पिछले अंक में हमने कक्षा प्रथम की हिन्दी की पुस्तक देखी। अब उसी कक्षा की गणित की पुस्तक देखते हैं। पुस्तक का नाम है – गणित का जादू तथा जो पाठ हमें उपलब्ध है, वह वेब साइट का अग्रहायण १९४० (पुनर्मुद्रित) संस्करण है।
प्रकाशन विभाग अध्यक्ष हैं एम. सिराज अनवर तथा मुख्य सम्पादक हैं श्वेता उप्पल। अनीता रामपाल निर्माण समिति की अध्यक्ष हैं तथा हिन्दी रूपांतरण किया है दीप्ति शर्मा ने जिसका अर्थ यह निकलता है कि मूलत: यह पुस्तक किसी अन्य भाषा (अंग्रेजी सम्भावित) में लिखी गयी तथा आगे उसका अनुवाद किया गया।
विडम्बना ही है कि कक्षा प्रथम की पुस्तक भी सीधे बच्चों की मातृभाषा में नहीं लिखी गयी।
पहला प्रकरण है – ‘आकृतियाँ और स्थान’, जिसमें ‘अंदर-बाहर’ नाम से एक अरब एवं उसके ऊँट की कहानी दी हुई है। आश्चर्य होता है कि बच्चों को अंदर-बाहर समझाने के लिये लेखकों एवं सम्पादकों को पूरी भारतीय परम्परा में कोई कहानी नहीं मिली!
बच्चों का कोमल मन इस आयु में बताई गई बातों को आजीवन स्मरण तो रखता ही है, वे उसकी मानसिक गढ़न को भी प्रभावित करती हैं। कहानी का दूसरा ही वाक्य है – सरदी का दिन था। सरदी फारसी भाषा का उधार लिया हुआ शब्द है जिसका प्रचलन हिंदी क्षेत्र में जाड़े की तुलना में अत्यल्प है। एक तो अरब, दूजे ऊँट एवं तीजे सरदी; कोमल आयु में विद्यार्थियों के मन में विदेशी शब्द, विदेशी देश, परिवेश एवं कहानी बैठाने के क्या लाभ हैं? क्या उद्देश्य है? लाभ तो समझ में नहीं आता, हानि अवश्य समझ में आती है कि बच्चे ऐसे तथ्यों को समझने में लगेंगे जिनका कि उनके परिवेश से कुछ नहीं लेना देना!
अरब की सरदी वहाँ के लिये भी तुलनात्मक ही है जहाँ कि तापमान ८ से २३ अंश सेल्सियस तक की परास में रहता है। इस सरदी की तुलना उत्तर भारत के हिंदीभाषी क्षेत्रों से करें जहाँ की कड़कड़ाती ठण्ड शून्य से भी नीचे जाती है तथा ऋतु बहुत कष्टदायी होती है। यदि कोई भारतीय कथा ली गयी होती तो बच्चे गणित का भीतर-बाहर अच्छे से समझ पाते, सम्पृक्त हो पाते।
सहज ही मन सोचने लगता है कि हो न हो, पन्थ निरपेक्षता के नाम पर ‘हिंदू’ कहानियों से चिढ़ते जन को ‘अरब कथा’ ही सर्वोत्तम लगी होगी। पंथ निरपेक्षता के पार्श्व प्रभाव ‘पहला हक़ अल्पसंख्यकों का’ का उदाहरण पृष्ठ ११० पर दी गयी सूची से स्पष्ट होता है जिसके पहले दो नाम शबनम एवं जोसफ़ हैं तथा अंतिम अहमद!
इसी पुस्तक के ‘शिक्षकों के लिए टिप्पणी’ अंश की भूमिका में ‘मतान्धता एवं पूर्वाग्रह के नकारात्मक प्रभावों’ की बात की गयी है। ऊपर हम जो देख आये हैं, क्या वह पूर्वाग्रहग्रस्त काम नहीं है? इतना पूर्वाग्रह एवं मतांधता कि प्रथम कक्षा के बच्चों तक को नहीं छोड़ा!
अंत में देखते हैं शून्य। भारत की खोज ‘शून्य’ एक ऐसा आकर्षक चिह्न एवं प्रभावी अंक है जिसकी संरचना, इतिहास एवं तथ्यों के बारे में बच्चों को पहली कक्षा से ही ज्ञान कराया जाना चाहिये। रोचक पाठ होनें चाहिये किंतु उसे वस्तुओं की घटती संख्या के माध्यम से ही बता कर इतिश्री कर दी गयी है।
कहीं इसके पीछे भी वही ‘हिंदू घृणा’ भाव ही तो नहीं जो अरब की कहानी यहाँ प्रत्यारोपित करता है?
(क्रमश:)