आ नो॑ गहि स॒ख्येभि॑: शि॒वेभि॑र्म॒हान्म॒हीभि॑रू॒तिभि॑: सर॒ण्यन् । अ॒स्मे र॒यिं ब॑हु॒लं संत॑रुत्रं सु॒वाचं॑ भा॒गं य॒शसं॑ कृधी नः ॥
ए॒ता ते॑ अग्ने॒ जनि॑मा॒ सना॑नि॒ प्र पू॒र्व्याय॒ नूत॑नानि वोचम् । म॒हान्ति॒ वृष्णे॒ सव॑ना कृ॒तेमा जन्म॑ञ्जन्म॒न्निहि॑तो जा॒तवे॑दाः ॥
जन्म॑ञ्जन्म॒न्निहि॑तो जा॒तवे॑दा वि॒श्वामि॑त्रेभिरिध्यते॒ अज॑स्रः । तस्य॑ व॒यं सु॑म॒तौ य॒ज्ञिय॒स्यापि॑ भ॒द्रे सौ॑मन॒से स्या॑म ॥
…
अश्वो॒ न क्रन्द॒ञ्जनि॑भि॒: समि॑ध्यते वैश्वान॒रः कु॑शि॒केभि॑र्यु॒गेयु॑गे । स नो॑ अ॒ग्निः सु॒वीर्यं॒ स्वश्व्यं॒ दधा॑तु॒ रत्न॑म॒मृते॑षु॒ जागृ॑विः ॥
प्रस्ताव
मासानां मार्गशीर्षोऽहम् (श्रीकृष्ण, भगवद्गीता, १०.३५)। कल अग्रहायण या मार्गशीर्ष मास की शुक्ल प्रतिपदा है, अमान्त पद्धति से मार्गशीर्ष मास का आरम्भ। इस दिन से मैं एक नये ‘भारती संवत’ का प्रस्ताव करता हूँ। अब्द, संवत, वर्ष, era, epoch आदि नामों के अर्थों की मीमांसा में न जाते हुये कहूँगा कि जैसे विक्रमाब्द, शालिवाहन शकाब्द आदि विविध संवत् प्रचलित हैं, ऐसे ही यह नया संवत होगा।
आ भारती भारतीभिः सजोषा इळा देवैर्मनुष्येभिरग्निः ।
सरस्वती सारस्वतेभिरर्वाक्तिस्रो देवीर्बर्हिरेदं सदन्तु ॥
(वैश्वामित्र, वासिष्ठ)
दस वैदिक ऋषिकुलों के आप्री मन्त्रों में जिन तीन देवियों, इळा-भारती-सरस्वती, का आह्वान है, उनमें से भारती मही की द्योतक हैं तथा भारत की वाणी से भी जुड़ती हैं। यह संवत उन्हीं के नाम से होगा।
‘कस्मै देवाय हविषा विधेम्’ प्रार्थना में जिस प्रथम देवता ‘क’ को सब समर्पित है, वही क, वही प्रथम, वही ए’क’ है, अत: इस संवत का आरम्भ भी अङ्क १ से होगा और आगे २, ३, ४ … के गणितीय क्रम में गतिमान होगा।
वर्तमान में प्रचलित विविध गणित व फलित ज्यौतिष पद्धतियों में से किसी के भी खण्डन या मण्डन का न तो उद्देश्य है और न आग्रह। वैश्वामित्र परम्परा में यह एक समान्तर मार्ग रचने का त्रसरेणु प्रयास है जिसका ‘गणित’ भौतिक सूर्य, चन्द्र, नक्षत्रों, ग्रहों, ज्योतिषपिण्डादि के वास्तविक ‘प्रेक्षण’ पर आधारित होगा और उन समस्त जन द्वारा पोषित व सम्वर्द्धित होगा जो इसकी कुछ मूलभूत स्थापनाओं को मानते हुये आगे बढ़ना चाहेंगे। यह किसी एक व्यक्ति का न हो कर, उन सबका होगा जो भारतीय ज्यौतिष को आगे बढ़ाना चाहते हैं।
श्रेय
सु॒षु॒प्वांस॑ ऋभव॒स्तद॑पृच्छ॒तागो॑ह्य॒ क इ॒दं नो॑ अबूबुधत् ।
श्वानं॑ ब॒स्तो बो॑धयि॒तार॑मब्रवीत्संवत्स॒र इ॒दम॒द्या व्य॑ख्यत ॥
मेरा श्रेय केवल प्रस्तावक होने तक ही सीमित है। विशाल, बहुशाखी व सहस्राब्दियों से निरन्तर प्रवाहमान परम्परा में किसी एक व्यक्ति द्वारा श्रेय लेना हास्यास्पद और निरर्थक तो होगा ही, स्वार्थी कृतघ्नता भी होगी। दीर्घतमा से ले कर नरसिंहराव या उनसे आगे के भी जन को पढ़ते हुये, नक्षत्रों के प्रेक्षण करते हुये इस स्थिति तक पहुँचा हूँ। सभी परम्परा पुरुषों को नमन है।
आधुनिक अकादमिकी में अधिकार copyright को ले कर विवाद भी उठते हैं। यह एक बड़ा अभियान है और सम्भव नहीं कि, पुरातन से ले कर आधुनिक तक, सभी अध्येताओं, अधिकारियों या विद्वानों को कोई पढ़ जाय। सम्भव है कि निजी अध्ययन से जिन युक्तियों, परिणामों या निष्कर्षों पर मैं पहुँचूँ, वे पहले ही अन्यों के द्वारा उद्घाटित हो चुके हों। ऐसे में उन सबको उनका ही माना जाय जो पहले कर चुके हैं।
आवश्यकता
एक प्रश्न उठता है कि ढेर सारे संवतों के होते हुये एक और की आवश्यकता ही क्या है? इसका उत्तर यह है कि भारत में या मेरे ज्ञान में कहीं भी नाक्षत्रिकी आधारित ऐसा कोई अभियान नहीं है जो सबके द्वारा सम्वर्द्धन हेतु उपलब्ध हो। ‘मुक्त’ पद्धति सॉफ्टवेयर विकास में प्रयुक्त होती है, लिनुक्स या GitHub जैसे कुछ उदाहरण हैं। इससे ऐसे युवा जो जनवरी, फरवरी … के अतिरिक्त जानते ही नहीं किंतु नाक्षत्रिकी और भारतविद्या में रुचि रखते हैं, वे भारतीय परम्परा आधारित एक लक्ष्य के होने पर वास्तविक नाक्षत्रिक प्रेक्षणों से ले कर उनके गणितीय अनुप्रयोगों तक में संलग्न होने को प्रेरित होंगे। यह एक मुक्त मञ्च की भाँति होगा। चूँकि यह एक स्वतंत्र व समांतर अभियान होगा, प्रचलित ज्यौतिष पद्धतियों में इसका कोई हस्तक्षेप नहीं होगा और अनावश्यक विवादों, वितण्डादि की सम्भावना ही नहीं रहेगी।
अभी क्यों?
