जल की एक पुराणी संज्ञा ‘नारा’ है जिसमें शयन करते आदि पुरुष ‘नारायण’ कहे गये हैं।
आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः ।
ता यदस्यायनं पूर्वं तेन नारायणः स्मृत: ॥
मानव देह का साठ प्रतिशत जल है जिसमें नियामक ‘पुरुष’ निवास करता है – पुरि देहे शेते शी-ड पृषो˚। जीवन की विराट लीला हेतु जल की महत्ता की समझ भारतीय मनीषा के इन सूत्रों में स्पष्ट परिलक्षित होती है।
विशाल जलराशि नीली दिखती है। धरती को अपनी गोद में लिया वायुमण्डल नीले छाजन सा प्रतीत होता है। प्राचीन काव्य में इस कारण ही समुद्र एवं आकाश, दोनों को विशाल जलधि समान चित्रित किया गया। वाल्मीकीय रामायण का यह अंश एक उदाहरण है:
सचन्द्र कुमुदम् रम्यम् सार्क कारण्डवम् शुभम्
तिष्य श्रवण कदम्बम् अभ्र शैवल शाद्वलम्
पुनर्वसु महामीनम् लोहितांग महाग्रहम्
ऐरावत महाद्वीपम् स्वाती हंस विलोडितम्
वात सम्घात जात ऊर्मिम् चन्द्र अंशु शिशिर अम्बुमत्
भुजंग यक्ष गन्धर्व प्रबुद्ध कमल उत्पलम्
ऐसे जल में निवास करते नारायण भी नील हैं, नीलमाधव हैं।
नीलाम्बुज श्यामलकोमलाङ्गम् सीता समारोपित वाम भागम्।
जन जन में रमते आराध्य राम के इस स्तुति अंश को भिन्न अर्थ में देखें तो एक सुन्दर बिम्ब उपस्थित होता है। अम्बुज अर्थात जल से उत्पन्न वह नीला श्यामल एवं कोमल अङ्गों वाला है। जल के कारण ही कोमल पारिस्थितिकी वाली धरा विविध वनस्पतियों से युक्त हो शस्य श्यामला भी है। सीता कृषि है। वाम का अर्थ सुंदर होता है, पोषण करने वाली सुंदरी उस पुरुष के वाम भाग में विराजती है। वामा को नारी क्यों कहा गया? कहीं जल स्वरूपा होने के कारण तो नहीं? धरा पर जो कुछ भी सुंदर है, जीवन हो, प्रकृति हो, जीवन व्यापार हों; सब वाम रूपा पानी की ही क्रीड़ा है। नारायण की माया के वामा रूप को ऐसे समझें, समझें कि विनाशी वाम रूप होने पर प्रलय भी जल के कारण ही होता है।
अन्तरिक्ष से धरा नीली दिखाई देती है तो जल के प्राचुर्य के कारण ही। धरा का 71 प्रतिशत जल या पानी से ढका है। धरा के समस्त जल का आयतन अनुमानत: 1,386,000,000 किमी3 है जिसमें कि भूगर्भ से ले कर धरातल तक का मीठा पानी 10,633,450 किमी3 है अर्थात मात्र 0.77% ! इसमें भी पीने के लिये जो धरातल प्रवाही रूप में उपलब्ध है, वह मात्र 93113 किमी3 है अर्थात समस्त मीठे पानी का केवल 0.88% प्रतिशत। समझने के लिये इस चित्र को देखा जा सकता है जिसमें समस्त पानी, समस्त मीठा पानी एवं समस्त धरातल प्रवाही मीठा पानी नीले बिंदुओं से समस्त धरा के अनुपात में दर्शाये गये हैं।
जिसे बहुत सुलभ समझते हैं, वह वस्तुत: दुर्लभ है। बोतल में भरा पानी क्रय कर पीना ऐश्वर्य का नहीं, आगत सङ्कट एवं हमारी दरिद्रता का द्योतक है। आगे से पानी को ऐसे ही बहाने से पहले इन तथ्यों पर अवश्य विचार करें, साथ ही इस पर भी कि आगामी विश्वयुद्ध पानी के लिये होगा, ऐसा तक कहा जाता है।
