आदिकाव्य रामायण भाग 26 से आगे …
सीता देवी के श्रीराम के प्रति अटूट निष्ठा भरे वचन सुन कर रावण द्वारा आदेशित उन राक्षसियों ने क्रोध से भर उन्हें घेर लिया तथा उनकी भर्त्सना करने लगीं – भर्त्सयन्ति स्म परुषैर्वाक्यै रावणचोदिताः। शिंशपा वृक्ष पर छिपे बैठे हनुमान निर्वाक देखते रहे – अवलीनः स निर्वाक्यो हनूमान् शिंशुपाद्रुमे।
पीड़ा है, अभूतपूर्व यातना है किन्तु सीता का समस्त विलाप ऊपर बैठे मौन साक्षी हनुमान की छाँव में होता है। शोक पर शिंशपा के झुरमुट में हनुमान की आश्वस्ति भरी अशोक उपस्थिति निरन्तर बनी हुई है – कपि आ पहुँचा है! आदिकवि ने सीता के विलाप का वर्णन नितान्त अवलम्बहीन स्थिति में नहीं किया।
सम्मिलित भर्त्सना एवं धमकियों से सीता काँप उठीं। यह राक्षसराज की भार्या होने योग्य नहीं – नेयमर्हति भर्तारं रावणं राक्षसाधिपम् कहती हुई परशुराक्षसियों द्वारा भयभीत कर दी गयीं सीता के नयन भर आये, गला रुँध गया तथा वह उठ कर उस शिंशपा वृक्ष के नीचे चली आयीं जिस पर हनुमान छिपे बैठे थे – सबाष्पमप सर्पन्ती शिंशुपां तामुपागमत्। राक्षसियों ने वहाँ भी पहुँच कर उन दीनवदना को धमकाना आरम्भ कर दिया। भर्त्सना, प्रशंसा शब्द एवं धमकियों का विचित्र मिश्रण सीता को सालने लगा –
विनता ने कहा – भद्रे! तुमने अपने भतार के प्रति पर्याप्त स्नेह प्रदर्शित कर दिया किंतु किसी भी बात की अति ठीक नहीं होती – सर्वात्रातिकृतं भद्रे व्यसनायोपकल्पते । तुमने मानवी के रूप में अपने कर्तव्य कर लिये, अब (राक्षसी हो) रावण को परितुष्ट कर – परितुष्टास्मि भद्रं ते मानुषस्ते कृतो विधिः, मेरा कहा पथ्य है मान ले। समस्त राक्षसों के भर्तार को अपना भर्तार स्वीकार कर – रावणं भज भर्तारं भर्तारं सर्वरक्षसाम्। देवराज इंद्र के समान वे विक्रान्त हैं, रूपवान हैं। वे उदार हैं, प्रियदर्शन एवं त्यागशील हैं, दीन राम को तज रावण का आश्रय ले ले – मानुषं कृपणं रामं त्यक्त्वा, रावणमाश्रय। दिव्याङ्गराग एवं दिव्याभरण धारण कर आज ही समस्त लोकों की स्वामिनी बन जा! जिस प्रकार शचि इंद्र के साथ, स्वाहा अग्नि के साथ शोभती हैं (वैसे ही तू रावण के साथ हो)। दीन राम की आयु भी अब शेष हो चली है, उससे लग कर तुम्हें क्या मिलना वैदेही? किं ते रामेण वैदेहि कृपणेन गतायुषा।
देह केंद्रित राक्षसी सभ्यता द्वारा पोषित उस राक्षसी ने गतायुष कह कर देह की भङ्गुरता को रेखाङ्कित करते हुये जब तक है भोग लो, यह संदेश तो दिया ही, वैदेही कह कर उसका व्यङ्ग्यार्थ भी पुष्ट किया। न मानने पर भोग योग्य उसी देह के टुकड़े टुकड़े कर खा लेने की धमकी भी दे डाली – अस्मिन्मुहूर्ते सर्वास्त्वां भक्षयिष्यामहे वयम्।
विकटा को ऐसी सूक्ष्म युक्तियाँ नहीं आती थीं। उसने सीता को दुर्मति (सुदुर्मते – दुर्मति के साथ सु प्रयोग दर्शनीय है अर्थात दुर्मति प्रवीणा) बताते हुये कहा कि हम सबने अपने मृदु स्वभाव एवं दयालुता (क्या कहने!) के कारण तुम्हारे बहुतेरे अप्रिय वचनों को बहुत सहा है। तुम हमारी बातें नहीं मान रही हो जो स्वयं तुम्हारे हित में हैं, जबकि अन्यों के लिये दुर्ल्लङ्घनीय समुद्र पार करा कर प्रवेशदुष्कर रावण के अंत:पुर में रखी गयी हो – आनीतासि समुद्रस्य पारमन्यैर्दुरासदम्। रावणान्तःपुरं घोरं प्रविष्टा चासि मैथिलि॥ सब प्रकार से सुरक्षित रावण के गृह में तुम बंदी हो जिससे तुम्हें साक्षात पुरन्दर इन्द्र भी मुक्ति नहीं दिला सकते (अन्यों की तो बात ही क्या?)- रावणस्य गृहे रुद्धामस्माभिस्तु सुरक्षिताम्। न त्वां शक्तः परित्रातुमपि साक्षात्पुरन्दरः!