इस प्रश्न के साथ ही हम पहला पग बढ़ाते हैं। अति सूक्ष्म का त्याग कर दें तो रात में दिखने वाले तारक पिण्ड मानवीय प्रेक्षण की सीमाओं में स्थिर हैं। ग्रह जो पृथ्वी की ही भाँति सूर्य के परित: उसके साथ चलायमान हैं, उनकी तुलना में गतिशील दिखते हैं, स्थितियाँ परिवर्तित करते दिखते हैं जिनमें निश्चित आवृत्तियाँ होती हैं। पुराकाल से ही प्रतिदिन घटते या बढ़ते चंद्र और अपनी वार्षिक गति से ऋतुचक्र चलाने वाले सूर्य को समय मापन, निर्धारण एवं अभिलेखन हेतु प्रयोग में लाया गया। रात का आकाश कैलेण्डर था जिस पर टँगा चंद्र बीतते दिनों को दर्शाता था। आज विविध युक्तियों, संसाधन, गणितीय सिद्धांतों के रहते व व्यस्तता के चलते आकाशीय प्रेक्षण केवल अभिरुचि रखने वालों तक सीमित हो गया है किंतु उसकी उपयोगिता सदैव रहेगी। कहते हैं न, जब तक सूरज चाँद रहेंगे…!
वर्ष भर सूर्य जिस पथ पर चलता प्रतीत होता है, उस क्रांतिवृत्त से लगे कुछ तारक समूहों को नक्षत्र नाम दिया गया, जो उससे हट कहीं नहीं जाते और जो सूर्य व चंद्र सहित अन्य गतिमान पिण्डों हेतु एक प्रकार से मार्ग के प्रदर्श प्रस्तर mile stones के बीच के क्षेत्रों की भाँति हैं जिनके आधार पर बताया जा सकता है कि कोई पिण्ड धरती से देखने पर आकाश में किसी समय कहाँ है। चक्रीय गति होने के कारण ऐसे प्रदर्श प्रस्तरों की संख्या असीमित नहीं, सीमित है, जिसका सम्बन्ध चंद्रमा की उस गति से है जो एक पूर्णिमा से दूसरी पूर्णिमा तक वर्षों वर्ष चलती रहती है। चूँकि केवल वही गतिमान नहीं है, पृथ्वी भी है, अत: स्थिर नक्षत्रों के सापेक्ष देखने पर आवृत्ति २७ व २८ दिनों के बीच की पाई गयी जिसके कारण क्रांतिवृत के २७ या २८ विभाजन किये गये।
सूर्य जो कि ऋतुओं का कारक है, अपनी एक आवृत्ति अर्थात वर्ष में चार महत्त्वपूर्ण झुकाव बिंदुओं से हो कर जाता है, स्पर्श करता है। दोलन करता हुआ जब वह माध्य स्थिति में होता है तो ठीक पूरब में उदित होता और ठीक पश्चिम में अस्त होता है। ऐसा वर्ष में दो बार होता है, वे दिन ‘विषुव’ कहलाते हैं। माध्य स्थिति के कारण ऋतु भी सम होती है, वसन्त एवं शरद। इनके नाम से ही वे वसन्त विषुव या शरद विषुव कहे जाते हैं।
जब दोलन होगा तो दो अतिमान स्थितियाँ भी होंगी जिनका अतिक्रमण सूर्य रूपी लोलक नहीं करेगा। ऐसा प्रतीत होगा कि एक बिंदु पर पहुँच कर वह रुका और पुन: लौट पड़ा। अयन नाम की इस गति के ऐसे दो अयनांत बिंदु भी होते हैं जो ऋतु प्रभावों की अति दर्शाते हैं। जब झुकाव दक्षिण की अति पर होता है तो (उत्तरी गोलार्द्ध में) शीत अयनान्त होता है और जब झुकाव अपनी उत्तरी अति पर होता है तो ग्रीष्म अयनांत। दक्षिणी गोलार्द्ध में प्रभाव उलट जाते हैं।
ऋतुचक्र से कृषि जुड़ी है, सबकी पोषक और कृषिचक्र विराट ऋतुचक्र का सबसे स्पष्ट द्योतक है। यज्ञ की जो अवधारणा भारत में पनपी, वह कृषि की थी। बीज वपन आदि के लिये ऋतुओं का गणित जानना आवश्यक था और उस आवश्यकता की पूर्ति हेतु विविध कर्मकाण्ड आदि विकसित हुये। कृषि उत्पादन और उपभोग, अर्थव्यवस्था से जुड़ते हैं और समृद्धि इनकी सम्यक अवस्था से। ऐसे में काल का कृत्रिम नियमन आवश्यक हो जाता है जिसे पञ्चाङ्ग या कैलेण्डर के माध्यम से किया जाता है। करों की उगाही, रविवार या प्रत्येक दूसरे व चौथे शनिवार के अवकाश, सिंचाई तंत्र, कष्टप्रद ऋतुखंड के विराम आदि सब कैलेण्डर से ही तो जुड़े हैं। वह न हो तो अग्रिम योजनायें, कार्यक्रम व व्यवस्थायें हों ही न!
