‘विशेषज्ञों की भ्रान्तियाँ’ नामक लेखांश में हमने देखा कि किस तरह सब कुछ जान लेने के उपरान्त भी बहुधा विशेषज्ञों के स्वयं के व्यवहार में भी परिवर्तन नहीं आता, दूसरों का तो कहना ही क्या! हमने बारम्बार देखा है कि मनुष्य का मस्तिष्क भ्रांतियों और संज्ञानात्मक पक्षपातों से घिरा ही रहता है। सनातन बोध में इस समस्या के समाधान भी मिलते हैं जिसकी चर्चा हम करते आ रहे हैं। मानव व्यवहार और भ्रांतियाँ अध्ययन में सरल लगते हुए भी अत्यंत जटिल हैं। इस समस्या का सटीक समाधान आधुनिक मनोविज्ञान के पास अब तक नहीं है। पर मनोवैज्ञानिकों ने इन समस्याओं के एक अंश का समाधान निर्णयों में मानव हस्तक्षेप को पूरी तरह हटा कर कर दिया है।
1954 में पीटर मीह्ल ने अपनी पुस्तक Clinical vs। Statistical Prediction: A Theoretical Analysis and a Review of the Evidence में इस बात की चर्चा की कि रोग-विषयक निर्णयों में यांत्रिक रूप से की गयी गणना (algorithms) और साधारण सांख्यिकी से निकाले गये निष्कर्ष विशेषज्ञों के अनुमान से कहीं श्रेष्ठतर होते हैं। इसका एक कारण उन्होंने यह दिया कि यांत्रिक रूप से की गयी गणना तथाकथित विशेषज्ञ मस्तिष्क में चलने वाले अन्य कारकों (भ्रांतियों) से मुक्त होती है साथ ही यांत्रिक गणना में सारे कारकों के सह सम्बन्ध पूर्व निर्धारित कर दिये जाते हैं तो निर्णय में किसी कारक के छूट जाने का भय भी नहीं! यदि आँकड़े वही रहे तो सांख्यिकी से निर्धारित यंत्र से निष्कर्ष हर बार अपरिवर्तनशील रहता है। इसके विपरीत प्रयोगों में यह पाया गया कि भिन्न-भिन्न चिकित्सक, यहाँ तक की एक ही चिकित्सक अलग अलग समय में सामान आँकडे देखकर भिन्न-भिन्न निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि विशेषज्ञ जहाँ आवश्यकता नहीं वहाँ भी अपनी विशेषज्ञता का प्रयोग करते हैं, भ्रांतियों के अतिरिक्त विभिन्न मतों से प्रभावित, भ्रांतियों तथा पक्षपातों से परे गूढ़ सत्य से अपरिचित। इससे एक बात तो स्पष्ट है कि जहाँ स्थापित तथ्य हों वहाँ अपने भ्रांतियों से अनभिज्ञ व्यक्ति को अपनी दुविधा के स्थान पर स्थापित तथ्यों का अनुसरण करना चाहिये। कुछ इस प्रकार –
तर्को प्रतिष्ठ: श्रुतयो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्य वच: प्रमाणम्। धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गत: स पन्था: ॥
अर्थात वास्तविक मार्ग के निर्धारण के लिये तर्क भी तो अस्थिर है! श्रुतियाँ भी भिन्न भिन्न बातें कहती हैं। ऐसा एक भी ऋषि या विचारक नहीं जिनका मत प्रमाण के तौर पर लिया जा सके। वास्तव में धर्म का तत्त्व अत्यंत गूढ है। इसलिये महापुरुष जिस मार्ग पर चले वही मार्ग अनुसरण करने योग्य है।
इसी क्रम में प्रिन्सटन विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर ओरली अशेंफेल्टर का एक रोचक अध्ययन है जिन्होंने अपने शोधपत्र Predicting the Quality and Prices of Bordeaux Wine में अंगूर से बनी मदिरा के मूल्य-निर्धारण हेतु ऋतु, बारिश, तापमान एवं निर्माण वर्ष को मिलाकर एक सूत्र दिया। उन्होंने यह सिद्ध किया कि यह सूत्र मदिरा भंडारण कर लाभ कमाने वाले व्यवसायियों के लिये विशेषज्ञों के दिये गये मत से अधिक परिशुद्ध अनुमान देता है। विशेषज्ञों ने इस शोध को न केवल नकारा परन्तु हँसी भी उड़ाई। निवेश में इस तरह के अनेक