दिन सदैव सूरज का, लघु कहानी : वियतनाम, एशिया
त्रान थान्ह हा
अन्तत: मैं घर से 15 किलोमीटर दूर एक माध्यमिक विद्यालय में अध्यापन का काम पाने में सफल हुई। यह दूरी लगभग मेरे घर से नगर तक की दूरी इतनी ही थी। “क्या? तुमने उसे स्वीकार लिया, सच में?” थुऑङ्ग मौसी ने पूछा।
“मैं और क्या कर सकती हूँ?”, मैंने उत्तर दिया।
अपने निर्णय के बारे में जब मैंने अपने मनमीत आन को बताया तो उसे आश्चर्य नहीं हुआ। उसने कहा,”हम्म। अपने जीवनकाल में हम सदैव ऐसे भ्रम की चाहना रखते हैं।” मुझे अच्छा नहीं लगा किंतु वह केवल मुस्कुराया भर।
“सोचती हूँ कि कुछ समय, एक या दो वर्ष काम करूँगी। जब हम सुयोग्य हो जायेंगे तो विवाह कर लेंगे,” मैंने कहा। मौसी ने व्यंग्य कसा,”ओह, मिली एक बुद्धिजीवी!”
“तुम अपनी विद्वता का अहंकार प्रदर्शित कर रही हो, नहीं?” मौसी ने व्यंग्यपूर्वक टिप्पणी की। उनकी कटुता सकारण थी क्यों कि मैंने उनका सहायता प्रस्ताव ठुकरा दिया था – मुझे अच्छा वेतन देने वाले एक विदेशी निकाय में काम करना था।
“वह नहीं। मैं केवल चाहती हूँ कि …,” मैंने कहना आरम्भ किया। उन्हों ने क्षेप किया,”ऐसा ही हो। जीवन बहुत पहले ही तुम्हें स्वावलम्बी होने की सीख दे देगा। किंतु तुम्हारे प्रेमी का क्या? उसका क्या कहना है?”
मैंने उत्तर दिया,”अभी, कुछ समय के लिये हमें एक दूसरे से दूर रहना होगा। जब भी हम दोनों को लगेगा कि हम साथ साथ रहने योग्य हो गये हैं तो हम …।”
“तुम कितनी कल्पनाजीवी हो!” मैंने वार्तालाप का अंत कर दिया क्यों कि मैं जानती थी कि आगे बात झगड़े तक पहुँच जायेगी। मुझे तब भी दु:ख ही था कि उन्हों ने मेरे स्पष्टीकरण पर कान नहीं दिया।
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मामा हुङ्ग के पश्चात थुऑङ्ग मौसी मेरी माँ की सबसे छोटी सहोदर थी। माँ प्यारी थी और मौसी सुंदर। मौसी की आँखें कोयले सी काली थीं। उनकी नाक सीधी एवं सुगढ़ सुकुमार थी। उनके ओठ पाटलवर्णी एवं त्वचा गोरी, लालिमायुक्त थी। किंतु वह जन्मजात लंगड़ी थीं। दुर्भाग्य से आगे यह दोष एक बड़ी हानि बन गया। माँ ने मुझे बताया था कि मौसी गणित में बहुत अच्छी थी। एक जिलास्तरीय गणित प्रतियोगिता में वह प्रथम आई थी। उसके विद्यालय के बच्चों ने उसका नाम बिगाड़ कर ‘लँगड़ी’ कर दिया था। अपनी प्रतिभा का गर्व उसके दोष की क्षतिपूर्ति करने में असमर्थ था। वह प्राय: हृदयविदारक रूदन किया करती थी। विचलित हो कर नानी ने उनसे कहा,”प्यारी, तू घर पर मेरे पास रहा कर। तुम्हें अब और विद्यालय जाने की आवश्यकता नहीं।”
किंतु मौसी ने उत्तर दिया,”मैं लंगड़ी हूँ। यह एक ही बड़ा दोष है। यदि मैं अशिक्षित भी रह गई तो वह तो और भी बड़ी बुराई होगी। मुझे सभी तिरस्कार पूर्वक देखेंगे।”
