आदिकाव्य रामायण भाग 27 से आगे …
त्रिजटा के स्वप्न में सीता राम हेतु शुभ वर्ण, शुभ चिह्नों का प्राचुर्य था तो रावण हेतु अशुभ उपादानों का।
सहस्र हंसों द्वारा चालित गजदंतमयी दिव्या शिविका पर अंतरिक्षगामी हो श्वेत वस्त्र एवं श्वेत माला धारी राम लक्ष्मण लङ्का में आ पहुँचे थे। शुक्लाम्बरावृता सीता भी समुद्र से घिरे श्वेत पर्वत पर विराजमान थीं। सीता राम से वैसे ही मिल गयीं जैसे प्रभा भास्कर से। चार दाँतों वाले पर्वताकार महागज पर तीनों सवार थे। कमललोचना सीता पति के अङ्क से उछल उछल चंद्र एवं सूर्य का अपने हाथों से परिमार्जन कर रही थीं।
दृश्य परिवर्तित हुआ तथा आठ पाण्डुर वर्ण के बैलों से जुते रथ में राम सीता के साथ लंका पधारे एवं सूर्य समान दीप्त दिव्य पुष्पक विमान पर आरूढ़ हो उत्तर की दिशा में प्रयाण किये। जिस प्रकार पापी के लिये स्वर्ग शक्य नहीं, उसी प्रकार महातेजस्वी राम पर विजय प्राप्त करना सुर, असुर, राक्षस या अन्य किसी के लिये भी शक्य नहीं – न हि रामो महातेजाश्शक्यो जेतुं सुरासुरैः, राक्षसैर्वापि चान्यैर्वा।
त्रिजटा को रक्त वस्त्र एवं करवीर की माला धारण किया, तेल में नहाया हुआ रावण पी कर मत्त स्थिति में भूमि पर पड़ा दिखा। दृश्य परिवर्तित हुआ तो पुष्पक से गिरा, काले कपड़ों में मुण्डित-शिर रावण एक स्त्री द्वारा घसीटा जाता दिखा। पुन:, आकुल चित्त वह गधों द्वारा जुते रथ में पीता, हँसता एवं नाचता दिखा। गधों से जुते रथ के पीछे उन्हीं के भय से वह दक्षिण दिशा में सिर नीचा किये भागता भी दृश्यमान हुआ। गिरा, भयार्त मदविह्वल स्थिति में सहसा उठा, उन्मत्त एवं नग्न स्थिति में बुरे वचन बकता वह पागल सा हो गया एवं दुस्सह घोर दुर्गंधमय नरक समान मलपङ्क में डूब गया। पुन: रावण वराह पर, इंद्रजीत शिंशुमार पर एवं कुम्भकर्ण ऊँट पर आरूढ़ दक्षिण दिशा में जाते दिखे।
केवल विभीषण ही शुक्ल छत्र, शुक्ल वस्त्र, शुक्ल माल्य एवं गंधानुलेपन से विभूषित दिखा। वह मेघ स्वर सम दुन्दुभि एवं शङ्ख घोष के बीच चार दाँतों वाले पर्वताकार हाथी पर सवार अपने चार मंत्रियों सहित वायु में स्थित था।
लङ्का नगरी अपनी समस्त अश्व हस्ति सम्पदा एवं भग्न होते, टूटते गोपुर तोरणों के साथ समुद्र में गिरती विलीन होती दिखी – सागरे पतिता दृष्टा भग्नगोपुरतोरणा। लङ्का राम के एक तरस्वी वानर दूत द्वारा जलायी जा चुकी थी – दग्धा रामस्य दूतेन वानरेण तरस्विना।
रक्ताम्बर धारण किये कुम्भकर्ण एवं अन्य बली राक्षस गोबर से भरे गर्त में प्रविष्ट होते दिखे।
