आदिकाव्य रामायण भाग – 29 से आगे
तपस्विनी सीता को प्रिय शब्द बोलने वाले हनुमान दिखे, मानों फुलाये अशोक के पुष्पगुच्छ हों!
पिघले हुये सोने के समान चमकती उनकी आँखें थीं। वृक्ष की शाखाओं में श्वेत वस्त्र में लिपटी पिङ्गल आभा की देह ऐसी लग रही थी मानों बिजली चमक रही हो!
वेष्टितार्जुनवस्त्रं तं विद्युत्सङ्घातपिङ्गलम्॥
सा ददर्श कपिं तत्र प्रश्रितं प्रियवादिनम्।
फुल्लाशोकोत्कराभासं तप्तचामीकरेक्षणम्॥
विस्मय में पड़ी सीता विचार करने लगीं, अहो! यह अगम्य भीमरूप वानर तो देखा नहीं जाता। सोचते हुये वह पुन: भ्रम में पड़ गयीं। हनुमान विनीत भाव से समुपस्थित थे, मैथिली को लगा कि कोई सपना देख रही हैं!
सा तु दृष्ट्वा हरिश्रेष्ठं विनीतवदुपस्थितम्। मैथिली चिन्तयामास स्वप्नोऽयमिति भामिनी॥
हनुमान सा विचित्र रूप है एवं समीक्षा करने वाली हैं बड़े बड़े नेत्रों वाली सीता! बहुविध सोच सीता की संज्ञा जाती रही, ऐसी हो गयीं मानों प्राण ही निकल गये हों! हनुमान धैर्य धारण किये देखते रहे। लम्बा समय बीत गया तो सीता को चेत हुआ कि हो न हो यह सपना है। आज मैंने बुरे सपने में शाखामृग वानर देखा है जिसे देखना शास्त्रों में निषिद्ध अर्थात अशुभ बताया गया है। लक्ष्मण के साथ राम कुशल रहें, पिता राजा जनक भी सकुशल रहें, यही प्रार्थना है।
सा तं समीक्ष्यैव भृशं विसंज्ञा; गतासुकल्पेव बभूव सीता
चिरेण संज्ञां प्रतिलभ्य चैव; विचिन्तयामास विशालनेत्रा
स्वप्नो मयायं विकृतोऽद्य दृष्टः; शाखामृगः शास्त्रगणैर्निषिद्धः
स्वस्त्यस्तु रामाय सलक्ष्मणाय; तथा पितुर्मे जनकस्य राज्ञः
पुन: ध्यान आया कि यह स्वप्न भी नहीं हो सकता। शोक से पीड़ित मुझ दुखिया को नींद कहाँ? चंद्रमा के समान जिनका मुख है, उन श्रीराम से इस समय मैं बिछड़ी हुई हूँ, मुझे तो सुख है ही नहीं! उनके प्रति अतिशय अनुराग से पीड़ित होने के कारण इस समय तो मेरा मन सर्वभाव से उनमें ही डूबा रहता है। चूँकि मैं उनके बारे में सतत विचार करती रहती हूँ, इस कारण उन्हें ही देखती हूँ, उन्हें ही सुनती हूँ। मुझे लगता है कि स्यात यह मेरे मन की भावना मात्र है (यह सब भ्रम मात्र है) किन्तु बुद्धि लगा तर्क वितर्क करती हूँ कि यह जो दिख रहा है, उसका कारण क्या है? मन की भावना का तो स्थूल रूप होता नहीं, यह जो समक्ष है वह तो स्पष्ट रूप वाला है, यह मुझसे बात भी करता है!
स्वप्नोऽपि नायं न हि मेऽस्ति निद्रा; शोकेन दुःखेन च पीडितायाः
सुखं हि मे नास्ति यतोऽस्मि हीना; तेनेन्दुपूर्णप्रतिमाननेन
अहं हि तस्याद्य मनो भवेन; संपीडिता तद्गतसर्वभावा
विचिन्तयन्ती सततं तमेव; तथैव पश्यामि तथा शृणोमि
मनोरथः स्यादिति चिन्तयामि; तथापि बुद्ध्या च वितर्कयामि
किं कारणं तस्य हि नास्ति रूपं; सुव्यक्तरूपश्च वदत्ययं माम्
मैं इंद्र के साथ साथ वाचस्पति को नमन करती हूँ, स्वयम्भु को भी एवं अग्नि को भी, मेरे समक्ष इस वानर द्वारा जो कुछ कहा गया है, वही सत्य हो, उससे कुछ भी अन्यथा न हो।
नमोऽस्तु वाचस्पतये सवज्रिणे; स्वयम्भुवे चैव हुताशनाय
अनेन चोक्तं यदिदं ममाग्रतो; वनौकसा तच्च तथास्तु नान्यथा
उद्योग पूर्ण हुआ था, सीता समक्ष थीं किन्तु उनकी मन:स्थिति दारुण थी। कथा सुना ही चुके थे किन्तु अभी सावधानी की आवश्यकता थी, कपि ने मृदु प्रशंसा पुछार का आश्रय लिया। महातेजस्वी मारुतात्मज हनुमान ने हाथ जोड़ अपने सिर से लगा उनका अभिवादन किया एवं मधुर वाणी में पूछने लगे :
तामब्रवीन्महातेजा हनूमान्मारुतात्मजः
शिरस्यञ्जलिमाधाय सीतां मधुरया गिरा
हे प्रफुल्लित कमलदल सम नेत्रों वाली! हे अनिंदिता! जीर्ण कौशेय वस्त्र पहने वृक्ष की शाखा का आश्रय ले खड़ी आप कौन हैं? ऐसा कौन सा शोक है जिसके कारण आप के नेत्रों से कमल के पत्तों से झरते जल बिंदुओं की भाँति आँसू झरते रहते हैं?
