कृष्ण जन्माष्टमी व पुराण
श्रीकृष्ण, एक नाम जिसने सम्पूर्ण भारत के स्नेह को स्वयं में सहस्राब्दियों से समाहित कर रखा है। कान्ह, कान्हा, कन्हैया, ठाकुर जी, रसिया, गोविन्द, रणछोड़, भगवान जैसे नामों से लोक में पुकारे जाते श्रीकृष्ण के विराट महामानवी रूप की परास ऐसी है कि वह प्रत्येक वय, प्रत्येक भाव, प्रत्येक कर्म को समो लेती है। उनका जीवन एक अद्भुत सङ्गीत है। आश्चर्य नहीं कि जाने कितनी शताब्दियों से लोक एवं शास्त्रीय राग रागिनियों के छन्द कृष्ण के विविध रूपों का गान करते हैं। घरनी के चूल्हे चौके, गोचर भूमि, खेत, खलिहान, नगरवधुओं के कोठे, मन्दिर, शास्त्रीय विमर्श के प्रतिष्ठान; इन सबमें उस लीला पुरुषोत्तम का वेणुवादन अपनी विविध आरोह-अवरोह मुद्राओं के साथ प्रवाहित है । सर्वमान्य अन्तिम व्यतीत अवतार श्रीकृष्ण के ऊपर इस देश ने जो ममत्व, आस्था, श्रद्धा, माधुर्य एवं साहचर्य सख्य भाव उड़ेले हैं, वे दुर्लभ हैं, अन्यत्र सम्भव नहीं। भारतीय मनीषा एवं जीवन को गढ़ने में उनके व्यक्तित्त्व का योगदान अप्रतिम है।
श्रीकृष्ण ने युगान्त में जन्म लिया, कहें तो उसे रूप दिया । जन्म के साथ ही माता पिता से बिछ्ड़ चुके कृष्ण ने पालक माता की अँगनाई में अपनी बाललीला से वात्सल्य भाव के समस्त रूपों को अभिव्यक्ति दे दी । बाल्यावस्था में ही विविध आपदाओं एवं शत्रुओं से बच निकलने की चमत्कृत कर देने वाली क्षमता ने उनके देवत्व की भूमिका लिखी तो कालियदमन उनके दूरन्देशी नवोन्मेषी कुशल उद्योगी एवं कर्मवीर रूप का प्रथम प्रमाण बना । वृन्दावन के उन्मुक्त वन प्रान्तर में उनकी बजती बाँसुरी ने प्रेम, समर्पण एवं माधुर्य के अनूठे प्रतिमान स्थापित किये जो मध्यकाल की काव्य शक्तियों पर आरूढ़ हो ऐसे निखरे, इतने सम्मोहनकारी सिद्ध हुये कि उनसे भारतीय मानस अटूट हो जुड़ गया। कला, गीत-सङ्गीत, नाट्य, काव्य, आख्यान विधाओं को श्रीकृष्ण के इस रूप ने अभूतपूर्व सौन्दर्य, नवोन्मेषी उद्भावनाओं एवं रचनाओं से अनुप्राणित कर दिया, करते जा रहे हैं।
किशोरावस्था में इन्द्रोत्सव के स्थान पर पर्वतोत्सव के आयोजन ने उनके उस भावी योद्धा रूप का पर्याप्त सङ्केत दे दिया जो लीक से हट कर सोचता था, कुशलता के साथ कर्म करता था एवं जिसकी दृष्टि निर्मम स्वच्छ थी। गोचर भूमि एवं वन्य खाद्य प्रदान करने वाले गोवर्द्धन पर्वत की प्रतिष्ठा ने कृष्ण को समस्त कृषक समाज से जोड़ दिया जिसके लिये गौ दूध एवं कृषि शक्ति दोनों का पर्याय थी।
व्यापक हित को सुनिश्चित करने वाले लक्ष्य की स्पष्टता एवं उसकी प्राप्ति हेतु अप्रतिहत लगन के साथ एकनिष्ठ कर्म वयस्क श्रीकृष्ण का जीवन सन्देश है । पलायन हो, राजधानी को मथुरा से द्वारका ले जाना हो या महाभारत युद्ध, श्रीकृष्ण की अन्वेषी एवं स्पष्ट दृष्टि से साक्षात्कार होता ही रहता है, एक ऐसी मर्मभेदिनी दृष्टि जो निर्मम एवं अनासक्त भी है। युद्धभूमि में अर्जुन को दिये गये अपने भगवद्गीता उपदेश को श्रीकृष्ण ने स्वयं जीवन में