यह सब सुना कर त्रिजटा ने राक्षसियों को धमकाया – दूर हटो यहाँ से! राम अपनी भार्या को प्राप्त करेंगे तथा अन्यों सहित तुम सबका वध कर देंगे – अपगच्छत नश्यध्वं सीतामाप्नोति राघवः, घातयेत्परमामर्षी युष्मान्सार्थं हि राक्षसैः। अपनी परम आदरणीय प्रिया, वनवास अनुव्रती सीता के प्रति वह भर्त्सना तर्जना को नहीं सहेंगे – प्रियां बहुमतां भार्यां वनवासमनुव्रताम्। भर्त्सितां तर्जितां वापि नानुमंस्यति राघवः। मुझे तो यही रुचता है कि हमें वैदेही से क्षमायाचना करनी चाहिये – अभियाचाम वैदेहीमेतद्धि मम रोचते। वह विविध दु:खों से मुक्त हो अपने अति उत्तम प्रिय को प्राप्त करेंगी – सा दुःखैर्विविधैर्मुक्ता प्रियं प्राप्नोत्यनुत्तमम्। राघव के रूप में राक्षसों को घोर भय उपस्थित होगा- राघवाद्धि भयं घोरं राक्षसानामुपस्थितम्।
महान भय से मुक्त करने में सक्षम मैथिली तुम सबके समर्पण से प्रसन्न होंगी – प्रणिपातप्रसन्ना हि मैथिली जनकात्मजा। अलमेषा परित्रातुं राक्षस्यो महतो भयात्। वैदेही की अर्थसिद्धि निकट है, मुझे रावण का विनाश एवं राघव की विजय दिखती है – राक्षसेन्द्रविनाशं च विजयं राघवस्य च।
आदिकवि संज्ञाओं का चतुर प्रयोग किये हैं। क्षमा करने में सक्षम सीता के लिये मिथिला की परम्परा से जुड़ा शब्द मैथिली है। देह संज्ञा विस्तार से सम्बंधित है। प्रिय से बिछड़ कर सीता का विस्तार अल्प हो गया है, वह वैदेही नाम को सार्थक करने लगी हैं, अर्थसिद्धि निकट है, अर्द्धांग से मिल कर देह पूर्ण होगी। वैदेही शब्द प्रयोग आगत को अर्थगहन बनाता है।
त्रिजटा सीता की देह के शुभ शकुन वर्णित करती चली गयी – देखो री तुम सब! सीता की (बायीं) आँख की पद्मपत्र के समान पलक फड़क रही है (शुभ समाचार मिलने को है!)। दक्षिणा सीता की बायीं भुजा में भी कम्पन है। इनकी हथिनी की सूँड़ समान सुंदर बायीं जाँघ में भी कम्पन है मानो इस पुरी में राघव के इनके समक्ष उपस्थित होने की सूचना दे रही हो – वेपमानः सूचयति राघवं पुरतः स्थितम्।
देखो देखो! पक्षी, जो सांत्वना भरी कूक भरते पुन: पुन: वृक्ष के शाखानिलय में प्रविष्ट होता है। आगत सुख को कहता वह पुन: पुन: हर्ष भरे स्वर में कूकता है।
पक्षी च शाखा निलयं प्रविष्टः; पुनः पुनश्चोत्तमसान्त्ववादी । सुखागतां वाचमुदीरयाणः; पुनः पुनश्चोदयतीव हृष्टः॥
त्रिजटा ने सीता की राक्षसियों से एवं शोक से मुक्ति के लिये ये मनोवैज्ञानिक उपचार किये। आत्मसुझावों के बीच सीता की व्यग्रता बढ़ती गयी, रावण द्वारा दी गयी अवधि के दो महीने कैसे बीतेंगे!
