कर्तव्य का बोध नहीं होने से आचरण में भेद के सामान्यतया दो रूप किए जाते हैं – सदाचार और भ्रष्टाचार। भ्रष्ट आचरण सामाजिक महामारी होते हुए भी नवीन नहीं है। ऐसे आचरण की पहचान एवं उससे निपटने की चेत्वनी वर्षों से उपलब्ध रही है। कौटल्य ने लिखा है –
न भक्षयन्ति ये त्वर्थान् न्यायतो वर्धयन्ति च। नित्याधिकाराः कार्यास्ते राज्ञः प्रियहिते रताः॥
आस्रावयेच्चोपचितान् विपर्यस्येच्च कर्मसु। यथा न भक्षयन्त्यर्थं भक्षितं निर्वमन्ति वा॥
अर्थात् राजकार्य में नियुक्त ऐसे व्यक्ति जो शासकीय धन स्वयं नहीं हड़प उचित विधि से उसकी वृद्धि करते हैं, ऐसे राज्यकर्मियों को अधिकार-संपन्न पदों पर नियुक्त किया जाना चाहिए इसके विपरीत जो स्वयं अपने लाभ के लिए धन हड़पने की प्रवृत्त में लगे होते हैं उनकी संपदा छीन उन्हें निम्नतर पदों पर अवनत कर देना चाहिए। जिससे वे उदरस्थ किये गये राज्य-धन को उगल दें।
मनु ने उत्कोच के रूप में वस्तु या धन ग्रहण करने वाले व्यक्ति से सदा के लिए मुक्त हो जाने के लिए लिखा है –
ये कार्यिकेभ्योऽर्थमेव गृह्णीयुः पापचेतसः। तेषां सर्वस्वमादाय राजा कुर्यात्प्रवासनम् ॥
अर्थात् भ्रष्टपदाधिकारी यदि प्रजा से उत्कोच के रूप में कोई वस्तु या धन ग्रहण करे तो राजा को उसका सर्वस्वहरण कर उसे देश से सदैव के लिये निर्वासित कर देना चाहिए। ऐसा करना राजा का परम कर्तव्य है।
ऐसे व्यक्तियों की उपस्थिति, उनके दुर्जन एवं हीन आचरण करने की प्रवृत्ति तथा उनके संसर्गजन्य दोषों से तत्काल प्रभावित होने के भी अनेकों संदर्भ हैं। विगत वर्षों में मनोवैज्ञानिकों ने इस प्रश्न का अध्ययन किया कि क्यों कुछ देशों में भ्रष्टाचार की समस्या अत्यधिक है? इन अध्ययनों से एक स्पष्ट निष्कर्ष ये निकला कि भ्रष्टाचार संक्रामक है। अर्थात् यदि किसी समाज में कुछ व्यक्ति भ्रष्ट हों तो अन्य को भी शनैः शनैः यह एक सामान्य प्रक्रिया लगने लगती है। इन शोधों का अवलोकन करने से पहले महाभारत का ये कथन देखते हैं जिसके अनुसार दुष्ट के कुसंग से भला कौन प्रभावित नहीं होता?