उतार कर दिखाया। योगेश्वर कृष्ण, योद्धा कृष्ण, नीतिज्ञ कृष्ण; उनके जाने कितने रूप हैं जिन्हें समेटने के लिये संज्ञायें सीमित सी प्रतीत होती हैं। श्रीकृष्ण के ये रूप उनके माधुर्य गुण रूप की तुलना में अल्प लोकप्रिय हैं क्यों कि पग पग पर जीवन संग्राम का सामना करते कर्मठ जन साधारण हेतु उनका यह रूप स्नेहक का काम करता है। भक्ति भाव को श्रीकृष्ण के लुभावने रूप ने अनन्त ऊँचाइयाँ प्रदान कीं। वात्सल्य भाव तो मानों उनकी विराट छाँव में ही क्रीड़ा करता है।
उद्दण्ड एवं पृथ्वी हेतु भार हो चुके अपने ही कुल का नाश करने के पश्चात अप्रतिहत योद्धा श्रीकृष्ण का देहावसान साधारण व्याध के शर से हुआ, युगान्त हुआ । उनका अवसान भी एक सन्देश दे गया कि अस्तित्व प्रिय या अप्रिय से परे है, आसक्ति मूल्यहीन है।
भारत युद्ध की गाथा लिख लेने के पश्चात महाविनाश से विषण्ण व्यास ने स्वयं को सान्त्वना देने हेतु श्रीकृष्ण कथा खिल या पूरक भाग ‘हरिवंश’ के रूप में रची। यह कथा आख्यानों से पुराणों के बीच सेतु या कहें तो संक्रमण सिद्ध हुई। इसे आधार बना कर ही श्रीकृष्ण के जीवन की जाने कितनी कथायें रची गयीं जिनमें रचनाकारों ने युग की सचाई, सुख, दु:ख, आशा, निराशा, मनोभाव, अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष कामना इत्यादि सब भर दिये। श्रीकृष्ण चरित संश्लिष्ट रूप लेता एवं लोक जीवन से अनुप्राणित होता विशालतम, विराटतम एवं भव्यतम होता गया, एक अद्वितीय रूप जिसमें मनुष्य की समस्त सर्जनात्मकता अपने उच्चतम पर है।
कहना न होगा कि पुराण इस कार्य में अग्रणी रहे। प्राय: समस्त पुराणों में वसुदेव सुत वासुदेव श्रीकृष्ण की महिमा अभिव्याप्त है। उनके जन्म के चमत्कार भरे समय को पुराणों ने गाया है । जन्माष्टमी के विविध वर्णनों को यहाँ एकत्र किया जा रहा है। हरिवंश से भविष्यपुराण तक के वर्णनों को समझने हेतु कुछ तथ्य जानने होंगे।
आजकल प्रचलित नक्षत्र आधारित मास नामों के समान्तर या उनसे पूर्ववर्ती भी सम्भाव्य ऋतु प्रभाव आधारित नाम (तैत्तिरीय संहिता, १.४.१४) प्रचलित थे। वसन्त ऋतु को संवत्सर का सिर कहा गया जिसमें पुष्पमयी नवरसा प्रकृति सृजन के विविध माधुर्य भरे सुन्दर रूपों से सज जाती है। इस ऋतु का पहला माह ‘मधु’ कहा गया, जिसका परिपाक अगले महीने ‘माधव’ में होता है। मधु की सङ्गति चैत्र से बैठती है एवं यह प्रयोग तुलसीदास के समय तक रहा जिन्हों ने राम जन्म का महीना मधुमास बताया है।
नक्षत्र आधारित नाम पूर्णिमा के दिन चंद्र की नक्षत्र विशेष पर स्थिति से होते हैं। यथा चन्द्र जिस पूर्णिमा को विशाखा पर होगा वह मास वैशाख, श्रावण पर होगा तो सावन आदि। तैत्तिरीय संहिता (४.४.११) में ही ऋतु प्रभाव आधारित मास नामों को युगल रूप में छ: ऋतुओं में बाँटा गया है। ऋतु प्रभाव वाले मास नामों की नक्षत्र आधारित मास नामों से सङ्गति की पूर्ण सूची इस प्रकार है :
ऋतु | वसन्त | ग्रीष्म | वर्षा | शरद | हेमन्त | शिशिर | ||||||
