हम, भारत के लोग, विश्व की कुल कुपोषित जनसंख्या का एक चौथाई अपने में समोये हुये हैं। कुपोषण ग्रामीण, नागर, धनी, निर्धन, मध्यवर्ग इत्यादि सब की वास्तविकता है। खाद्यान्न वितरण के विशाल सरकारी तंत्र पर हमारे सकल घरेलू उत्पादन का एक प्रतिशत व्यय होता है जो कि बहुत बड़ी राशि है तब भी हमारे गोदामों में रखे अन्न का एक बड़ा भाग सड़ जाता है, नष्ट हो जाता है या चूहों द्वारा चट कर लिया जाता है। वह भाग इतना विशाल होता है कि उससे प्रति वर्ष एक ऑस्ट्रेलिया का पेट भरा जा सकता है। सद्य: नष्ट होने वाली खाद्य वनस्पतियों, फलों आदि की स्थिति भी कुछ ठीक नहीं, शीत भण्डारण का व्यापक अभाव है।
हम सम्भवत: ऐसे एक मात्र देश हैं जिसकी प्रति व्यक्ति आय तो बढ़ती जा रही है किंतु प्रति व्यक्ति पोषण उपलब्धता या तो स्थिर है या गिरती जा रही है। अन्न उत्पादक ग्रामीण जनसंख्या की स्थिति नागर जनसंख्या से बुरी है। इन विरोधाभासों ने संसार भर के विशेषज्ञों को कठिनाई में डाल रखा है कि क्या सभी भारतीय बढ़ती आय को पोषण सुधारने में न लगा कर स्विस बैंक में जमा कर रहे हैं! ?
आने वाले कुछेक दशकों में हम संसार के सबसे अधिक जनसंख्या वाले देश होंगे जिसका पेट भरना एक बड़ी चुनौती होगी। एक दशक पहले तक हमारे देश भारत की लगभग 40 प्रतिशत जनसंख्या शाकाहारी थी (दूध उत्पाद शाकाहार में सम्मिलित हैं)। हम संसार के सबसे बड़े दुग्ध उत्पादक देश हैं जबकि अनेक ग्राम अञ्चलों में दूध की उपलब्धता घट रही है। मांसाहारियों की संख्या में इतनी वृद्धि हो कि अन्न एवं भोजन के वानस्पतिक स्रोतों पर निर्भरता पर कोई उल्लेखनीय प्रभाव पड़े, इसकी आगामी कई दशकों तक संभावना नहीं दिखती। ग्रामीण क्षेत्रों में मूलभूत सुविधाओं यथा शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, परिवहन इत्यादि में सुधार के बड़े संगठित आयोजन नहीं हो रहे एवं नगरीय क्षेत्रों में अंधाधुंध अनियंत्रित जनसंख्या की वृद्धि नित नवीन समस्याओं के बीज बो रही है। नियोजन, नियमन एवं अनुशासन, ये तीन देवता, लगता है इस धरा को छोड़ कर चले गये हैं।
हम औसत, माध्यमान, मध्यमान में गणित प्रवीण जन हैं कि एक की आय लाख बढ़ी एवं सौ की धेला भर तो भी प्रतिव्यक्ति आय में लगभग एक हजार की वृद्धि हुई! हम इस आधार पर आगामी समस्याओं की बाढ़ को पार कर लेने की सुखद कल्पना में डूबे हुये हैं कि औसत ठीक है, सभी एक सौ एक बच जायेंगे। आत्महत्या वर्तमान नहीं, भविष्य का भी सच होने वाला है।
इतनी नकारात्मकता भरी परिस्थिति में भी विशेषज्ञों का मानना है कि नियोजन, नियमन एवं अनुशासन यदि हों तो न तो कृषि का क्षेत्रफल बढ़ाने की आवश्यकता है, न सिंचाई क्षमता की, हम अपनी बढ़ती जनसंख्या का पेट भर लेंगे किंतु होगा कैसे? क्या हमारी दिशा ठीक है? विचार करने की आवश्यकता है।
हमारा तंत्र नगर केंद्रित है, नगरीकरण को बढ़ावा देने के पक्ष में है। क्यों है? इसके ढेर सारे उत्तर हो सकते हैं, हैं भी, किंतु एक उत्तर बड़ा अलबेला सा है जिसके अनुसार गाँव ढेर सारी सामाजिक बुराइयों के केंद्र हैं, नगरीकरण से उनका उन्मूलन स्वत: हो जायेगा, अत: गाँवों का गला घोंटना या वहाँ से आव्रजन को बढ़ावा दे नगरों को ‘घेट्टो-झुग्गी-सुसज्जित’ करना परम आवश्यक है। घर में खटमल अधिक हो जायें तो उसमें आग लगा दो!