तुम्हारे हित की बात कर रही हूँ, मान ले, निरर्थक शोक एवं टेसुये बहाना बहुत हुआ! –अलमश्रुप्रपातेन त्यज शोकमनर्थकम्। हे भीरु! जानो कि स्त्रियों का यौवन बहुत दिन नहीं रहता, जब तक है समस्त सुखों का आनन्द लूट ले – जानासि हि यथा भीरु स्त्रीणां यौवनमध्रुवम्। यावन्न ते व्यतिक्रामेत्तावत्सुखमवाप्नुहि।
मदिरनेत्रे! रावण के साथ उद्यानों एवं रम्य पर्वत प्रांतरों में विहार कर। सात हजार स्त्रियाँ तुम्हारी सेविका होंगी, मान ले। तू नहीं मानी मैथिली, तो मैं तुम्हारा हृदय उपाट कर खा जाऊँगी – उत्पाट्य वा ते हृदयं भक्षयिष्यामि मैथिलि।
चण्डोदरी सीधी बात पर उतर आई – रावण द्वारा अपहृत इस मृगनयनी सीता के वक्ष मारे त्रास के जब काँप रहे थे तब इसे देख मेरे भीतर उत्कट इच्छा हुई थी कि इसके यकृत, प्लीहा, आँतें, सभी जोड़ एवं सिर का मैं आहार करूँ (अब समय आ गया है)।
प्रघसा ने प्रस्ताव रखा कि तुम सब ऐसे क्यों बैठी हो? क्यों न हम इस नृशंस स्त्री का गला मरोड़ दें! आगे कह देंगे कि मानुषी मर गई। इसमें सन्देह नहीं कि तब वह रावण कह देगा कि उसे खा जाओ! नात्र कश्चन संदेहः खादतेति स वक्ष्यति।
अजामुखी ने समर्थन में कहा कि इसके पिण्ड के सम भाग किये जाने चाहिये (ताकि सबको समान आहार मिले), मुझे विवाद नहीं रुचते – विशस्येमां ततः सर्वाः समान् कुरुत पिण्डकान्। विभजाम ततः सर्वा विवादो मे न रोचते। साथ में पीने खाने के लिये पेय एवं विविध प्रकार के अवलेहों की व्यवस्था की जाय।
शूर्पणखा नाम की एक राक्षसी ने अजामुखी का अनुमोदन किया – सुरा लाई जाय! ततः शूर्पणखा नाम राक्षसी वाक्यमब्रवीत्। अजामुख्या यदुक्तं हि तदेव मम रोचते।
अत्यन्त भयङ्कर राक्षसियों द्वारा इस प्रकार धमकायी जाती देवसुताओं के समान सुन्दरी सीता धैर्य छोड़ फूट फूट कर रोने लगीं – एवं संभर्त्स्यमाना सा सीता सुरसुतोपमा। राक्षसीभिः सुघोराभिर्दैर्यमुत्सृज्य रोदिति।
रुँधे गले से उन्हों ने अपनी बात दुहराई,”मानुषी के लिये राक्षस की भार्या होना उपयुक्त नहीं, मैं तुम सबकी बात नहीं मानूँगी, मुझे जैसे खाना चाहो, तुम सब खा लो – न मानुषी राक्षसस्य भार्या भवितुमर्हति। कामं खादत मां सर्वा न करिष्यामि वो वचः।”
जैसे कोई मृगी भेड़ियों के झुण्ड द्वारा घेर ली गयी हो, सीता भयाक्रान्त हो अपने अङ्ग सिकोड़ अत्यधिक काँप रही थीं – वेपते स्माधिकं सीता विशन्ती वाङ्गमात्मनः।
शोक की अति के कारण टूटे मन को अवलम्ब हो तो किसका? मानो फूलों से भरी अशोक की शाखा शोक से मुक्ति दे देगी, सीता उसका अवलम्ब ले अपने पति का चिन्तन करने लगीं – सा त्वशोकस्य विपुलां शाखामालम्ब्य पुष्पिताम्। चिन्तयामास शोकेन भर्तारं भग्नमानसा।