हा राम हा लक्ष्मण हा सुमित्रे, हा राममातः सह मे जनन्या – हा राम! हा लक्ष्मण! हा सुमित्रा, कौशल्या, हा मेरी माँ! मैं अल्पभागा चक्रवात से घिरी समुद्र में डोलती नाव समान डूबने को हूँ – एषा विपद्याम्यहमल्पभाग्या, महार्णवे नौरिव मूढवाता। मृग के रूप में काल ही आया था जिसने मुझ अल्पभागा को लुभा लिया एवं मैं मूढ़ा आर्यपुत्र राम एवं अनुज लक्ष्मण को अपने से दूर भेज दी – नूनं स कालो मृगरूपधारी मामल्पभाग्यां लुलुभे तदानीम्। यत्रार्यपुत्रं विससर्ज मूढा रामानुजं लक्ष्मणपूर्वजं च॥
शोक की गहनता ने मन में यह भाव उपजाया कि राम स्यात उनकी उपेक्षा कर रहे हैं तथा सीता मानुषी पत्नी की भाँति क्रंदन करने लगीं।
हे सत्यव्रत राम! आप तो समस्त जीवलोक के हितू हैं, प्रिय करने वाले हैं, नहीं जानते कि यहाँ राक्षस मेरा वध करने वाले हैं! – हा जीवलोकस्य हितः प्रियश्च वध्यां न मां वेत्सि हि राक्षसानाम्।
हे राम! मेरा तुम्हारे प्रति अनन्यदेव भाव, सहनशीलता, भूमि पर शयन, नियम, धर्म, पातिव्रत्य; सब वैसे ही व्यर्थ हैं जैसे कृतघ्न मनुष्य के प्रति किया उपकार होता है – अनन्य दैवत्वमियं क्षमा च भूमौ च शय्या नियमश्च धर्मे। पतिव्रतात्वं विफलं ममेदं कृतं कृतघ्नेष्विव मानुषाणाम्॥
तुमसे वञ्चित हूँ, दीन दुर्बल विवर्ण हो गयी हूँ, तुमसे मिलन की निराशा ही है। मेरा धर्म आचरण उसी प्रकार व्यर्थ हो गया जिस प्रकार यह एकपत्नीव्रत – मोघो हि धर्मश्चरितो मयायं, तथैकपत्नीत्वामिदं निरर्थम्। या त्वां न पश्यामि कृशा विवर्णा, हीना त्वया सङ्गमने निराशा। पिता के निर्देश के पालन के पश्चात आप अयोध्या लौटेंगे एवं मुझे लगता है कि विशाल नेत्रों वाली कई अन्य स्त्रियों के साथ रमण करेंगे – स्त्रीभिस्तु मन्ये विपुलेक्षणाभिस्त्वं रंस्यसे।
किन्तु, हे राम! मैं तो केवल तुममें ही अनुराग रखती हूँ। मेरा तुमसे प्रेम भी अपने विनाश के लिये है। मेरे चिरकालिक तप व्रत सब व्यर्थ हैं। मैं जीवन त्यागती हूँ। मुझ अल्पभागा को धिक्कार है! अहं तु राम त्वयि जातकामा, चिरं विनाशाय निबद्धभावा। मोघं चरित्वाथ तपो व्रतञ्च त्यक्ष्यामि, धिग्जीवितमल्पभाग्याम्।
श्रीराम का इस भाँति स्मरण करती आत्मघात का भाव लिये सीता बहुपुष्पित विशाल वृक्ष के नीचे पहुँच गयीं :
इतीव देवी बहुधा विलप्य, सर्वात्मना राममनुस्मरन्ती। प्रवेपमाना परिशुष्कवक्त्रा, नगोत्तमं पुष्पितमाससाद॥
बहुत भाँति विचार करके उन्होंने निश्चय किया कि अपनी वेणी को ही गले की फाँसी बना मैं यम के स्थान शीघ्र ही पहुँच जाऊँगी – उद्बुध्य वेण्युद्ग्रथनेन शीघ्रमहं गमिष्यामि यमस्य मूलम्। इस निश्चय के साथ उस वृक्ष की एक शाखा पकड़ वह श्रीराम, लक्ष्मण एवं अपने कुल का स्मरण करने लगीं कि प्राचीनकाल से ही लोक में दु:ख विनाशक, धैर्यदायी, श्रेष्ठ एवं सिद्धि सूचक माने जाने वाले शुभ शकुन प्रकट होने लगे –
शोकानिमित्तानि तथा बहूनि धैर्यार्जितानि प्रवराणि लोके। प्रादुर्निमित्तानि तदा बभूवुः पुरापि सिद्धान्युपलक्षितानि॥
मंगलकारी, शुभ के निमित्त शकुन उन तक आये – तथागताम् ताम्, ऐसे जैसे कि किसी श्रीसम्पन्न मनुष्य की सेवा को सेवक आते हैं – शुभां निमित्तानि शुभानि भेजिरे नरं श्रिया जुष्टमिवोपजीविनः।
सुंदर वक्र पलकरोम वाली विशाल स्वच्छ कजरारी बायीं आँख की पुतली फड़कने लगी मानो रक्त कमल को किसी मछली ने हौले से धक्का दे दिया हो!