ऋतु प्रभाव मास नाम | मधु | माधव | शुक्र | शुचि | नभस् | नभस्य | इष | ऊर्ज | सहस | सहस्य | तपस् | तपस्य |
नक्षत्र नाम | चैत्र | वैशाख | ज्येष्ठ | आषाढ़ | श्रावण | भाद्रपद | आश्विन | कार्त्तिक | मार्गशीर्ष | पौष | माघ | फाल्गुन |
कुल बारह स्रोतों में श्रीकृष्ण जन्म काल इस प्रकार है:
स्रोत | मास | पक्ष | तिथि | समय, नक्षत्र आदि |
हरिवंश | कृष्ण | अभिजित मुहूर्त , अर्द्धरात्रि | ||
श्रीमद्भागवत (देवी) | श्रावण | कृष्ण | अष्टमी | प्राजापत्य (रोहिणी), निशीथ |
श्रीमद्भागवत (वैष्णव) | निशीथ | |||
अग्नि | नभ | कृष्ण | अष्टमी | अर्द्धरात्रि |
विष्णु | नभ | कृष्ण | अष्टमी | अर्द्धरात्रि |
पद्म | नभ | कृष्ण | अष्टमी | अर्द्धरात्रि |
ब्रह्म | नभ | कृष्ण | अष्टमी | निशा |
ब्रह्माण्ड | जयन्ती नाम शर्वरी | अभिजित नक्षत्र, विजय मुहूर्त | ||
स्कन्द | जयन्ती नाम शर्वरी | अभिजित नक्षत्र, विजय मुहूर्त | ||
कूर्म | ||||
ब्रह्मवैवर्त | जयन्ती योगयुक्त, अर्द्धचन्द्रोदय | अष्टमी | अष्टम मुहूर्त, अर्द्धरात्रि, रोहिणी | |
भविष्य (उत्तरपर्व) | भाद्रपद | कृष्ण | अष्टमी | रोहिणी नक्षत्र, अर्धरात्रि, वृष राशि पर चन्द्र, सिंह राशि पर सूर्य, |
हरिवंश में अभिजित मुहूर्त वाले श्लोक से तीसरे श्लोक में अभिजित नक्षत्र, जयन्ती नाम शर्वरी मिलते हैं किन्तु शोधित संस्करण से उन्हें हटाना पड़ा क्यों कि प्राचीनतम पाण्डुलिपियों में यह अंश नहीं था। रोहिणी नक्षत्र का उल्लेख मात्र ब्रह्मवैवर्तपुराण एवं भविष्यपुराण के उत्तरपर्व में जन्माष्टमी व्रत सम्बन्धित अंश में है। राशियों के उल्लेख एवं उत्तरपर्व का होने से यह परवर्ती अंश प्रतीत होता है। अभिजित नक्षत्र ब्रह्माण्ड एवं स्कन्द पुराणों में है, साथ में जयन्ती नाम शर्वरी लगा हुआ है। यह किसी समान्तर ज्योतिष पद्धति से आया प्रतीत होता है जिसमें कि चन्द्रमास के विविध पक्षों की रातों को भिन्न भिन्न नाम दिये गये थे। शर्वरी शब्द का एक अर्थ टिमटिमाते तारों से भरी रात होता है। सम्भव है कि उस पद्धति में २७ के स्थान पर २८ नक्षत्र प्रयुक्त होते रहे हों, अभिजित के नक्षत्र रूप में पाये जाने से यही अनुमान लगाया जा सकता है।
मास का भाद्रपद नाम केवल भविष्य पुराण में है, श्रीमद्भागवत (देवी) श्रावण बताता है। इसका हल उन दो पद्धतियों में है जिनमें कि एक में चन्द्रमास अमान्त अर्थात अमावस्या से अंत होता है तो दूसरी में पूर्णिमान्त अर्थात पूर्णिमा से। दोनों में शुक्ल पक्ष एवं पूर्णिमा के नाम समान होते हैं किंतु कृष्ण पक्ष एवं अमावस्या में एक मास-नाम का अन्तर १५ दिनों के अंतर के कारण आ जाता है। अमान्त का श्रावण कृष्ण पक्ष, पूर्णिमान्त का भाद्रपद कृष्ण पक्ष होगा। अमान्त मास पश्चिम एवं दक्षिण में अधिक प्रचलित है तो पूर्णिमान्त उत्तर भारत में। उल्लेखनीय है कि पूर्णिमान्त पद्धति में भी संवत्सर आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होने से चैत्र कृष्ण के प्रथम पंद्रह दिन पूर्ववर्ती संवत्सर में ही पड़ते हैं। दो पद्धतियों के प्रचलित होने का सम्बंध गणित ज्योतिषीय सुविधा के अतिरिक्त इस तथ्य से भी हो सकता है कि ऋतुयें खिसक रही हैं एवं अब वसन्त को आधे फाल्गुन से आधे वैशाख तक मानना अधिक उपयुक्त है।
