शताब्दियों से स्पर्श मनुष्य के लिए एक रोचक विषय रहा है। सनातन ग्रंथों में स्पर्श अनेक संदर्भों में उपस्थित है, जिनमें प्रमुख हैं – स्पर्श विषयक एक प्रमुख इंद्रिय के रूप में त्वचा, वात्सल्य तथा ममता रूपी स्पर्श, आलिंगन, चुम्बन इत्यादि काम के संदर्भ में तथा प्राणरूपी ऊर्जा के संचारण-नियंत्रण स्वरूप मर्म-चिकित्सा के रूप में।
स्पर्श की महत्ता तो इसी बात से लगायी जा सकती है कि त्वचा समस्त इंद्रियों में सबसे विस्तृत तथा बाह्य ग्राही है। विषयों के गुणों का अनुभव कराने वाली पाँच ज्ञानेंद्रियों में त्वचा एक प्रमुख इन्द्रिय है, वायु जिसके कल्पित देव हैं तथा जिसका विषय स्पर्श है। इस प्रकार स्पर्श एक मौलिक जैविक अनुभूति है। अनेक प्रकार की भावनाओं के अशाब्दिक संप्रेषण में भी स्पर्श अत्यंत प्रभावी है। स्पर्श मानव जीवन के प्रथम अनुभूतियों में से एक है। वात्सल्य सुख के लिए कहा गया है –
एवं च भाषते लोकश्चंदनं किल शीतलम्। पुत्रगात्रस्य संस्पर्शः चन्दनादतिरिच्यते ॥
व्यापक अर्थ में लें तो जिस वस्तु से अनुराग हो उसका स्पर्श सुखकारक होता है। विभिन्न वस्तुओं के स्पर्श से होने वाली अनुभूति (यथा शीत, ऊष्ण इत्यादि) का अनुभव कर ध्यान लगाने की एक योग परम्परा स्पर्श-साधना भी प्रचलित है।
विभिन्न संस्कृतियों में स्पर्श की विभिन्न मान्यताएँ भी हैं जो सांस्कृतिक कारणों पर भी निर्भर हैं। मनोवैज्ञानिक सिडनी जौरार्ड ने इस बात का सरल प्रकार से अध्ययन किया कि किस प्रकार विश्व के विभिन्न देशों में बात करते हुए व्यक्ति एक दूसरे को कितनी बार स्पर्श करते हैं।
स्पर्श की महत्ता पर मनोवैज्ञानिक हैरी हार्लो का बंदरों पर किया प्रसिद्ध प्रयोग उल्लेखनीय है जिसमें उन्होंने कृत्रिम रूप से पुतले के रूप में बनाई गयी दो ‘माताओं’ से बंदरों के व्यवहार का अध्ययन किया। उन्हों ने यह दर्शाया कि किस प्रकार मात्र तार से बनी किंतु भोजन देने वाली माता की तुलना में बंदरों के बच्चे वस्त्र से बनी उस माता के पास रहते हैं जिससे उन्हें सुख, सुरक्षा तथा स्पर्श की अनुभूति होती है। यही नहीं, वे वानर शिशु जो स्पर्श रहित रहे, वे सामाजिक एकांत की स्थिति से उस प्रकार जूझने लगते हैं वे आजीवन अन्य बंदरों से घुल मिल नहीं पाते।
इसी प्रकार वर्ष २०१८ में साइकोलोजिकल साइन्स में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार स्पर्श से अनुभव की गयी वस्तुओं की मस्तिष्क में विस्तृत एवं दीर्घकालिक स्मृति रहती है। नेचर साइंटिफ़िक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन के अनुसार जब नेत्रों को भ्रांति हो तब हम बहुधा वास्तविकता के लिए स्पर्श का ही उपयोग करते हैं। इसी प्रकार अनेक अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि स्नेह भरा स्पर्श मानसिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य के साथ साथ अच्छे सम्बन्धों में भी सहायक है। कोलोराडो विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में यह पाया गया कि प्रेमियों के हाथ पकड़ने से बहुधा उनकी हृदय गति तथा साँस लेने की दर एक लय हो जाती है जिससे पीड़ा का भी अंश शमित होता है।