आयुर्वेद में अशोक को स्त्रियों का मित्र कहा गया है, अशोकारिष्ट पर ध्यान दें। जिस अशोक को स्त्रियों का क्रीड़ा सहयोगी मान उनके पाँवों के प्रहार से पुष्पित होना बताया गया, वाल्मीकि ने उस स्थावर को दु:ख का साथी दर्शा गरिमामयी महनीयता प्रदान कर दी है।
वह ऐसी हो रही थीं ज्यों वातचक्र में केले का पेंड़ भूमि पर गिर गया हो – सा वेपमाना पतिता प्रवाते कदली यथा, उनकी दीर्घ समृद्ध वेणी भूमि पर रेंगती सर्पिणी सी प्रतीत हो रही थी – ददृशे कम्पिनी वेणी व्यालीव परिसर्पती।
सा निःश्वसन्ती दुःखार्ता शोकोपहतचेतना – दु:ख से आर्त एवं शोकसमुद्र में बह सी चली चेतना के साथ सीता विलाप करने लगीं:
हा रामेति च दुःखार्ता पुनर्हा लक्ष्मणेति च
हा श्वश्रु मम कौसल्ये हा सुमित्रेति भाविनि
लोकप्रवादः सत्योऽयं पण्डितैः समुदाहृतः
अकाले दुर्लभो मृत्युः स्त्रिया वा पुरुषस्य वा
यत्राहमाभिः क्रूराभी राक्षसीभिरिहार्दिता
जीवामि हीना रामेण मुहूर्तमपि दुःखिता
एषाल्पपुण्या कृपणा विनशिष्याम्यनाथवत्
समुद्रमध्ये नौ पूर्णा वायुवेगैरिवाहता
भर्तारं तमपश्यन्ती राक्षसीवशमागता
सीदामि खलु शोकेन कूलं तोयहतं यथा
तं पद्मदलपत्राक्षं सिंहविक्रान्तगामिनम्
धन्याः पश्यन्ति मे नाथं कृतज्ञं प्रियवादिनम्
सर्वथा तेन हीनाया रामेण विदितात्मना
तीष्क्णं विषमिवास्वाद्य दुर्लभं मम जीवितम्
कीदृशं तु मया पापं पुरा देहान्तरे कृतम्
येनेदं प्राप्यते दुःखं मया घोरं सुदारुणम्
जीवितं त्यक्तुमिच्छामि शोकेन महता वृता
राक्षसीभिश्च रक्षन्त्या रामो नासाद्यते मया
धिगस्तु खलु मानुष्यं धिगस्तु परवश्यताम्
न शक्यं यत्परित्यक्तुमात्मच्छन्देन जीवितम्
हा राम! हा लक्ष्मण! हा सासू माँ कौशल्या! हा सुमित्रा! पण्डितों ने यह लोकोक्ति ठीक ही कही है कि किसी भी स्त्री या पुरुष की मृत्यु समय से पूर्व दुर्लभ है। राम के बिना मुहूर्त भर भी जीना दु:ख का कारण है, मैं तो क्रूर राक्षसियों द्वारा पीड़ित होती हुई भी जीवित हूँ। मैं अल्पपुण्या दीना, समुद्र मँझधार चक्रवात की मार खाती नौका की भाँति ही विनष्ट हो जाऊँगी। राक्षसियों के वश में पड़ी मैं, अपने भर्तार राम के दर्शन से वञ्चित, लहरों के थपेड़ो से कटते नदी कगारों की भाँति क्षीण होती जा रही हूँ। वे धन्य हैं जो, कमलनयन सिंहोपम वीर एवं गतिवान प्रियवादी कृतज्ञ मेरे, नाथ का दर्शन कर पा रहे हैं। उस आत्मज्ञानी राम से बिछड़ कर जीना वैसे ही सर्वथा कठिन है जैसे तीक्ष्ण विष पान के पश्चात किसी का जीना। पता नहीं अपने पूर्वजन्म में मैंने कौन सा ऐसा महान पाप कर दिया था जो इस जन्म में यह घोर दारुण दु:ख प्राप्त हुआ है।
