Alpha, Beta and Proxima Centauri , चित्र स्रोत : Skatebiker at English Wikipedia [GFDL (http://www.gnu.org/copyleft/fdl.html) or
CC BY-SA 3.0 (https://creativecommons.org/licenses/by-sa/3.0)], via Wikimedia Commons
अति दूरस्थ तारों एवं आकाशीय संरचनाओं की दूरी प्रकाश वर्ष में बतायी जाती है। एक प्रकाशवर्ष प्रकाश द्वारा एक वर्ष में चली गयी दूरी होती है, जिसका लगभग मान 95 खरब किलोमीटर होता है। इसकी विशालता का अनुमान इससे लगा सकते हैं कि यदि 500 किलोमीटर प्रति घण्टे वेग वाली बुलेट ट्रेन इस दूरी को बिना रुके पूरी करे तो उसे 21 लाख 60 हजार वर्ष लगेंगे।
सौर मण्डल से निकटतम तारासमूह 4.3 प्रकाश वर्ष की दूरी पर अल्फा सैण्टौरी है जबकि सुन्दर निहारिका देवयानी 25 लाख प्रकाश वर्ष की दूरी पर है। जब हम इन ब्रह्माण्डीय दूरियों पर ठहर कर सोचते हैं तो आश्चर्य में यही ध्वनित होता है – बाप रे! अंग़्रेजी में astronomical ऐसे ही नहीं कहते हैं।
दिक् की इस व्यापकता का अन्य महत्वपूर्ण आयाम है – काल। प्रकाश के वेग की सीमा पर सोचिये तो! स्पष्ट होगा कि आप आज का अल्फा सेण्टौरी न देख कर लगभग साढ़े चार वर्ष पहले वाला देख रहे हैं, आज जो प्रकाश वहाँ से चला होगा, वह तो आप की आँखों तक सन् 2025 ई. तक पहुँचेगा! देवयानी की सोचिये तो आप जिसे अभी देख पा रहे हैं वह तो 25 लाख वर्ष पहले की स्थिति है। आप किसी भी प्रकार से उसकी वर्तमान स्थिति नहीं जान सकते। पता नहीं, बची भी है या नहीं?
निहितार्थ यह हुआ कि हम अपने दिक् आयाम में एक साथ भूत एवं वर्तमान से साक्षात हैं। भविष्य का हमें पता नहीं है, न यहाँ का, न देवयानी का। देवयानी का भविष्य तो हमारे जाने कितने भविष्य युगों को लील ले!
भारतीय मनीषा की चेतना एवं बोध की गहराई इसी से पता चलती है कि जहाँ भौतिक उपादानों के माध्यम से कदापि न पहुँच सकें, उन आयामों की बातें अनुभूतियों के आधार पर की गईं। यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे की विचार तरणि पर आरूढ़ चलते हुये जाने कितनी अटूट व्यवस्थायें की जाती रहीं, उनमें परिवर्तन एवं संशोधन भी होते रहे। मनुष्य, देवता, दनुज, प्रकृति, परमात्मा, स्थावर, जङ्गम सब एक विराट चिंतन पद्धति के अङ्ग होते चले गये। काल एवं दिक् की सीमायें रही ही नहीं।
इस प्रकार देखेंगे तो पायेंगे कि जो वर्तमान है, वह भूत का गढ़ा हुआ है। भविष्य को जो वर्तमान आकार देगा, वह तो वस्तुत: है ही नहीं। पलक झपकने के समय निमिष से भी सूक्ष्मतर होते होते शून्य की स्थिति ही वर्तमान होती है। विज्ञान एवं गणित वाले लिखते हैं ⍍t➛0, क्षण, क्षणिक। वर्तमान क्षणिक होता है। हम सुविधा के लिये उसे दिन, सप्ताह, मास, वर्ष इत्यादि इकाइयों में जड़ीभूत नाम दे देते हैं। आप के पास संघनित भूत है, भविष्य की सम्भावनायें हैं जो क्षण क्षण क्षरित व्यतीत कथित वर्तमान की परिणति होंगी, वास्तव में वर्तमान तो है ही नहीं!
इसका अर्थ यह हुआ कि आप को सतत जागृत रहना है अन्यथा भूत एवं वर्तमान दोनों से हाथ धो बैठेंगे। हम तो सदियों तक सोये रहे! जब मैं ‘हम’ कह रहा हूँ तो पुन: दिक्काल के आयाम में ही कह रहा हूँ। हमारे माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, प्रपितामह प्रपितामही … सभी ‘हम’ में सम्मिलित हैं। निरन्तरता की धारा को समझते हुये, विवाह में सात पीढ़ियों तक के नाम दुहराते हुये ‘हम’ कहीं अपनी त्रिकालदर्शिता से च्युत भी होते रहे। कारण कुछ अन्य नहीं, क्षणिक स्वार्थ, क्षणिक अहम्, क्षणिक लाभ हानि विचार रहे। हमारा जो क्षणिक रहा वह शताब्दियों की परास में था। पाँच वर्ष, बीस वर्ष, पच्चानबे वर्ष करते करते हम मन्वन्तर परार्द्ध सृष्टि लय तक पहुँच गये किन्तु हमारा वह वर्तमान हाथों से छूटता रहा जो भूत एवं भविष्य गढ़ता है।
आज जो समस्यायें दिखती हैं, वे एक दिन में नहीं हुईं, सञ्चयी हैं। उनमें हमारे जाने कितने युग समाये हुये हैं। स्पष्ट है कि परिवर्तन भी सञ्चयी ही होगा। जाने कितने लघु क्षण मिल कर हमारी नियति होंगे, हमारा इतिहास गढ़ेंगे। तो कुछ करना है तो यही, यही क्षण ही उपयुक्त समय है। न सोचिये, न भविष्य पर छोड़िये। छोड़ा हुआ, काल का क्षरण करता हुआ जब समक्ष होगा तो वर्तमान की ही भाँति ⍍t➛0 होता हाथ से निकल जायेगा। नित्य यह स्मृति रखें कि आप में, हम में केवल मैं ही नहीं, जाने कितनी पीढ़ियाँ समाहित हैं। आप का स्वतन्त्र अस्तित्त्व है ही नहीं, पश्चिम ने इसे युद्धों में हुये विनाश से सीखा, पूरब को शांति के नेपथ्य में चल रहे नाश से सीखना होगा। जितनी शीघ्र सीख लें, डट कर काम करने लगें, उतना ही उत्तम। नहीं करेंगे तो आप कृतघ्न हैं, आप के समान पापी कोई अन्य नहीं!
जो उद्योगी एवं लक्ष्य आराध्य समर्पित चिरञ्जीवी हनुमान हैं न, आज उनके जन्मदिवस पर उनसे ही सीख लें। ढूँढ़िये तो अन्य किन सभ्यताओं में दिक्काल को निज अस्तित्व से मापते चिरञ्जीवियों की अवधारणा है? ⍍t➛0 भी यहीं हुआ, प्राचीन गणित उठा कर देखिये, चिरञ्जीवी भी यहीं हुये। इन दो सीमाहीन सीमाओं के बीच हमने समूची सृष्टि की लय का चक्का चला दिया।
हमको कुछ विशेष करना बनता है या नहीं?