आदिकाव्य रामायण से, भाग – 30 से आगे
आदिकाव्य रामायण
ज्यों ज्यों हनुमान निकट होने लगे, सीता देवी के मन में शङ्का बलवती होने लगी :
अहो धिग्धिक्कृतमिदं कथितं हि यदस्य मे। रूपान्तरमुपागम्य स एवायं हि रावणः॥
अहो! मुझे धिक् धिक्कार है। इससे मैंने अपने मन की बात कैसे कह दी? यह तो रूप परिवर्तित किया रावण है!
शोक एवं धिक्कार एक हुये, कातर सीता अशोक की शाखा तज वहीं भूमि पर बैठ गयीं। हनुमान ने वन्दन किया किन्तु भय से त्रस्त सीता ने उन्हें मुँह उठा देखा तक नहीं! सा चैनं भयवित्रस्ता भूयो नैवाभ्युदैक्षत।
वानर को वन्दन मुद्रा में देख उन्हों ने दीर्घ उच्छवास ली एवं मधुर स्वर में कहा – रूप परिवर्तित कर आये तुम वही मायावी रावण हो जिसने परिव्राजक का रूप धारण कर जनस्थान से मेरा अपहरण किया था। तुम मुझे पुन: सन्तप्त कर रहे हो जोकि शोभन कर्म नहीं है। उपवास से कृश हुई दीना को इस प्रकार संताप देना उचित नहीं है।
कुछ समय पहले ही प्रत्यक्ष रावण को तिरस्कृत करने वाली सीता के शब्द शङ्का के कारण मधुर थे कि सम्भव है कि यह वानर हीतू ही हो। कह पड़ीं कि यह भी हो सकता है कि मेरी शङ्का सत्य न हो क्यों कि तुम्हारे दर्शन से मेरे मन में प्रसन्नता हो रही है – मनसो हि मम प्रीतिरुत्पन्ना तव दर्शनात्।
यदि तुम राम के दूत बन कर यहाँ आये हो तो मैं तुम्हारी कल्याण कामना करती हूँ। हे वानरश्रेष्ठ ! मैं तुमसे पूछती हूँ, राम की कथा मुझे प्रिय है, राम कथा कहो। हे वानर ! प्रिय के नाम गुण मुझसे कहो। हे सौम्य! तुम चित्त को ऐसे हरते जा रहे हो जैसे तरङ्गें नदी के किनारों को बहा ले जाती हैं।
यदि रामस्य दूतस्त्वमागतो भद्रमस्तु ते
पृच्छामि त्वां हरिश्रेष्ठ प्रिया राम कथा हि मे
गुणान्रामस्य कथय प्रियस्य मम वानर
चित्तं हरसि मे सौम्य नदीकूलं यथा रयः
मन दुविधा में था, कपि की उपस्थिति सुहावन थी किन्तु जनस्थान की स्मृति डरा भी रही थी। भीतर उठती बाढ़ रह रह कुलाँचे भर रही थी। वानर है किन्तु सौम्य है, मन विश्वास करने को कहता था। अविश्वास भी था कि कहीं मैं सपना तो नहीं देख रही?
जो चिरकाल से अपहृता है, इस प्रकार राघव के भेजे दूत वानर को देख रही है, आह! यह स्वप्न कितना सुखद है।
अहो स्वप्नस्य सुखता याहमेवं चिराहृता
प्रेषितं नाम पश्यामि राघवेण वनौकसं
यदि स्वप्न में भी मैं वीर राघव को लक्ष्मण के साथ देख लूँ तो मेरा अवसाद जाता रहे किन्तु सपने को भी तो मुझसे बैर है (आँखों में नींद है ही नहीं, सपने कहाँ से देखूँ? आदिकाव्य रामायण में ऐसे प्रयोगों से आगे के कवियों को बहुत सुविधा हो गई।)
स्वप्नेऽपि यद्यहं वीरं राघवं सहलक्ष्मणम्
पश्येयं नावसीदेयं स्वप्नोऽपि मम मत्सरी
मन उधेड़ बुन में लीन होता चला गया, नहीं यह मुझे कोई स्वप्न नहीं लगता। सपने में वानर देखने पर अभ्युदय कहाँ होना , जब कि मुझे तो अभ्युदय प्राप्त हुआ लगता है!
