मघा नक्षत्र में सूर्य प्रति वर्ष प्राय: अंतर्राष्ट्रीय सौर दिनाङ्क 17 अगस्त से 30 अगस्त तक रहते हैं। ऐसे में यदि चंद्र का संयोग भी मघा के साथ बने तो इन ‘तीनों के साहित्य’ पर साहित्य अङ्क आना चाहिये, कल की अमावस्या और आज की शुक्ल प्रतिपदा की युति के नेपथ्य में यही भाव है।
शब्दार्थौ सहितौ काव्यं गद्यं पद्यं च तदद्विधा।
संस्कृतं प्राकृतं चान्यदपभ्रंश इति त्रिधा॥
[भामह कृत काव्यालङ्कार, 1.16]
शब्द और अर्थ मिला कर काव्य होता है। यह गद्य और पद्य दोनों प्रकार का होता है। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश रचनायें देखें तो तीन प्रकार का होता है।
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यह श्लोक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि गद्य को भी काव्य की श्रेणी में रखता है और किसी एक समय में प्रचलित भाषा के तीनों रूपों शिक्षित सुसंस्कृत जन द्वारा बोली जाने वाली, जनसामान्य द्वारा बोली जाने वाली और इन दोनों से इतर अपभ्रंश में रचनाकर्म को भी काव्य की मान्यता देता है, केवल शब्द और अर्थ का साहित्य बने रहना चाहिये। स्पष्ट है कि भामह के अनुसार काव्य और साहित्य समानार्थी माने जा सकते हैं।
एक साहित्यकार वह दर्शाता है जो होते हुये भी दिखता नहीं। उसकी मेधा उसे सक्षम बनाती है और शब्द अर्थ के समन्वय के साथ शैली द्रष्टा। उसकी अनूठी बानी सम्मोहित करती है, आनंदित करती है, दु:ख और करुणा से युक्त कर देती है तो कभी हास्य तरङ्गों की गंगा भी बहा देती है। यही उसका बहुआयामी सृजन है जो स्थूल भाव में तो रचना के रूप में सामने होता है किंतु उसका प्रभाव जाने कितने समय तक जनरञ्जन करता रहता है। परिष्कार और चेतना का विस्तार काव्य के लिये अनिवार्य गुण हैं।
साहित्य का अमरत्व यही है और साहित्यकार का भी।
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यहाँ प्रस्तुत रचनायें हिंदी साहित्य के आधुनिक मानदण्डों से अनुशासित भले न हों, मत, वाद, स्थापना आदि की धारा में बहती भले न दिखें, साहित्य के व्यापक अर्थ को साथ लिये हुये हैं। अधिक नहीं हैं, जो हैं प्रस्तुत हैं।