वसंत सबसे सुखद ‘मधु’ पाया गया तो उसके विषुव से प्राकृतिक रूप से नववर्ष का आरम्भ माना गया। ऐसे ही शीत की अति से छुटकारे की आस बँधाते शीत अयनांत से कुछ ने नववर्ष माना, कुछ ने शरद के क्षरण से जीवन के वर्ष गिने तो कुछ ने धरा को सींचने वाली वर्षा ऋतु से संवत्सर को जोड़ा जो ग्रीष्म अयनांत से जुड़ी है। वर्ष नाम वर्षा से ही है।
उपलब्ध वाङ्मय में वसंत विषुव व शीतयनांत से नववर्ष आरम्भ के प्रमाण मिलते हैं। स्थिर नक्षत्रों के साथ साथ गतिमान ग्रहों की युति को भी आधार बनाया गया। गुरु और शनि, दो दूरस्थ ग्रह हैं जो पृथ्वी के वर्ष (लगभग ३६५.२५ सौर दिन, एक ऋतु से आरम्भ कर पुन: उसी बिंदु तक पहुँचने का समय) की इकाई में सूर्य की परिक्रमा क्रमश: लगभग ११.८६ (~१२) व २९.४६ (~३०) वर्षों में पूरी करते हैं। नक्षत्र विभाजन देखें तो एक नक्षत्र पर गुरु लगभग सवा पाँच माह और शनि लगभग तेरह माह रहते हैं। रात के आकाश में दोनों क्रांतिवृत्त से लगी पट्टी पर निकट होने पर एक साथ देखे जा सकते हैं तथा अपेक्षतया मंद गति के कारण वार्षिक प्रेक्षण हेतु अतिरिक्त ढाँचा प्रदान करते हैं।
धरती से देखने पर दोनों लगभग २० वर्षों की आवृत्ति से एक साथ होते रहते हैं। यह कुछ ऐसा ही है कि एक वृत्त की परिधि पर दो वाहन अपने अपने दो भिन्न वेगों से चल रहे हों तथा निश्चित अंतराल पर अपेक्षतया तीव्र चलने वाला, धीमे चलने वाले को पार करता हो।
१२ व ३० का लघुत्तम समापवर्त्य ६० होता है। सम्भव है कि इस कारण ही भारत में गुरु आधारित ६० वर्षीय संवत्सर चक्र की कल्पना की गयी जिनमें प्रत्येक को एक नाम दिया गया।
दूसरा कारण सूर्य और चंद्र की गतियों पर आधारित वर्षमानों के समायोजन से जुड़ा हो सकता है। वेदाङ्ग ज्यौतिष में ५ वर्षों के जिस युग की सङ्कल्पना है, सम्भव है कि उसके ६० महीनों में से प्रत्येक के निश्चित नाम रहे हों जिनका विस्तार आगे वर्षों में कर दिया गया हो। अस्तु।
जनसामान्य के प्रयोग वाला ग्रेगरी कैलेण्डर केवल सूर्य की वार्षिक गति से जुड़ा है अत: इसमें विषुव और अयनांत के दिनाङ्क निश्चित होते हैं। ऐसा प्रत्येक सौर संवत्सर के साथ है यथा तमिळ संवत। केवल एक पिण्ड पर आधारित कैलेण्डर सरल तो होते हैं किंतु उनकी सङ्गति सहज रूप से रात के आकाशीय प्रेक्षण से नहीं होती, दिन में तारे दिखते नहीं! केवल चंद्रमा पर आधारित कैलेण्डर का ऋतुचक्र से विचलन होता ही चला जाता है। सौर-चन्द्र गति समन्वित भारतीय पञ्चाङ्ग इस कारण से संतुलित और अधिक उपयुक्त है।
Image Credit: NASA/Bill Dunford
इस वर्ष २१ दिसम्बर को शीत अयनांत पड़ रहा है और साथ में ही यह स्थिति बन रही है कि गुरु और शनि एक साथ अर्थात क्रांतिवृत्त की रेखा पर शून्य कोणीय अंतर पर होंगे। ऐसी स्थिति शताब्दियों में बनती है। ऐसे में जब कि भारतीय परम्परा में शीत अयनांत के साथ नववर्ष आरम्भ होने के दृढ़ प्रमाण हों, गुरु और शनि भी साथ हों, नयी संवत्सर पद्धति आरम्भ करने का सबसे उत्तम अवसर है।
मास नाम पद्धति
