कुछ दिन पहले टहलते समय मेरी लगभग दस साल की बेटी ने प्रश्न किया कि क्या बड़े होने पर लड़कियों को छोटे कपडे नहीं पहनने चाहिए? यद्यपि मैंने अभी तक उससे यह बात नहीं की है, पर उसने मुझे देख कर या आस पास देख कर ऐसा सोचा होगा। बच्चे सिखाने से अधिक देखकर या अनुभव कर के सीखते हैं। इस प्रश्न का उत्तर केवल हाँ या ना में नहीं दिया जा सकता क्योंकि समय परिवर्तित हो चुका है। वह समय नहीं रहा कि आप कहेंगे नहीं पहनो या हाँ, पहन लो और बच्चे मान जायेंगे। अब आपको तर्क देना होगा, कारण बताने होंगे।
सबसे पहले यह समझना आवश्यक है कि वस्त्र क्यों पहने जाते हैं, क्या केवल देह को ढकना ही कारण है या और भी कुछ? कपड़े मुख्यतया ऋतु के अनुसार पहने जाते हैं। भारतवर्ष में अधिकतर स्थानों पर गर्मी रहती है और सूर्य का तीखा ताप पड़ता है तो तन को ढक कर रखने का प्रचलन है। साथ ही यहाँ मुख्य रूप से सूती के कपड़े पहने जाते थे। बाबर ने एक स्थान लिखा है कि,”हिन्दोस्तान में महिलायें केवल दो कपड़े और पुरुष एक कपड़ा पहनता है।” बिना सिला कपडा शुद्ध माना जाता था, आज भी यज्ञ हवन आदि में धोती पहनने का चलन है अर्थात कपड़े वस्तुतः ऋतु और सुविधा देखकर पहने जाते थे। अब चूँकि स्त्रियाँ घर सँभालती रही होंगी तो धोती उनकी परिधान थी। कुछ स्त्रियाँ, यथा रानी चेनम्मा या लक्ष्मीबाई, रणक्षेत्र में भी गयीं, उनकी धोती किञ्चित परिवर्तित, सुबद्ध दिखी। कुल मिलाकर साटिका धोती या साड़ी ही विविध रूपों में दिखती है।
अब क्योंकि हमारे देश के अधिकतर भाग में सूर्य का ताप व प्रकाश भरपूर मात्रा में थे तो हमको देह दिखाने की नहीं, छिपाने की आवश्यकता थी। गर्मी, लू के थपेड़े और ठण्ड से देह को बचाने की आवश्यकता थी। इसलिए भारत में कपड़े शरीर को ढकने वाले मिलते हैं।
पश्चिम में चूँकि सूरज की गर्मी और प्रकाश, दोनों अत्यल्प मिलते हैं इसलिये जिस ऋतु में सूरज मिले उसमें वे sun bath जैसे उपक्रम करते हैं या छोटे कपड़े पहन कर घूमते हैं। अफ्रीका में ही देख लीजिये, अधिकतर तन को ऊपर से लेकर नीच तक ढके हुए लोग मिलेंगे। वहाँ तो सिर को भी ढकने की रीति है जिससे कि उसे भीषण आतप से बचाया जा सके। यहाँ तक कि अरब देशों में भी सिर से पाँव तक ढके हुए लोग मिलेंगे क्योंकि वहाँ धूप व धूल, दोनों का ही प्रकोप रहता है। जब एक प्रकार के वस्त्र पहने जाते हैं तो वे दैनिक जीवन का अंश बन जाते हैं। इस प्रकार भाँति भाँति के वस्त्र किसी देश या क्षेत्र विशेष से ऐक्य स्थापित कर लेते हैं।
तो ये भाँति भाँति का फैशन क्या है और महिलाओं में वस्त्रों को लेकर प्रतिस्पर्धा कहाँ से आई?