उन्हों ने विद्यालय में अच्छा किया। जब उन्हों ने विशेष योग्यता के साथ अपनी माध्यमिक परीक्षा उत्तीर्ण की तो विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षाओं में भाग लीं तथा उच्च अंकों से उत्तीर्ण हुईं। किंतु महाविद्यालय ने उन्हें मात्र इस कारण घर वापस भेज दिया कि वह लंगड़ी थीं। वर्ष भर वह युवतियों के बटुये एवं झोले की सिलाई पुराई का काम करते हुये घर पर पड़ी रहीं। जब हुंग मामा ने अपने विवाह हेतु सब कुछ पूरा करने के लिये नगर में अपना आवास बनवाया तो मौसी ने उनसे कहा,”मुझे भी अपने साथ ले चलो। वहाँ मैं तुम्हारे बच्चों की देखभाल करूँगी।” वह सहमत हो गये। अत: वह अपने बड़े भाई के साथ साथ नगर आ गईं। नानी ने कहा,”वह वहाँ दु:खी रहेगी।” माँ ने दृढ़ हो कहा,”वह जो चाहती है, करने दो।”
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अपने भाई के छोटे से परिवार के साथ रहते हुये एवं दिन में एक रिक्त घर में सिलाई के अतिरिक्त कोई अन्य काम न होने से विरक्त हो मौसी पास के एक पंसारी के आपण पर जाने लगी तथा वहाँ घण्टों बैठी रहती। उनकी उपस्थिति से वहाँ आने वाले ग्राहकों की संख्या निश्चित रूप बढ़ गई। आपण स्वामी ने मौसी को काम का प्रस्ताव दिया और वह एक विपणन बाला बन गई। उस मार्ग से जाने वाले, विशेषकर युवक, उनकी सुंदरता से आकर्षित हो वहाँ रुक कर अपने को वस्तुत: अनावश्यक वस्तुओं के क्रय से अपने को रोक नहीं पाते थे। नानी ने उनसे कहा,”प्यारी, विवाह करने को यह बहुत उपयुक्त समय है।” मौसी ने उत्तर दिया,”दस में से नौ पुरुष मेरी देह के ऊपरी दो तिहाई भाग को चाहते हैं, निचले एक तिहाई भाग को नहीं।”
कालांतर में मामा ने अपने घर के अगले भाग में एक आपण खोल दिया जिससे कि मौसी स्वयं व्यापार कर सकें। मौसी के पुराने आपण वाले ग्राहक अब वहाँ जाने के स्थान पर उनके अपने आपण पर आने लगे। वर्ष बीतते गये, लाभ भी दिन दूना रात चौगुना बढ़ता गया। नानी उच्छवास लेतीं,”मेरी एक ही आशा बची है कि यह शीघ्र ही विवाहिता हो जायेगी किंतु लगता नहीं कि वैसा कुछ होने वाला है।” मौसी मुस्कुरा भर देतीं। उनके यहाँ ग्राहकों की संख्या बढ़ती रही।