दोनों पद्धतियों को इस चित्र से समझा जा सकता है :
यहाँ हमने विविध स्रोतों के मूल श्लोक एकत्रित कर दिये हैं, साथ में उनके ध्वनि अङ्कन भी हैं। ध्वनि अङ्कन में यत्र तत्र उच्चारण अशुद्धियाँ हो सकती हैं क्यों कि बहुत ही अल्प अवधि में इनका अङ्कन किया गया है। जिस तत्परता एवं उच्चारण शुद्धि का यथासाध्य ध्यान रखते हुये ये अङ्कन भेजे गये, उस हेतु मघा प्रबन्धन अल्पना वर्मा, दत्तराज देशपाण्डे, अनुराग शर्मा, अलङ्कार शर्मा, विष्णु श्रीवास्तव कुमार एवं कृपा अरोरा का आभारी है। कृपा अरोरा अभी बालिका ही हैं किन्तु उनका उत्साह सुनते ही बनता है।
॥ त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये ॥
००. हरिवंश (विष्णु पर्व, ४.१२-२०)
स्वर - दत्तराज देशपाण्डे
स्वर - अलंकार शर्मा
गर्भकाले त्वसम्पूर्णे अष्टमे मासि ते स्त्रियौ।
देवकी च यशोदा च सुषुवाते समं तदा॥
यामेव रजनीं कृष्णो जज्ञे वृष्णिकुले प्रभु:।
तामेव रजनीं कन्यां यशोदापि व्यजायत॥
नन्दगोपस्य भार्या वै कंसगोपस्य संमता।
तुल्यकालं हि गर्भिण्यौ यशोदा देवकी तथा॥
देवक्यजनयद्विष्णुं यशोदा तां तु कन्यकाम्।
मुहूर्तेऽभिजिति प्राप्ते सार्धरात्रे विभूषिते॥
सागराः समकम्पन्त चेलुश्च धरणीधराः।
जज्वलुश्चाग्नयः शान्ता जायमाने जनार्दने॥
शिवा: संप्रववुर्वाताः प्रशान्तमभवद्रजः।
ज्योतींषि च प्रकाशन्त जायमाने जनार्दने॥
अनाहता दुन्दुभयो देवानां प्राणदन्दिवि।
आकाशात्पुष्पवर्षं च ववर्ष त्रिदिवेश्वरः॥
गीर्भिर्मङ्गलयुक्ताभिः स्तुवन्तो मधुसूदनम्।
महर्षयः सगन्धर्वा उपतस्थुः सहाप्सराः॥
वसुदेवस्तु संगृह्य दारकं क्षिप्रमेव च।
यशोदाया गृहं भीतो विवेश सुतवत्सलः॥
यशोदायास्त्वविज्ञातं तत्र निक्षिप्य दारकम्।
गृह्य तां दारिकां चापि देवकीशयनेऽन्यसत्॥
परिवर्ते कृते ताभ्यां गर्भाभ्यां भयविक्लवः।
वसुदेवः कृतार्थो वै निर्जगाम निवेशनात्॥
०१. श्रीमद्भागवतपुराण (देवी) (४.२३)
स्वर - विष्णु कुमार श्रीवास्तव
व्यास उवाच
हतेषु षट्सु पुत्रेषु देवक्या औग्रसेनिना।
सप्तमे पतिते गर्भे वचनान्नारदस्य च॥१॥
अष्टमस्य च गर्भस्य रक्षणार्थमतन्द्रितः।
प्रयत्नमकरोद्राजा मरणं स्वं विचिन्तयन्॥२॥
समये देवकीगर्भे प्रवेशमकरोद्धरिः।
अंशेन वसुदेवे तु समागत्य यथाक्रमम्॥३॥
तदेयं योगमाया च यशोदायां यथेच्छया।
प्रवेशमकरोद्देवी देवकार्यार्थसिद्धये॥४॥
रोहिण्यास्तनयो रामो गोकुले समजायत।
यतः कंसभयोद्विग्ना संस्थिता सा च कामिनी॥५॥
कारागारे ततः कंसो देवकीं देवसंस्तुताम्।
स्थापयामास रक्षार्थं सेवकान्समकल्पयत्॥६॥
वसुदेवस्तु कामिन्याः प्रेमतन्तुनियन्त्रितः।
पुत्रोत्पत्तिं च सञ्चिन्त्य प्रविष्टः सह भार्यया॥७॥
देवकीगर्भगो विष्णुर्देवकार्यार्थसिद्धये।
संस्तुतोऽमरसङ्घैश्च व्यवर्धत यथाक्रमम्॥८॥