इन राक्षसियों के नियन्त्रण में रहते हुये मैं अपने राम तक नहीं पहुँच सकती। इस महान दु:ख से पीड़िता मैं अपने प्राणों का त्याग कर देना चाहती हूँ। इस मनुष्य जन्म को धिक्कार है, परवशता को धिक्कार है जो अपनी इच्छानुसार जीवन भी नहीं त्याग सकती।
उन्मत्तेव प्रमत्तेव भ्रान्तचित्तेव शोचती। उपावृत्ता किशोरीव विवेष्टन्ती महीतले ॥
मानो उन्मत्त हों, प्रमत्त हों, चित्त भ्रान्त हो गया हो, सोच में सीता भूमि पर बड़ी किसी बछड़ी की भाँति छटपटा रही थीं। स्मृतियाँ उन्हें उस क्षण तक ले गयीं जब छल पूर्वक राम लक्ष्मण को दूर कर रावण ने उनका बलात हरण कर लिया था –
मुझे जीने में कोई उत्साह नहीं, मुझे न अर्थ चाहिये, न आभूषण। अवश्य ही मेरा पाषाण हृदय अजर-अमर है जो इस महान दु:ख में पड़ कर भी फट नहीं जाता! – अश्मसारमिदं नूनमथवाप्यजरामरम्। हृदयं मम येनेदं न दुःखेनावशीर्यते। मैं बड़ी ही अनार्या असती हूँ जो उनसे बिछड़ कर मुहूर्त भर भी इस पापी जीवन को धारण किये हुये हूँ – धिङ्मामनार्यामसतीं याहं तेन विना कृता। मुहूर्तमपि रक्षामि जीवितं पापजीविता। अपने प्रिय बिना मैं जीवन में या सुखों में कैसे श्रद्धा रख सकती हूँ? – का च मे जीविते श्रद्धा सुखे वा तं प्रियं विना।
मैं अपनी शरीर का विसर्जन कर दूँगी या खा जाने के लिये खण्ड खण्ड हो जाने दूँगी – भिद्यतां भक्ष्यतां वापि शरीरं विसृजाम्यहम्। उस निशाचर का स्पर्श तो मैं अपने बायें चरण से न करूँ – चरणेनापि सव्येन न स्पृशेयं निशाचरम्। तुम सबके प्रलाप का क्या काम राक्षसियों! मुझे टुकड़े टुकड़े कर दो, प्रज्जवलित अग्नि में जला डालो, मैं रावण को स्वीकार नहीं सकती – छिन्ना भिन्ना विभक्ता वा दीप्ते वाग्नौ प्रदीपिता। रावणं नोपतिष्ठेयं किं प्रलापेन वश्चिरम्।
राघव की बुद्धिमत्ता, दयालुता एवं कृतज्ञता तो प्रसिद्ध हैं, मुझे शङ्का है कि मेरे अभाग्य के कारण ही मेरे प्रति उनकी दयालुता जाती रही है जो मुख मोड़ लिये हैं – ख्यातः प्राज्ञः कृतज्ञश्च सानुक्रोशश्च राघवः। सद्वृत्तो निरनुक्रोशः शङ्के मद्भाग्यसंक्षयात्।
सीता को जनस्थान में चौदह हजार राक्षसों के संहार की स्मृति हो आई, दण्डक वन में विराध वध ध्यान आया, राम तो समर्थ हैं, वे मुझे बचाने क्यों नहीं आ रहे? समुद्र के मध्य बसी लङ्का किसी अन्य के लिये भले कठिन हो, राघव के बाणों के लिये तो कोई गतिरोध नहीं हो सकता – न तु राघवबाणानां गतिरोधी ह विद्यते। मुझे संदेह है कि उन्हें मेरा यहाँ होना पता ही नहीं है, या जानते हुये भी लक्ष्मण के तेजस्वी ज्येष्ठ भ्राता सहन कर रहे हैं – जानन्नपि हि तेजस्वी धर्षणां मर्षयिष्यति। जो जटायु सूचना दे सकते थे, रावण ने उन वृद्ध को भी युद्ध में मार दिया, कौन बताये राम को?