अध्ययन हैं जिनमें साधारण नियमों के परिपालन से विशेषज्ञों की सलाह से किये गये निवेश की तुलना में अधिक लाभ मिला। चिकित्सा शास्त्र हो या निवेश, विशेषज्ञ इस सिद्धांत को मानने से हिचकिचाते रहे हैं जो कि स्वाभाविक ही है। परन्तु वे हर क्षेत्र जहाँ निर्णय चेतना से संबद्ध हैं, जहाँ किसी व्यक्ति की मनोदशा या पक्षपात पर निर्णय निर्भर करते हैं, वहाँ आँकड़ों से निकाले गये यांत्रिक निष्कर्ष अधिक सटीक होते हैं। यहाँ एक स्पष्ट परिसीमा है कि हर बात के लिए आँकड़े एवं यांत्रिक विधियाँ नहीं बनाई जा सकतीं किंतु आधुनिक मनोवैज्ञानिक इस बात को मानते हैं कि जहाँ भी ऐसे यांत्रिक प्रतिरूप बनाए जा सकते हैं, वे भ्रांतियों और भावनाओं से मुक्त होने के कारण उपयोगी होते हैं। अप्रासंगिक सूचनाओं, अन्तर्ज्ञान और भावनाओं का उनपर कोई प्रभाव नहीं होता। चयन के लिए किये जाने वाले साक्षात्कार हों या निवेश के लिए किये जाने वाले निर्णय, भ्रांतियों से परे गणितीय सूत्रों ने विलक्षण निर्णय लेने की क्षमता सिद्ध की है। डेनियल कहनेमैन अपनी पुस्तक में प्रसूति विज्ञान में इसके एक क्रांतिकारी उपयोग का उदहारण देते हैं। 1953 में वर्जिनिया अपगर ने नवजात शिशुओं के पीड़ा में होने का पता लगाने के लिये एक साधारण सा सूत्र बनाया जिससे अनेक नवजात शिशुओं के प्राण बचाये जा सके। उससे पहले प्रसूति विशेषज्ञ अपने अपने ढंग से इस बात का निर्धारण एवं उपचार करते थे।
एक रोचक तथ्य यह भी है कि इन यांत्रिक विधियों में भी जटिल सूत्रों के स्थान पर सुगम और सरल सूत्र ही अधिक काम करते हैं। उदाहरणतया, सांख्यिकी में एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है – प्रतिगमन विश्लेषण (Regression Analysis), जिसमें किसी भी बात का अनुमान अन्य कारकों द्वारा लगाया जाता है – विभिन्न चरों (आँकड़ों) के सह-सम्बन्ध का अध्ययन। इसमें किसी भी बात का अर्थात आश्रित चर (dependent variable) का अनुमान स्वतंत्र चरों (independent variable) में परिवर्तन के आधार पर किया जाता है। सांख्यिकी के नूतन जटिल सिद्धांतों की तुलना में यह सिद्धांत बहुत सुगम है एवं आश्चर्यजनक रूप से प्रभावी भी। हमने जिन उदाहरणों की चर्चा ऊपर की, उन सबमें केवल इसी सिद्धांत से समस्त निर्णय लिये गये। इस हल ने मानव-भावना रहित, भ्रान्ति से परे तर्क की एक नयी विधा को जन्म दिया है जिसे गणितीय मनोविज्ञान (mathematical psychology) भी कहा जाता है। गणितीय मनोविज्ञान (mathematical psychology) नामक पुस्तक के लेखक रोबिन दवेस ने प्रतिगमन विश्लेषण के सिद्धांत को सरल कर सामाजिक विज्ञान के उदाहरणों से दर्शाया कि केवल सबसे महत्त्वपूर्ण कारकों को लेकर यदि हम एक साधारण प्रतिरूप बना लें तो साधारण सूत्रों से कई जटिल प्रश्नों के उत्तर सरलता से दिये जा सकते हैं, तथाकथित विशेषज्ञों के अनुमान से अधिक अचूक, महाभारत के उत्तम प्रचलन – महाजनो येन गत: सिद्धांत की भाँति। मनोविज्ञान का इन अबूझ प्रश्नों के लिए गणित की ओर मुड़ना भी कोई आश्चर्य नहीं! गणित के के लिये तो महावीराचार्य ने गणितसारसंग्रह में कहा ही है –
बहुभिर्प्रलापैः किम्, त्रयलोके सचराचरे। यद् किंचिद् वस्तु तत्सर्वम्, गणितेन् बिना न हि।
अधिक प्रलाप करने का क्या लाभ? तीनों लोकों और इस चराचर जगत में जो कोई भी वस्तु है गणित के बिना नहीं है!