का नु पद्मपलाशाक्षी क्लिष्टकौशेयवासिनी
द्रुमस्य शाखामालम्ब्य तिष्ठसि त्वमनिन्दिता
किमर्थं तव नेत्राभ्यां वारि स्रवति शोकजम्
पुण्डरीकपलाशाभ्यां विप्रकीर्णमिवोदकम्
शोभने! आप सुर, असुर, नाग, गंधर्व, राक्षस, यक्ष, किन्नर में से कौन हैं? सुमुखी! कि आप रुद्रों या मरुतों में से हैं? सुंदर उरुओं वाली! मुझे तो आप वसुओं या देवताओं में से लगती हैं।
सुराणामसुराणां च नागगन्धर्वरक्षसाम्
यक्षाणां किंनराणां च का त्वं भवसि शोभने
का त्वं भवसि रुद्राणां मरुतां वा वरानने
वसूनां वा वरारोहे देवता प्रतिभासि मे
अति शोक से भरी दीन सीता को संवाद योग्य मन:स्थिति तक लाना था, विश्वास भी पक्का करना था; प्रशंसा भरे शब्द प्रयोगों द्वारा अपनी उत्सुकता दर्शाते बुद्धिमान हनुमान देवी सीता को प्रत्युत्तर हेतु मानों प्रेरित करते गये – आप चन्द्र से बिछड़ कर भूमि पर आ गिरी नक्षत्र श्रेष्ठा रोहिणी तो नहीं? कजरारे नेत्रों वाली! कोप या मोह वश अपने पति वसिष्ठ से रूठ कर यहाँ आ पहुँची कल्याणी अरुन्धती तो नहीं? – वसिष्ठं कोपयित्वा त्वं नासि कल्याण्यरुन्धती।
हे सुकटि! कहीं ऐसा तो नहीं कि आप के पुत्र, पिता, भाई या भर्ता में से कोई यह लोक छोड़ गया है जिसके कारण आप सोच शोक में डूबी रहती हैं?
को नौ पुत्रः पिता भ्रात भर्ता वा ते सुमध्यमे
अस्माल्लोकादमुं लोकं गतं त्वमनुशोचसि
यह सब पूछने के उपरान्त कपि ने मुख्य प्रश्न पर आने के लिये भूमिका बाँधी। सीधे सीधे कहना अभिधा होता है। परोक्ष रूप से ऐसे कहें कि मुख्यार्थ में बाधा हो किन्तु अर्थ सम्प्रेषित हो जाये तो उसे लक्षणा कहते हैं। व्यंग्यात्मक हो कर कहें कि जो बात लग रही हो, वह न हो कर भी कथ्य का सम्प्रेषण हो जाय तो भाषिक शक्ति व्यञ्जना कहलाती है। देवी सीता परम सुंदरी थीं किंतु जिस स्थिति में दिख रही थीं, वह दर्शा रही थी कि वह उनका वास्तविक स्वरूप नहीं था। सुन्दर देहयष्टि एवं शारीरिक लक्षण भी उनके सुजात होने की पुष्टि कर रहे थे। हनुमान ने उनकी ओर सङ्केत करते हुये कहा कि मेरा तो मत है कि आप या तो किसी राजा की पत्नी हैं या कोई राजकन्या।
व्यञ्जनानि हि ते यानि लक्षणानि च लक्षये
महिषी भूमिपालस्य राजकन्यासि मे मता
इतना कहने के पश्चात कपि ने सीधे प्रश्न किये। जिन्हें जनस्थान से रावण बलात हरण कर लाया था, यदि आप वही हैं तो मैं पूछता हूँ, बतायें, आप का कल्याण हो।
रावणेन जनस्थानाद्बलादपहृता यदि
सीता त्वमसि भद्रं ते तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः
कपि द्वारा पहले किये राम के कीर्तन एवं अब ऐसे वचन सुन हर्षित हुई सीता ने हनुमान से कहना आरम्भ किया जोकि पुन: वृक्ष की शाखा पर जा बैठे थे।
सा तस्य वचनं श्रुत्वा रामकीर्तनहर्षिता
उवाच वाक्यं वैदेही हनूमन्तं द्रुमाश्रितम्
मैं विदेहराज महात्मा जनक की पुत्री हूँ एवं मुझे सीता नाम से जाना जाता है। मैं बुद्धिमान राम की भार्या हूँ। …
