क्षमाभाव (forgiveness) का आधुनिक मनोविज्ञान में विशेष स्थान है, विशेष रूप से मनोचिकित्सा उपचार एवं परामर्श (therapy and counselling) में। लोकप्रिय आत्म-साहाय्य (self-help) पुस्तकों का तो यह एक प्रिय शब्द है ही। विगत वर्षों में क्षमा की मनोवैज्ञानिक परिभाषा निर्धारित करने तथा विभिन्न संदर्भो में इससे होने वाले लाभ पर अनेक अध्ययन हुए हैं।
फ़्लोरिडा स्टेट विश्वविद्यालय के प्रो फ़िंचम ने वर्ष २००० में प्रकाशित एक अध्ययन में क्षयमान वैवाहिक तथा भावनात्मक सम्बन्धों को पुनर्जीवित करने में क्षमा की महत्ता दर्शायी। वर्ष २००६ में उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ क्षमाभाव पर हुए अध्ययनों की विस्तृत समीक्षा भी प्रकाशित की। परस्पर सम्बन्धों, विभिन्न समुदायों के बीच मतभेद, सहकर्मियों के बीच मतभेद जैसे विषयों पर हुए अध्ययनों में क्षमाभाव एक मुख्य मानसिक हल के रूप में उभरा आया है।
वैसे तो यह स्वभाविक सा ही प्रतीत होता है, भला इसके लिए शोध की क्या आवश्यकता? परन्तु इस विषय पर इतने अध्ययन हुए हैं कि मुख्य अध्ययनों के संकलन से छपी वर्ष २०१५ में प्रकाशित पुस्तक Forgiveness and Health: Scientific Evidence and Theories Relating Forgiveness to Better Health के अनुसार क्षमाभाव में न्यूनता से मानसिक के साथ-साथ शारीरिक स्वस्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं। ये प्रभाव इतने व्यापक होते हैं कि व्यक्ति के आर्थिक, सामाजिक और आध्यात्मिक स्तर को भी प्रभावित करते हैं। क्षमाभाव की अनुपस्थिति को दूसरी दृष्टि से देखें तो – आक्रोश, कटुता, विद्वेष, घृणा, क्रोध और भय का मिश्रण।
अनेक अध्ययनों, यथा https://pubmed.ncbi.nlm.nih.gov/17032096, में यह पाया गया कि मानसिक रूप से क्षमाभाव विकसित करने के उपरांत व्यक्तियों के अन्य स्वास्थ्य सम्बन्धी अभ्यास भी सुधरे तथा उनके अवसाद, व्यग्रता, क्रोध आदि में भी न्यूनता आई। इसके शारीरिक लाभ भी देखने को मिले। इन अध्ययनों के संदर्भ में मनोचिकित्सक तथा परामर्शदाताओं ने विभिन्न प्रणालियों का विकास किया है जिससे व्यक्तियों में क्षमा की भावना विकसित करने में सहायता की जा सके।
इन अध्ययनों का महत्त्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि सामान्य व्यक्ति के जीवन में अवांछित घटित होते ही रहते हैं, जिनमें से कुछ के लिए तो विधिव्यवस्था है तथा अन्य के लिए भगवान जैसी सत्ता और कर्म जैसे दर्शन पर विश्वास जो व्यक्ति को निरन्तर कर्म के पथ पर अग्रसर रखते हैं परन्तु ऐसा नहीं होने पर व्यक्ति में उपजी प्रतिशोध की भावना व्यक्ति के स्वयं का अनिष्ट ही करती है। कभी-कभी ऐसी अवस्था भी होती है जब स्वजनों के बीच ही अनभिलाषित घटनाएँ हो जाती हैं। ऐसे में या तो उन्हें क्षमा कर देना उचित होता है या यह विचार करना कि उन्होंने अनुचित व्यवहार किया तो भी उनके ऐसा करने के क्या कारण रहे होंगे।
मनोविज्ञान ने क्षमाभाव की परिभाषा तो निर्धारित की ही, साथ ही क्षमाभाव क्या नहीं है, इस पर भी विस्तृत शोध हुए। यह तथ्य भी प्रकाशित हुआ कि क्षमा और परिहार (reconciliation ) एक नहीं होकर स्वतंत्र मनोवैज्ञानिक प्रक्रियायें हैं तथा एक का अर्थ दूसरा होना आवश्यक नहीं है।
मनोविज्ञान क्षमा को दो मुख्य रूपों में वर्गीकृत करता है – निर्णयात्मक (decisional forgiveness) और भावनात्मक (emotional unforgiveness )। निर्णयात्मक अर्थात् किसी के प्रति प्रतिशोध की भावना को त्यागकर उसे एक मान्य व्यक्ति के रूप में देखना। परंतु ऐसा करने के पश्चात भी यदि व्यक्ति भावनात्मक रूप से पीड़ित रहता है या पुराने अनुभव मस्तिष्क में आकर व्यथित करते रहते हैं तो ऐसी अवस्था में मानसिक रूप से भी अर्थात् पूर्ण रूप से क्षमा कर इस प्रक्रिया में अपने भीतर सहानुभूति, करुणा इत्यादि गुणों को भी विकसित करने को भावनात्मक क्षमा की संज्ञा दी गयी है। ऐसा करने के लिए मनोचिकित्सक एवं परामर्शदाता व्यक्तियों को आत्म-केंद्रित भावनाओं को छोड़ बृहत् भावनाओं को बढ़ावा देने वाले कार्य करने की अनुशंसा करते हैं। स्वाभाविक है कि यह एक धीमी प्रक्रिया है। मन से कड़वाहट जाने में समय लगता है तथा ऐसी भावनाएँ विकसित करना सरल भी नहीं। यह भी स्पष्ट ही है कि यह समाजिक न होकर आंतरिक एवं व्यक्तिनिर्भर या केंद्रित प्रक्रिया है।
क्षमाभाव के मानसिक लाभ तो स्पष्ट हैं ही, वर्ष २०१५ में Social Psychological and Personality Science में प्रकाशित अध्ययन The unburdening effects of forgiveness: Effects on slant perception and jumping height में यह भी पाया गया कि क्षमा से शारीरिक चुनौतियाँ तक सरल हो जाती हैं यथा – पर्वतारोहण। किसी के प्रति प्रतिशोध तथा आक्रोश से पूर्ण व्यक्ति कोई कार्य करे और यदि वही व्यक्ति क्षमा करके कार्य करे तो कार्य सरल प्रतीत होते हैं। क्षमा के इन लाभों की व्याख्या करने वाला सबसे सरल सिद्धांत है – तनाव में ह्रास का। तनाव जनित प्रतिक्रियाएँ व्यावहारिक, भावनात्मक तथा शारीरिक स्वास्थ्य को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती हैं। इस विषय पर वर्षों से शोध कर रहे प्रो लोरेन तूससैंट ने एक साक्षात्कार में कहा –
Forgiveness is a topic that’s psychological, social and biological, It’s the true mind-body connection.