प्रेक्षण आधारित मास पद्धति चंद्रमा से जुड़ी है। मास का आरम्भ शुक्ल प्रतिपदा से होता है। शीत अयनांत अग्रहायण शुक्ल सप्तमी को पड़ रहा है। प्रेक्षण आधारित नयी पद्धति में भी मास का आरम्भ प्रतिपदा (अमावस्या के पश्चात पहली तिथि) से लेना ही पड़ेगा, अत: जिस महीने में शीत अयनांत पड़ेगा, वह मार्गशीर्ष या अग्रहायण (आगे रहने वाला) वर्ष का प्रथम महीना होगा।
वर्ष का आरम्भ अनिवार्यत: शीत अयनांत से जुड़ा होगा, उसकी निकटस्थ पूर्ववर्ती शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होगा। कभी वह प्रतिपदा पौष की हो जाय तो उस वर्ष का आरम्भ पौष शुक्ल प्रतिपदा से होगा अर्थात वर्ष का आरम्भ माह कोई एक रहे, आवश्यक नहीं। ऐसा करने से सौर चांद्र समायोजन या लगभग प्रति सहस्राब्दी एक नक्षत्र पीछे होते जाते अयन व विषुव बिंदुओं का स्वत: ही प्रेक्षण आधारित नियोजन होता रहेगा। वैसे आगे के ६० वर्षों में बहुधा वर्षारम्भ मास मार्गशीर्ष ही रहेगा।
अमांत पद्धति में पूर्णिमा मास के मध्य में पड़ती है जो कि तार्किक दृष्टि से उपयुक्त है कि अवसान (अमावस) के पश्चात नये महीने ने एक एक दिन बढ़ते हुये पूर्णिमा को पूर्ण यौवन प्राप्त किया तथा आगे एक एक दिन छीजते हुये अमावस को अवसान को प्राप्त हुआ।
६० वर्षों का चक्र भी मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होगा। संवत्सर नाम वही रखे जा सकते हैं या विशेष नाक्षत्रिक स्थितियों के आधार पर नये बनाये जा सकते हैं। इस पर आगे बात करेंगे।
प्रकृति में बहुत कुछ ऐसा है जिसे पूर्णाङ्क में व्यक्त नहीं किया जा सकता। वर्ष के दिन ३६५.२५….., चंद्रमा के २७.३… या २९.५… मास दिन, गुरु का वर्ष पूरा १२ न होना, शनि का पूरा ३० नहीं होना आदि आदि। इस कारण ही नाक्षत्रिक गतियों हेतु सरल गणितीय सदातन नियम नहीं बनाये जा सकते, इस कारण ही सीमित अवधि की परिशुद्धता वाले गणित की आवश्यकता पड़ती है जिसमें स्वीकार्य त्रुटि की परास अत्यल्प न हो, अत्यधिक भी न हो। ६० वर्षों का चक्र प्रेक्षण आधारित निरन्तर अध्ययन एवं समायोजन हेतु उपयुक्त है जिसे एक सामान्य आयुप्राप्त मनुष्य अपने जीवन काल में निभाते हुये आगे की पीढ़ी के लिये बढ़ा सकता है। देखें तो भारत में किसी व्यक्ति की षष्ठिपूर्ति का उत्सव की भाँति आयोजन अनेक मर्म छिपाये हुये है।
पूर्णाङ्क न होने तथा सूर्य की वार्षिक गति का पूर्णिमा की नाक्षत्रिक चक्रीय गति से मेल न होने के कारण समायोजन के बहुत से गणितीय प्रारूप बनाये गये, उपलब्ध हैं किंतु पूरी शुद्धता न आनी थी, न आ पाई। एक उदाहरण नाक्षत्र मास नामपद्धति का ही है जिसमें पूर्णिमा को चंद्र की नाक्षत्रिक स्थिति के आधार पर महीनों के नाम हैं, चैत्र की पूर्णिमा चित्रा पर, माघ की मघा पर इत्यादि। परंतु सदा ऐसा नहीं होता। चंद्रमा पूर्णिमा के दिन एक नक्षत्र आगे पीछे भी हो सकता है। अपवाद सदैव रहेंगे।
प्रेक्षण आधारित नाम पद्धति में हम पारम्परिक नाक्षत्र मास नाम के साथ यह जोड़ सकते हैं कि उस महीने वास्तव में चंद्रमा पूर्णिमा के दिन किस नक्षत्र पर था?