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शिक्षा हेतु मेरे महाविद्यालय जाने तक मौसी अपना स्वयं का घर बना चुकी थीं। यद्यपि वह बहुत सुख-सुविधा युक्त नहीं था, परंतु आकर्षक एवं सुखद बना था। मेरे माता-पिता निर्धन कृषक वर्ग से थे एवं परिवार भी बड़ा था, अत: चार वर्षों तक मेरी पढ़ाई एवं जीवनयापन पर होने वाले व्यय का अधिकांश मौसी ने ही उठाया। मौसी अभी भी युवा थीं, मैं एक युवती होती किशोरी और मैं माँ की अपेक्षा उनके अधिक निकट हो गई। मैं प्राय: उनके यहाँ, सामान्यत: छुट्टियों में, अपने महाविद्यालय एवं नगर के मध्य की लम्बी दूरी की यात्रा कर जाया करती थी। बहुधा मैं उनकी गोद में अपने मुख गड़ा लेती और रूदन के बाँध तोड़ देती। “तुम्हें उसकी समस्याओं का अनुभव तब ही हो सकता है, जब तुम प्रेम करने लगो।,”वह कहतीं।”हिया भर रो लो किंतु निराश न हो।”
जब मैं आन के साथ बाहर जाने लगी, उन्हों ने आपत्ति नहीं जताई। उन्हों ने मात्र यह कहा,”अब जब कि तुम प्रेम में पड़ गई हो, अच्छा या बुरा जो तुम तक आयेगा, तुम्हें स्वीकार करना होगा।”
माँ हमारे प्रेम प्रकरण के पूर्णत: विरुद्ध थीं क्यों कि आन बहुत दूर काम करता था, मेरे घर से प्राय: एक हजार किलोमीटर दूर और उनकी मति में उसका परिवार व्यापारियों के संदिग्ध वर्ग में से था।
तब मौसी ने मुझे बताया कि उन्हें भी प्यार हो गया था। मुझे बहुत प्रसन्नता हुई।
“आप कब विवाह करने वाली हैं?”
“कभी नहीं।”
इस उत्तर पर मैंने उन्हें चकित हो कर निहारा। तीस की आयु में वह अभी भी बहुत आकर्षक थीं। यह एक अन्याय ही होता कि वैसी सुंदरी किसी की भी प्रेमपात्र नहीं होती। मैं भी यदि किञ्चित उनके या माँ के जैसी होती तो मेरे लिये वस्तुस्थिति बहुत भिन्न हो सकती थी। वरन, गेहुँआ रंग और टेढ़ें नैन मुझे अपने पिता से मिल गये थे।
“मौसी, कृपा कर के मुझे अपने प्रियतम के बारे में बताइये।” मैंने अनुनय किया। वह कुछ क्षण अस्पष्ट मुस्कुराती रहीं, तब कहा,”वह पहले से ही विवाहित है, और अपनी पत्नी एवं संतानों के साथ एक सामान्य जीवन जीता है।”
“एक विवाहित पुरुष?” मेरी साँसें ही टँग गईं। इस डर से कि कहीं मैं उस पुरुष के बारे में बुरा न सोचने लगूँ, उन्हों ने शीघ्रता से जोड़ा,”बल पूर्वक या पोल्हा कर कोई भी मुझे वैसा कुछ करने को बाध्य नहीं कर सकता जो मेरी अपनी इच्छा के विरुद्ध हो।”
किंतु मैं शांत नहीं रहने वाली थी,”वह आप से प्रेम करता है किंतु अपनी पत्नी को छोड़ नहीं रहा, नहीं न? काणिया।” वह कुछ मिनटों तक अपना सिर झुकाये रखीं एवं तब बोलीं,”मुझे लगता है कि उसकी यह कायरता ही मुझे उससे प्रेम करने को विवश करती है। कभी कभी, प्रेम एवं सहानुभूति एक ही विषय के दो पक्ष होते हैं, और कभी कभी दोनों पृथक होते हैं। जहाँ तक मेरी बात है, मुझे जिसकी महती आवश्यकता है वह प्रेम है और वह मिल गया, बहुत है।”
मेरे भीतर कटुता भर गई। मैं क्रुद्ध हुई, सहानुभूति से भर भी उठी। सामान्यत:, वह एक व्यावहारिक महिला थीं, किंतु अब कितनी विश्वासप्रवण और कल्पनारम्य हो गयी थीं!
