भाग 1, 2 और 3 से आगे:
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निवेदन है कि इस लेखमाला को पहले भाग से क्रमानुसार ही पढ़ा जाय।
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निवेदन है कि इस लेखमाला को पहले भाग से क्रमानुसार ही पढ़ा जाय।
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मनु स्त्री के लिये गुरु के आश्रम में रह कर शिक्षा प्राप्त करने की कोई व्यवस्था नहीं सुझाते हैं। शिक्षा समाप्ति के पश्चात समावर्तन (घर वापसी), भार्या चयन और तत्पश्चात दारकर्म (विवाह उपरांत मैथुनी गृहस्थ जीवन) की व्यवस्थायें उपलब्ध मनु स्मृति (उ.म.स.) के तीसरे अध्याय में वर्णित हैं जो स्पष्टत: पुरुष केन्द्रित हैं।
दारा (पत्नी) के चयन में सामाजिकता, निषेध, धर्म शासन और सामुद्रिक शास्त्र (देह लक्षण निषेधादि) के अनुशासन वर्णित हैं।
बारहवाँ श्लोक द्विजातियों (उपनयन संस्कार वाले) की पहली पत्नी के लिये सवर्ण अर्थात ब्राह्मण-ब्राह्मण, क्षत्रिय-क्षत्रिय, वैश्य-वैश्य युग्म की व्यवस्था देता है। तेरहवें श्लोक में दूसरी के लिये सवर्ण सम्बन्ध से छूट दी गयी है। कर्तव्य, दायित्त्व निर्वाह और अधिकार की श्रेष्ठता को देखते हुये अनुलोम विवाह की व्यवस्था इस प्रकार है:
शूद्र पुरुष – शूद्र स्त्री
वैश्य पुरुष – वैश्य या शूद्र स्त्री
क्षत्रिय पुरुष – क्षत्रिय या वैश्य या शूद्र स्त्री
ब्राह्मण पुरुष – ब्राह्मण या क्षत्रिय या वैश्य या शूद्र स्त्री
टीकाकार कुल्लूक लिखते हैं:
इसके पश्चात श्लोक 14 से सातत्य टूटता है और 19 वें श्लोक तक स्वर उत्तरोत्तर प्रतिक्रियात्मक, उद्दण्ड और द्वेषी होता गया है। उ. म. स. का यह भाग स्पष्टत: क्षेपक है जो कि मनु की अनुलोम विवाह स्थापना की उद्धत काट है। इसके पहले के लेख में हम लोगों ने जुगुप्सा शब्द पर चर्चा की थी। 19 वाँ श्लोक वास्तव में वह उपजाता है जो कि जुगुप्सा का आधुनिक अर्थ है – घृणा। बीसवें श्लोक से व्यवस्था विवाह प्रकार पर केन्द्रित होती है और पुन: सातत्य दिखने लगता है।
स्पष्टत: यह भाग शूद्र-स्त्री द्वेषी रचयिताओं द्वारा घुसेड़ दिया गया है। चौदहवें श्लोक में तेरहवें की काट में यह कहा गया है कि वृतांतों तक में आपद्धर्म की स्थिति में भी ब्राह्मण या क्षत्रिय द्वारा शूद्रा भार्या के चयन का उपदेश नहीं मिलता। 15 वें श्लोक में लिखा गया है कि मोह ग्रस्त हो कर जो द्विज हीनजाति की स्त्रियों से विवाह करते हैं वे शीघ्र ही कुल और संतान दोनों को शूद्र की स्थिति में पहुँचा देते हैं। 16वें श्लोक में अत्रि, औतथ्य गोतम, भृगु और शौनक ऋषियों को उल्लिखित करते हुये यह बताया गया है कि शूद्रा से विवाह और संतान उत्पन्न करने पर द्विज पतित हो जाता है। 17वें श्लोक के अनुसार शूद्रा के साथ सोने से ब्राह्मण अधोगति को प्राप्त होता है और उससे पुत्र उत्पन्न करने से वह ब्राह्मण ही नहीं रह जाता है।
मनु के उद्धत विरोध में आगे बढ़ते हुये 18वाँ श्लोक यहाँ तक लिख देता है कि शूद्रा पत्नी के साथ पितरों और अतिथियों को अर्पित किये भाग को देवता और पितर ग्रहण नहीं करते हैं और ऐसा गृही स्वर्ग नहीं जाता। इससे भी मन नहीं भरा तो उन्नीसवें श्लोक में एकदम निकृष्ट स्तर पर उतरते हुये क्षेपककार लिखता है कि (सम्भोग के समय) वृषली का (चुम्बन लेते हुये उसके अधरों से) फेन पीने वाले, उसके नि:श्वासों से उपहत होने वाले और उससे उत्पन्न संतान के लिये तो कोई प्रायश्चित्त ही नहीं, कोई विधान ही नहीं! टीकाकार मेधातिथि भाष्य करते हैं – निष्कृति:शुद्धिर्नास्ति, निन्दातिशयो!! एक और टीकाकार ‘आत्मा वै जायते पुत्र:’ लिख मुहर जड़ देते हैं।
मेधातिथि, कुल्लूक आदि टीकाकार वृषली का अर्थ शूद्रा किये हैं। अगले अंक में हम देखेंगे कि गोपन सम्बन्धित जुगुप्सा की तरह ही वृषल शब्द ने भी ऋग्वेद से होते हुये मुद्राराक्षस तक कितनी लम्बी यात्रा की है और उसके अर्थ क्या क्या हो सकते हैं?
(क्रमश: )
एवं स जाग्रत् स्वप्नाभ्यामिदं सर्वं चराचरम्।
सं (स) जीवयति चाजस्रं प्रमापयति चाव्यय:॥
सं (स) जीवयति चाजस्रं प्रमापयति चाव्यय:॥
(मनु, १।५७)