यहाँ ‘तिथि’ की परिभाषा दुहरानी उपयुक्त होगी। अमावस्या से अगली अमावस्या तक चंद्रमा को २९.५ दिन लगते हैं जिन्हें ३० तिथियों का माना गया अर्थात एक तिथि का अंतराल वह होगा जब सूर्य और चंद्र के बीच कोणीय अंतर ३६०/३० = १२ अंश हो जाये। चंद्रमा की गति विचित्र होने के कारण यह कोणीय अंतर सदैव समान अवधि में नहीं आता, कभी लम्बा खिंच जाता है तो कभी लघु काल में ही तिथि परिवर्तित हो जाती है।
यदि समान विभाजन मानें तो एक नक्षत्र की कोणीय परास ३६०/२७ = १३.३३ अंश होती है। किसी तिथि को चंद्रमा एकाधिक नक्षत्रों में रह सकता है। यदि पूर्णिमा को मास नाम के नक्षत्र पर चंद्रमा पहुँचता ही नहीं तो पूर्णिमा के आरम्भ का नक्षत्र मास नाम के साथ लिखा जायेगा। यदि पूर्णिमा उस नक्षत्र का स्पर्श मात्र करती है और पूर्ण रूप से किसी अन्य नक्षत्र में रहती है तो आदि या अंत के अनुसार आदि-स्पर्श या अन्त-स्पर्श लिखा जायेगा। उक्त नक्षत्र की पूरी परास पूर्णिमा में पड़ जाने पर, भले आरम्भ या अंत किसी अन्य नक्षत्र में पड़ें, उस मास के नाम के साथ पूर्ण जोड़ा जायेगा। उदाहरण के लिये भारती संवत ३ (२०७९ विक्रमी) के मार्गशीर्ष मास का नाम कृत्तिका-मार्गशीर्ष होगा क्योंकि पूर्णिमा आरम्भ के समय चन्द्रमा वास्तव में कृत्तिका नक्षत्र पर होंगे और पूर्णिमा मृगशिरा का स्पर्श भी नहीं कर पायेगी, रोहिणी में ही समाप्त हो जायेगी।
एक दूसरी पद्धति ऋतुप्रभाव से सम्बन्धित है जो कि वैदिक है – मधु, माधव आदि। मधु का सम्बंध वसंत ऋतु से है जब सब कुछ मधुमय रहता है। सामान्यतया मधु की सङ्गति चैत्र मास से लगाई जाती है, किंतु क्या वास्तव में ऐसा सदैव होगा? ऋतुप्रभाव आधारित होने के कारण इसका सीधा सम्बंध विषुव और अयनांतों से होगा।
यहाँ प्रस्तावित शीत अयनांत के अगले दिन से नववर्ष के स्थान पर वसंत विषुव आधारित वर्ष का आरम्भ वसंत विषुव के अगले दिन से है जो मधु मास का पहला दिन होगा। नाक्षत्र मास नामपद्धति में जिस प्रकार पूर्णिमा को मास के मध्य में लिया गया, उसी प्रकार इस मास पद्धति में वसन्त ऋतु के मध्य में मधुमास व वर्ष आरम्भ लिये जायें तो ६ ऋतुओं में से प्रत्येक की दो दो मास नामों के साथ यह सङ्गति बनती है :
ऋतु | मास नाम | विषुव/अयनांत की स्थिति |
वसंत | मधु, माधव | वसंत विषुव ऋतु के मध्य में |
ग्रीष्म | शुक्र, शुचि | ग्रीष्म अयनांत पर ऋतु का अंत |
वर्षा | नभस्, नभस्य | ऋतु आरम्भ अयनांत के अगले दिन |
शरद | ईश, ऊर्ज | शरद विषुव ऋतु के मध्य में |
हेमंत | सहस्, सहस्य | शीत अयनांत के साथ ऋतु का अंत |
शिशिर | तपस्, तपस्य | ऋतु आरम्भ अयनांत के अगले दिन |
इस बात के प्रमाण हैं कि तीन ऋतुओं का मोटा चलन पहले भी था, जिनमें से प्रत्येक के दो भाग करने पर उपर्युक्त छ: ऋतुयें हुईं। आज भी लोक में जाड़ा, गर्मी, वर्षा त्रिक का प्रचलन है। चूँकि यह विभाजन पूर्णत: सौर प्रभाव आधारित है, इसकी सङ्गति ग्रेगरी के सौर कैलेण्डर के दिनांकों से बैठेगी। वसंत विषुव – २०/२१ मार्च, ग्रीष्म अयनांत – २०/२१ जून, शरद विषुव – २२/२३ सितम्बर, शीत अयनांत – २१/२२ दिसम्बर।
यहाँ एक समस्या है। हमने मास आरम्भ को शुक्ल प्रतिपदा से माना है जबकि उपर्युक्त शुद्ध सौर पद्धति में ऐसा बंध न हो कर मास नाम पूर्णत: सौर गति पर आधारित है।
मध्यमार्ग यह होगा कि विषुव या अयनांत के दिनांक से पूर्व वा निकट की शुक्ल प्रतिपदा से ऋतुप्रभाव वाले मासनाम मधु माधव आदि माने जायें। पुरातन पद्धति भी यही है। उदाहरण के लिये कल की मार्गशीर्ष (अमांत) शुक्ल प्रतिपदा से शिशिर ऋतु का आरम्भ माना जाय तथा वह माह तपस् हो। यहाँ चूँकि नाक्षत्रमास के सापेक्ष सौरमास समायोजित किये जा रहे हैं अत: उनकी सङ्गति में आगामी संवतों में परिवर्तन होंगे।
इस प्रकार उपर्युक्त उदाहरण के महीने का नाम होगा – कृत्तिका-मार्गशीर्ष-तपस्। यह नाम अपने आप में एक पूर्ण परिचय होगा जिससे किसी संवत के मास नाम से अयन या विषुव सापेक्ष स्थितियाँ, सौर मास नाम, पारम्परिक नाक्षत्रमास नाम एवं उस मास की पूर्णिमा को चंद्र की स्थिति का ज्ञान हो जायेगा।
विचार करें कि क्या कभी कृत्तिका-पौष-तपस् जैसी स्थिति भी बन सकती है?
या इस प्रकार के कुल कितने त्रिक समुच्चय बन सकते हैं?
ऊपर अन्यत्र, ५ वर्षीय युग के ६० अद्वितीय मास नामों के बारे में जो सङ्केत दिया गया है, उनसे इस पद्धति की संगति है क्या?