नाहं स्वप्नमिमं मन्ये स्वप्ने दृष्ट्वा हि वानरम्
न शक्योऽभ्युदयः प्राप्तुं प्राप्तश्चाभ्युदयो मम
कहीं यह मेरे चित्त का मोह तो नहीं या वातग्रस्त हो मेरी मति ही भ्रष्ट हो गयी है! उन्माद जनित विकार है या मृगतृष्णा ( जो मैं यह सब देख रही हूँ)?
किं नु स्याच्चित्तमोहोऽयं भवेद्वातगतिस्त्वियम्
उन्मादजो विकारो वा स्यादियं मृगतृष्णिका
बल अबल पर विचार करती वैदेही ने अंतत: हनुमान को कामरूपी राक्षसराज रावण ही माना एवं उनसे आगे कुछ नहीं कहा।
हनुमान उनके मन की उथल पुथल समझ रहे थे। वात विकार में संताप कारक ठहराव होता है। स्वयं पर वातग्रस्त होने का आरोपण कर विकारग्रस्त मान चुप हुई सीता को प्रसन्न करने को हनुमान का प्रवाही मरुतात्मज रूप सक्रिय हुआ, सीता के सुनने में अनुकूल लगे, विषाद समाप्त हो, उन्हें हर्ष हो, ऐसी राम कथा हनुमान ने कही – श्रोत्रानुकूलैर्वचनैस्तदा तां संप्रहर्षयत्।
आदित्य इव तेजस्वी लोककान्तः शशी यथा
राजा सर्वस्य लोकस्य देवो वैश्रवणो यथा
विक्रमेणोपपन्नश्च यथा विष्णुर्महायशाः
सत्यवादी मधुरवाग्देवो वाचस्पतिर्यथा
रूपवान्सुभगः श्रीमान्कन्दर्प इव मूर्तिमान्
स्थानक्रोधप्रहर्ता च श्रेष्ठो लोके महारथः
बाहुच्छायामवष्टब्धो यस्य लोको महात्मनः
अपकृष्याश्रमपदान्मृगरूपेण राघवम्
शून्ये येनापनीतासि तस्य द्रक्ष्यसि यत्फलम्
नचिराद्रावणं संख्ये यो वधिष्यति वीर्यवान्
रोषप्रमुक्तैरिषुभिर्ज्वलद्भिरिव पावकैः
“श्रीराम आदित्य के समान तेजस्वी हैं, शशि के समान लोककमनीय हैं। वैश्रवण कुबेर देव के समान वे समस्त लोकों के राजा हैं। महायशस्वी विष्णु की भाँति वे विक्रम सम्पन्न हैं। वाचस्पति की भाँति उनकी वाणी सत्यशील एवं मधुर है। कामदेव के समान ही उनका गरिमामय रूप है। उपयुक्त अवसर एवं पात्र देख क्रोध के साथ प्रहार करते हैं एवं संसार में श्रेष्ठ महारथी हैं। उन महात्मा की बाँहों की छाया में समस्त संसार निवास करता है।
राघव को छद्म मृग दिखा आश्रम से दूर ले जाया गया एवं सूने आश्रम से आप का अपहरण कर लिया गया। उसकी परिणति क्या होगी, आप देखेंगी। युद्ध में उन शक्तिशाली द्वारा रोष के साथ छोड़े गये अग्नि समान प्रज्ज्वलित तीरों से रावण का वध होगा।”
कवि ने आदित्य, शशि एवं अग्नि, इन तीन की उपमा से राम के संतुलित बहुआयामी व्यक्तित्व को रेखाङ्कित किया है। जो तेजस्वी न हो, वह लोक का कल्याणकर्त्ता नहीं हो सकता। जिस प्रकार तेजस्वी सूर्य लोक हेतु कल्याणकारी हैं, वैसे ही राम भी हैं। शशि के समान ही उनकी उपस्थिति सुखदायी है एवं खल प्रकृति वालों के लिये अग्नि के समान ही उनका क्रोध दाहक है।
