१. लिपि नहीं होने का प्रचार
रघुवंश (२/२) की एक प्रसिद्ध उक्ति है – श्रुतेरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत् अर्थात् श्रुति के पीछे स्मृति चलती है। मनुस्मृति (२/६-१५) में भी यही कहा है कि श्रुति के अनुसार ही स्मृति होती है।
श्रुति का अर्थ वेद है, स्मृति धर्मशास्त्र है। इसका अर्थ यह नहीं है कि वेद को सुन कर स्मरण किया जाता था। वेद सुनने पर वेद ही नहीं कण्ठस्थ होता है, स्मृति अर्थात् धर्मशास्त्र कैसे होगा? वेद को श्रुति इसलिए कहते हैं कि यह ५ ज्ञानेन्द्रियों द्वारा, श्रुति आदि द्वारा प्राप्त ज्ञान है। धर्मशास्त्र पढ़े या नहीं, यह मान लेते हैं कि समाज में आचरण का नियम सबको पता है। अतः उसे स्मृति कहते हैं। कोई हत्या करने के अनन्तर यह कपट नहीं कर सकता कि मैं विधिस्नातक नहीं हूँ, अतः मुझे ज्ञात नहीं था कि हत्या कोई बुरा काम है। पिछले २०० वर्ष के वेद विरोधी प्रचार के कारण लोग यही प्रमाणित करने में लग गये कि वेद में लिपि का अस्तित्व था। लिपि का उद्भव और वर्गीकरण कैसे हुआ, इस पर विचार करने का अवसर ही नहीं आया।
वेद किसी एक व्यक्ति का विचार नहीं है, यह भिन्न भिन्न स्थानों व काल के ऋषियों द्वारा दर्शन किए सूक्तों का संग्रह है। एक परिवार की सम्पत्ति होने पर उसे वंश परम्परा से रटाया जा सकता है परन्तु भिन्न भिन्न देशों और काल के सूक्तों का संकलन तभी हो सकता है, जब वे लिखित रूप में हों। अतः एक ही मन्त्र के पाठभेद मिलते हैं, जैसे हर वेद के पुरुष सूक्त में।
वेद से ही सभी शास्त्रों का उद्भव हुआ है, जिनमें लिपि भी है। वेद में ३ विश्वों-आधिदैविक, आधिभौतिक, आध्यात्मिक या ५ यज्ञ का समन्वय है, अतः इसके ३ या ५ अर्थ किए जाते हैं। विवाद होने पर कहते हैं, क्या ३-५ कर रहे हो?
सहस्रधा पञ्चदशानि उक्था यावद् द्यावा पृथिवी तावदित्तत् (ऋक्, १०/११४/८)
यानि पञ्चधा त्रीणि तेभ्यो न ज्यायः परमन्यदस्ति (छान्दोग्य उपनिषद्, २/२२/२)
इस कारण वेद सर्वविद्या प्रतिष्ठा है।
ब्रह्मा देवानां प्रथमं सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।
स ब्रह्म विद्यां सर्व विद्या प्रतिष्ठा मथर्वाय ज्येष्ठ पुत्राय प्राह॥ (मुण्डकोपनिषद्,१/१/१)
पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम् (पुरुष सूक्त, २)
चातुर्वर्ण्यं त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक्।
भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात् प्रसिद्ध्यति॥
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च पञ्चमः।
वेदादेव प्रसूयन्ते प्रसूति गुणकर्मतः॥ (मनुस्मृति, १२/९७-९८)
२. भाषा और लिपि की उत्पत्ति
इसका उद्देश्य है कि लोग एक साथ रह कर अपनी बात कह तथा लिख सकें। सहित रखना इसका उद्देश्य है, अतः इसे साहित्य कहते हैं।
सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते॥
समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि॥ (ऋक्, १०/१९१/२-३)
३. इसके अनेक स्तर हैं —
- वाक्-अर्थ प्रतिपत्ति-हर वस्तु तथा क्रिया के लिए शब्द।
- शब्दों को ध्वनि या उसके खण्ड के अनुसार चिह्न।
- अव्यक्त विचार का व्यक्त लिङ्ग
- वर्ण, अक्षर, शब्द, पद, वाक्य का सम्बन्ध।
- सरल तर्क जिसे सभी समझ सकें तथा समाज में उसे प्रचलित करना।
- नयी वस्तु तथा क्रिया के लिए शब्द।
- अर्थ विस्तार या वृद्धि।
- ब्रह्मा द्वारा शब्द रचना
