कविता, सोनम तेन्पा, तिब्बत
घर लौटते ही – उसी क्षण
मैं भूल जाता हूँ – पूर्णत:
कि
इस साम्राज्य में है
न तो सूरज का प्रकाश
और न आकाश।
कितना सुखदायी है यहाँ, घर में
खोल पाना द्वार और वातायन
बन्द कर पाना उन्हें किसी भी समय
स्वतंत्रता में।
यद्यपि साम्राज्य करता है कोलाहल
इन वातायनों के पार,
कितना सुखद है यहाँ
सोफे पर पड़े पड़े,
इस शांति और ऊष्मा का
आस्वादन कर पाना
जैसे मैं चाहूँ।