तस्याः शुभं वाममरालपक्ष्म राजीवृतं कृष्णविशालशुक्लम्। प्रास्पन्दतैकं नयनं सुकेश्या मीनाहतं पद्ममिवाभिताम्रम्॥
काली पुतली, रक्ताभ कोर वाली स्वच्छ सुंदर आँखों की फड़कन का सौंदर्य दर्शाने के लिये आदिकवि ने अद्भुत कोमल प्रभावमयी उपमा का सहारा लिया है – सजल आँख सरोवर भाँति जिसमें रक्तकमल एवं उस पर तैरती काली मछली का धक्का, सहसा ही चलबिम्ब चित्र खिंच जाता है। क्षण विशेष को शब्दकारा में बन्दी बना लेना इसे कहते हैं।
अतिशय दु:ख कातर निराशा में जो सीता अपने प्रिय राम का अन्य स्त्रियों से सम्बन्ध तक सोच चुकी थीं, उनके लिये संयोग शृंगार शकुन पहुँच सुहाग पूरने लगे! वाल्मीकि जी ने दाम्पत्य राग उड़ेल दिया है:
प्रिय राम के सिर के लिये लम्बे समय तक कभी तकिया समान रही, चंदन एवं अगरु से चर्चित होने योग्य सुपुष्ट सुंदर बायीं बाँह अकस्मात फड़क उठी – भुजश्च चार्वञ्चितपीनवृत्तः परार्थ्यकालागरुचन्दनार्हः। अनुत्तमेनाध्युषितः प्रियेण चिरेण वामः समवेपताऽशु॥
गजेंद्र के सूँड़ के समान सुगढ़ आकृति वाले परस्पर सटे सुपुष्ट जघनयुगल में से बायाँ सङ्केत देता पुन: पुन: फड़कने लगा मानों राम समक्ष उपस्थित हो गये हों – गजेन्द्रहस्तप्रतिमश्च पीन स्तयोर्द्वयोः सम्हतयोः सुजातः। प्रस्पन्दमानः पुनरूरुरस्या रामं पुरस्तात् स्थितमाचचक्षे॥
तत्पश्चात स्वच्छ नेत्र, मनोहर गात्र एवं दाड़िम सम सुंदर दंतावली वाली सीता की देह का हेमवर्णी मलिन पीताम्बर किञ्चित नीचे सरक गया जोकि प्रियमिलन का शुभसङ्केतक था –
शुभं पुनर्हेमसमानवर्णमीषद्रजोध्वस्तमिवामलाक्ष्याः। वास स्स्थिताया श्शिखराग्रदन्त्याः किञ्चित्परिस्रंसत चारुगात्य्राः॥
इन शुभ शकुनों को देख एवं प्राचीन काल से ही साधु जन द्वारा उनके बताये गये फलादेशों का स्मरण कर सीता हर्षित हो गयीं। सीता खेत में बीज बोये जाने के लिये बनाये गये घोहे को कहते हैं। मैथिली सीता के पिता तो कृषि यज्ञ में सक्रिय ही रहते थे। ऐसी सीता चरम दु:ख से मुक्ति के इन सङ्केतों से ही हर्षित हो उठीं, किसान भी तो ऐसे ही सङ्केतों से आशा ले जाने कितने कठिन समय काट लेते हैं। कवि को उस स्थिति को दर्शाने के लिये क्या उपमा सूझी!