कोई कितना भी विद्वान् क्यों न हो उसके द्वारा निर्धारित भाषा या काल गणना लोग नहीं मानेंगें। उसके लिए शक्तिशाली तथा लोकप्रिय शासक चाहिए। विक्रम संवत् के प्रवर्तक राजा को अस्वीकार करने से भ्रम फैलाया गया है कि भाषा तथा काल-मान का क्रमिक विकास स्वतः हो सकता है। भाषा संस्था ब्रह्मा ने आरम्भ की इसलिए वह स्वीकृत हुई। स्वायम्भुव मनु को मनुष्य रूप में ब्रह्मा कहा जाता है। उनके पूर्व साध्य भी उन्नति के शिखर पर पहुंचे थे (पुरुष सूक्त, १६), पर उस युग के ज्ञान का समन्वय या एकीकरण ब्रह्मा ने किया। एक तार्किक व्यवस्था मनुष्य द्वारा ही सम्भव है। प्राकृतिक परिवर्तन से उसमें विकार होते हैं, तर्क नहीं।
वाक्-अर्थ प्रतिपत्ति का अर्थ है, हर वस्तु या क्रिया का नाम दिया जाय। नाम-रूप-गुण (त्रिसत्य) समझने के लिए वेद आवश्यक है, जिसके अनुसार शब्द बने।
द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्द ब्रह्म परं च यत्।
शाब्दे ब्रह्मणि निष्णातः परंब्रह्माधिगच्छति ॥ (मैत्रायणी उपनिषद् ६/२२)
इयं या परमेष्ठिनी वाग्देवी ब्रह्म संशिता। (अथर्व., १९/९/३)
वाचीमा विश्वा भुवनानि अर्पिता (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/८/८/४)
इस सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्मा ने शब्द बनाये —
सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्।
वेद शब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे॥ (मनुस्मृति, १/२१)
ऋष्यस्तपसा वेदानध्यैषन्त दिवानिशम्।
अनादिनिधना विद्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा॥
नाना रूपं च भूतानां कर्मणां च प्रवर्तनम्।
वेद शब्देभ्य एवादौ निर्मिमीते स ईश्वरः॥(महाभारत, शान्ति पर्व, २३२/२४-२६)
शब्द के लिए ब्रह्मा ने बृहस्पति को अधिकृत किया, जिन्होंने शब्द तथा उसके लिए चिह्न (दर्श वाक्) बनाये —
बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत् प्रैरत् नामधेयं दधानाः॥१॥
उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः शूण्वन्न शृणोत्येनाम्॥४॥ (ऋक्, १०/७१)
वाग्वै बृहती तस्या एष पतिः तस्मादु बृहस्पतिः (शतपथ ब्राह्मण, १८/४/१/२२, बृहदारण्यक उपनिषद्, ३/२/३)
सम्भवत: बृहस्पति चीन से सम्बन्धित रहे हों जहाँ हर शब्द के चिह्न रह गये। वहाँ ६० वर्ष का बार्हस्पत्य चक्र जैसा चक्र भी चल रहा है। शतपथ ब्राह्मण (१/२/५/२५-२६) के अनुसार देवों ने उनको मनुष्य लोक (भारत) में भेजा था। उन्होंने यज्ञ विरोधी लोगों को पहले उल्टा उपदेश दिया जिससे वे यज्ञ के महत्त्व को समझें।
४. लेखन आरम्भ
लिपि की उत्पत्ति गणपति द्वारा हुई —
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणा ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नृतिभिः सीद सादनम्॥
विश्वेभ्यो हित्वा भुवनेभ्यस्परि त्वष्टाजनत् साम्नः कविः।
स ऋण (-) चित्-ॠणया (बिन्दु चिह्नेन) ब्रह्मणस्पतिर्द्रुहो हन्तामह
ऋतस्य धर्तरि (ऋत-Right, writing, सत्य का विस्तार)॥ (ऋक् २/२३/१,१७)
= ब्रह्मा ने सर्व-प्रथम गणपति को कवियों में श्रेष्ठ कवि के रूप में अधिकृत किया अतः उनको ज्येष्ठराज तथा ब्रह्मणस्पति कहा। उन्होंने श्रव्य वाक् को ऋत (बिन्दुरूप सत्य का विस्तार) के रूप में स्थापित किया। श्रव्य वाक्य लुप्त होता है, लिखा हुआ बना रहता है (सदन = घर, सीद = बैठना, सीद-सादनम् = घर में बैठाना)। पूरे विश्व का निरीक्षण कर (हित्वा) त्वष्टा ने साम (गान, महिमा = वाक् का भाव) के कवि को जन्म दिया। उन्होंने ऋण चिह्न (-) तथा उसके चिद्भाग बिन्दु द्वारा पूर्ण वाक् को (जिसे हित्वा = अध्ययन कर साम बना था) ऋत (लेखन ) के रूप में धारण (स्थायी) किया।