जाने कितने ताप भरे दिन बीते थे, शोक एवं प्रताड़ना के जाने कितने कर्कश शब्द सुनने के पश्चात कोई प्रियवादी कुशल क्षेम पूछने वाला मिला था, हर्षित सीता विवाह कर ससुराल आने से लेकर अपनी रामकहानी कहती चली गयीं …
… राम को राज्याभिषेक से अधिक प्रिय पिता के वचन थे – स पितुर्वचनं श्रीमानभिषेकात्परं प्रियम्। उन्हों ने वनगमन स्वीकार किया। श्रीराम के बिना मुझे स्वर्ग में भी निवास भी नहीं रुचता – न हि मे तेन हीनाया वासः स्वर्गेऽपि रोचते, अत: उनका वनवास होने पर मैं साथ में चली आयी। सुमित्रानंदन ने भी वही किया। दण्डक वन में रहते हुये मेरा, राम की भार्या का, दुरात्मा राक्षस रावण ने हरण कर लिया – रक्षसापहृता भार्या रावणेन दुरात्मना। उसने मुझ पर जीवन के दो माहों का अनुग्रह किया है, उसके पश्चात मुझे अपना जीवन त्यागना पड़ेगा – द्वौ मासौ तेन मे कालो जीवितानुग्रहः कृतः। ऊर्ध्वं द्वाभ्यां तु मासाभ्यां ततस्त्यक्ष्यामि जीवितम्॥
देवी सीता के वचन सुन हरियूथप हनुमान उनके दु:ख से अभिभूत हो स्वयं भी दु:ख का अनुभव करते हुये बोले कि मैं राम का दूत हूँ। उनका संदेश ले कर आया हूँ। वैदेही! राम कुशल पूर्वक हैं एवं आप का कुशल समाचार पूछे हैं। जिन्हें ब्रह्मास्त्र एवं वेदों का ज्ञान है, उन वेदविदों में श्रेष्ठ दाशरथी राम ने आप की कुशल पूछी है। आप के पति के अनुचर महान तेजस्वी लक्ष्मण ने शोक सन्तप्त हो आप को सिर झुका कर अभिवादन कहलाया है।
तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा हनूमान्हरियूथपः
दुःखाद्दुःखाभिभूतायाः सान्तमुत्तरमब्रवीत्
अहं रामस्य संदेशाद्देवि दूतस्तवागतः
वैदेहि कुशली रामस्त्वां च कौशलमब्रवीत्
यो ब्राह्ममस्त्रं वेदांश्च वेद वेदविदां वरः
स त्वां दाशरथी रामो देवि कौशलमब्रवीत्
लक्ष्मणश्च महातेजा भर्तुस्तेऽनुचरः प्रियः
कृतवाञ्शोकसंतप्तः शिरसा तेऽभिवादनम्
दोनों पुरुषसिंहों की कुशल सुन कर देवी सीता सर्वाङ्ग हर्ष एवं प्रीति से भर हनुमान से बोलीं,”यदि मनुष्य जीवित रहे तो सौ वर्षों के पश्चात भी आनन्द प्राप्त होता ही है, यह लौकिक कहावत मुझे कल्याणकारी एवं सत्य जान पड़ती है।”
सा तयोः कुशलं देवी निशम्य नरसिंहयोः
प्रीतिसंहृष्टसर्वाङ्गी हनूमान्तमथाब्रवीत्
कल्याणी बत गथेयं लौकिकी प्रतिभाति मे
एहि जीवन्तमानदो नरं वर्षशतादपि
इस मिलन से देवी सीता एवं हनुमान दोनों को अद्भुत प्रसन्नता की अनुभूति हुई। होती भी न क्यों? कपि के लिये महान उद्योग फलीभूत हुआ था जब कि देवी सीता के लिये तो जाने कितनी लम्बी दु:खों भरी रात बीती थी। परस्पर विश्वास बढ़ा तो वार्त्तालाप भी आगे बढ़ा। हनुमान वृक्ष से पुन: नीचे उतर बात करते हुये देवी सीता के समीप होने लगे।
किन्तु कपि की परीक्षा अभी शेष थी।
(क्रमश:)
अहो! मुझे धिक् धिक्कार है। इससे मैंने अपने मन की बात कैसे कह दी? यह तो रूप परिवर्तित किया रावण है!
अहो धिग्धिक्कृतमिदं कथितं हि यदस्य मे। रूपान्तरमुपागम्य स एवायं हि रावणः॥