व्यक्तियों के अनुभव और शोध, दोनों से यही पता चलता है कि मनोचिकित्सकों द्वारा क्षमाभाव की अनुशंसा के व्यवहार में आने वाली सबसे बड़ी समस्या है क्षमाभाव को दुर्बलता समझ लेना। परन्तु वास्तविकता यह है कि क्षमाशील होना तो अधिक शक्तिशाली होना होता है। जिन परम्पराओं में ‘क्षमा वीरस्य भूषणम्’ की मान्यता ही नहीं रही हो, उनमें इसके सत्य होते हुए भी समझना सरल नहीं है।
मनोवैज्ञानिक परामर्श की प्रक्रिया मन्द प्रभावी होते हुए भी सरल है, जिसके मुख्य चरण हैं – अपनी मानसिक अवस्था का अवलोकन, आकलन, उसके बारे में खुल कर बात करना, कारण और परिणामों का विश्लेषण – और इस प्रक्रिया में शनैः शनैः क्रोध को त्याग कर क्षमा तक पहुँचना।
आदिकाल से क्षमा का महत्त्व होते हुए भी इसका मनोविज्ञान अभी नवीन ही है तथा उसमें मतो की भिन्नता होते हुए भी अंततः सत्य तो वही है जो भिन्न मतों में एक सा है। उस सत्य को किस प्रकार ग्राह्य करना है उसकी प्रणाली भले नवीन प्रतीत हो परंतु क्षमा और दया को तो सनातन दर्शन के सर्वश्रेष्ठ गुणों में माना गया है –
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता ।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥
इस श्लोक की व्याख्या में अक्रोध और क्षमा का भेद करते हुए शंकराचार्य लिखते हैं – क्षमा आक्रुष्टस्य ताडितस्य वा अन्तर्विक्रियानुत्पत्तिः? उत्पन्नायां विक्रियायाम् उपशमन् अक्रोधः इति अवोचाम। इत्थं क्षमायाः अक्रोधस्य च विशेषः। अर्थात् उत्पन्न हुए विकारको शान्त कर देना तो अक्रोध के नामसे जाना जाता है, क्षमा का अर्थ हुआ गाली दी जाने या ताड़ना दी जाने पर भी अन्तःकरण में विकार उत्पन्न न होना।
अधिक क्या, धर्म के लक्षणों में भी क्षमा को विशेष स्थान प्राप्त है –
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौच मिन्द्रियनिग्रहः।
धी र्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ॥
सनातन परम्परा के ग्रंथों में क्षमा की महत्ता और विश्लेषण के संदर्भो से तो एक ग्रंथ ही बन जाए! महाभारत के वनपर्व के उन्तीसवें अध्याय में युधिष्ठिर द्वारा क्रोध की निंदा तथा क्षमाभाव की प्रशंसा का विशेष प्रसंग है जिसमें क्षमाभाव की विस्तार से चर्चा है। यही नहीं तथागत भी जहाँ दया, क्षमा एवं करूणा के प्रतिमान रहे, वहीं जैन धर्म में तो पर्युषण पर्व और क्षमा पर्व में मन में उपजे तापों एवं विकारों पर विचार कर उनका त्याग कर शुद्धि पर्व मनाने की परम्परा ही है। अर्थात् सनातन परम्परा का पालन करें तो मनोचिकित्सा तो स्वतः ही होती रहे।
इस सुदंर और सामयिक लेख के लिए धन्यवाद, स्यात इस समय हमे ऐसे ही लेख की आवश्यकता थी ।पुनः धन्यवाद, मघा ने हमेशा हमे श्वेत धवल मोती समान लेख प्रदान किए।
इस सुदंर और सामयिक लेख के लिए धन्यवाद, स्यात इस समय हमे ऐसे ही लेख की आवश्यकता थी ।पुनः धन्यवाद, मघा ने हमेशा हमे श्वेत धवल मोती समान लेख प्रदान किए।