आज भी चीन की ई-चिंग लिपि में रेखा तथा विन्दु द्वारा ही अक्षर लिखे जाते हैं। इनके ३ जोड़ों से ६४ अक्षर (२६ = ६४) बनते हैं जो ब्राह्मी लिपि के वर्णों की संख्या है। टेलीग्राम के मोर्स कोड में भी ऐसे ही चिह्न होते थे।
देवलक्ष्मं वै त्र्यालिखिता तामुत्तर लक्ष्माण देवा उपादधत (तैत्तिरीय संहिता,५/२/८/३)
ब्रह्मा द्वारा इस प्रकार लेखन का आरम्भ हुआ —
नाकरिष्यद्यदि ब्रह्मा लिखितम् चक्षुरुत्तमम्।
तत्रेयमस्य लोकस्य नाभविष्यत् शुभा गतिः॥ (नारद स्मृति)
षण्मासिके तु समये भ्रान्तिः सञ्जायते यतः।
धात्राक्षराणि सृष्टानि पत्रारूढ़ान् यतः परां॥(बृहस्पति-आह्निक तत्त्व)
५. शब्दों का ध्वनि खण्ड में विभाजन
बृहस्पति द्वारा प्रतिशब्द के अध्ययन को शब्द-पारायण कहते थे। पूरे जीवन पढ़ने पर भी इसे समझना सम्भव नहीं था, अतः शुक्र (उशना) ने इसे मारणान्तक व्याधि कहा।
बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यवर्षसहस्रं प्रतिपदोक्तानां शब्दपारायणं प्रोवाच। (पतञ्जलि-व्याकरण महाभाष्य १/१/१)
तथा च बृहस्पतिः-प्रतिपदं अशक्यत्वात् लक्षणस्यापि अव्यवस्थितत्वात् तत्रापि तत्रापि स्खलित दर्शनात् अनवस्था प्रसंगाच्च मरणान्तो व्याधिः व्याकरणमिति औशनसा इति। (न्याय मञ्जरी)
इसमें सुधार के लिये इन्द्र ने ध्वनि-विज्ञान के आचार्य मरुत् की सहायता से शब्दों को अक्षरों और वर्णों में बाँटा तथा वर्णो को उच्चारण स्थान के आधार पर वर्गीकृत किया।
वाग् वै पराची अव्याकृता अवदत्। ते देवा इन्द्रं अब्रुवन्-इमां नो वाचं व्याकुरुत-इति। … तां इन्द्रो मध्यत अपक्रम्य व्याकरोत्। तस्मादिदं व्याकृता वाग् उद्यते इति।(तैत्तिरीय संहिता ६/४/७)
सायण भाष्य – तामखण्डां वाचं मध्ये विच्छिद्य प्रकृति-प्रत्यय विभागं सर्वत्राकरोत्।
स (इन्द्रो) वाचैव व्यवर्तयद् (मैत्रायणी संहिता ४/५/८)
इसमें क से ह तक ३३ व्यञ्जन सौरमण्डल के ३३ भागों के प्राण रूप ३३ देवों के चिह्न हैं। १६ स्वर मिलाने पर ४९ वर्ण ४९ मरुतों के चिह्न हैं जो पूरी आकाशगंगा के क्षेत्र हैं। चिह्न रूप में देवों का नगर होने के कारण इसे देवनागरी कहा गया। इन्द्र पूर्व के तथा मरुत उत्तर-पश्चिम के लोकपाल थे। आज भी पूर्वी भारत से पश्चिमोत्तर सीमा तक देवनागरी प्रचलित है (वर्णों के रूपमात्र अलग हैं)।
वर्णों के संकेत से सूत्र महेश्वर ने बनाये जिनसे क्रमशः व्याकरण परम्परा चली —
येनाक्षर समाम्नायं अधिगम्य महेश्वरात्।
कृत्स्नं व्याकरणं प्रोक्तं तस्मै पाणिनये नम्ः। (पाणिनीय शिक्षा, अन्तिम श्लोक)
समुद्रवत् व्याकरणे महेश्वरे ततोऽम्बु कुम्भोद्धरणं बृहस्पतौ।
तद् भाग भागाच्च शतं पुरन्दरे कुशाग्र विन्दूत्पतितं हि पाणिनौ।(सारस्वत भाष्य)
ब्रह्मा बृहस्पतये प्रोवाच, बृहस्पतिरिन्द्राय, इन्द्रो भरद्वाजाय, भरद्वाज ऋषिभ्यः, ऋषयो ब्राह्मणेभ्यः।(ऋक् तन्त्र)
६. अव्यक्त विचार का व्यक्त रूप
आकाश तथा मनुष्य-दोनों की वाक् ४ स्तर की है —
मनुष्य वाक् | ब्रह्म वाक् |
१. परा (मन में अव्यक्त विचार) | १. सत्या वाक् (स्वायम्भुव का अव्यक्त रूप) |
२. पश्यन्ती (स्पष्ट विचार) | २. आम्भृणी वाक (ब्रह्माण्ड में अप् का शब्द अम्भ) |
३. मध्यमा (शब्द रूप) | ३. बृहती वाक् (सौर मण्डल, इन्द्र रूप तेज) |
४. वैखरी (ध्वनि या लेख रूप) | ४. अनुष्टुप् (पृथ्वी की वाक्) |
मनुष्य वाक्-चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥ (ऋग्वेद १/१६४/४५)
परायामङ्कुरीभूय पश्यन्त्यां द्विदलीकृता॥