इस प्रकार का नामकरण जटिल लग सकता है किंतु इसका सदैव ध्यान रहे कि हम ‘प्रेक्षण’ आधारित बात कर रहे हैं तथा प्रचलित नामों को साथ ले कर भी चल रहे हैं। नियम समझ लेने पर कोई समस्या नहीं होगी।
नक्षत्र
चित्राणि साकं दिवि रोचनानि सरीसृपाणि भुवने जवानि ।
तुर्मिशं सुमतिमिच्छमानो अहानि गीर्भिः सपर्यामि नाकम् ॥१॥
सुहवमग्ने कृत्तिका रोहिणी चास्तु भद्रं मृगशिरः शमार्द्रा ।
पुनर्वसू सूनृता चारु पुष्यो भानुराश्लेषा अयनं मघा मे ॥२॥
पुण्यं पूर्वा फल्गुन्यौ चात्र हस्तश्चित्रा शिवा स्वाति सुखो मे अस्तु ।
राधे विशाखे सुहवानुराधा ज्येष्ठा सुनक्षत्रमरिष्ट मूलम् ॥३॥
अन्नं पूर्वा रासतां मे अषाढा ऊर्जं देव्युत्तरा आ वहन्तु ।
अभिजिन् मे रासतां पुण्यमेव श्रवणः श्रविष्ठाः कुर्वतां सुपुष्टिम् ॥४॥
आ मे महच्छतभिषग्वरीय आ मे द्वया प्रोष्ठपदा सुशर्म ।
आ रेवती चाश्वयुजौ भगं म आ मे रयिं भरण्य आ वहन्तु ॥५॥
(अथर्व. शौ., १९.७)
नाक्षत्रमास नाम पद्धति से स्पष्ट है कि नाम पूर्णिमा को चंद्रमा की नाक्षत्रिक स्थिति से बनाये गये हैं। नक्षत्रों का विभाजन किस प्रकार से है? देखा गया कि क्रांतिवृत्त पर किसी निश्चित स्थिर बिंदु से चल कर पुन: वही पहुँचने में चंद्रमा को २७.३२ सौर दिन के लगभग लगते हैं। दिनों की गिनती तो सूर्य के सापेक्ष है। अत: क्रांतिवृत्त को २७ या २८ भागों में बाँट दिया गया। २७ की स्थिति में समान भाग (३६० अंश/२७) किये गये और प्रत्येक विभाजन को स्थिर निश्चित तारक समूह या तारे के नाम से जाना गया। यथा कृत्तिका नाम से जाने गये नक्षत्र भाग में कृत्तिका समूह पड़ता है।
प्रतीत होता है कि विभाजन २८ होने की स्थिति में यह विभाजन समान नहीं था तथा २७ के पश्चात बचे रह गये ०.३२ हेतु एक विभाजन अभिजित नाम से था। जटिल होने के कारण इसका प्रचलन अधिक नहीं हुआ यद्यपि गणित ज्यौतिष में इसका कुछ प्रयोग आज भी है। इसकी भी सम्भावना है कि २७ वाला विभाजन भी असमान विभाजन रहा हो जिसका अवशेष वराहमिहिर की एक स्थापना में देखा जा सकता है। असमान विभाजन जहाँ केवल प्रेक्षण आधारित था, सूर्योदय से कुछ समय पूर्व या सूर्यास्त के कुछ समय पश्चात क्षितिज पर कुछ नक्षत्रपिण्ड देखे जाते और उनके अनुसार कालमान निश्चित किये जाते। स्पष्ट है कि ऐसे में सभी के समान होने की सम्भावना ही नहीं है। यहाँ योगताराओं को जानना उपयुक्त होगा। नक्षत्र विभाजन से पूर्व की स्थिति कुछ अति कांतिमान तारकों के प्रेक्षण पर आधारित रही यथा कृत्तिका, आर्द्रा, मघा आदि। आगे जब नाक्षत्रिक विभाजन हुआ तो ये अति कांतिमान एवं सरलता से अभिज्ञान वाले तारे जिस विभाजन में थे, उसके योगतारे मान लिये गये तथा इन्हीं के नाम से वह नक्षत्र विभाजन भी माना गया। क्रम होगा – मघा तारा regulus > योगतारा > मघा नक्षत्र, वह जिसमें यह तारा पड़ता हो। पीछे बताया जा चुका है व्यावहारिकता की दृष्टि से तारे एक दूसरे के सापेक्ष स्थिर मार्ग के प्रस्तर प्रदर्शों की भाँति स्थिर हैं, पृथ्वी से भासित उनकी अति सूक्ष्म सापेक्षिक गति उपेक्षणीय है।
शुद्ध रूप से गणित आधारित विभाजन में समान विभाजन होने से सुविधा हो गई। दोनों के बीच का मार्ग भी अपनाया गया जिसमें कुछ नक्षत्र समूह बना कर प्रत्येक समूह के समस्त नक्षत्रों हेतु एक ही विभाजन ०.५, १ और १.५ के अनुपात में किया गया। पुरातन साहित्य से ज्ञात होता है कि अब प्रचलित विभाजन पद्धति जो कि स्वयं में बहुत पुरानी है, सदैव ऐसी नहीं रही। अस्तु।
हम विषम एवं सम, दोनों विभाजनों पर केंद्रित होंगे किंतु पहले वह सम परास वाला विभाजन जोकि आज प्रचलित है तथा सरल भी है। विषुव पश्चाभिगमन के कारण उसकी नाक्षत्रिक स्थिति मंद गति से परिवर्तित होती है तथा फलित ज्यौतिष में इस बात को ले कर कि आरम्भ बिंदु कहाँ माना जाय, अत्यधिक वाद-विवाद प्रचलित हैं। उनमें न पड़ते हुये हम आगे बढ़ेंगे।
उपलब्ध साहित्य से यह ज्ञात होता है कि कभी नक्षत्रमाला का आरम्भ अग्नि स्वरूपा कृत्तिका नक्षत्र से होता था। आजकल अश्विनी से होता है। विषम विभाजन ही कभी मान्य था, इसका एक बड़ा प्रमाण इससे मिलता है कि अनेक योगतारे सम विभाजन पद्धति में अपनी नक्षत्रपरास में रह ही नहीं जाते! उदाहरण के लिये स्वाति स्वाति में नहीं, आर्द्रा आर्द्रा में नहीं आदि। एक दूसरा प्रश्न यह भी उठता है क्रांतिवृत्त की रेखा से कितनी कोणीय दूरी तक के तारकों को योगतारा के रूप में लिया जा सकता है? सभी एक रेखा में मिलने तो असम्भव हैं। तीसरा प्रश्न यह भी है कि कितने कांतिमान तक के तारों को प्रतिनिधि योगतारक के रूप में लिया जाय?
