प्राकृत सुभाषित
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निय वसणे होह वज्जघडिय ।
अपने कार्य में वज्रवत दृढ़ रहो। (कुवलयमाला)सिग्घं आरूह कज्जं पारद्धं मा कहं पि सिढ़िलेसु ।
पारद्ध सिढिलियाइँ कज्जाइँ पुणो न सिज्झन्ति ॥
कार्य शीघ्रता से करो, प्रारम्भ किये गये कार्य किसी प्रकार भी शिथिल न करो क्यों कि प्रारम्भ किये गये तथा पुन: शिथिल कर दिये गये कार्य सिद्ध नहीं होते हैं। (वज्जालग्ग)संसारस्स उ मूलं कम्मं तस्स वि हुंति य कसाया ।
विश्व का मूल ‘कर्म’ है एवं कर्म का मूल ‘कषाय’ है। (दशवैकालिक-निर्युक्ति)कसाया अग्गिणो बुत्ता सुयसीलतवो जलं ।
कषायों को अग्नि कहा गया है। उसे बुझाने के लिये ज्ञान, शील एवं तप जल की भाँति हैं। (उत्तराध्ययन)दुक्खं कीरइ कव्वं कव्वम्मि कए पउंजणा दुक्खं ।
संते पउंजमाणे सोयारा दुल्लहा हुंति ॥
काव्य रचना कष्ट से होती है, काव्य रचना हो जाने पर उसे सुनाना कष्टप्रद होता है एवं जब सुनाया जाता है तब सुनने वाले भी कठिनाई से मिलते हैं। (वज्जालग्ग)अबुहा बुहाण मज्झे पढंति जे छंदलक्खणविहूणा ।
ते भमुहाखग्गणिवाडियं पी सीसं न लक्खंति ॥जब विद्वान विरस एवं अशुद्ध काव्य पाठ से ऊब कर भौंहें टेंढ़ी करने लगते हैं, उस समय उनके कटाक्ष से मानों उन मूर्खों के सिर ही कट जाते हैं, परन्तु वे इतना भी नहीं जान पाते। (वज्जालग्ग)
[वाद विवाद की औपनिषदिक परम्परा में समुचित उत्तर नहीं दे पाने वाले के सिर कट कर गिर जाने के उल्लेख मिलते हैं या चेतावनियाँ भी। उन उहोक्तियों का इस प्राकृत सूक्ति से साम्य ध्यातव्य है।]