मध्यमायां मुकुलिता वैखर्या विकसीकृता॥ (योगकुण्डली उपनिषद् ३/१८, १९)
ब्रह्म वाक्-सत्या वाक्-ऋतं च सत्यं चाभीद्धात् तपसोऽध्यजायत (ऋक्, १०/१९०/१)
सुविज्ञानं चिकितुषे जनाय सच्चासच्च वचसी पस्पृधाते।
तयोर्यत् सत्यं यतरदृजीयस्तदित् सोमोऽवति हन्त्यासत्॥ (ऋक्, ७/१०४/१२)
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/१/१)
आम्भृणी वाक् – आम्भृणी सूक्त (ऋक्, १०/१२५/१-८)
बृहती वाक् – पूर्वीर् ऋतस्य बृहतीरनूषत (ऋक्, ८/५२/९, अथर्व, २०/११९/१, साम, २/१०/२७)
पूर्वीर् ऋतस्य संदृशश् चकानः (ऋक्, ३/५/२)
वाग् वै बृहती (शतपथ ब्राह्मण, १४/४/१/२२)
बृहती स्वर्गो लोकः (सौर मण्डल) – शतपथ ब्राह्मण (१०/५/४/६)
अनुष्टुप्-वाचामष्टापदीमहं नवस्रक्तिमृतस्पृशम्। इन्द्रात् परि तन्वं ममे। (ऋक्, ८/७६/१२)
अनुष्टुप् के प्रत्येक पाद में ८ अक्षर हैं। वाक् ध्वनि के भी ८ पद हो सकते हैं – स्वर के पहले ४ या अनन्तर ३ व्यञ्जन युक्त हो सकते हैं। बीच में स्वर वर्ण आठवाँ है। स्वर वर्ण दोनों ओर जोड़ सकता है, अतः इसके २ शक्ति बिन्दु हैं, जिनको मिला कर ९ बिन्दु होते है। बृहती के प्रति पाद में ९ अक्षर हैं।
गुहा के भीतर वाक् के जो ३ पद थे, उनको ज्यों का त्यों वैखरी वाक् (उच्चरित और लिखित) में व्यक्त किया। अव्यक्त वाणी को व्यक्त रूप में यथा-तथ्य उपसर्ग-प्रत्यय, कारक, विराम चिह्नों (पाप-विद्ध) आदि द्वारा प्रकट करने से वह शाश्वत होती है — स पर्यगात् शुक्रं अकायं अव्रणं अस्नाविरं शुद्धं अपापविद्धं कविः मनीषी परिभूः स्वयम्भूः याथा-तथ्यतो अर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः॥ (ईशावास्योपनिषद्)।
वाल्मीकि ने भी रामकथा के माध्यम से इतिहास को सनातन वेदार्थ रूप में प्रकट किया अतः वह शाश्वती समा = आदिकाव्य बना।
अव्यक्त विचार के लिए उपयुक्त शब्द नहीं मिलता है, अतः उसे अन्य शब्दों से घेर कर (पर्यगात्) व्यक्त करते हैं। मन के भीतर शुक्र या गौरी वाक् है। कितना भी अच्छे से व्यक्त करें, कुछ भाग छिप जाता है, अतः उसे तम कहते हैं, गौ और तम का सम्बन्ध गौतम न्याय दर्शन हैं। न्यायालय में भी गौ का तम करते हैं (सत्य को असत्य)। अव्यक्त अकाय है, व्यक्त वाक् या विश्व का शरीर है। अस्नाविर (बिना स्नायु) के विचार के शब्दों को क्रिया, कारक आदि से जोड़ते हैं। अव्यक्त बिना पाप का अखण्ड है, व्यक्त वाक् को शब्दों, वाक्यों में खण्डित किया गया है।
७. वाक् विभाजन
ब्रह्म के ४ पाद हैं-क्षर (बाह्य रूप), अक्षर (कूटस्थ परिचय या क्रिया रूप), अव्यय (विश्व अंश रूप में अपरिवर्तित), परात्पर (भेद रहित)।
ब्रह्म को व्यक्त करने वाली वाक् भी ध्वनि के ४ स्तरों से व्यक्त होती है —
- प्राण – नाभि से वायु रूप में ऊर्जा निकलती है।
- स्वर – ३ गुहा-उर, कण्ठ मार्ग तथा सिर में स्वर रूप होता है।
- वर्ण – मुँह में स्वर का ५ प्रकार विभाजन है – १. स्वर (शब्द), २. काल, ३. स्पर्श स्थान, ४ प्रयत्न, ५. निर्गम मार्ग।
- ध्वनि – लय को ७ स्वरों में विभाजित किया गया है – स, रे, ग, म, प, ध, नि।
आत्मा बुद्ध्या समेत्यर्थान् मनो युक्ते विवक्षया। मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम्॥६॥
मारुतस्तूरसि चरन् मन्द्रं जनयति स्वरम्। कण्ठे तु मध्यमं शीर्ष्णि तारं जनयति स्वरम्॥७॥
सोदीर्णो मूर्ध्न्याभिहतो वक्त्रमापद्य मारुतः। वर्णान् जनयते-तेषां विभागः पञ्चधा स्मृतः९॥
स्वरतः कालतः स्थानात् प्रयत्नानुप्रदानतः॥१०॥ (पाणिनीय शिक्षा)
व्यक्त वाक् के ४ भाग हैं जो पुनः ४-४ भागों में विभक्त हैं।