नक्षत्रों के वर्तमान नाम देखें तो तीन युग्म ऐसे हैं जो पूर्व एवं उत्तर उपसर्गों से जुड़े हैं – फाल्गुनी, आषाढ़ और भाद्रपद। यदि इन्हें एक कर दें तो संख्या २४ रह जाती है। एक वर्ष में शुक्ल व कृष्ण २४ पक्ष होते हैं। यह अनुमान किया जा सकता है कि कभी सूर्य की एक पक्ष में स्थिति जानने के लिये क्रांतिवृत्त के २४ विभाजन रहे होंगे। ३६०/२४ = १५ अंश जोकि लगभग एक मुठ्ठी दो अङ्गुल जितना कोणीय विस्तार है। क्रांतिवृत्त की रेखा के दोनों ओर अधिकतम १५ अंश तक स्थित तारकों को ही हम किसी नक्षत्र विभाजन का अंश मानेंगे तथा उनमें से ही सबसे कांतिमान तारे को उस नक्षत्र का योगतारा।
यह पाया गया है कि कोरी आँखों से न्यूनतम ५ से ६ कांतिमान तक के तारे सरलता से देखे जा सकते हैं (कांतिमान की संख्या तारे की मंदता से जुड़ी है, जितनी अधिक संख्या, उतना मंद तारा। अति कांतिमान पिण्डों हेतु यह संख्या ऋणात्मक हो जाती है। सूर्य के लिये यह -२६ और रात के आकाश के सबसे कांतिमय तारे शारमेय मृगलुब्धक हेतु -१.५।) योगतारा हेतु हम अधिकतम ५ की सीमा रखेंगे।
अश्विनी के आरम्भ बिंदु को ले कर चित्रा से १८० अंश, स्वाति के ठीक सामने जैसे प्रचलन हैं। रोहिणी व रेवती के सापेक्ष भी निर्धारण उपलब्ध हैं। चित्रा व स्वाति के जो योगतारा क्रमश: α Virginis और α Boötis माने जाते हैं, उनमें क्रांतिवृत्त की रेखा की दिशा में कोणीय अंतर मात्र ०.५२ अंश का है और α Boötis क्रांतिवृत्त से ३०.७७ अंश की दूरी पर है, हमारी सीमा से दुगुने से भी दूर! और यह चित्रा नक्षत्र की परास में पड़ता है। अत्यधिक कांतिमान होते हुये भी यह अनुपयुक्त है। तो लोगों ने इसे माना क्यों?
प्रतीत होता है कि, जैसा कि इसके नाम सु+अति से भी स्पष्ट है, इसकी अत्यधिक कांति -०.१५ ही कारण रही। इससे १८० अंश पर क्रांतिवृत्त पर कोणीय मान है २४.३२ अंश। अत: स्वाति आधारित मान्यता के अनुसार जो अश्विनी का आरम्भ बिंदु था, वह २४.३२ अंश खिसक चुका है। फलित गणनाओं का अयनांश यही है, जिसके मान विविध मान्यताओं के अनुसार विविध हैं। चित्रा योगतारा से लेने पर यह २३.८० अंश बैठता है। (सभी २०००ग्रेगरी के मानों के अनुसार, २० वर्ष पश्चात नगण्य परिवर्तन हुये हैं।)
मान्यतानुसार रेवती का योगतारा ζ Piscium है, क्रांतिवृत्त से मात्र -०.१४ अंश पर। किंतु इसका कांतिमान ५.२८ है जिसके कारण इसकी दृश्यता कठिन है। ५ से अधिक होने के कारण यह तारा हमारे निकष पर खरा नहीं उतरता।
पुरातन साहित्य में रोहिणी नाम ज्येष्ठा का भी मिलता है अत: अभिज्ञान में द्वैध की समस्या आ जाती है। समस्या का हल परम्परा से ही मिलता है। नक्षत्र है – पुष्य, कुछ बड़े मङ्गल कार्यों के आरम्भ हेतु इस नक्षत्र का बड़ा मान रहा। इसका योगतारा δ Cancri, Asellus Australis क्रांतिवृत्त से सबसे निकट का योगतारा है, मात्र ०.०९ अंश। इसका कांतिमान भी ३.९४ है।
उपर्युक्त निकषों के आधार पर योगताराओं के नाम निश्चित करते हुये मैं जब इस तारा तक पहुँचा कि इसे ही नक्षत्रमाला के आरम्भ बिंदु को निश्चित करने के लिये आधार बनाया जाय तब यह ध्यान आया कि इतनी मोटी बात तक तो दूसरे भी पहुँचे होंगे। ढूँढ़ने पर पी वी आर नरसिंहराव का यह लेख मिल गया। संक्षेप में कहें तो सन् २०००ग्रेगरी में क्रांतिवृत्त पर इसकी स्थिति १२८.८ अंश थी जिसमें से सूर्यसिद्धांत के अनुसार १०६ घटाने पर अश्विनी का आरम्भ बिंदु २२.८० अंश तक खिसक चुका है। अर्थात २०००ग्रेगरी में कथित अयनांश २२.८० अंश था। इसमें इतनी ही त्रुटि हो सकती है कि सूर्यसिद्धांत में दिये गये मान १०६ अंश से दशमलव हटा दिये गये हों जिसकी सम्भावना अल्प है।