स्मृति की वर्तुल लहरों में सम्भावनाओं ने जन्म लिया, मन को अवलम्ब मिला। यदि राघव जान जायें तो क्रुद्ध हो आज ही अपने बाणों से इस लोक को राक्षसों से हीन कर दें। समुद्र सुखा दें, लङ्का का विध्वंस कर दें, नीच रावण की कीर्ति एवं नाम का नाश कर दें।
मुक्ति की छ्टपटाहट सम्भावनाओं के सोपान चढ़ती राक्षसों के लिये शाप होती चली गयी!
जैसे मैं रो रही हूँ, वैसे ही लङ्का के घर घर में विधवा हुई राक्षसियाँ रोयेंगी, इसमें संशय नहीं। ढूँढ़ते हुये राम लक्ष्मण यहाँ पहुँच गये तो उनकी दृष्टि में आये शत्रु मुहूर्त भर न जियें। शीघ्र ही यह लङ्का चिताओं के धुँये से भर जायेगी। इसका आकाश मँडराते हुये गिद्धों से भर जायेगा। लङ्का श्मशान सदृश हो जायेगी।
ततो निहतनथानां राक्षसीनां गृहे गृहे
यथाहमेवं रुदती तथा भूयो न संशयः
अन्विष्य रक्षसां लङ्कां कुर्याद्रामः सलक्ष्मणः
न हि ताभ्यां रिपुर्दृष्टो मुहूर्तमपि जीवति
चिता धूमाकुलपथा गृध्रमण्डलसंकुला
अचिरेण तु लङ्केयं श्मशानसदृशी भवेत्
शीघ्र ही मेरा मनोरथ पूर्ण होगा। मेरे साथ किया बुरा व्यवहार तुम लोगों के भाग्य पलट देगा। अशुभ शकुन दिख रहे हैं, लङ्का की प्रभा शीघ्र ही नष्ट हो जायेगी।
अचिरेणैव कालेन प्राप्स्याम्येव मनोरथम्
दुष्प्रस्थानोऽयमाख्याति सर्वेषां वो विपर्ययः
यादृशानि तु दृश्यन्ते लङ्कायामशुभानि तु
अचिरेणैव कालेन भविष्यति हतप्रभा
इस दुर्धर्ष लङ्का का भाग्य शीघ्र ही सूख जायेगा। पापी रावण के वध होने से यह विधवा स्त्री की भाँति दिखेगी। पुष्पोत्सवों से समृद्ध लंका राक्षसों एवं उनके स्वामी से सूनी हो जायेगी।
नूनं लङ्का हते पापे रावणे राक्षसाधिपे
शोषं यास्यति दुर्धर्षा प्रमदा विधवा यथा
पुष्योत्सवसमृद्धा च नष्टभर्त्री सराक्षसा
भविष्यति पुरी लङ्का नष्टभर्त्री यथाङ्गना
मैं घर घर राक्षसकन्याओं का रूदन सुनूँगी। राम के सायकों से यह लङ्का विदग्ध हो जायेगी। द्युति नष्ट होने से यह अन्धकार में डूब जायेगी। राक्षस योद्धा मारे जायेंगे।
नूनं राक्षसकन्यानां रुदन्तीनां गृहे गृहे
श्रोष्यामि नचिरादेव दुःखार्तानामिह ध्वनिम्
सान्धकारा हतद्योता हतराक्षसपुंगवा
भविष्यति पुरी लङ्का निर्दग्धा रामसायकैः
यदि रक्तलोचन शूर राम यह जान जायें कि मैं यहाँ रावण के निवास में बंदिनी हूँ तथा उस नृशंस अधम द्वारा मेरे जीवन पर बाँधी गयी समय अवधि चुकने वाली है तो उस दुष्ट की मृत्यु निश्चित है।
यदि नाम स शूरो मां रामो रक्तान्तलोचनः
जानीयाद्वर्तमानां हि रावणस्य निवेशने
अनेन तु नृशंसेन रावणेनाधमेन मे
समयो यस्तु निर्दिष्टस्तस्य कालोऽयमागतः
ये पापी राक्षस नहीं जानते कि अधर्म क्या है, ये धर्म भी नहीं जानते। इस कारण ही इन मांसभोजियों का विनाश निश्चित है – अकार्यं ये न जानन्ति नैरृताः पापकारिणः। अधर्मात्तु महोत्पातो भविष्यति हि साम्प्रतम्। नैते धर्मं विजानन्ति राक्षसाः पिशिताशनाः।
