कविता, सुकान्त भट्टाचार्य, बांग्लादेश
हम सीढ़ियाँ हैं
रौंदते हो जिन्हें
प्रतिदिन तुम
ऊँचे उठने को।
तब तुम
न रुकते कभी,
न देखते कभी मुड़।
तुम्हारी पगधूलि से
हमारे हृदय होते आह्लादित
जबकि हमें मिलती हैं ठोकरें
और तिरस्कार नियमित।
जानते हो हमारे संत्रास तुम
अत: बिछाते हो सोपानों पर
आस्तरण,
छिपाने को हमारे हृदय विदार
तुम करते हो प्रयास
डालने को आवरण
उन यातनाओं के प्रमाण पर
जो तुमने दिये
और
तुम चाहते हो कि रहें अनसुने
तुम्हारे अट्ट पदचापों के अनुनाद
इस संसार से।
किंतु अपने अन्तस्थल
जानते हैं हम सब,
कि तुम्हारे अनाचार
नहीं रहेंगे ओझल सदातन
तुम्हारे पाँव भी फिसलेंगे
एक दिन,
हमायूँ की भाँति।