संस्कृत संस्कृति संस्कार। आज श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को सभी संस्कृतप्रेमी संस्कृत-दिवस का आयोजन कर रहे हैं। कहा गया है- ‘संस्कृति: संस्कृताश्रिता‘ अर्थात् भारत की संस्कृति संस्कृत भाषा पर ही आश्रित या निर्भर है।
शब्द रचना की दृष्टि से यह सम् + कृ+ क्त से निर्मित है। यहाँ सम् उपसर्ग है जो समानता एवं विशेषता को व्यक्त करता है। कृ धातु करना अर्थ प्रदान करता है। क्त (क्+त) प्रत्यय भूतकाल हेतु प्रयुक्त होता है। इसका ‘क्‘ लोप होकर ‘त‘ शेष रहता है। संस्कृत-संधि के नियमानुसार सम् व कृ के मध्य स् का आगम हो जाता है। अतः संस्कृत का अर्थ हुआ – परिष्कृत किया हुआ अथवा स्वच्छ किया हुआ (वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते– भर्तृहरि का नीति शतक उन्नीसवाँ श्लोक)। अन्य अर्थ सम्पादित, सुसज्जित, अभिमन्त्रित, अलङ्कृत व श्रेष्ठ होता है।
संस्कृति (सम्+कृ+ क्तिन) का अर्थ हुआ मनोविकास, पूर्णता, परिष्कार, सज्जता। प्रत्येक समाज व देश के नागरिकों के मनोभावों में समानता उस देश की संस्कृति कहलाती है। यथा – गुरुजनों का सम्मान, नारी का सम्मान हमारी संस्कृति है। एक उदाहरण अनेक बार दिया जाता है। जैसे – छींक आना प्रकृति है। अपने आसपास का ध्यान न रखते हुए छींकना विकृति है। सावधानीपूर्वक वस्त्र आदि से ध्वनि को कम करने हुए छींकना संस्कृति है।
संस्कार – (सम्+कृ+घञ्) का अर्थ शुद्ध अथवा परिष्कार करना। ये तीनों शब्द एक ही उपसर्ग+धातु से बनते हैं।
संस्कृत भाषाओं की जननी है। भाषा के जन्म व विकास को समझना चाहिए।
भाषा की प्रक्रिया – एक मानक भाषा के शब्दों में अशिक्षित जनों द्वारा अनभिज्ञतावश परिवर्तन किया जाता है। यह त्रुटि अथवा परिवर्तन मौखिक व लिखित दोनों प्रकार से होता है। जैसे, शाप के स्थान पर श्राप।
शिक्षितों के निर्देशों की अवहेलना कर ऐसे परिवर्तन होते रहते हैं। यह परिवर्तन दशकों तक चलता है। यह परिवर्तन मिल कर एक बोली का रूप धारण कर लेता है। बोली> लोकभाषा> विभाषा > भाषा के क्रम से यह परिवर्तन होता रहता है। भाषा की विषमता को दूर करने हेतु वैयाकरण व्याकरण की रचना कर उसका परिष्कार करता है। इस प्रकार एक नयी भाषा अस्तित्व में आती है।
जैसा कि ऊपर वर्तनी-परिवर्तन की वार्त्ता हुई। यह कैसे होता है? किसी प्राचीन आचार्य ने निरुक्त की परिभाषा देते हुए लिखा है-
वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ।
धातोस्तदर्थातिशयेन योगस्तदूच्यते पञ्चविधं निरुक्तम्॥
अर्थात् निरुक्त के पांच प्रकार हैं :
- वर्णागम – किसी वर्ण का आगमन। यथा, स्त्री उच्चारण के समय आरंभ में इ का आगमन हो जाता है (इस्त्री) , शाप (श्राप)। कारण अशिक्षा।
- वर्ण-विपर्यय – शब्द के वर्ण परस्पर स्थान परिवर्तन कर लें। यथा, हिंस्र > सिंह। लखनऊ > नखलऊ।
- वर्ण-विकार – वर्ण के उच्चारण स्थान में परिवर्तन। यथा, परशु में प महाप्राण होकर फरसा बन गया। पुत्र > पूत।
- वर्णनाश – शब्द के किसी वर्ण का नाश होना। यथा, स्नेह > नेह। स् का नाश हो गया।
- धातु का भिन्न अर्थ से योग जैसे उत्+हार > उद्+ हार> उद्+धार> उद्धार। अर्थात् उबारना (कष्ट से निकालना। यह बन गया उधार, जिसे लौटाना अनिवार्य है।
वर्तनी परिवर्तन का कारण क्या है?