यह राक्षस निश्चय ही मुझे खा जायेगा। अपने प्रियदर्शन के बिना मैं क्या कर पाऊँगी? रक्तलोचन राम को देखे बिना मैं दु:खी हूँ। यदि यहाँ आज मुझे कोई विष देने वाला मिल जाय तो मैं शीघ्र ही पति के बिना यम देव के यहाँ चली जाऊँ।
ध्रुवं मां प्रातराशार्थे राक्षसः कल्पयिष्यति
साहं कथं करिष्यामि तं विना प्रियदर्शनम्
रामं रक्तान्तनयनमपश्यन्ती सुदुःखिता
यदि कश्चित्प्रदाता मे विषस्याद्य भवेदिह
क्षिप्रं वैवस्वतं देवं पश्येयं पतिना विना
दोनों भ्राता मुझे जीवित जानते तो मेरे अनुसन्धान हेतु धरती नहीं छान मारते! – नाजानाज्जीवतीं रामः स मां लक्ष्मणपूर्वजः। जानन्तौ तौ न कुर्यातां नोर्व्यां हि मम मार्गणम्।
सीता भूमिजा कही गयी हैं, भूमि जन्मदायिनी उर्वरा कही जाती है। मृत्यु आशङ्का के साथ इस संज्ञा के प्रयोग ने अद्भुत अर्थवत्ता भर दी है। आगे राम के सम्भावित देहावसान के साथ मही शब्द प्रयोग उनकी सास समान धरती की महनीयता को गुरुतर बनाता है।
सीता देवी का भग्न मन आशङ्काओं की उधेड़ बुन में लग गया।
कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे शोक में लक्ष्मण के वीर भ्राता महीतल पर देह त्याग देवलोक सिधार गये हैं? – नूनं ममैव शोकेन स वीरो लक्ष्मणाग्रजः। देवलोकमितो यातस्त्यक्त्वा देहं महीतले॥
वे गंधर्व सहित देव, सिद्ध, ऋषिगण धन्य हैं जो वहाँ मेरे नाथ राजीवलोचन राम का दर्शन पा रहे हैं – धन्या देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः। मम पश्यन्ति ये नाथं रामं राजीवलोचनम्॥
दीनता उन्हें क्रमश: लोकमानसी के स्तर पर लाती गयी – अथवा धर्मकामी बुद्धिमान राजर्षि राम परमात्म हो अपनी भार्या के प्रति किसी भी प्रकार का लगाव छोड़ चुके हैं (जो मेरी सुध नहीं ले रहे!) – अथवा न हि तस्यार्थे धर्मकामस्य धीमतः। मया रामस्य राजर्षेर्भार्यया परमात्मनः।
जो आँखों के सामने रहता है, उससे प्रीति भी बनी रहती है। विलग होने पर सौहार्द्र का नाश हो जाता है – दृश्यमाने भवेत्प्रीतः सौहृदं नास्त्यपश्यतः।
स्वयं कहो, स्वयं सुनो की स्थिति प्राप्त सीता को उनके मन ने ही ढाँढ़स बँधाया – ऐसा कृतघ्नों के साथ होता है, राम के साथ नहीं होगा – नाशयन्ति कृतघ्रास्तु न रामो नाशयिष्यति॥
मेरा भाग्य कैसे क्षीण हो गया? केचित्किं वा भाग्य क्षयो ।
पावन चरित्र वाले वीर महात्मा राम से बिछड़ कर जीने से अच्छा मर जाना है – श्रेयो मे जीवितान्मर्तुं विहीना या महात्मना।रामादक्लिष्टचारित्राच्छूराच्छत्रुनिबर्हणात्॥
हो सकता है कि वन में फल मूल खा कर विचरने वाले उन दो वनवासी श्रेष्ठ वीर भ्राताओं ने (मेरे वियोग में) शस्त्र त्याग दिये हों! – अथ वा न्यस्तशस्त्रौ तौ वने मूलफलाशनौ। भ्रातरौ हि नर श्रेष्ठौ चरन्तौ वनगोचरौ।
यह भी सम्भव है कि दुरात्मा राक्षसराज रावण ने छल छ्द्म द्वारा उन दो वीर भ्राताओं राम लक्ष्मण की हत्या करा दी हो! – अथ वा राक्षसेन्द्रेण रावणेन दुरात्मना। छद्मना घातितौ शूरौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ॥