आधुनिक संदर्भ में उचित-अनुचित स्पर्श की चर्चा के परे स्पर्श के लाभों के अनेक अध्ययन हैं। स्नेह, ममता और वात्सल्य के रूप में स्पर्श के प्रत्यक्ष लाभ निर्विवाद रूप से स्थापित हैं। इसकी महत्ता इस बात से पता चलती है कि अध्ययनों में यह पाया गया कि अनाथ गृहों में जिन शिशुओं को स्पर्श के रूप में वात्सल्य नहीं मिलता उनकी मृत्यु तक हो जाती है। स्पर्श के मनोवैज्ञानिक अध्ययन में वर्षों से इसकी मुख्य व्याख्या अनुरक्ति सिद्धांत (attachment theory ) और ऑक्सीटोसिन के प्रवाह से ही जुड़ी बतायी जाती रही है।
तंत्रिका विज्ञान में भी इसका अध्ययन इस बात तक ही सीमित था कि किस प्रकार स्पर्श से मस्तिष्क तक संदेश पहुँचता है, परंतु विगत कुछ वर्षों में मनोविज्ञान तथा चिकित्सा शास्त्र में स्पर्श के एक अन्य रोचक पक्ष का भी अध्ययन हुआ है जिससे इसके सामाजिक सम्बंध, मस्तिष्क तथा व्यक्तिगत सम्बन्धों पर होने वाले प्रभाव का पता चलता है। यह अध्ययन अभी भी पूर्ण तो नहीं है परंतु इतना स्पष्ट है कि शरीर में विद्युत तरंगों के प्रवाह, मस्तिष्क तथा भावनाओं को रूप देने में स्पर्श एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जहाँ एक स्नेह भरे आलिंगन से रक्तचाप में न्यूनता आ जाती है तथा किसी मित्र के कन्धे पर हाथ रख मिलने से एक नया जुड़ाव हो सकता है वहीं एक अनुचित स्पर्श ठीक इसके विपरीत कार्य कर सकता है।
अध्ययनों से पता चलता है कि कितने दबाव तथा किस प्रकार के स्पर्श का कैसा प्रभाव होता है, यह मस्तिष्क में ही निर्मित होता है। इन नए अध्ययनों में प्रमुख उपलब्धि है – स्पर्श के संदेशवाहन के लिए शरीर में विशेष स्नायु तंत्र (C-tactile nerve fibers) का होना। यह भी स्थापित हुआ कि हर अंग में स्पर्श अभिग्राहक (receptors) होते हैं। कुछ अंगों यथा हथेली एवं ओठ में ऐसे अभिग्राहकों की संख्या अधिक होती है। इन तंत्रों के गहन अध्ययन से मानवीय व्यवहार तथा सामाजिक सम्बन्धों के सूत्रों को समझने में सुविधा होगी। इन स्नायु तंत्रों की समझ से व्यक्ति के आत्म, चेतना तथा अन्य व्यक्तियों के व्यवहार को समझने में भी सरलता होगी। कुछ विकासवादी वैज्ञानिक पशुओं में अपने शिशुओं को सहलाने की प्रक्रिया से भी इसे जोड़कर देखते हैं। वैज्ञानिक यहाँ जो कह रहे है, वह ‘मर्म चिकित्सा’ या ‘स्पर्श चिकित्सा’ का भी मूल है – शांति, आत्म नियंत्रण, सुख की अनुभूति और रोग उन्मूलन ।