सञ्जाते दशमे तत्र मासेऽथ श्रावणे शुभे।
प्राजापत्यर्क्षसंयुक्ते कृष्णपक्षेऽष्टमीदिने॥९॥
कंसस्तु दानवान्सर्वानुवाच भयविह्वलः।
रक्षणीया भवद्भिश्च देवकी गर्भमन्दिरे॥१०॥
अष्टमो देवकीगर्भः शत्रुर्मे प्रभविष्यति।
रक्षणीयः प्रयत्नेन मृत्युरूपः स बालकः॥११॥
हत्वैनं बालकं दैत्याः सुखं स्वप्स्यामि मन्दिरे।
निवृत्तिवर्जिते दुःखे नाशिते चाष्टमे सुते॥१२॥
खड्गप्रासधराः सर्वे तिष्ठन्तु धृतकार्मुकाः।
निद्रातन्द्राविहीनाश्च सर्वत्र निहितेक्षणाः॥१३॥
व्यास उवाच
इत्यादिश्यासुरगणान् कृशोऽतिभयविह्वलः।
मन्दिरं स्वं जगामाशु न लेभे दानवः सुखम्॥१४॥
निशीथे देवकी तत्र वसुदेवमुवाच ह।
किं करोमि महाराज प्रसवावसरो मम॥१५॥
बहवो रक्षपालाश्च तिष्ठन्त्यत्र भयानकाः।
नन्दपत्न्या मया सार्धं कृतोऽस्ति समयः पुरा॥१६॥
प्रेषितव्यस्त्वया पुत्रो मन्दिरे मम मानिनि।
पालयिष्याम्यहं तत्र तवातिमनसा किल॥१७॥
अपत्यं ते प्रदास्यामि कंसस्य प्रत्ययाय वै।
किं कर्तव्यं प्रभो चात्र विषमे समुपस्थिते॥१८॥
व्यत्ययः सन्ततेः शौरे कथं कर्तुं क्षमो भवेः।
दूरे तिष्ठस्व कान्ताद्य लज्जा मेऽतिदुरत्यया॥१९॥
परावृत्य मुखं स्वामिन्नन्यथा किं करोम्यहम्।
इत्युक्त्वा तं महाभागं देवकी देवसम्मतम्॥२०॥
बालकं सुषुवे तत्र निशीथे परमाद्भुतम्।
तं दृष्ट्वा विस्मयं प्राप देवकी बालकं शुभम्॥२१॥
पतिं प्राह महाभागा हर्षोत्कुल्लकलेवरा।
पश्य पुत्रमुखं कान्त दुर्लभं हि तव प्रभो॥२२॥
०२. श्रीमद्भागवतपुराण (वैष्णव)
स्वर - अल्पना वर्मा
अथ सर्वगुणोपेतः कालः परमशोभनः।
यर्ह्येवाजनजन्मर्क्षं शान्तर्क्षग्रहतारकम्॥१०.०३.००१॥
दिशः प्रसेदुर्गगनं निर्मलोडुगणोदयम्।
मही मङ्गलभूयिष्ठ पुरग्रामव्रजाकरा॥१०.०३.००२॥
नद्यः प्रसन्नसलिला ह्रदा जलरुहश्रियः।
द्विजालिकुलसन्नाद स्तवका वनराजयः॥१०.०३.००३॥
ववौ वायुः सुखस्पर्शः पुण्यगन्धवहः शुचिः।
अग्नयश्च द्विजातीनां शान्तास्तत्र समिन्धत॥१०.०३.००४॥
मनांस्यासन् प्रसन्नानि साधूनामसुरद्रुहाम्।
जायमानेऽजने तस्मिन्नेदुर्दुन्दुभयः समम्॥१०.०३.००५॥
जगुः किन्नरगन्धर्वास्तुष्टुवुः सिद्धचारणाः।
विद्याधर्यश्च ननृतुरप्सरोभिः समं मुदा॥१०.०३.००६॥
मुमुचुर्मुनयो देवाः सुमनांसि मुदान्विताः।
मन्दं मन्दं जलधरा जगर्जुरनुसागरम्॥१०.०३.००७॥
निशीथे तमौद्भूते जायमाने जनार्दने।
देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः।
आविरासीद्यथा प्राच्यां दिशीन्दुरिव पुष्कलः॥१०.०३.००८॥
तं अद्भुतं बालकं अम्बुजेक्षणं, चतुर्भुजं शंखगदार्युदायुधम् ।
श्रीवत्सलक्ष्मं गलशोभि कौस्तुभं, पीताम्बरं सान्द्रपयोदसौभगम् ॥१०.०३.००९॥
०३. अग्निपुराण
स्वर - अनुराग शर्मा
यदोः कुले यादवाश्च वसुदेवस्तदुत्तमः ॥१२.००३
भुवो भारावतारार्थं देवक्यां वसुदेवतः।१२.००४
हिरण्यकशिपोः पुत्राः षड्गर्भा योगनिद्रया ॥१२.००४
विष्णुप्रयुक्तया नीता देवकीजठरं पुरा।१२.००५
अभूच्च सप्तमो गर्भो देवक्या जठराद्बलः ॥१२.००५
सङ्क्रामितोऽभूद्रोहिण्यां रौहिणेयस्ततो हरिः।१२.००६
कृष्णाष्टम्याञ्च नभसि अर्धरात्रे चतुर्भुजः ॥१२.००६