- * प्रयत्न लाघव अथवा मुखसुख। *क्षिप्र भाषण।
- * अशिक्षा। * भावातिरेक। *आत्म प्रदर्शन।
- * यादृच्छ शब्द। *मात्रा,सुर व बलाघात की त्रुटि। *कलात्मक स्वच्छन्दता। *लिपि दोष।* भौगोलिक परिस्थितियाँ आदि। संस्कृत का जन्म वैदिक काल की भाषा से हुआ है।
वैदिक भाषा से जनसाधारण इसी प्रकार कालक्रम में विकारों के कारण दूर होते चले गए। अतः उस नई भाषा की विषमता को दूर करने हेतु उसका व्याकरण के नियमों से परिष्कार कर उसे सम किया गया। उस सम की गई भाषा को संस्कृत नाम दिया गया। जैसे, वर्तमान में समझें तो हिंदी और मानक हिंदी। यही मानक हिंदी भविष्य में मानक नाम से प्रसिद्ध हो जाए तो हिंदी और मानक में कुछ तो अंतर आ ही जाएगा। इसी प्रकार तत्कालीन भाषा में वेदों का गठन हुआ; अत: वह वैदिक भाषा कहलाई और उसका मानक संस्करण संस्कृत। इन दोनों में कुछ अंतर ध्यातव्य है – वैदिक भाषा स्वराघात प्रधान थी, अतः उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित का ज्ञान आवश्यक था। उच्च स्वर उदात्त। नीचा स्वर अनुदात्त एवं सामान्य स्वर स्वरित कहलाता था। इसका अशुद्ध प्रयोग हानिकारक था। ‘इंद्रशत्रु‘ इसका प्रसिद्ध प्रमाण है – स्वर दोष के कारण अर्थ ‘इन्द्र जो शत्रु है’ के स्थान पर ‘इन्द्र जिसका शत्रु है’ हो गया और इन्द्र के नाश के उद्देश्य से प्रयुक्त मन्त्र द्वारा मन्त्र प्रयोग करने वाले इन्द्र के शत्रु का ही नाश हो गया!
इसके विपरीत संस्कृत बलाघात प्रधान भाषा है, अतः ह्रस्व और दीर्घ का ध्यान रखना आवश्यक है। प्लुत का प्रयोग दूर खड़े व्यक्ति के लिए होता था।
वैदिक में ‘लृ’ स्वर का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है, संस्कृत में इसका अभाव है।
क्या संस्कृत जन भाषा थी?
जो कहते हैं कि संस्कृत कभी जनभाषा नहीं थी, उन्हें प्लुत के प्रयोग से जान लेना चाहिए कि यह पुकारने में ही प्रयुक्त होता है। प्लुत लिखित भाषा का अंग न कभी था, न कभी हो सकता है। दूर स्थित व्यक्ति को पुकारते समय जो स्वर का तान होता है, वही प्लुत है। यह सूत्र ‘दूराद्धूते च’ (अष्टाध्यायी ८/२/८४) यही सिद्ध कर रहा है कि पुकारने का काम जन भाषा में ही होता है।
इसके अतिरिक्त यास्क (निरुक्तकार) ने वैदिक हेतु ‘अन्वध्यायम्‘ तथा ‘दाशतयीषु‘ जैसे शब्दों का प्रयोग किया है, वहीं संस्कृत हेतु ‘भाषा’ का प्रयोग किया है। भाषा शब्द भाष् धातु से बना है, जिसका प्रयोग व्यक्त वाणी (व्यक्तायां वाचि) के लिए किया जाता है।
पाणिनि (सूत्रकाल) ने भी वैदिक के लिए ‘छंदस्‘ तथा संस्कृत के लिए ‘भाषा‘ का प्रयोग किया है।
वैयाकरण कात्यायन (वार्तिककार), पतञ्जलि (महाभाष्यकार) , राजशेखर (काव्यमीमांसा कार) ने भी अपनी रचनाओं में सिद्ध किया है कि संस्कृत पहले राजभाषा, फिर जनभाषा के रूप में प्रसिद्ध हुई।
स्रोत
शब्दार्थ-वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत हिन्दी कोष से साभार। शेष – भाषा विज्ञान (लेखक-कर्ण सिंह, प्रकाशन-१९७५) पर आधारित