भारत के अन्य क्षेत्रों की तुलना में देखें, पानी की बूँद बूँद को जूझते दक्षिण की तुलना में देखें, आतप में प्याऊ का पुण्य प्राप्त करती मरुभूमि की तुलना में देखें, पानी के लिये जाने कितनी ऊँचाई चढ़ती पर्वतीय वामा की तुलना में देखें, पानी के लिये जाने कितने कोश चलती बुंदेली बालाओं की तुलना में देखें तो हिन्दी क्षेत्र के नदी सिञ्चित भाग में जल के प्रति उदासीनता एवं तिरस्कार भाव आपराधिक लगता है। ‘पानी की भाँति धन बहाना’ यह उपमा इसी क्षेत्र की देन है। तराई भागों में तो आज भी वर्षाकाल में हाथ दो हाथ खन देने पर ही भूजल प्राप्त हो जाता है, ऐसे में उसे ‘बहा दिये’ या ‘दूषित कर दिये’ जाने योग्य ही समझा जाये तो आश्चर्य भी नहीं होना चाहिये किन्तु इस विशाल भूखण्ड एवं अति विशाल जनसंख्या का वह घटक क्या कर रहा है जो शिक्षित है? उसे सङ्कट पता है, इतना तो माना ही जा सकता है। कर्तव्य की इतिश्री मान कर ही, पढ़ाया तो जाता ही है! अन्य विषयों की भाँति ही वह इसमें भी शून्य है, जन चेतना की कौन कहे, स्वयं भी अशिक्षितों की भाँति आपराधिक व्यवहार करने में कुशल है – जगन्मिथ्या!
जाने कौन से क्षेत्र के थे अमरसिंह जो अपनी कृति नामलिङ्गानुशासनम् में नदी के जल से उपजाये गये धान से पोषित क्षेत्र के लिये नदीमातृक एवं वर्षा के जल से उपजाये गये धान से पोषित क्षेत्र के लिये देवमातृक शब्द बता गये। जहाँ नदियाँ हैं, वहाँ वही माता हैं, आकाश से वर्षा करते देव की ममता उनके लिये गौण हो जाती है। नहर कुल्या सिञ्चित भूभाग पर तो देवेंद्र की कृपा भी प्रचुर बरसती है, बाढ़ आती है। जो सुलभ हो उसके प्रति आदर नहीं होता, यह कह कर अशिक्षितों की भाँति हाथ झाड़ कर चल देने से नहीं चलने वाला। हिम, वर्षा, नदी, भूगर्भ – जलचक्र का रूप ‘कोमलाङ्गी’ है जो कि बहुत ही गहन समझ की माँग करता है अन्यथा विनाशक रूप धारण कर लेता है।
पुराणी चेतना इसे ले कर अति समृद्ध थी। पादप स्थावर उपजाने पर पुण्य, वृक्ष का पुत्र समान होना, नदियों को माता की भाँति समझ नमस्कार करने के साथ साथ उनमें अपशिष्ट, कूड़ा आदि डाल कर दूषित न करने का अनुशासन, वर्षा ऋतु में उसका विशेष सम्मान करना, शव दाह के समय मृतका का टुकड़ा बचा जलचर मासंभक्षी जीवों के लिये प्रवाहित कर देना, राजा का अभिषेक अनेक तीर्थों से लाये जल से किया जाना आदि आदि जाने कितने उदाहरण हैं जो वास्तव में जन चेतना का अङ्ग थे। नयी शिक्षा पद्धति ने निष्कीटन के नाम पर मन को ऊसर बनाया, आधुनिकता के नाम पर देवी देवता माने जानी वाली प्राकृतिक शक्तियों को उपहास एवं अंधविश्वास की श्रेणी में रख अनादर भाव स्थापित किया एवं चेतना प्रसार के नाम पर मूल से काट कर रख दिया।