ध्वनिर्वर्णाः पदं वाक्यं इत्यास्पद चतुष्टयम्। यस्याः सूक्ष्मादि भेदेन वाग्देवीं तमुपास्महे॥(सरस्वती कण्ठाभरण १/१, स्कन्द पुराण माहेश्वर खण्ड, कौमारिका खण्ड ४०/६५)
- वर्ण – यह ध्वनि का सूक्ष्म खण्ड या बिन्दु है, जो स्पर्श भेद से ४ प्रकार का है – १. अस्पृष्ट, २. इषत् स्पृष्ट, ३. स्पृष्ट या मृदु स्पृष्ट, ४. दुः स्पृष्ट या अर्द्ध स्पृष्ट।(पाणिनीय शिक्षा, ५, अष्टाध्यायी सूत्र १/१/९ – तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् की व्याख्या)
- अक्षर – ये एक साथ उच्चरित वर्ण हैं (syllable)। इसमें न्यूनतम १ स्वर होना चाहिए। इसमें ८ वर्ण एक साथ हो सकते हैं (अनुष्टुप् का पाद) या बीच के स्वर का २ बिन्दु प्राण गिनने से ९ बिन्दु हैं (बृहती छन्द का पाद)। ४ प्रकार के अक्षर हैं – १. मुक्त, २. पूर्व सम्बन्ध, ३. उत्तर सम्बन्ध, ४. उभय सम्बन्ध।
- पद (शब्द) – यह किसी वस्तु या उसके अर्थ से सम्बद्ध है। इसके ४ प्रकार हैं —
- नाम (वस्तु का प्रतीक)
- आख्यात (परिभाषा यावर्णन)
- उपसर्ग (श्ब्द के आरम्भ में जोड़ कर अर्थ परिवर्तन)
- निपात (प्रचलन)
तद् यानि चत्वारि पदजातानि नामाख्याते चोपसर्ग निपातश्च तानीमानि भवन्ति। (निरुक्त, १/१)
- वाक्य – किसी घटना (फारसी में वाकया) का वर्णन करता है। यह वर्ण, अक्षर, पद का समन्वय है तथा ४ प्रकार का है —
- मित (छन्द या पाद से सीमित जो वाक्य-वाक्यांश हैं) या ऋक् (सत्य-तथ्य) २ प्रकार का (क) गाथा या श्लोक (छन्दोबद्ध पद्य) या (ख) कुम्ब्या (गद्य, बिना छन्द के)।
- यजु-क्रिया वर्णन २ प्रकार का है-निगद (व्याख्या, वर्णन), वृथा (अर्थहीन, व्यंग्य)।
- गेय (गीत-ग्राम्य अर्थात् ७ स्वर ३ ग्राम, आरण्य अर्थात् मुक्त)।
- सत्य (सत्ता), अनृत (अभाव) ये सापेक्ष शब्द हैं। ‘ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या’ में जगत् भी सत्य है, पर ब्रह्म उससे अधिक मूल सत्य है।
वाचामष्टापदीमहमित्यष्टौ हि चतुरक्षराणि भवन्ति। नवस्रक्तिमिति बृहती संपद्यमाना नवस्रक्तिः। ऋतस्पृशमिति सत्यं वै वागृचा स्पृष्टा। इन्द्रात् परि तन्वं मम इति तद्यदेवैतद् बृहती सहस्रं अनुष्टुप् संपन्नं भवति–। स वा एष वाचः परमो विकारो यतेदन् महदुक्थं तदेतत् पञ्चविधं मितं-अमितं स्वरः सत्य-अनृत-इति। ऋग्-गाथा कुम्ब्या तन्मितं यजुर्निगदो वृथा वाक् तद् अमितं सामाथो यः कश्च गेष्नः स स्वर ओमिति सत्यं न इति अनृतम्। (ऐतरेय आरण्यक, २/३/६)
८. दर्श-वाक्
आकाश के ७ लोकों में मूल सत्य लोक अव्यक्त है, शेष व्यक्त हैं। अतः उनके अनुसार ६ दर्शन तथा ६ दर्श-वाक् या लिपि होती है।
साकञ्जानां सप्तथमाहुरेकजं षडिद्यमा ऋषयो देवजा इति।
तेषामिष्टानि विहितानि धामशः स्थात्रे रेजन्ते विकृतानि रूपशः॥(ऋक् १/१६४/१५, अथर्व ९/९/१२, तैत्तिरीय ब्राह्मण १/३/१)
अचिकित्वान् चिकितुषश्चिदत्र कवीन् पृच्छामि विद्मने न विद्वान्।
वियस्तस्तम्भ षडिमा रजांसि अजस्य रूपं किमपि स्विदेकम्।(ऋक् १/१६४/६, अथर्व ९/९/७)
श्री रूप में विश्व के १० आयाम हैं जिनको दशा, दिशा, दश महाविद्या आदि कहा गया है। इनमें ५ आयाम विश्व का यान्त्रिक वर्णन करते हैं। भौतिक विज्ञान में ५ मूल इकाइयों द्वारा सभी माप हो सकती है। इसके अनुरूप ५ ’मा’ (मा माने, माप में) छन्द हैं। इस विश्व की व्याख्या सांख्य दर्शन से होती है, जिसमें ५x५ = २५ तत्त्व हैं। इसके अनुरूप गायत्री लिपि होगी जिसमें २५ वर्ण या एक अधिक २६ तक हो सकते हैं।