इससे भिन्न एक और मार्ग है जो स्वाति के शोधन पर आधारित है। इसके लिये मैंने पहले ऊपर बताये गये निकष अनुसार समस्त योगताराओं का निर्धारण किया जिसमें स्वाति का योगतारा α² Librae (कांतिमान २.७४) निश्चित किया। शोधन हेतु (-१.६२-९२/११२६७) अंश लगाने पर यह योगतारा स्वाति और विशाखा की सीमा पर सम्पाती हो गया जहाँ से १८० अंश पर भरणी का मध्यबिंदु है। वहाँ से पीछे जाने पर अश्विनी का आरम्भ बिंदु २२.३५ अंश मिलता है जोकि पुष्य अयनांश से मात्र ०.४५ अंश दूर है।
नीचे दी गयी सारिणी में प्रस्तावित योगतारा अपने निर्देशाङ्कों व कांतिमानों के साथ दिये गये हैं। यह सारिणी अनन्तिम है किंतु सम विभाजन पद्धति हेतु इसमें परिवर्तन अत्यल्प ही होंगे। भरणी, मृग, आर्द्रा, फाल्गुनी द्वय, स्वाति, विशाखा, ज्येष्ठा से धनिष्ठा तक, पूर्व भाद्रपद एवं रेवती के योगतारा परम्परा से भिन्न हैं तथा कुछ वैकल्पिक तारे अभी छोड़ दिये गये हैं।
खगोलीय देशांतर | खगोलीय अक्षांश | ||||
नक्षत्र | योगतारा | कांतिमान | स्थैतिक | शोधित | |
अश्वायुज | β Arietis | 2.64 | 34.05 | 35.68 | 8.45 |
भरणी | 41 Arietis | 3.61 | 48.21 | 49.84 | 10.45 |
भरणी | δ Ari | 4.35 | 50.94 | 52.57 | 1.81 |
कृत्तिका | Pleiades, η Tau, Alcyone | 2.87 | 59.88 | 61.51 | 4.07 |
रोहिणी | Aldebaran, a-Taurus | 0.75-0.95 | 69.81 | 71.44 | -5.46 |
मृग | Betelgeuse, α Orionis | 0.45 | 88.71 | 90.34 | -13.37 |
मृग | β Tau | 1.65 | 82.51 | 84.14 | 5.38 |
आर्द्रा | γ Gem, Athena | 1.93 | 99.17 | 100.80 | -6.74 |
पुनर्वसु | Pollux, β Gem | 1.16 | 113.15 | 114.77 | 6.68 |
पुष्य | δ Cancri, Asellus Australis | 3.94 | 128.80 | 130.42 | 0.09 |
अश्लेषा | α Cancri, Acubens | 4.26 | 133.53 | 135.16 | -5.12 |
मघा | Regulus, α Leo | 1.36 | 149.74 | 151.37 | 0.43 |
पू. फाल्गु. | Denebola, β Leonis | 2.14 | 171.61 | 173.23 | 12.26 |
पू. फाल्गु. | σ Leo | 4.05 | 168.67 | 170.30 | 1.69 |
उ. फाल्गु. | β Vir | 3.60 | 177.16 | 178.79 | 0.69 |
हस्त | δ Corvi | 2.95 | 193.48 | 195.11 | -12.18 |
हस्त | γ Vir | 2.74 | 190.22 | 191.85 | 2.82 |
चित्रा | Spica, α Virginis | 0.98 | 203.80 | 205.43 | -2.08 |
स्वाति | α² Librae | 2.74 | 225.04 | 226.67 | 0.32 |
विशाखा | β Librae | 2.61 | 229.37 | 231.00 | 8.50 |
अनुराधा | δ Scorpionis, Dschubba | 2.29 | 242.49 | 244.12 | -2.00 |
ज्येष्ठा | λ Scorpionis, Shaula | 1.62 | 264.59 | 266.21 | -13.79 |
मूल | δ Sagittarii, Kaus Media | 2.72 | 274.58 | 276.21 | -6.48 |
पू. आषा. | φ Sagittarii, Namalsadirah | 3.15 | 280.26 | 281.89 | -3.95 |
उ. आषा. | 62 Sgr, c Sagittarii | 4.43 | 297.14 | 298.77 | -7.13 |
श्रावण | θ Cap | 4.08 | 313.86 | 315.48 | -0.59 |
धनिष्ठा | δ Cap | 2.85 | 323.53 | 325.16 | -2.60 |
शतभिषा | λ Aqr | 3.73 | 341.66 | 343.29 | -0.43 |
पू. भाद्र. | γ Psc | 3.70 | 351.42 | 353.04 | 7.27 |
उ. भाद्र. | γ Pegasi, Algenib | 2.84 | 9.10 | 10.73 | 12.62 |
रेवती | δ Psc | 4.44 | 14.22 | 15.85 | 2.41 |
अगले आलेख में नक्षत्रों के विषम विभाजन पर चर्चा में उन्हें सम्मिलित कर उन पर विचार करेंगे।