लुण्ड विश्वविद्यालय, स्वीडेन के दो भाषाविदों बुरेनहुल्ट एवं यगेर ने मलय प्रायद्वीप (मलेशिया) में एक ऐसी भाषा ढूँढ़ निकाली है जिसके बारे में अब तक बाहरी संसार को पता नहीं था। जेडेक नाम की इस भाषा को पेरगउ नदी किनारे सुङ्गई ग्रामीण क्षेत्र के मात्र 280 जन बोलते हैं। इस समाज में लैङ्गिक भेद अपेक्षतया न्यून हैं, परस्पर हिंसा लगभग शून्य है तथा बच्चों में प्रतियोगिता के भाव को हतोत्साहित किया जाता है। उनकी भाषा में भी यह प्रवृत्ति दिखती है जिसमें कि स्वामित्त्व तथा इससे सम्बन्धित उधार, चोरी, क्रय, विक्रय के शब्द हैं ही नहीं जबकि आदान प्रदान, सहयोग तथा साझा करने को अभिव्यक्त करने के प्रचुर मात्रा में शब्द उपलब्ध हैं। उल्लेखनीय है कि एक अन्य अल्पतर बोली जाने वाली भाषा जहई से सम्बन्धित शोध के उद्योग में इस अज्ञात भाषा का पता चला। अनुमानत: विश्व में इस समय 6000 भाषायें बोली जाती हैं, जिनमें से 40 प्रतिशत विलुप्त होने की स्थिति में हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार आगामी एक शताब्दी में आधी भाषायें लुप्त हो जायेंगी। हम अपनी इस पृथ्वी तथा इसके विभिन्न सङ्कटों के बारे में कितना कम जानते हैं!
‘भाषा बहता नीर’ के प्रति अतिरेकी उत्साह तथा ‘सबसे सीखो’ के एक प्रकार के पाँवउखाड़ू ‘जिहादी जुनून’ में पड़ा हिन्दी समाज इस तथ्य से पूर्णत: अनभिज्ञ है कि हिन्दी सहित इस क्षेत्र की लोकभाषाओं के शब्द प्रयोग के बिना तेजी से मर रहे हैं। लोकभाषाओं की जो शब्द सम्पदा ऋग्वेद तक पहुँचती है, उसे गँवार, असाधु, भौंड़ी संज्ञाओं के अलङ्करण पहना त्याग दिया गया तथा भाषिक सुघड़ता, सौन्दर्य, गरिमा, अर्थवत्ता, प्रेषणक्षमता इत्यादि गुणों को तिलाञ्जलि दे दी गई। सिनेमाई आक्रमण के साथ साथ आङ्गल स्लैंग एवं चलताऊपन की प्रवृत्ति के कारण भाषिक भ्रम की यह स्थिति हो गई है कि एक पीढ़ी पहले तक जिन समाचार पत्रों को भाषा सीखने के लिये मानक की भाँति पढ़ा देखा जाता था, उनमें वर्तनी की सामान्य त्रुटियों की भरमार रहती है, शब्द सम्पदा समृद्धि तो दूर की कौड़ी है। देसी शब्दों का लुप्त होना भाषा की मृत्यु से जुड़ा है। शब्दों के अरबी या आयातित विकल्पों से काम चला लेने की प्रवृत्ति अन्तत: भाषा को भी ध्वन्स तक पहुँचा देगी। एक दिन वह भी आयेगा जब कहा जायेगा कि संज्ञा शब्द तो आयातित भाषा के ही हैं, व्याकरण तथा क्रियापदों के अवशेष क्यों ढोये जायँ? वह दिन हिन्दी भाषा का मृत्युगीत लिखेगा।
भाषा को यदि जीवित रखना है तो निजी, अपने, देसी शब्दों के सायास प्रयोग करने होंगे, उन्हें व्यवहार में उस स्तर पर लाना होगा जो बीसेक वर्ष पूर्व था। इस क्षेत्र में नवोन्मेष कैसे हों, इस पर विचार करना होगा। यद्यपि राजनीति तथा क्षेत्रीय आग्रह प्रबल हैं, तब भी दक्षिण भारत के राज्यों से इस सम्बन्ध में, कचरे को फटक ओसा बीजप्रेरणा ले आगे की दिशा निश्चित की जा सकती है।