इसके पश्चात चेतना के ५ स्तर हैं, जिसके अनुसार ५ और लिपियाँ होंगी। चेतना वह है जो चिति (रूप या क्रम) कर सके। सबसे बड़ी रचना नगर भी चिति (City) है।
षष्ठ आयाम पुरुष है – एक पुर की रचना।
सप्तम ऋषि(रस्सी) है जो विभिन्न बिन्दुओं पिण्डों के बीच सम्बन्ध है। यास्क के अनुसार ब्रह्म और सामान्य मनुष्य के बीच ऋषि द्वारा सम्बन्ध होता है।
अष्ट आयाम नाग या वृत्र है जो पिण्डों को सीमा में बाँधता है।
नवम आयाम रन्ध्र (न्यूनता, अल्प घनत्व आदि) है जिसके कारण नया निर्माण होता है (नव = ९ या नया)। दशम आयाम रस है जिसे पाने से आनन्द होता है। यह सृष्टि का मूल समरूप तत्त्व है जो सबमें समाहित है।
चेतन कर्ता रूप विष्णु —
होता भोक्ता हविर्मन्त्रो यज्ञो विष्णुः प्रजापतिः।
सर्वं कश्चित् प्रभुः साक्षी योऽमुष्मिन् भाति मण्डले॥ (मैत्रायणी आरण्यक ६/१६)
७ ऋषि प्राण है जो श्रम और तप से खींचते हैं —
प्राणा वा ऋषयः…. ते यत् पुरास्मात् सर्वस्मान् इदमिच्छन्तः श्रमेण तपसा अरिषन् तस्मात् ऋषयः। (शतपथ ब्राह्मण ६/१/१/१)
सप्तप्राणाः प्रभवन्ति तस्मात् सप्तार्चिषः समिधः सप्त होमाः। (मुण्डक उपनिषद् २/१८)
वृत्र द्वारा वृत्त में सीमित करना – वृत्रो ह वा इदं सर्वं वृत्वा शिष्ये… तस्माद् वृत्रो नाम (शतपथ ब्राह्मण ६/१/१/१)
नव से नवीन – नवो नवो भवति जायमानः अह्ना केतुरूपं मामेत्यग्रम्। (ऋक् १०/८५/१९)
रस रूप से सृष्टि – यद् वै तत् सुकृतं रसो वै सः। रसं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति। (तैत्तिरीय उपनिषद् २/७/२)
प्रतिष्ठा दशममहः। (कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद् २६/२)
आकाश या मस्तिष्क गुहा में वाक् के ३ पाद हैं जिनको गौरी (ग = तृतीय व्यञ्जन) कहा है। चतुर्थ पद बाहर निकलने पर अज्ञान या भाषा की सीमा के कारण कुछ लुप्त हो जाता है, अतः यह तम है। गौ और तम का सम्बन्ध गौतम दर्शन है।
चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीया वाचो मनुष्या वदन्ति॥ (ऋक् १/१६४/४५)
९. लिपि का वर्गीकरण
गौरी वाक् का वर्णों में विभाजन बहुविध होता है जिसके कारण ६ लिपियाँ हैं —
गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षति एकपदी द्विपदी सा चतुष्पदी।
अष्टापदी नवपदी सा बभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन्॥(ऋक् १/१६४/४१, अथर्व ९/१०/२१, १३/१/४१, तैत्तिरीय ब्राह्मण २/४/६/११)
१ पद (भाग) = पूर्ण वाक्।
२ पद = स्वर + व्यञ्जन
४ पद = ब्रह्म या वाक् के ४ पद।
८ पद = १ अक्षर में अधिकतम ८ वर्ण।
९ पद = १ अक्षर में ९ प्राण-विन्दु (मध्य के स्वर में २ विन्दु)
इनके अनुसार ६ लिपियाँ हैं —
(१) गायत्री वाक् – सांख्य दर्शन के ५x५ = २५ तत्त्व (१+४)२। सांख्य लिपि २५ वर्ण (फ्रेञ्च), रोमन में अधिक वर्ण एक्स (X)। अवकहडा चक्र में २० व्यञ्जन तथा ५ स्वर अ, इ, उ, ए, ओ (रोमन के a, e, i, o, u )।
(२) बृहती वाक् – शैव दर्शन में ६x६ = ३६ तत्त्व (२+४)२। अवकहडा में ४ स्थानों पर ३-३ वर्ण अधिक (३७ अक्षर)
अदृश्य वाक् का दृश्य रूप में लिपि चिह्न भी एक लिङ्ग है, लिंग = लीनं गमयति (यस्मिन् चिह्न रूपे)। लिंग से लिंगुआ (Lingua) या लैंगुएज (language) हुआ है।
मूल स्वरूप लिङ्गत्वान्मूलमन्त्र इति स्मृतः । सूक्ष्मत्वात्कारणत्वाच्च लयनाद् गमनादपि ।
लक्षणात्परमेशस्य लिङ्गमित्यभिधीयते ॥ (योगशिखोपनिषद्, २/९, १०)
विभिन्न कामों के लिये अलग अलग प्रकार के लिंग या लिपि हैं—
शुद्ध स्फटिक संकाशं शुभाष्टस्त्रिंशदाक्षरम् । मेधाकरमभूद् भूयः सर्वधर्मार्थ साधकम् ॥८३॥