बुद्धिमान मारुति के मुख से सांत्वना एवं मैत्री के शब्द आगे अपना प्रवाह पकड़ लिये।
तेनाहं प्रेषितो दूतस्त्वत्सकाशमिहागतः
त्वद्वियोगेन दुःखार्तः स त्वां कौशलमब्रवीत्
लक्ष्मणश्च महातेजाः सुमित्रानन्दवर्धनः
अभिवाद्य महाबाहुः सोऽपि कौशलमब्रवीत्
रामस्य च सखा देवि सुग्रीवो नाम वानरः
राजा वानरमुख्यानां स त्वां कौशलमब्रवीत्
नित्यं स्मरति रामस्त्वां ससुग्रीवः सलक्ष्मणः
दिष्ट्या जीवसि वैदेहि राक्षसी वशमागता
नचिराद्द्रक्ष्यसे रामं लक्ष्मणं च महारथम्
मध्ये वानरकोटीनां सुग्रीवं चामितौजसं
अहं सुग्रीवसचिवो हनूमान्नाम वानरः
प्रविष्टो नगरीं लङ्कां लङ्घयित्वा महोदधिम्
कृत्वा मूर्ध्नि पदन्यासं रावणस्य दुरात्मनः
त्वां द्रष्टुमुपयातोऽहं समाश्रित्य पराक्रमम्
नाहमस्मि तथा देवि यथा मामवगच्छसि
विशङ्का त्यज्यतामेषा श्रद्धत्स्व वदतो मम
“उन्हीं राम द्वारा प्रेषित मैं दूत, यहाँ पहुँच आप के समक्ष उपस्थित हूँ। आप के वियोग में वे दु:खार्त हैं एवं उन्हों ने आप की कुशल पूछी है एवं सुमित्रा का आनन्द बढ़ाने वाले महाबाहु महातेजस्वी लक्ष्मण ने भी अभिवादन के साथ आप की कुशल पूछी है तथा राम के सखा सुग्रीव नामधारी जो वानर हैं, उन वानरमुख्य राजा ने आप की कुशल पूछी है। वैदेही! राक्षसियों के वश में होते हुये भी आप भाग्य वश जीवित हैं। शीघ्र ही आप अमित ओजस्वी महारथी राम, लक्ष्मण एवं सुग्रीव सहित को कोटि कोटि वानरों से घिरा हुआ यहाँ देखेंगी। मैं, सुग्रीव का सचिव, वानर हनुमान हूँ। महासागर को लाँघ कर लङ्का नगरी में प्रविष्ट हुआ हूँ। अपने पराक्रम से दुरात्मा रावण के सिर पर निज पाँव रख मैं यहाँ आप को देखने आया हूँ।
हे देवी! मैं वह (रावण) नहीं हूँ जो आप मुझे समझ रही हैं। आप यह विपरीत शङ्का त्याग कर मेरी बात का विश्वास करें।”
वैदेही सावधान हो चुकी थीं। उन्हों ने वानरश्रेष्ठ को राम कथा कहते हुये सुना, सान्त्व मधुर वाणी में पृच्छा की,”राम के सम्पर्क में कहाँ आये? लक्ष्मण को कैसे जानते हो? नरों एवं वानरों का समागम कैसे हुआ? यानि रामस्य लिङ्गानि लक्ष्मणस्य च वानर, तानि भूयः समाचक्ष्व न मां शोकः समाविशेत्। हे वानर! राम एवं लक्ष्मण के जो चिह्न हैं, उनका वर्णन करो जिससे कि (सुनिश्चित हो जाने के परिणाम स्वरूप तुम पर विपरीत शङ्का निर्मूल हो एवं) मैं पुन: शोकग्रस्त न होऊँ। राम का आकार कैसा है, रूप कैसा, वे कैसे दिखते हैं? उनकी जाँघें कैसी हैं, बाहें कैसी? लक्ष्मण कैसे हैं?”