खटमल से ध्यान आया कि एक रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटिश एयरवेज के वायुयानों में उनकी संख्या बहुत बढ़ गयी है। ‘साइंस’ पत्रिका में छपे एक लेख में बताया गया है कि मानव द्वारा किये जा रहे तीव्र नगरीकरण ने विभिन्न जीवधारियों में अत्यंत धीमी गति से होती क्रम-विकास (Evolution) प्रक्रिया को जैसे जेट पङ्ख लगा दिये हैं। बढ़ते खटमलों का भी कहीं न कहीं मानव के इस हस्तक्षेप से सम्बंध है। भूमिगत रेल प्रणालियों में मच्छरों ने बिना रक्त के जीना सीख लिया है जोकि प्रसन्न होने की बात कतई नहीं है क्योंकि अब वे जाने कितने रोगों के विषाणु, कीटाणु लिये घूम रहे हैं। टोरण्टो विश्वविद्यायल द्वारा किये सम्बंधित अध्ययन से पता चला है कि मानव द्वारा खड़े किये जा रहे ‘नगरीय अवरोधों’ के प्रभाव में पक्षी, छोटे पशु, तिलचट्टे, चूहे इत्यादि जीवधारियों ने प्रकृति के स्थान पर ‘मनुष्य आधारित’ जीवन जीना सीख लिया है जोकि विकास प्रक्रिया का त्वरण है। अनदेखे उत्परिवर्तन तीव्र गति से हो रहे हैं। यह भी पाया गया कि अमेरिकी नागर संरचनाओं के कारण एक दूसरे से विलग हुये चूहों के समूहों ने भिन्न भिन्न पार्कों में बहुत तेजी से प्रजातीय विभिन्नतायें विकसित कर लीं। कहें कि प्रकृति ने जो विकास लाखों वर्षों में किये उन्हें मानव दशकों में किये दे रहा है तो अतिशयोक्ति न होगी। अपने साथ साथ उसने सब कुछ उलट-पुलट, तबाह करने की ठान ली है।
हमारे भारत में एक दूसरे प्रकार के ‘विकास’ का आजकल बहुत जोर है जिसकी कुण्डली कैंसर रोग से मिलती जुलती सी है। थम कर पूछना होगा कि कौन सी दिशा में, कहाँ जा रहे हैं? क्या आवश्यक है कि सभी मूर्खतायें स्वयं कर के ही सीखा जाय? दूसरों के उदाहरण पर्याप्त नहीं हैं क्या? निम्नतर स्तर पर भी संगठित भ्रष्टाचार थमने का नाम नहीं ले रहा। हमारी प्राथमिकतायें जैसे हमारे अपने लिये न हो, किन्हीं परग्रहियों के सपनों के लिये निश्चित की जा रही हैं।
कहीं कोई बहुत भारी गड़बड़ हो रही है, हम चूकते जा रहे हैं। विकास सम्यक या नहीं? क्यों? किसका? कहाँ? कैसे? कितना मूल्य चुका कर? उत्तर पाने ही होंगे, ‘नागर अवरोधों’ के सृजन से बचना ही होगा अन्यथा अन्य जीव तो ‘विकसित’ हो ही रहे हैं, विश्व की भावी सबसे बड़ी राष्ट्रीयता कहीं स्वयं के अस्तित्त्व के लिये घातक ‘जॉम्बी’ बन कर न रह जाय!