गायत्री प्रभवं मन्त्रं हरितं वश्यकारकम् । चतुर्विंशति वर्णाढ्यं चतुष्कलमनुत्तमम् ॥८४॥
अथर्वमसितं मन्त्रं कलाष्टक समायुतम् । अभिचारिकमत्यर्थं त्रयस्त्रिंशच्छुभाक्षरम्॥८५॥
यजुर्वेद समायुक्तम् पञ्चत्रिंशच्छुभाक्षरम् । कलाष्टक समायुक्तम् सुश्वेतं शान्तिकं तथा॥८६॥
त्रयोदश कलायुक्तम् बालाद्यैः सह लोहितम् । सामोद्भवं जगत्याद्यं बृद्धिसंहार कारकम् ॥८७॥
वर्णाः षडधिकाः षष्टिरस्य मन्त्रवरस्य तु । पञ्च मन्त्रास्तथा लब्ध्वा जजाप भगवान् हरिः ॥८८॥ (लिङ्ग पुराण १/१७)
धर्म अर्थ साधन के लिये ३८ वर्ण की लिपि (मय लिपि अवकहडा के ३७ अक्षर + ॐ)
गायत्री के २४ अक्षर – प्रभाव और ख्याति के लिये।
कृष्ण अथर्व (घोराङ्गिरस) के ३३ अक्षर – अभिचार विनाश के लिये।
यजुर्वेद के ३५ अक्षर (गुरुमुखी) – यज्ञ तथा शान्ति के लिये।
साम के ६६ अक्षर – संगीत के लिये।
(३) जगती वाक् – ४९ मरुत् (७ x ७) के अनुसार ४९ अक्षर की देवनागरी (१+२+४)२। ३३ व्यञ्जन वर्ण सौरमण्डल के ३३ धाम के ३३ देवों के चिह्न हैं। ४९ मरुत् ब्रह्माण्ड के ४९ क्षेत्र हैं। क्ष, त्र, ज्ञ – ३ अक्षर मिलाने पर ५२ क्षेत्र ब्रह्माण्ड का आधार कूर्म या निर्माण क्षेत्र गोलोक है। ये ५२ शक्तिपीठों के प्रतीक हैं।
(४) अष्टि वाक् – ६४ (८ x ८) कला के अनुसार ६३ या ६४ अक्षर की ब्राह्मी लिपि। दृश्य जगत् (तपः लोक) का विस्तार पृथ्वी व्यास का २६४ गुणा है।
(५) विज्ञान् वाक् – वेद की विज्ञान् वाक् ८ और ९ का समन्वय रूप में (८+९)२ = २८९ हैं। इसमें ३६ x ३ = १०८ स्वर, ३६ x ५ = १८० व्यञ्जन तथा एक ॐ है। १ अक्षर में प्राण के ९ विन्दु या ८ वर्ण तक हो सकते हैं। ये बृहती या अनुष्टुप् के १ पाद के अक्षर हैं। ४ पाद मिलाने पर ४ x ८ x ९ = २८८ अक्षर होंगे। अन्य प्रकार से प्राण रूप में वाक् बृहती (३६ अक्षर) है। ध्वनि उत्पन्न करने के लिये ८ स्थान हैं, ३ स्वर के तथा ५ व्यञ्जन के। अतः ३६ x ३ स्वर और ३६ x ५ व्यञ्जन हैं।
वाग् वै बृहती तस्या एष पतिस्तस्माद् बृहस्पतिः (शतपथ ब्राह्मण १४/४/१/२२, बृहदारण्यक उपनिषद् (१/३/२०)
षट् त्रिंशदक्षरा बृहती (शतपथ ब्राह्मण ८/३/३/८, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/९/१२/१, ताण्ड्य महाब्राह्मण १०/३/९, गोपथ ब्राह्मण पूर्व ४/१२, ऐतरेय ब्राह्मण ४/२४, ७/१)
अष्टौ स्थानानि वर्णानामुरः कण्ठः शिरस्तथा। जिह्वामूलं च दन्ताश्च नासिकोष्ठौ च तालु च॥ (पाणिनीय शिक्षा)
(६) सहस्राक्षरा वाक् – सहस्राक्षरा परमे व्योमन्, अर्थात् यह व्योम (त्रिविष्टप्= तिब्बत) के परे चीन, जापान में है। आकाश या शरीर के भीतर इसके अन्य अर्थ हैं। १५००० अक्षर तक हो सकते हैं—
सहस्रधा पञ्चदशानि उक्था यावद् द्यावापृथिवी तावदित् तत्।
सहस्रधा महिमानः सहस्रं यावद् ब्रह्म विष्ठितं तावती वाक्॥(ऋक् १०/११४/८, ऐतरेय आरण्यक २/३/७)
१०. लिपि तथा भाषा
वाक् अनुष्टुप् (प्रति पाद ८ अक्षर) होने के कारण ८२ = ६४ प्रकार की लिपियां थीं (बौद्ध ग्रन्थ ललित विस्तर)। ९ प्राण बिन्दु के आधार पर जैन सूत्रों में १८ लिपि (९ आकाश तथा ९ पृथ्वी पर) हैं। इसी प्रकार ध्वनि के ९ प्राण विन्दु के कारण ९ व्याकरण थे जिनमें हनुमान् को निष्णात बताया गया है—
सर्वासु विद्यासु तपोविधाने, प्रस्पर्धतेयं हि गुरुं सुराणाम्।
सोऽयं नव-व्याकरणार्थ-वेत्ता, ब्रह्मा भविष्यति ते प्रसादात्॥(उत्तरकाण्ड, ३६/४६)
लिपियों का पुन र्निर्धारण अनेक बार हुआ है, जिनमें अक्षरों के रूप परिवर्तित हुये, लिपि की रचना नहीं।