देवक्या वसुदेवेन स्तुतो बालो द्विबाहुकः।१२.००७
वसुदेवः कंसभयाद्यशोदाशयनेऽनयत्॥१२.००७
यशोदाबालिकां गृह्य देवकीशयनेऽनयत्।१२.००८
०४. विष्णुपुराण
स्वर - विष्णु कुमार श्रीवास्तव
प्रावृट्काले च नभसि कृष्णाष्टम्यामहं निशि ।
उत्पत्स्यामि नवम्यां तु प्रसूतिं त्वमवाप्स्यसि॥ ५,१.७८ ॥
…
श्रीपराशर उवाच
एवं संस्तूयमाना सा देवैर्देवमधारयत्।
गर्भेण पुण्डरीकाक्षं जगतस्त्राणकारणम्॥५,३.१॥
ततोऽखिलजगत्पद्मबोधायाच्युतभानुना।
देवकीपूर्वसंध्यायामाविर्भूतं महात्मना॥५,३.२॥
तज्जन्मदिनमत्यर्थमाह्लाद्यमलदिङ्मुखम्।
बभूव सर्वलोकस्य कौमुदी शशिनो यथा॥५,३.३॥
संतःसंतोषमधकं प्रशमं चञ्जमारुताः।
प्रसादं निम्नगा याता जायमाने जनार्दने॥५,३.४॥
सिंधवो निजशब्देन वाद्यं चक्रुर्मनोहरम्।
जगुर्गन्धर्वपतयो ननृतुश्चाप्सरोगणाः॥५,३.५॥
ससृजुः पुष्पवर्षाणि देवा भुव्यन्तरिक्षगाः।
जज्वलुश्चाग्नयः शान्ता जायमाने जनार्दने॥५,३.६॥
मदं जगुर्जुर्जलदाः पुष्पवृष्टिमुचो द्विज।
अर्धरात्रेऽखिलाधारे जायमाने जनार्दने॥५,३.७॥
फुल्लेन्दीवरपत्राभं चतुर्बाहुमुदीक्ष्य तम्।
श्रीवत्सवक्षसं जातं तुष्टावानकदुन्दुभिः॥५,३.८॥
अभिष्ट्रय च तं वाग्भिः प्रसन्नाभिर्महामतिः।
विज्ञापयामास तदा कंसाद्भीतो द्विजोत्तम॥५,३.९॥
वसुदेव उवाच
जातोसि देवदेवेश शङ्खचक्रगदाधरम्।
दिव्यरूपमिदं देव प्रसादेनोपसंहर॥५,३.१०॥
अद्यैव देव कंसोयं कुरुते मम घातनम्।
अवतीर्म इति ज्ञात्वा त्वमस्मिन्मममन्दिरे॥५,३.११॥
देवक्युवाच
योऽनन्तरूपोऽखिलविश्वरूपो गर्भेपि लोकान्वपुषा बिभर्ति।
प्रसीतदामेष स देवदेवो यो माययाविष्कृतबालरूपः॥५,३.१२॥
उपसंहर सर्वात्मन्रूपमेतच्चतुर्भुजम्।
जानातु मावतारं ते कंसोयं दितिजन्मजः॥५,३.१३॥
श्रीभगवानुवाच
स्तुतोऽहं य त्त्वया पूर्वं पुत्रार्थिन्या तदद्य ते।
सफलं देवि संजातं जातोऽहं यत्तवोदरात्॥५,३.१४॥
०५. पद्मपुराण (उत्तरखण्ड ६.२४५)
स्वर - कृपा अरोड़ा
हिरण्याक्षस्य षट्पुत्रान्समानीयावनीतले
वसुदेवस्य पत्न्यां तु देवक्यां सन्निवेशय २५
अनंतांशः सप्तमोऽत्र संप्रविष्टस्तु माचिरम्
तस्याः सपत्न्यां रोहिण्यां ददस्व शुभदर्शने २६
ततोऽष्टमे ममांशस्तु देवक्यां संभविष्यति
नंदगोपस्य पत्न्यां तु यशोदायां सनातनी २७
तवांशभूता महानिद्रा विंध्यं गत्वा महाचलम्
तत्र संपूज्यमाना हि देवैरिंद्र पुरोगमैः
हन्याद्दैत्यान्महावीर्याञ्शुंभासुरपुरोगमान् २८
रुद्र उवाच—
तथेत्युक्त्वा महामाया हिरण्याक्षसुतांस्तदा
पर्यायेण च देवक्यां षड्गर्भान्संन्यवेशयत् २९
ताञ्जघान तदा कंसो जातमात्रान्महाबलः
ततस्तु सप्तमो गर्भो ह्यनंतांशेन चोदितः ३०
वर्धमानं तु गर्भं तं रोहिण्यां समुपानयत्
गर्भसंकर्षणात्तस्यां जातः संकर्षणोऽव्ययः ३१
कृष्णाष्टम्यां तु रोहिण्यां प्रौष्ठपद्यां शुभोदये
रोहिणी जनयामास पुत्रं संकर्षणं प्रभुम् ३२
ततस्तु देवकी गर्भमापेदे भगवान्हरिः
आपन्नगर्भां तां दृष्ट्वा कंसो भयनिपीडितः ३३
ततः सुरगणाः सर्वे हर्षनिर्भरमानसाः
तुष्टुवुर्देवकीं तत्र विमानस्था नभस्तले ३४