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उस शनिवार मैं साइकिल से नगर को गई। मुझे सद्य: ही आन का पत्र मिला था जिसमें उसने मुझे त्वरित ही उसके यहाँ पहुँचने को कहा था जिससे हम अपने भावी के बारे में बातचीत कर सकें तथा एक निश्चित निर्णय तक पहुँच सकें। मैं दुविधा में थी। उसके पास जाना या किसी नये की प्रतीक्षा करना। वर्षा ऋतु का मध्यकाल था किंतु उस दिन वातावरण शोभन था। नीला आकाश सुंदर रात का आगम बता रहा था। मैं साँझ समय नगर पहुँची। चौंध मारते प्रकाश तले मोटरसाइकिल या मूल्यवान साइकिलों पर इधर उधर जाते युगलवृन्द, जिनमें से कि अधिकांश प्रसन्न दिखते युवा थे, के बीच साइकिल चलाते हुये मुझे अपने एकांतिक एवं शांत जीवन पर करुणा हो आई। विश्वविद्यालय शिक्षा समाप्त करने के पश्चात मुझे आन के साथ दक्षिण चले जाना चाहिये था या मौसी के सुझाव के अनुसार नगरीय सेवायोजन स्वीकार कर लेना चाहिये था। मैं इनमें से कोई नहीं की। ग्रामीण अञ्चल में ज्ञान प्रसार करने को तत्पर, किसी योद्धा की भाँति मैं अपना सर्वस्व हाथों में लिये एक माध्यमिक विद्यालय में अध्यापक बन कर पहुँच गयी।
एक वर्ष से अधिक बीत गया। आशा के विपरीत मेरा स्वास्थ्य बिगड़ चुका था। क्या कोई परिवर्तन होगा? मैंने स्वयं से पूछा। अधूरे रह गये सपनों की निराशा के अतिरिक्त मेरा एक अन्य हृदयशूल था : हमारा प्रेम किसी और ही दिशा में मुड़ता लग रहा था।
“जब तुम अपने अध्यापन से विरम जाओ, यहाँ आ सकती हो। मैं तुम्हें या तो यह आपण सौंप दूँगी या तुम्हारे लिये एक अत्युत्तम जीवनवृत्ति ढूँढ़ दूँगी।” मौसी ने कहा था। क्या उक्त प्रस्ताव पर उन्हें जाँचने का समय आ गया था?
द्वार पर ताला लगा था। भाग्य से मेरे पास वह अतिरिक्त कुञ्जी थी जो उन्हों ने मुझे दी थी। घर में प्रविष्ट होने पर मैंने टेबल पर अपने लिये एक संदेश पाया : भोजन सामग्री फ्रिज में रखी है, पैसे वार्डरोब में। मैं विलम्ब से आऊँगी। मैंनेखी भोजन बनाया और अकेले ही उदरस्थ किया। तत्पश्चात मैंने टीवी देखा और तब आन का पत्र पढ़ा। “मैं अपने से सदैव पूछता हूँ कि क्या हम वास्तव में एक दूसरे के प्रेम में हैं जब कि हम अभी भी इस प्रकार के वस्तुनिष्ठ तर्क वितर्क में लगे रहते हैं। एक दूसरे के साथ होने हेतु बाधाओं को पार करने का साहस नहीं दिखाते हुये हम केवल इस आशा में हैं कि कुछ सहज स्वाभाविक ही घटित हो जायेगा”, उसने लिखा था।
बाहर एक स्वार सुन कर मैंने खिड़की से जवनी उठा बाहर झाँका। रात के ग्यारह बज रहे थे। मौसी ओरी तले एक लम्बे पुरुष से सटी खड़ी थीं जो अपनी बैसाखी पर झुका हुआ था। घर के भीतर से मैं उन्हें मंद स्वर में कहती हुई सुन सकती थी,”कल यहाँ आओगे? अरे नहीं, परसो ठीक रहेगा। या इसके स्थान पर मैं तुमसे चतुष्पथ पर मिलूँगी।” अद्भुत ज्योत्सना में दोनों एक दूसरे के पार्श्व मौन खड़े थे। मौसी ने पाटल रंग की चोली पहन रखी थी। उनके सुचिक्कण और घने केश कंधों पर उतर आये थे।
लम्बे मौन के पश्चात उस पुरुष ने पूछा,”क्या तुम चंद्रमा को देख सकती हो?”
