भारत में इतिहास को काव्य के माध्यम से जीवित रखा गया। स्वाभाविक ही है कि ऐसे में कवि कल्पनायें नर्तन करेंगी ही। कल्पना जनित पूर्ति दो प्रकार की होती है, एक वह जो तथ्य को बिना छेड़े शृङ्गार करती है, दूसरी वह जो तथ्य को भी परिस्थिति की माँग के अनुसार परिवर्तित कर देती है। दूसरी प्रवृत्ति की उदाहरण रामायण एवं महाभारत, दो आख्यानक इतिहासों, पर आधारित शताधिक रचनायें हैं जिनमें पुराण भी हैं। आख्यान का अर्थ समझ लेंगे तो बात स्पष्ट होगी। आख्यान आँखों देखी रचना होते हैं।
मूल में भी क्षेपक जोड़े गये जिनका अभिज्ञान कठिन है किन्तु असम्भव नहीं।
सूत, कुशीलव, चारण एवं भाँटों के माध्यम से प्रसारित काव्य समन्वित इतिहास गायन सफल तो रहा किन्तुु कथा कहानी प्रिय समाज की कल्पनाओं को प्रश्रय भी देता रहा, उनके अनुकूल रचता रहा। जनमानस को नायक, प्रतिनायक एवं खलनायक का नाट्य प्रिय होता है। अत: काव्य नाटक एवं वीरगाथा अभिनय काव्य भी रचे गये। इन सबने अनेक नितान्त असत्य एवं भ्रामक स्थापनाओं को भी जन्म दिया जिनकी परास सीता की अग्नि परीक्षा से ले कर जयचन्द के द्रोह तक है।
पूरक कथाओं एवं प्रसंगों का उपयोग नैतिक उपदेश एवं समाज शिक्षण हेतु भी हुआ। यदि आज भी अनपढ़ जन से गहन प्रज्ञा की बातें सुनाई पड़ जाती हैं तो उनके नेपथ्य में वही काव्य कथा प्रशिक्षण होता है। इस पक्ष हेतु तो काव्य कल्पनायें ठीक हैं किन्तु उन्हें इतिहास, आँखों देखा विवरण मान लेने से बहुत हानियाँ भी है।
प्रबुद्ध वर्ग को इसका सदैव ध्यान रखते हुये अपनी बात रखनी चाहिये अन्यथा बिना पोथी खोले अंट शंट बकते कथावाचकों का भारत भूमि पर अकाल नहीं है। वे अपना काम कर रहे हैं, आप तो अपना करें।
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वैदिक संहिताओं, ब्राह्मणों, आरण्यकों एवं प्रामाणिक उपनिषदों में भी इतिहास यत्र तत्र बिखरा पड़ा है। पुराण प्रसंगों एवं उनकी तुलना से एक बात स्पष्ट होती है कि अब उपलब्ध पुराणों का पञ्जर किसी बहुत बड़े एवं लम्बे अभियान का परिणाम है। यह तब हुआ होगा जब या तो प्राकृतिक या अन्य आपदाओं के कारण विस्मृति, विलोपन एवं अनध्ययन की लम्बी अवधियाँ बीतीं एवं जो रह गया था, उसे पुनर्सम्पादित किया गया, या लम्बे चले संघर्ष के पश्चात शान्ति स्थापित होने पर सम्पादन किया गया या दोनों का समन्वित कारण रहा।
यह भी आश्चर्यजनक है कि वे परिदृश्य से प्राय: सहसा ही लुप्त भी हो गये। वह कालखण्ड बौद्ध, जैन मतों सहित सत्तर अन्य समकालीन मतों का रहा होगा जब विन्ध्य के उत्तर व्यापक परिवर्तन हुये थे।
भीष्म को पुलस्त्य मुनि ने पद्मपुराण उद्घाटित करते हुये बताया कि एक बार पुष्कर सरस्वती क्षेत्र के दुर्भिक्ष में सप्तर्षियोंं सहित अनेक ऋषि फँस गये। भूख से प्राण पर बन आई तो एक मृत बालक को पका कर खाने चले। तब तक वहाँ राजा पहुँच गया। उसने निषेध करते हुये कहा कि इतना जघन्य कर्म! वह भी ऋषियों द्वारा!! मेरा प्रतिग्रह स्वीकार करें, अन्न, पेय, धन, स्वर्ण आदि सब हैं। सप्तर्षियों हेतु यह शोभनीय नहीं है।
लम्बी बातचीत है। परिणाम जानें कि ऋषियों ने राजा का अन्न वेश्या के अन्न से भी दस गुना पातक बताते हुये मना कर दिया तथा भूखे ही चल दिये।
आप वैदिक याग, यज्ञ एवं अन्य विधान भी देखेंगे तो पायेंगे कि ऋषि तो राजा से अन्न आदि स्वीकार करते ही थे, यहाँ क्या हो गया जबकि आपद्धर्म वाली स्थिति ऐसी बनी थी कि मृत बालक का मांस तक खाने को उद्यत हो गये थे?