- ब्रह्मा पूर्व साध्य युग – यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः (पुरुष सूक्त, १६)
- स्वायम्भुव मनु (ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार)
- कश्यप काल
- कार्त्तिकेय – अपान्तरतमा ब्रह्मा (महाभारत वन पर्व २३०/८-१०) – माहेश्वर व्याकरण, तमिल लिपि।
- वैवस्वत मनु
- ऋषभ देव (~१२००० पूर्व के जल प्रलय के पश्चात) – जैन परम्परा के अनुसार ब्राह्मी लिपि। ऋग्वेद (१०/१६६, ३/१३, १४, ९/७१)
- इक्ष्वाकु से सूर्यवंश का पुनः आरम्भ
- भरद्वाज (मुण्डकोपनिषद् १/१/१-५, चरक संहिता प्रथम अध्याय में ऋषि समिति) -उन्नीसवें व्यास।
- वेदव्यास -अन्तिम व्यास।
- शौनक महाशाला – पुराण और वेद शाखायें। इसके पूर्व कृष्ण यजुर्वेद की शाखायें पूरे विश्व में थी। शौनक के पश्चात यह भारत में सीमित रह गया।
- महापद्मनन्द (~१५७७ – १४८९ वि.पू.) ने सभी मान देश के लिये निर्धारित किये।
- उज्जैन के सम्वत् प्रवर्तक परमार राजा विक्रमादित्य – बेताल भट्ट की अध्यक्षता में विशाला नामक नगर में पुनः पुराण सम्पादनएवं द्वापरसन्ध्याया अन्ते सूतेन वर्णितम्। सूर्यचन्द्रान्वयाख्यानं तन्मया कथितम् तव॥१॥
विशालायां पुनर्गत्वा वैतालेन विनिर्मितम्। कथयिष्यति सूतस्तमितिहाससमुच्चयम्॥२॥(भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ४, अध्याय १)
- सायण भाष्य (~१४५० वि.) – इसमें प्रयुक्त देवनागरी लिपि का ही पूरे भारत में प्रचार हुआ।
- ब्रिटिश काल (~१८५७ वि.) – अलग अलग क्षेत्रों के लिये भिन्न प्रकार के टाईप।
११. अर्थ में वृद्धि
वाक्-अर्थ का सम्बन्ध शब्द रूपी ज्ञान है जिसका जन्म द्रविड़ में हुआ।
उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् । नमो भरन्त एमसि ॥
ऋग्वेद के प्रथम सूक्त के दो शब्दों का व्यवहार केवल तमिल-तेलुगू में होता है – दोषा = रात, वस्ता = दिन। इसकी वृद्धि कर्णाटक में हुयी। यह भी द्रविड़ का भाग है, पर अर्थ में वृद्धि यहाँ हुई। मूल रूप से शब्द भौतिक पदार्थों के नाम थे। इनका अन्य संस्था में विस्तार वृद्धि है। श्रुति का ग्रहण कर्ण से होता है, अतः श्रुति ज्ञान का विकास स्थान कर्णाटक हुआ। विस्तार क्षेत्र महः (महल) है अतः उसे महाराष्ट्र कहा गया। सात आधिभौतिक अर्थों के विज्ञान के विषय अनुसार नयी परिभाषायें या अर्थ हो सकते हैं। भौगोलिक स्थिति, व्यापार, विज्ञान के विषय या ऐतिहासिक प्रचलन के अनुसार चार अन्य आधिभौतिक अर्थ होंगे। इसके अतिरिक्त आधिदैविक तथा आध्यात्मिक अर्थ मिला कर सात संस्थायें हैं।
ज्ञान वैराग्य नामानौ कालयोगेन जर्जरौ॥४५॥
उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धिं कर्णाटके गता। क्वचित् क्वचित् महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतांगता॥४८॥ (पद्म पुराण, उत्तर खण्ड, श्रीमद्भागवत माहात्म्य, भक्ति-नारद समागम नाम प्रथमोऽध्यायः)
यास्सप्त संस्था या एवैतास्सप्त होत्राः प्राचीर्वषट् कुर्वन्ति ता एव ताः। (जैमिनीय ब्राह्मण उपनिषद् १/२१/४)
छन्दांसि वाऽअस्य सप्त धाम प्रियाणि । सप्त योनीरिति चितिरेतदाह । (शतपथ ब्राह्मण, ९/२/३/४४, वाज. यजु ,१७/७९)
अध्यात्ममधिभूतमधिदैवं च (तत्त्व समास, ७)
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावो ऽध्यात्म उच्यते। भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्म संज्ञितः॥३॥
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषस्याधिदैवतम्। (गीता, अध्याय ८)
उत्तमम्।
अति उत्तम
शानदार
आपको।प्रणाम ????
बहुत ही दुर्लभ जानकारी सर, प्रणाम !