मौसी ने उसके वक्ष पर अपना सिर टिकाते हुये उत्तर दिया,”हाँ, अवश्य।”
उन्होंने उससे कहा,”मुझे चूमो!”
जब मौसी ने उसका चुम्बन पाने हेतु अपनी देह को सीधा करने का प्रयास किया तो वह सावधानीपूर्वक अपनी बैसाखी को काँख तले लगाते हुये झुक गया। कितना लम्बा, धधकता चुम्बन! मुझे लगा कि उसमें सब थे : सुख, दु:ख एवं लम्बी प्रतीक्षा। मार्ग पर दूर जाती हुई भारी खट खट को जब मैंने सुना तो आधी रात हो चुकी थी, खट, खट, दूर, दूर… ।
***
वह मुझसे सट कर पड़ रहीं, मेरा हाथ ले अपने उदर पर रख दीं। वह फुसफुसाईं,”प्यारी, मुझे बच्चा होने वाला है।” मैं चकित हो गई।
“मैंने सोचा था कि मैं कभी माँ नहीं बनूँगी किंतु अब मैं निश्चित हूँ।”
मैंने पूछा,”आप बहुत प्रसन्न हैं, नहीं?”
“हाँ, परमप्रसन्न।” उनके स्वर में सरल सचाई थी।
“क्या आप निश्चित हैं कि वह आप को वास्तव में प्यार करता है?”
“निश्चय ही। और यदि ऐसा ठीक ठीक नहीं है, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। मुझे उस पुरुष के पार्श्व में रहना है जिसे मैं प्यार करती हूँ। बस!”
“क्या आप दु:ख की सम्भावना से भीत नहीं हैं?”
“यदि तुम हो तो प्रेम से दूर रहो। बस,” मेरी ओर अपने पीठ फेरते हुये उन्हों ने दृढ़तापूर्वक कहा। शीघ्र ही वह निद्रामग्न हो गईं।
मेरी सारी रात करवटों में बीती।
अपनी लम्बी यात्रा हेतु सब कुछ व्यवस्थित करने हेतु अगली प्रात मैं बहुत तड़के ही उठ गई। जब उन्हों ने मुझे सब कुछ समेटते पाया तो बहुत ही आश्चर्यचकित हुईं।
“मैंने जाने का मन बना लिया है, मौसी। मैं आन के घर जा रही हूँ।”
मुझे प्रगाढ़ आलिङ्गन में ले वह आनंदाश्रु बहाने लगीं।
“क्या तुम निश्चित हो कि वहाँ सँभाल लोगी?”
“मुझे निश्चित ज्ञात नहीं। सब कुछ ठीक ही रहेगा, तब तक जब तक कि हम प्रेममय हैं।”
उन्हों ने सिसकी ली,”हाँ, हाँ, ठीक ही है।”
“कोई कठिनाई होने पर मुझे लिखना। किंतु मुझे विश्वास है कि तुम दोनों साथ साथ सुखी रहोगे।”
अरुणोदय हो रहा था। क्षितिज कांतिमान एवं पाटल हो चला था, मानो एक बहुत ही उज्ज्वल भविष्य का आगम बाँच रहा हो। मौसी मुझे अलिंद की ओर ले चलीं एवं शनै: शनै: उदित होते सूर्य की ओर इङ्गित कीं,”जानती हो? दिन सदैव सूरज का होता है।”
उनकी आँखें असंख्य रविरश्मियों के परावर्तन से उद्भासित हो रही थीं।