विवेकानंद ने एक बड़ी बात कही थी, जिसे वेदान्त के निचोड़ कथनों में से एक माना जा सकता है – निर्भय बनो। जो कुछ भी तुम्हें निर्बल करता हो, त्याज्य है।
भय एवं बल रोचक युग्म हैं। जिसे भय न हो, उस पर बल क्या कर लेगा? इस तथ्य के अच्छे एवं बुरे, दोनों प्रयोग हो सकते हैं किंतु इसे कोई काट नहीं सकता। महजब प्रसार हेतु मस्तिष्क प्रक्षालित आतंकवादी एवं धर्म की स्थापना तथा रक्षण हेतु प्राणों का भय तज लड़ते योद्धा क्रमश: बुरे एवं अच्छे प्रयोगों के उदाहरण हैं। भय निर्बल करता है, अत: त्याज्य है। सामान्यतया लोग भय को सावधानी से जोड़ते हैं, मराठी में आसन्न सङ्कट हेतु भी इसका प्रयोग होता है। पुलिस को हम आरक्षी बल कहते हैं। इनके प्रयोग के अनेक उदाहरण हैं किंतु विवेकानंद के भय एवं बल, बहुत ही व्यापक एवं गहन अर्थ रखते हैं।
भय अतार्किक अनागत अशुभ की आशंका है जो शुभ कर्म करते हुये भी साथ बना रहता है। कहते हैं न, हवन करते हाथ जलने का भय। परिवर्तन कहीं बुरे परिणाम न लाये इस हेतु यथास्थिति में पड़े रहना भय है। संतुलन की बातें होती हैं किन्तु इतिहास के समस्त निर्णायक बिंदुओं पर संतुलन पगे भय से नहीं, भयमुक्त हो निर्णय लेने से दिशा परिवर्तन हुआ। एक राष्ट्र हेतु सदैव भयमुक्त हो निर्णय लेना ही होता है। यदि निर्णय नहीं लिया तो उसे निर्बल रहना ही है – यह एक प्राकृतिक सत्य है। उसका कारण यह है कि राष्ट्र कोई समरस इकाई नहीं होती। समरसता के प्रयास होते रहने चाहिये किंतु उन्हें ठोस, स्पष्ट एवं भयमुक्त निर्णयों की गोद में ही खेलना होता है। गोद रहेगी ही नहीं तो बच्चा खेलेगा कहाँ?
पाँच वर्ष पूर्व भारत की जनता ने जो निर्णय लिया था, वह यथास्थिति से दु:खी हो उसे परिवर्तित करने का सामान्य निर्णय नहीं था। कहीं न कहीं, भारतीय मानस पहली बार औपनिवेशिक प्रभाव से धमनियों में बैठ गये भय से मुक्त होने की अव्यक्त चाहना से भी पगा हुआ था। भारत को इसके बहुसंख्य से काट कर देखने समझने वाले जो कहते रहे हैं, उसमें भी भय एवं बल की संकीर्ण समझ ही काम करती रही है।
उसके आगामी पाँच वर्षों में चाहे जो हुआ, उसका सकल प्रभाव यह रहा कि इस बार अवांछित के भय से मुक्त हो जनता ने बल के पक्ष में मतदान किया। कारण स्पष्ट थे कि उसने ऐसा बहुत कुछ घटित होते देखा था जो कि पूर्वकाल में उसके लिये आकाशकुसुम की ही भाँति था। इस बार का निर्णय ग्रामीण भारत का, गँवई भारत का भावुक निर्णय नहीं, मुक्त हो, सचैतन्य आगे बढ़ कर सशक्तीकरण की दिशा में लिया गया निर्णय रहा। यह उस भारत का निर्णय है जिसने अपनी सम्भावनाओं का सत्य साक्षात्कार कर लिया है तथा जो बली हो प्रगति के अगले ऊर्जापरिपथ में पहुँचना चाहता है। स्वाभाविक ही है कि सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अपेक्षायें भी इस बार बहुत बढ़ी होंगी। देखना यह होगा कि आगामी पाँच वर्षों में भारत कितना ‘बल’ प्राप्त कर सकता है, वह बल जो केवल बाहुबल न हो कर समस्त अस्तित्त्व का समेकित बल है। शिक्षा एवं गाँव – बृहद एवं अप्रतिहत सुधारों हेतु ये दो बड़े क्षेत्र आगामी पाँच वर्षों की प्राथमिकता में होने चाहिये।
संक्षेप में कहें तो इन दो की समस्याओं के कारण यह युवा देश जाने कितने मानव-वर्ष गँवाता रहा है। वह ऊर्जा, वह क्षमता जो निर्माण हेतु लगने थे, मार्ग संधान में एवं अवांछित समझौतों में लगते रहे हैं। हमारी समस्या संसाधनों के दक्ष प्रयोग की रही है, जिनमें मानव संसाधन सर्वोपरि है। पृष्ठ के पृष्ठ सैकड़ो ग्रंथ, पुस्तकें लिखी जा सकती हैं, वाद-विवाद-संवाद विमर्श चलते रह सकते हैं एवं अनंत किंतु परंतु भी किंतु जो सचाई है, वह यही है कि हम, एक राष्ट्र के रूप में, अपनी क्षमताओं का दक्ष दोहन एवं उपयोग नहीं कर पा रहे। जब विवेकानंद ने मात्र सौ हृदयी, समर्पित, निस्स्वार्थ, बली एवं निर्भय युवकों के मिलने पर सम्पूर्ण देश को परिवर्तित कर सकने की बात किये थे तो वह भारत के विभव को देख रहे थे, उन्हीं सम्भावनाओं की प्रस्तावना लिख रहे थे जिन पर आज व्यास पद्धति से पोथे लिखे जाते हैं। अद्भुत लेखन एवं वक्तृतायें धरी की धरी रह जाती हैं, सुखद परिवर्तन तो कर्मठों के उद्योग से ही होते हैं। वक्तृतायें यदि मात्र भङ्गिमायें हों, उद्देश्य साधने हेतु हों तो कोई बात नहीं किन्तु अपने ही छद्म में फँस जाने पर लक्ष्यसिद्धि असम्भव ही है। ये पाँच वर्ष सर्वाङ्गीण रूप से इस प्रकार लगाने होंगे कि समय-ऊर्जा-बल के दक्ष प्रयोग की सिद्धि हो, कोई भी संसाधन व्यर्थ न हो।
इस सिद्धि के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा छद्म हाहाकार, कोलाहल एवं आलाप विलाप होंगे। परिवर्तन के मार्ग में घड़ियाली आँसू सबसे बड़ी बाधा होते हैं क्यों कि वे मार्ग में पंक अनूप रच देते हैं जिनमें आगे बढ़ते रथचक्र फँस जाते हैं। इस कारण ही विश्वास द्वारा कथित संतुलन को साधने की कूटरचना में फँसने के स्थान पर भयमुक्त निर्णय एवं कर्म पर ही सकल रूप में केंद्रित होने की आवश्यकता है…
…प्राप्य वरान्निबोधत। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति॥