ततस्तु दशमे मासि कृष्णे नभसि पार्वति
अष्टम्यामर्द्धरात्रे च तस्यां जातो जनार्दनः ३५
इंदीवरदलश्यामः पद्मपत्रायतेक्षणः
चतुर्भुजः सुंदरांगो दिव्याभरणभूषितः ३६
श्रीवत्सकौस्तुभोरस्को वनमालाविभूषितः
वसुदेवस्य जातोऽसौ वासुदेवः सनातनः ३७
तं दृष्ट्वा जगतां नाथं कृष्णमानकदुन्दुभिः
उवाच प्रांजलिर्भूत्वा नमस्कृत्य जगन्मयम् ३८
०६. ब्रह्मपुराण
स्वर - दत्तराज देशपाण्डे
एकैकश्येन षड्गर्भान् देवकीजठरे नय ॥१८१.३८॥
हतेषु तेषु कंसेन शेषाख्योऽंशस्ततोऽनघः।
अंशांशेनोदरे तस्याः सप्तमः संभविष्यति ॥१८१.३९॥
गोकुले वसुदेवस्य भार्या वै रोहिणी स्थिता।
तस्याः प्रसूतिसमये गर्भो नेयस्त्वयोदरम् ॥१८१.४०॥
सप्तमो भोजराजस्य भयाद्रोधोपरोधतः।
देवक्याः पतितो गर्भ इति लोको वदिष्यति ॥१८१.४१॥
गर्भसंकर्षणात्सोऽथ लोके संकर्षणेति वै।
संज्ञामवाप्स्यते वीरः श्वेताद्रिशिखरोपमः ॥१८१.४२॥
ततोऽहं संभविष्यामि देवकीजठरे शुभे।
गर्भे त्वया यशोदाया गन्तव्यमविलम्बितम् ॥१८१.४३॥
प्रावृट्काले च नभसि कृष्णाष्टम्यामहं निशि।
उत्पत्स्यामि नवम्यां च प्रसूतिं त्वमवाप्स्यसि ॥१८१.४४॥
यशोदाशयने मां तु देवक्यास्त्वामनिन्दिते।
मच्छक्तिप्रेरितमतिर्वसुदेवो नयिष्यति ॥१८१.४५॥
कंसश्च त्वामुपादाय देवि शैलशिलातले।
प्रक्षेप्स्यत्यन्तरिक्षे च त्वं स्थानं समवाप्स्यसि ॥१८१.४६॥
ततस्त्वां शतधा शक्रः प्रणम्य मम गौरवात्।
प्रणिपातानतशिरा भगिनीत्वे ग्रहीष्यति ॥१८१.४७॥
ततः शुम्भनिशुम्भादीन् हत्वा दैत्यान् सहस्रशः।
स्थानैरनेकैः पृथिवीमशेषां मण्डयिष्यसि ॥१८१.४८॥
०७. ब्रह्माण्डपुराण
स्वर - विष्णु कुमार श्रीवास्तव
जज्वलुस्त्वग्निहोत्राणि जायमाने जनार्द्दने।
शिवाश्च प्रववुर्वाताः प्रशान्तमभवद्रजः ॥२,७१.२०४॥
ज्योतींष्यभ्यधिकं रेजुर्जायमाने जनार्द्दने।
अभिजिन्नाम नक्षत्रं जयन्ती नाम शर्वरी ॥२,७१.२०५॥
मुहूर्त्तो विजयो नाम यत्र जातो जनार्द्दनः।
अव्यक्तः शाश्वतः कृष्णो हरिर्नारायणः प्रभुः ॥२,७१.२०६॥
जज्ञे तथैव भगवान्मायया मोहयन्प्रजाः।
आकाशात्पुष्पवृष्टिं च ववर्ष त्रिदशेश्वरः ॥२,७१.२०७॥
गीर्भिर्मङ्गलयुक्ताभिस्तुवन्तो मधुसूदनम्।
महर्षयः सगन्धर्वा उपतस्थुः सहस्रशः ॥२,७१.२०८॥
वसुदेवस्तु तं रात्रौ जातं पुत्रमधोक्षजम्।
श्रीवत्सलक्षणं दृष्ट्वा हृदि दिव्यैः स्वलक्षणैः ॥२,७१.२०९॥
०८. स्कन्दपुराण (प्रभास खण्ड)
स्वर - अनुराग शर्मा
अभिजिन्नाम नक्षत्रं जयंतीनाम शर्वरी।।
मुहूर्तो विजयो नाम यत्र जातो जनार्द्दनः।।७.१.१९.९०।।
देव्युवाच।।
नोक्तं यथावदखिलं भृगुशापविचेष्टितम्।।
पूर्वावतारान्मे ब्रूहि नोक्तपूर्वान्महेश्वर।।९१।।
ईश्वर उवाच।।
यदा तु पृथिवी व्याप्ता दानवैर्बलवत्तरैः।।
ततः प्रभृति शापेन भृगुनैमित्तिकेन ह।।९२।।
जज्ञे पुनःपुनर्विष्णुः कर्त्तुं धर्मव्यवस्थितिम्।।
धर्मान्नारायणः साध्यः संभूतश्चाक्षुषेंतरे।।९३।।
०९. कूर्मपुराण
स्वर - अनुराग शर्मा
वसुदेवावन्महाबाहुर्वासुदेवो जगद्गुरुः।
बभूव देवकीपुत्रो देवैरभ्यर्थितो हरिः ॥१,२३.६९॥
रोहिणी च महाभागा वसुदेवस्य शोभना।