ऐसे जैसे घाम बतास के प्रभाव से क्लान्त हुआ सूखा बीज वर्षा की झड़ी पड़ते ही पुन: हर्षमय जीवन से भर उठता है!
बिम्बाफल के समान अधर, केशों तक पहुँचने वाली वक्र भौहों, सुंदर बरैनियों वाली आँखों एवं श्वेत दंतावली से युक्त उनका सुन्दर मुख खिल उठा मानों राहु के मुख से चंद्रमा मुक्त हुये हों। सुन्दरता पर लगा ग्रहण समाप्त हो गया।
तस्याः पुनर्बिम्बफलाधरोष्ठं, स्वक्षिभ्रुकेशान्तमरालपक्ष्म।
वक्त्रं बभासे सितशुक्लदंष्ट्रं, राहोर्मुखाच्चन्द्र इव प्रमुक्तः॥
दु:ख बीत गया, मुर्झायी स्थिति से मुक्ति मिली, भय दूर हो गया, हर्ष से जागृत चेतना के साथ आर्या सीता शोभायमान हो उठीं ज्यों शुक्ल पक्ष में शीतल चंद्र के उदित होने से रात्रि हो जाती है।
सा वीतशोका व्यपनीततन्द्री शान्तज्वरा हर्षविबुद्धसत्त्वा।
अशोभतार्या वदनेन शुक्ले शीतांशुना रात्रिरिवोदितेन॥
जो रामदूत इन शुभ सुन्दर शकुनों के कारण बने थे, उन विक्रान्त हनुमान ने तत्त्वत: समस्त घटित को देखा सुना। उन्हें देवी सीता नन्दनकानन की देवता समान लगीं – अवेक्षमाणः ताम् देवीम् देवताम् इव नन्दने।
यही वह सीता हैं जिन्हें समस्त दिशाओं में सहस्र अयुत वानर ढूँढ़ने में लगे हैं – यां कपीनां सहस्राणि सुबहून्ययुतानि च। दिक्षु सर्वासु मार्गन्ते सेयमासादिता मया॥
हनुमान की चिन्ता बढ़ने लगी – यही समय है कि पति के दर्शन की आकांक्षी इन दुखिया को मैं सान्त्वना दूँ – समाश्वासयितुं भार्यां पतिदर्शनकाङ्क्षिणीम्। यदि मैं सांत्वना दिये बिना लौट गया तो परित्राण की आशा तज यशस्विनी राजपुत्री जानकी अपने प्राण त्याग देंगी – गते हि मयि तत्रेयं राजपुत्री यशस्विनी। परित्राणमविन्दन्ती जानकी जीवितं त्यजेत्॥ (आत्मघात महापातक माना गया है। आत्मघात से मरने के पश्चात सीता के यश के नष्ट होने को लेकर कपि के मन में उठे भय को ‘यशस्विनी’ शब्द प्रयोग द्वारा कवि ने रेखाङ्कित सा किया है।)
राक्षसियों की उपस्थिति में मैं इनसे बात नहीं कर सकता। इस कठिन परिस्थिति में अपने कर्तव्य का पालन कैसे करूँ? – कथन्नु खलु कर्तव्यमिदं कृच्छ्रगतो ह्यहम्?
बची हुयी रात के रहते हुये यदि मैं इन्हें आश्वस्त नहीं कर पाया तो यह निश्चित ही अपने प्राण त्याग देंगी, इसमें सर्वथा संशय नहीं – अनेन रात्रिशेषेण यदि नाश्वास्यते मया। सर्वथा नास्ति सन्देहः परित्यक्ष्यति जीवितम्।
रात बीतने के साथ साथ हनुमान जी की चिन्ता बढ़ती गयी।
अगले अङ्क में:
<3 हे राम। हे सीता।