह कोई राजनैतिक नारा भर नहीं, सचाई है। सोच के संकट से छुटकारा नहीं! ‘हम क्या कर सकते हैं?’, पढ़ते हुये यही प्रश्न उठता है न? उर्वर, समतल, नदी सिञ्चित भूमि के वासी ऐसे प्रश्न पूछें तो ठीक नहीं।
पानी की समस्या से जूझते शीत शुष्क मरुस्थल कहे जाने वाले लद्दाख के सोनम वांगचुक के सामने भी यही प्रश्न था। वह आगे बढ़े। बर्फ के ऊँचे टीले बना कर जलदोहन का नव्य सफल प्रयोग कर डाले। उनके बनाये ‘हिमस्तूपों’ और नलिकाओं की साधारण सी संरचना में गुरुत्व बल के चतुर उपयोग से जल ‘उत्पादित’ होता है जिसका प्रयोग सिंचाई के लिये किया जाता है। उस जल की ड्रिप सिंचाई से शस्य लहलहा रही है। आगे उनकी योजना 30 मीटर ऊँचे बीसों स्तूपों के निर्माण की है। इस नवोन्मेष के लिये उन्हें गत नवम्बर Rolex Award for Enterprise मिला जिसके लिये 144 देशों से 2322 प्रविष्टियाँ आई थीं। उनकी आयु पचास वर्ष है।
उनका राजनैतिक मत क्या है? कौन सी विचारधारा के हैं… आदि आदि पर मीमांसा छोड़ यह सोचने की आवश्यकता है कि ऐसा क्या है उनमें जो छटपटाहट छोड़ कुछ कर गये? अन्यों से क्यों नहीं होता? ‘आस पास ही’ कुछ तो है जहाँ दोषदर्शन और दोषारोपण तज ‘करने’ की आवश्यकता है।
‘केसरी’ के मुखपृष्ठ श्लोक पर ध्यान देना रोचक होगा कि कुछ बातें सीमाओं को तोड़ती नये अर्थ उद्घाटित करती हैं:
स्थितिं नो रे दध्याः क्षणमपि मदान्धेक्षण सखे, गज श्रेणीनाथ त्वमिह जटिलायां वनभुवि।
असौ कुम्भिभ्रान्त्या खरनखरविद्रावितमहा, गुरुग्रावग्रामः स्वपिति गिरिगर्भे हरिपतिः॥
— ‘भामिनीविलास’ , पण्डित जगन्नाथ
सोता हुआ सिंह कब जगेगा? ड्रैगन की फुफकार तो पूरे संसार में पसर गयी है!
बहुत अच्छा लगा .शुभ कामनाएँ स्वीकारें
सहज सरल प्रवाह (और प्रभाव) वाला सम्पादकीय ही पत्रिका का चरित्र-चित्रण कर रहा है। शून्यांक अच्छा लगा, भविष्य के अनंतांकों के लिये अगणित शुभकामनाएँ!