आदिकाव्य रामायण का यह वह बिन्दु है जहाँ देह लक्षण का सामुद्रिक शास्त्र प्रयुक्त होने वाला है। स्त्रियों में देह लक्षण एवं चेष्टाओं को पहचानने की एक नैसर्गिक समझ होती है। सद्य: जन्मे शिशु में भी वे माता पिता के लक्षण स्पष्ट देख पाती हैं। विवाह के अवसर पर वर की देह परीक्षा ‘परिछन’ का चलन आज भी परिवर्तित रूप में प्रचलित है। जनकसुता सीता शिक्षिता भी थीं। इन प्रश्नों को उन्हों ने एक साथ कई उद्देश्यों की पूर्ति हेतु पूछा। वानर दूत है, दूतकर्म योग्य है भी या नहीं, पता चल जायेगा क्यों कि श्रीराम ऐसे अभियान पर किसी अशिक्षित या अबोध को नहीं प्रेषित करेंगे। विद्वान हुआ तो सामुद्रिक शास्त्र जानता होगा, वे लक्षण बता पायेगा जो अन्यथा पुरुषों के लिये अबूझ ही होते हैं। यथार्थ बता पायेगा तो यह निश्चित हो जायेगा कि इसने राम एवं लक्ष्मण को देखा है, उनके साथ रहा है। सम्भव है कि राम ने इसे गोपन चिह्न भी बताये हों। यहाँ पहुँच गया, इससे इसके सामर्थ्य का पता तो चलता है, उत्तर से इसकी मेधा का भी निश्चय हो जायेगा। आदिकाव्य रामायण की एक विशेषता शब्दों के स्थानदक्ष प्रयोग की भी है।
हनुमान ने बताना आरम्भ किया, सीता के प्रति प्रयुक्त सम्बोधन शब्दों के चयन सचेत एवं अर्थगम्भीर थे।
“हे कमल की पङ्खुड़ियों समान आँखों वाली वैदेही! यद्यपि आप अपने भर्त्तार एवं लक्ष्मण के चिह्न जानती हैं, यह मेरा सौभाग्य है कि मुझसे पूछ रही हैं।
(कमल पत्र उपमायुक्त सम्बोधन पहला सङ्केत था कि मैं भी देह लक्षणों के बारे में जानता हूँ।)
हे विशालाक्षी! राम के जो चिह्न हैं, लक्ष्मण के जो चिह्न हैं, जो मैंने देखे हैं, बताता हूँ, सुनें।
(आप बड़े नेत्रों वाली हैं अर्थात प्रकारांतर से अधिक एवं सूक्ष्म देख सकने में समर्थ हैं किंतु मैं भी प्रेक्षण में कम नहीं।)
हे जनक पुत्री! सबका मन हरने वाले रूपवान राम की आँखें कमल दल के समान हैं। वे जन्म से ही रूप एवं गरिमा सम्पन्न हैं।
(श्लोक में प्रसूत शब्द प्रयोग हुआ है, जन्म के साथ जनक पुत्री सम्बोधन हनुमान का शब्द चातुर्य दर्शाता है।)
वे तेज में आदित्य के समान हैं, क्षमा में पृथ्वी के, प्रबुद्ध जन में बृहस्पति समान एवं यश में इन्द्रोपम। शत्रुओं का दमन करने वाले राम लोक के समस्त जीवों का रक्षण करने वाले हैं। स्वजन की रक्षा करते हैं, अपने कार्यवृत्त व्यवहार एवं धर्म की भी रक्षा करते हैं।
(‘वयम् रक्षाम:’ के उद्घोषक राक्षसों के मध्य आप रह रही हैं परन्तु ऐसे रक्षक श्रीराम के रहते हुये आप को चिंता नहीं करनी चाहिये।) …
… हनुमान कहते चले गये।
आदिकाव्य रामायण प्राचीन है। इसे अनुवाद के साथ पढ़ते हुये मूल श्लोक सदैव देखें। तत्कालीन भाषिक प्रवृत्तियों का ज्ञान होता है।
कुछ उदाहरण :
वानरर्षभ – वानरों में ऋषभ समान, शब्दार्थ होगा वानरों में साँड़ समान, असङ्गत लगता है किन्तु किसी महाबली को चोकरते ऋषभ की उपमा देना वैदिक समय से है। इंद्र ऋषभ हैं, वृषभ भी। सरस्वती सभ्यता की मुद्राओं में साँड़ का सुंदर अंकन अकारण नहीं है।
समागम, संसर्ग – अब ये शब्द मुख्यत: स्त्री पुरुष यौन संसर्ग अर्थ में अधिक प्रयुक्त होते हैं। ‘संत समागम’ के रूप में पुराना प्रयोग आज भी सुरक्षित है। समान उद्देश्य से जुड़े जन का एकत्रित होना समागम कहलाता है।
लिङ्ग – अन्यों से भिन्नता स्थापित करने वाले चिह्न। पहचान स्पष्ट करने वाले अद्वितीय चिह्न।
सान्त्व – ऐसे शब्द जो सांत्वना प्रदान करें, आज के अर्थ में विनम्र polite। अब सांत्वना शब्द का प्रयोग मात्र किसी दुख या संकट की परिस्थिति में बोले गये सहानुभूति युक्त ढाँढ़स बढ़ाने वाले वचनों के लिये रूढ़ हो चुका है किंतु पहले यह ऐसे किसी भी वचन के लिये प्रयुक्त था जो सुनने वाले को संतुष्टि प्रदान करे कि हाँ, बात करने वाला सम्वाद योग्य है।
(क्रमश:)
यजुर्वेदविनीतश्च वेदविद्भिः सुपूजितः
धनुर्वेदे च वेदे च वेदाङ्गेषु च निष्ठितः
(आदिकाव्य रामायण – 31)