आयुर्वेद में मर्मस्थल शरीर के उन बिंदुओं को कहते हैं जहाँ प्राण ऊर्जा का वास होता है, जिसके रक्षण से व्याधियाँ नहीं होती। अन्य लाभों के अतिरिक्त इन बिंदुओ के उचित स्पर्श से उपचारित करने से रोगमुक्ति भी संभव है। प्राण ऊर्जा के प्रवाह को नियंत्रित कर की जाने वाली आयुर्वेद की मर्म चिकित्सा या स्पर्श चिकित्सा विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा पद्धतियों में से एक है जो विश्व की अन्य अनेक स्पर्श सम्बंधित पद्धतियों (यथा रेकी) की जनक है। रेकी में ‘की’ का शाब्दिक अर्थ भी प्राण ऊर्जा ही
होता है।
सम्भवतः बौद्ध काल में यह पद्धति श्याम, चीन, जापान आदि देशों में भी गयी तथा वहाँ अन्य नामों से विकसित हुई। पीड़ा तथा तनाव उन्मूलन में इस पद्धति का उपयोग वर्षों से होता रहा है। आयुर्वेद की मर्म विद्या (सुश्रुत) के अनुसार प्राण ऊर्जा का प्रवाह ७२००० नाड़ियों तथा १०७ बिंदुओं से होता है। व्यक्ति की शारीरिक व मानसिक स्थितियों तथा चेतना का अध्ययन कर इन बिंदुओं तथा शरीर के विभिन्न अंगों के स्पर्श मात्र से दैहिक, मनोदैहिक एवं मानसिक व्याधियों का उपचार किया जाता है। यह प्रक्रिया आधुनिक तंत्रिका विज्ञान में हो रहे अध्ययनों के अद्भुत रूप से समरूप है जिनमें इन बिंदुओं तथा शरीर के विभिन्न अंगों के स्पर्श से प्राण ऊर्जा के प्रवाह को नियंत्रित कर चिकित्सा की जाती है।
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सम्पादकीय टिप्पणी :
मर्मस्थलों का स्पर्श, चिकित्सा एवं कोमल भावनाओं से इतर भी एक पक्ष है – न्यून प्रहार से अधिक क्षत पहुँचाने का। आख्यान महाकाव्यों के युद्ध वर्णन प्रसंगों में योद्धाओं द्वारा मर्मस्थलों के ज्ञान का प्रयोग कर शत्रु को अधिकाधिक आहत करने के अनेक उद्धरण उपलब्ध हैं। रामायण से कुछ देखें :
समरे निहताः सर्वे सायकैर्मर्मभेदिभिः । तान्भूमौ पतितान्दृष्ट्वा क्षणेनैव महाबलान् ॥
तस्य माला च देहश्च मर्मघाती च यः शरः । त्रिधेव रचिता लक्ष्मीः पतितस्यापि शोभते ॥
ततस्तस्य नखैस्तीक्ष्णैर्मर्माण्युत्कृत्य वानरः । उत्पपाताथ वेगेन मनःसंपातविक्रमः ॥
रामलक्ष्मणयोरेव सर्वमर्मभिदः शरान् । भृशमावेशयामास रावणिः समितिंजयः ॥
तौ संप्रचलितौ वीरौ मर्मभेदेन कर्शितौ । निपेततुर्महेष्वासौ जगत्यां जगतीपती ॥
विव्याध दशभिर्बाणै रामं सर्वेषु मर्मसु । स विद्धो दशभिर्बाणैर्महाकार्मुकनिःसृतैः ॥
तस्य निष्कर्षतः शक्तिं रावणेन बलीयसा । शराः सर्वेषु गात्रेषु पातिता मर्मभेदिनः ॥
स रावणाय संक्रुद्धो भृशमायम्य कार्मुकम् । चिक्षेप परमायत्तस्तं शरं मर्मघातिनम् ॥
वाणी द्वारा मर्माहत होने पर मर्म बृहद अर्थ ले लेता है। अस्त्रों के मर्मभेदी प्रयोग उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि मर्मस्थलों के अभिज्ञान का प्रयोग चिकित्सा के साथ साथ युद्ध में भी किया जाता था।