अत: ऐसे समय में मैं सब प्रकार से अपने जीवन का अन्त कर देना चाहती हूँ किन्तु प्रतीत होता है कि इस महान दु:ख में होते हुये भी मेरी मृत्यु नहीं होनी – साऽहमेवङ्गते काले मर्तुमिच्छामि सर्वथा। न च मे विहितो मृत्युरस्मिन्दुःखेऽपि वर्तति॥
अनिष्ट आशङ्का के साथ स्वघात की भावना प्रबल हुई तो वैरागी निर्वेद के साथ प्रार्थनायें उमग पड़ीं –
सत्यसम्मत वे समस्त महात्मा मुनि धन्य हैं जिनके अन्त:करण उनके वश में हैं तथा जिनके कोई प्रिय या अप्रिय नहीं हैं – धन्याः खलु महात्मानो मुनयः सत्यसम्मताः। जितात्मानो महाभागा येषां न स्तः प्रियाप्रिये॥
उन अनासक्त महात्माओं को नमस्कार है जिन्होंने स्वयं को प्रिय एवं अप्रिय भावनाओं से दूर कर लिया है। प्रीति उनके लिये दु:ख का कारण नहीं होती, अप्रिय से उन्हें अधिक भय नहीं होता – प्रियान्न संभवेद्दुःखमप्रियादधिकं भयम्। ताभ्यां हि ये वियुज्यन्ते नमस्तेषां महात्मनाम्॥
प्रिय अधिकारी आत्मज्ञानी राम से विलग हो पापी रावण के वश में पड़ी मैं अपने प्राण त्याग दूँगी – साहं त्यक्ता प्रियेणेह रामेण विदितात्मना। प्राणांस्त्यक्ष्यामि पापस्य रावणस्य गता वशम्॥
सीता के मुँह से यह सब सुन कुछ राक्षसियाँ क्रोध से मूर्च्छित हो गयीं तो कुछ रावण को बताने चल दीं। कुछ उन्हें घेर कर भावी भयानक अनर्थ की कटुक्तियाँ सुनाने लगीं, आज तो राक्षस यथेच्छ तुम्हारा भक्षण कर ही जायेगा – राक्षस्यो भक्षयिष्यन्ति मांसमेतद्यथासुखम्।
सीता को उनके द्वारा इस प्रकार धमकायी जाती देख तब तक वहीं सोई पड़ी एक वृद्धा राक्षसी त्रिजटा ने हस्तक्षेप किया –
आत्मानं खादतानार्या न सीतां भक्षयिष्यथ
जनकस्य सुतामिष्टां स्नुषां दशरथस्य च
स्वप्नो ह्यद्य मया दृष्टो दारुणो रोमहर्षणः
राक्षसानामभावाय भर्तुरस्या भवाय च
एवमुक्तास्त्रिजटया राक्षस्यः क्रोधमूर्छिताः
सर्वा एवाब्रुवन्भीतास्त्रिजटां तामिदं वचः
कथयस्व त्वया दृष्टः स्वप्नेऽयं कीदृशो निशि
अनार्याओं! तुम सब स्वयं को खा जाओ। जनक की प्रिय पुत्री एवं दशरथ की पुत्रवधू सीता को नहीं खा (पा)ओगी। मैं आज एक दारुण रोंगटे खड़े कर देने वाले स्वप्न में राक्षसों का विनाश एवं इनके पति की विजय देखी हूँ। त्रिजटा के ये वचन सुन क्रोध से मूर्च्छित एवं भयभीत राक्षसियों ने उससे कहा,”त्रिजटा! तुमने रात को उस स्वप्न में क्या देखा, बताओ।”
अगले अङ्क में:
पक्षी च शाखा निलयं प्रविष्टः; पुनः पुनश्चोत्तमसान्त्ववादी । सुखागतां वाचमुदीरयाणः; पुनः पुनश्चोदयतीव हृष्टः॥
देखो देखो! पक्षी जो सांत्वना भरी कूक भरते पुन: पुन: वृक्ष के शाखानिलय में प्रविष्ट होता है।
आगत सुख को कहता पुन: पुन: हर्ष भरे स्वर में कूकता है।
जय जय श्री राम! पावन शोकनाशिनी कथा के आनंद की जय! धन्यवाद!