असूत पत्नी संकर्षं रामं ज्येष्ठं हलायुधम् ॥१,२३.७०॥
स एव परमात्मासौ वासुदेवो जगन्मयः।
हलायुधः स्वयं साक्षाच्छेषः संकर्षणः प्रभुः ॥१,२३.७१॥
भृगुशापच्छलेनैव मानयन्मानुषीं तनुम्।
बभूत तस्यां देवक्यां रोहिण्यामपि माधवः ॥१,२३.७२॥
उमादेहसमुद्भूता योगनिद्रा च कौशीकी।
नियोगाद्वासुदेवस्य यशोदातनया ह्यभूत्॥१,२३.७३॥
ये चान्ये वसुदेवस्य वासुदेवाग्रजाः सुताः।
प्रागेव कंसस्तान् सर्वान् जघान मुनिपुङ्गवाः ॥१,२३.७४॥
सुषेणश्च तथोदायी भद्रसेनो महाबलः।
ऋजुदासो भद्रदासः कीर्तिमानपि पूर्वजः ॥१,२३.७५॥
हतेष्वेतेषु सर्वेषु रोहिणी वसुदेवतः।
असूत रामं लोकेशं बलभद्रं हलायुधम् ॥१,२३.७६॥
जातेऽथ रामे देवानामादिमात्मानमच्युतम्।
असूत देवकी कृष्णं श्रीवत्साङ्कितवक्षसम् ॥१,२३.७७॥
१०. ब्रह्मवैवर्तपुराण (४.७.६०-७२)
स्वर - विष्णु कुमार श्रीवास्तव
बभूव जलवृष्टिश्च निश्चेष्टा मथुरा पुरी।
घोरान्धकारनिविडा बभूव यामिनी मुने॥
गते सप्तमुहूर्ते तु चाष्टमे समुपस्थिते।
वेदातिरिक्ते दुर्ज्ञेये सर्वोत्कृष्टे शुभेक्षणे।
शुभग्रहैर्दृष्टलग्नेऽप्यदृष्टे चाशुभग्रहै:॥
अर्द्धरात्रे समुत्पन्ने रोहिण्यामष्टमीतिथौ।
जयन्तीयोगयुक्ते च चार्द्ध चन्द्रोदये मुने॥
दृष्ट्वा दृष्ट्वा क्षणं लग्नं भीता: सूर्य्यादयस्तथा।
गमने क्रममुल्लङ्घ्य जग्मुर्मीनं शुभाशुभा:॥
सुप्रसन्ना ग्रहा: सर्व बभूवस्मत्र संस्थिता:।
एकादशस्थास्ते प्रीत्या मुहूर्तं धातुराज्ञया॥
ववर्षुश्च जलधरा ववुर्वाता: सुशीतला:।
सुप्रसन्ना च पृथिवी प्रसन्नाश्च दिशो दश॥
ऋषयो मनवश्चैव यक्षगन्धर्वकिन्नरा:।
देवा देव्यश्च मुदिता ननृतुश्चाप्सरोगणा:॥
जगुर्गन्धर्वपतयो विद्याधर्य्यश्च नारद।
सुखेन सस्रुवुर्नद्यो जज्वलुश्चाग्नयो मुदा॥
नेदुर्दुन्दुभय:स्वर्गे चानकाश्च मनोरमा:।
प्रफुल्लपारिजातानां पुष्पवृष्टिर्बभूव ह॥
जगाम सूतिकागेहं नारीरूपं विधाय भू:।
जयशब्द: शङ्खशब्दो हरिशब्दो बभूव ह॥
एतस्मिन्नन्तरे तत्र पपात देवकी सती।
नि:ससार च वायुश्च देवकीजठरात्तत:॥
तत्रैव भगवान्कृष्णो दिव्यरूपं विधाय च।
हृत्पद्मकोषाद्देवक्या हरिराविर्बभूव ह॥
अतीवकमनीयञ्च शरीरं सुमनोहरम्।
११. भविष्यपुराण (उत्तरपर्व ४.०५५)
स्वर - दत्तराज देशपाण्डे
सिंहराशिगते सूर्ये गगने जलदाकुले।।
मासि भाद्रपदेऽष्टम्यां कृष्णपक्षेऽर्धरात्रके।।
वृषराशिस्थिते चन्द्रे नक्षत्रे रोहिणीयुते।।१४।।
वसुदेवेन देवक्यामहं जातो जनाः स्वयम्।।
एवमेतत्समाख्यातं लोके जन्माष्टमीव्रतम्।।१५।।
आमुख चित्र आभार : pixabay.com,
लेख संंयोजन : योगेन्द्र सिंह शेखावत
मेरे लिए लेख में समाहित जानकारी अभूतपूर्व व रोचक हैंI इस लेख के साथ श्लोकों के उचारण संकलन सोने पे सुहागा हैंI जैसा की पहले ही बताया गया की कृपा अरोरा बच्ची हैं, फिर भी कृपा अरोरा का उच्चारण काफी साफ व आवाज सधी हुई व ठहरी हुई हैं, जो की आश्चर्यचकित करने वाली हैंI इस बच्ची कृपा अरोरा का प्रयास सराहनीय हैंI माता सरस्वती की कृपा सदैव कृपा अरोरा पर बनी रहेंI
वाह
आनन्द आ गया। सभी योगदानकर्ताओं को साधुवाद।