लुप्त होने से ही ध्यान आया – मनुष्यों में पुंसत्व के कारक Y-गुणसूत्र के क्रमश: क्षीण एवं निष्क्रिय होते जाने के कोलाहल बीच एडिनबर्ग विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा कृत्रिम मनुष्य-अण्ड के निर्माण की उपलब्धि का। चूहों के कृत्रिम अण्ड से जीव जन्म तक की उपलब्धि के दशकों पश्चात यह पड़ाव आया है। सोचते हुये अनायास ही विज्ञान की गल्प कथायें मन में उपराने लगती हैं।
मानव नर की कोशिकाओं के नाभिक में X तथा Y दोनों प्रकार के गुणसूत्र होते हैं जबकि स्त्री में केवल X-X। 12 सप्ताह के गर्भ में भ्रूण के नर सन्तति के रूप में विकसित होने से सम्बन्धित अंत:स्राव होने लगते हैं।
X गुणसूत्र में 1600 वंशाणु होते हैं जबकि Y में लगभग 50 जिनमें से मात्र 27 पुल्लिङ्ग सम्बन्धित होते हैं। Y का अधिकांश भाग पुनरावृत्ति करते ‘कचरा वंशाणुओं’ से बना होता है – निष्क्रिय। तुलना करें तो पुंसत्व से सम्बन्धित Y गुणसूत्र क्षयी दिखता है जिसकी अधिक आयु शेष नहीं। यह भविष्यवाणी तक कर दी गई कि आगामी 45 लाख वर्षों में पुरुष को गर्भ में ही पुरुष बनाने वाला Y गुणसूत्र लुप्त हो जायेगा!
वैज्ञानिकों का कहना है कि क्षीण Y गुणसूत्र बाह्य आक्रमणों, उत्परिवर्तनों तथा विनाश से बचने के लिये X गुणसूत्र से कुछ ग्रहण भी नहीं कर सकता क्योंकि उसके कतिपय वंशाणुओं का ‘पुरुष विशिष्ट’ कार्य बचाये रखने के लिये X से लेन देन बाधित किया हुआ रहता है।
तो क्या पुरुष बचेगा ही नहीं!
इन सबके बीच वे वैज्ञानिक आशा बचाये रखते हैं जिनके अनुसार Y गुणसूत्र का क्षरण अब लगभग शून्य हो चुका है एवं पिछले 25 करोड़ वर्षों में इसने अत्यल्प वंशाणु ही खोये हैं। Y गुणसूत्र बना रहेगा, लुप्त भी हो गया तो विकल्प उसका स्थान ले लेगा अर्थात पुरुष बना रहेगा, बनी रहेंगी स्त्री पुरुष की प्रेमलीलायें, उनके आपसी व्यापार तथा मैथुनी सृष्टि भी।
स्त्री अपने जन्म के साथ ही अपरिपक्व अण्डों की वाहक होती है जो कैशोर्य प्राप्ति के पश्चात ही विकसित होते हैं। यद्यपि इस प्रयोग के लिये विकास के सबसे प्रारम्भिक अवस्था के ऊतक मानव स्त्री से ही लिये जाने के कारण नये जन्म हेतु स्त्री अभी भी अपरिहार्य है किन्तु भविष्य में कृत्रिम शुक्राणु तथा कृत्रिम अण्डों के मिलन से अ-कृत्रिम शिशुओं के जन्म की सम्भावनायें तो हैं ही, अ-कृत्रिम इस कारण कि वे रोबो न हो कर हाड़ मांस के मानव ही होंगे। उस समय क्या होगा?
शब्द, भाषा, लिङ्ग इत्यादि के लुप्त होने, निज हस्तक्षेप एवं अवांछित उत्प्रेरण होने को ले कर आज का मनुष्य कितना सशङ्कित है! क्यों है? तब जब कि वह स्वयं भी खिलवाड़ में लगा है? जाने कितने खेल अरबो खरबों डॉलर की पूँजी से पूरी गम्भीरता के साथ नैरन्तर्य बनाये हुये हैं। ऐसा क्यों है?
उत्तर हैं – अपनी सीमाओं को लाँघने की दुर्दमनीय इच्छा तथा नव्यता की साधना के साथ साथ प्राकृतिक एवं स्वरचित परिवेश के प्रति भय की भीतरी पुकार के कारण असमञ्जस की स्थिति। अस्तित्त्व के प्रति ‘अरुचि’ के साथ साथ ही सन्तुलन साध लेने की दुर्धर्ष अमराकाञ्छा। मानव अपनी गढ़न में ही ऐसा है।
हम मानवों को ऐसे ही चलते रहना होगा। सत, रज, तम से युक्त हमारा निजी बासन्ती संसार उतना बुरा भी नहीं, हम चाहे जो कहें, जितना कहें।