अब ऊसर हुई भूमि में पर्यावरण चेतना की आधुनिक निष्प्राण शिक्षा केवल परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिये एवं बैनर के साथ यात्रा करने तक सीमित है। छिट पुट उदाहरणों को छोड़ वैयक्तिक प्रयास भी नहीं हो रहे, जन सामान्य में चेतना प्रसार तो बहुत बड़ी बात है। चाहे जिस नगर क्षेत्र को ले लें, पर्याप्त पूरण के अभाव में भूगर्भीय जल निम्नतर होता चला जा रहा है एवं दोहन अंधाधुंध है। कानपुर, प्रयाग, वाराणसी, अयोध्या, पटना, चाहे जो नदी नारे नगर ले लें, प्रदूषण की स्थिति भयानक है एवं शिक्षित समाज ‘हम तो ऐसे ही हैं’ के जप में लीन है। ‘हम तो ऐसे ही हैं’ की चरम परिणति अनुशासनहीनता है जो सार्वजनिक सम्पत्ति को नष्ट करने एवं उपद्रवों में दैनंदिन अभिव्यक्त होती रहती है। अनपढ़ पुरखों की सहज आदरमयी चेतना तो ग्रहण नहीं की, मूर्ख थे बेचारे, आधुनिक शिक्षा रोटी दे दे, वही बहुत है, इन सबके लिये कहाँ समय है? चौराहों पर, पनवाड़ी के यहाँ, टी वी पर गँवाने को समय ही समय है किन्तु जीवन जल के लिये कुछ कर लें, टैम नहीं है।
अति सिञ्चन के कारण भूगर्भीय लवण के धरातल पर पहुँचने से ‘उत्तर का अन्न पात्र’ पञ्जाब ऊसर होता चला जा रहा है। राजस्थान के कुछ भागों में भूगर्भीय जल में यूरेनियम तो था ही, औद्योगिक कचरे एवं रासायनिक खादों के अति प्रयोग से होता नाइट्रेट प्रदूषण इस दुर्लभ संसाधन की दुर्गति किये दे रहा है। औद्योगिक कचरे के नदियों में निकास से उपजी समस्यायें तो अब ‘सनातन’ जीवन पद्धति का अङ्ग हो चुकी हैं, सरकार से ले कर नागरिकों तक केवल बातें हैं, काम धाम कुछ नहीं।
इतना कुछ लिखने का, जिसका कि बहुलांश आप पहले से ही जानते होंगे, उद्देश्य मात्र इतना बताना है कि हमारी शक्ति हमारा परिवार है, जल के प्रति, पर्यावरण के प्रति चेतनाप्रसार एवं ‘कार्य भी’ परिवार से आरम्भ करें। आज ही, अभी उपयुक्त समय है। बाल बालाओं को चेतायें, उन्हें भी अभियान में सम्मिलित करें।
इस विशाल भूखण्ड की जनसंख्या बोझ मात्र न रहे अपितु शक्ति एवं संसाधन सम्पन्न ‘नारा-पुरुष-नारी’ हो ‘जीवन’ का प्रसार करे, ‘ध्वंस की नींव’ न बने; इस दिशा में कार्य करें। कुछ समय इस धरती को दें, जीवनदायी देवी देवताओं को भी दें ताकि आप के पुरखों की, आप की एवं आगामी पीढ़ी की एकमात्र आश्रय यह धरा नील श्यामला बनी रहे। आप जाह्नवी गङ्गा गायत्री की भूमि से हैं, जीते गङ्गा-मरते गङ्गा से आप की गढ़न है, उसका तो मान रखें! काया को गाया बनायें जिसमें प्रकृति का सविता गान समाहित हो। सभ्यता की देह को प्राणवायु के अभाव वाला नीलापन न दें। पाप किसी दुर्गम स्वर्ग नरक से सम्बंधित नहीं, हमारे जीवन का, हमारे परिवेश का ही अङ्ग है। पापी न बनें, धरा से ले रहे हैं तो सम्पूर्ण चेतना के साथ अपना दाय भी सुनिश्चित करें।
गायत्री जाह्नवी चोभे सर्वपापहरे स्मृते
एतयोर्भक्तिहीनो यस्तं विद्यात्पतितं द्विज
गायत्री छन्दसां माता माता लोकस्य जाह्नवी
उभे ते सर्वपापानां नाशकारणतां गते