दुर्भिक्ष कब आता है? जब या तो लम्बी अनावृष्टि रही हो या अंग्रेजों की भाँति राजा लुटेरा हो या इनकी संयोजी स्थिति हो।
सूखती सरस्वती के साथ तो राजा को कोश खोल देने थे! खोल दिया रहता तो स्वर्ण एवं धनसम्पदा बचते ही नहीं!
कथा इंगित करती है कि कब राजा का अन्न पातक हो जाता है, इतना कि उसकी तुलना में स्वयं ढूँढ़ा गया गर्हित आहार भी ग्राह्य हो जाता है। इस प्रसंग के माध्यम से ऋषि एवं राजन्य, दोनों के कर्तव्यों को रेखांकित कर दिया गया है।
आगे ऋषियों से वेश परिवर्तित किये इन्द्र मिलते हैं जो कि देव राजा हैं। वह प्रसंग भी रोचक है। इतना जानें कि सर्वाराध्य एवं सनातन संस्कृति के प्रतिमान इन्द्र को पुराणों में धूसर कर उनके स्थान पर उप+इन्द्र= उपेन्द्र विष्णु को प्रतिष्ठित करने के नेपथ्य में नर राजाओं हेतु नये आदर्शों की स्थापना का उद्देश्य है। आदर्शों की प्रस्तुति को नवोन्मेषी होना चाहिये अन्यथा यथेष्ट प्रभाव नहीं पड़ता। ‘एक वृक्ष दस पुत्र समाना’ का आज उतना प्रभाव नहीं पड़ेगा जितना वैश्विक तापन (ग्लोबल वार्मिंग) का कारण दे पौधारोपण करने को कहने का। क्षुद्र नारीवादी तो ‘पुत्री क्यों नहीं?’ पूछते वितण्डा करने लगेंगे!
युगसन्धि केवल कालसन्धि नहीं होती, उसमें सहस्राधिक कारक होते हैं। युगसन्धि मानससन्धि भी होती है। उस संक्रमण काल में धर्म को ले कर भीष्म या युधिष्ठिर में जो उहापोह की स्थिति बारम्बार दिखती है, उसमें वे दोषी नहीं। दोनों उस बीत चुके, रीत चुके समय के अन्तिम हस्ताक्षर हैं, जब मनुष्य देवताओं से मनुष्य की ही भाँति संवादित होते थे। उनके सिर बहुत बड़ा भार है। युधिष्ठिर भीष्म एवं कृष्ण के मध्य की स्थिति है।
कृष्ण अवतारी इस कारण है कि वह युगसन्धि के आगे देखते हुये नवोन्मेष करता है।
पुराण शब्द की एक व्युत्पत्ति ‘पुरा नवं भवति’ भी है। सार पर केन्द्रित रहते हुये पुराणों को समकालीन नवीन दृष्टि के साथ नहीं पढ़ने पर सिवाय गुञ्जलकों के कुछ हाथ नहीं लगना! वे राजमार्ग से दिखते हैं जिनकी सिद्धि इसमें ही है कि उनसे अनन्त पगडण्डियाँ निस्सृत हों।