हीयते हि मतिस्तात्, हीनैः सह समागतात्। समैस्च समतामेति, विशिष्टैश्च विशिष्टितम् ॥
अर्थात् हीन लोगों की संगति से व्यक्ति स्वयं भी बुद्धिहीन हो जाता है, सम लोगों संगति से बुद्धि सम बनी रहती है तथा विशिष्ट लोगों की संगति से विशिष्ट हो जाती है।
चाणक्य नीति में यह भी वर्णित है कि – दुराचारी च दुर्दृष्टिर्दुरावासी च दुर्जनः। यन्मैत्री क्रियते पुम्भिर्नरः शीघ्र विनश्यति ॥
अर्थात् दुराचारी तथा दुष्ट स्वभाव वाले से संसर्ग रखने से श्रेष्ठ व्यक्ति भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है क्योंकि संगति का प्रभाव नहीं पड़े ऐसा तो नहीं हो सकता। तुलसीदास लिखते हैं – बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।। यहीं नहीं उन्होंने यह भी कहा – को न कुसंगति पाइ नसाई। अर्थात् शोधों का निष्कर्ष देखने से पहले भी प्रक्रिया स्पष्ट ही है। ऐसा कोई नहीं जो कुसंगति से प्रभावित ना हो। अच्छे-अच्छे व्यक्ति भी ऐसे आचरण की धारा में बह चलें।
सुभाषित भी है –
गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः। सुस्वादुतोयाः प्रभवन्ति नद्यः समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेयाः ॥
अर्थात् नदियाँ पर्वत से तो स्वादिष्ट जल से युक्त ही निकलती हैं परंतु समुद्र तक पहुँच वो पीने योग्य नहीं रहती। उसी प्रकार कुसंगति में गुण भी अंततः दोष स्वरूप बन जाते हैं।
सितम्बर २०१९ में साइंटिफिक अमेरिकन में व्यावहारिक अर्थशास्त्र के अंतर्गत प्रकाशित आलेख Corruption Is Contagious में प्रो डैन अरीयलि और क्सिमेंना गार्सीआ राडा ने स्वयं के तथा अनेक अन्य नवीन शोधों का संदर्भ देते हुए इस बात को दर्शाया कि सारे शोध इस बात को इंगित करते हैं कि यदि हम अन्य लोगों को भ्रष्ट आचरण करते हुए देखते हैं तो हम भी उससे प्रभावित होते हैं। हमें यह एक सामान्य प्रक्रिया लगने लगती है। उत्कोच एक संक्रामक महामारी की तरह है। इसलिए जैसे-जैसे समय बीतता जाता है उसे नियंत्रित करना कठिन होता जाता है क्योंकि अधिक से अधिक लोग उसे सामान्य समझने लगते हैं। इसलिए कुछ समाजों में यह समस्या और भयावह होती जाती है। अन्य अध्ययनों में भी ये स्थापित हो चुका है कि भ्रष्ट आचरण संक्रामक होता है। यथा The pioneer evidence of contagious corruption एवं Local corruption is contagious इत्यादि।
एक अन्य अध्ययन में ये पाया गया कि विभिन्न देशों में भ्रष्टता के स्तर में भिन्नता होते हुए भी उत्कोच और भ्रष्ट आचरण की मानवी प्रवृत्ति व्यक्तियों में एक समान होती है। अर्थात् ऐसी मानवी प्रवृति के संदर्भ में समाज का कोई विशेष प्रभाव नहीं है। मानव व्यवहार एक समान होते हुए भी विभिन्न समाजों में भ्रष्ट आचरण में इस भिन्नता के क्या कारण है? इस प्रश्न का उत्तर ये मिला कि मानवी प्रवृत्ति समरूप होते हुए भी सामाजिक मानदंड और वैधानिक दंड की प्रक्रिया से ये अंतर आता है। अर्थात् एक को देखकर दूसरे भी संक्रमित होते हैं। वर्ष २००७ में अर्थशास्त्रीयों ने इस बात का अवलोकन किया कि न्यू यॉर्क में किस प्रकार भ्रष्ट देशों के राजनयिकों के वाहन अधिक त्रुटि करते पकड़े जाते थे लेकिन जब वैधानिक प्रक्रिया से पुलिस उनके राजनयिक अनुज्ञापत्र को हटाने लगी तो उनका व्यवहार अन्य लोगों की भाँति ही हो गया। अर्थात् हल वही – उचित दंड। दंड भी किस प्रकार का हो?
ये कार्यिकेभ्योऽर्थमेव गृह्णीयुः पापचेतसः | तेषां सर्वस्वमादाय राजा कुर्यात्प्रवासनम् ॥
बहुत सुन्दर ।