इस प्रश्न का एक शब्द में उत्तर है बाजारवाद।
किसी भी व्यवसाय को बढ़ाने के लिए केवल उसको बनाकर बेचना ही पर्याप्त नहीं होता, वरन जनता को उसकी उपयोगिता भी बतानी होती है। आप एक पैनी दृष्टि से देखिये तो बाजार की प्रथम उपभोक्ता महिलाएं हैं। महिलाओं के लिए उत्पादों से बाजार भरा पड़ा है, भाँति भाँति के सौंदर्य प्रसाधन, साबुन, तेल और कपड़े महिलाओं के लिए उपलब्ध हैं। इन सबको बेचने के लिए एक विचारधारा आवश्यक थी, फेमिनिज्म ने वह विचारधारा दी। जैसे, वे वह सब कर सकती हैं, जो पुरुष कर सकते हैं तो शराब और सिगरेट का मार्केट महिलाओं के लिए खोला गया। कपड़ों में एक भिन्न प्रकार के वस्त्र पहनी हुई महिला को आधुनिक, शार्प और बोल्ड मनवाया गया। साड़ी पहनी हुई पारम्परिक महिला को प्रचार माध्यमों द्वारा बहनजी बता दिया गया। हर महिला स्वयं को सुन्दर और अल्प आयु की मनवाना चाहती है।
सम्भवतः इसके पीछे सार्थक बने रहने की स्त्रियोचित भावना होती होगी। इसी को बढ़ाते हुये बाजार लग गया, कुछ कपड़े तो वे थे जो सुविधा दर्शा कर बेचे गए जैसे पतलून, शर्ट इत्यादि। शारीरिक श्रम करने वाली स्त्रियों ने इनको अपनाया जिससे कि सुविधा रहे। यद्यपि गाँवों में खेतों में काम करने वाली महिला तब भी साड़ी पर टिकी रही। सुविधा को छोड़ दिया जाए तो इसके अतिरिक्त जितने छोटे कपड़े बनाये या बेचे जा रहे हैं, वे सब आकर्षक दिखने और कौन कितना फैशनेबुल है, यह दर्शाने हेतु बेचे जा रहे हैं।
मैं छोटे कपड़ों को देख कर चकित होती हूँ क्योंकि पहली बात तो वे सुविधाजनक नहीं होते, दूसरी बात उनको पहनने के लिए विशेष ढंग की युक्तियाँ व सम्भार आदि करने पड़ते हैं और हाँ, सावधान भी रहना पड़ता है! व्यक्तिगत रूप से मुझे ऐसे कपड़े पहनने का औचित्य समझ में नहीं आता। यदि देह को दिखाना एक उद्देश्य है तो भी भारत के ऋतु विहार की दृष्टि से सुविधाजनक नहीं है। तब भी स्त्रियों में आपस में प्रतियोगिता है क्योंकि जैसा मैंने पहले लिखा बाजार ने इसके लिए एक भिन्न प्रकार की विचारधारा का प्रसार किया।
बात कपड़े पहनने की नहीं है, बात केवल इतनी है कि यदि किसी मनोग्रंथि से ग्रस्त होकर कपड़े पहने जा रहे हैं और एक विशेष प्रकार के कपड़े पहने जाने पर ही आप आधुनिक माने जाने की भावना से कपड़े पहन रही हैं तो समस्या तो है। समस्या तब भी है जब अपनी सीमा में रह कर व्यय न हो और नित परिवर्तित होते फैशन के अनुकूल हो कर कपड़े खरीदे और पहने जाएँ।
समस्या तब भी है जब किन्हीं वस्त्रों को जान बूझकर कामोत्तेजक ढंग से पहना जाय और यह कहा जाय कि कपड़ों से अंतर नहीं पड़ता।स्मरण रहे, समाज भाँति भाँति के लोगों से भरा हुआ है। सम्भव है कि किसी एक जन को अंतर नहीं पड़ता किंतु वहीं दूसरी ओर किसी दूसरे जन को अंतर पड़ता है। साड़ी को भी कामोत्तेजक ढंग से पहनने का चलन है तो अब क्या ही कहा जाये! हमारे सामने चुनौती यह है कि अपने बच्चों को यह वस्त्र गाथा कैसे समझायी जाए। मैंने कुछ कुछ ऐसा ही अपने बच्चों को बताया, आप भी प्रयास कर सकते हैं।
Very comprehensive way of putting up perspective …Well written
Described Perfectly didi. Proud of you. 🙏🙏🙏❤️