पिछले भाग ४८ से आगे, विभीषण सुंदरकांड में प्रथम बार
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा वानरस्य महात्मनः। आज्ञापयद्वधं तस्य रावणः क्रोधमूर्छितः॥
वधे तस्य समाज्ञप्ते रावणेन दुरात्मना। निवेदितवतो दौत्यं नानुमेने विभीषणः॥
महात्मा हनुमान के के वचन सुन क्रोध से मूर्च्छित हुये दुरात्मा रावण द्वारा उनके वध का आदेश विभीषण को अनुमन्य नहीं लगा, दूत अपने आने का उद्देश्य घोषित कर चुका था।
तं रक्षोधिपतिं क्रुद्धं तच्च कार्यमुपस्थितम्। विदित्वा चिन्तयामास कार्यं कार्यविधौ स्थितः॥
निश्चितार्थस्ततस्साम्ना पूज्यं शत्रुजिदग्रजम्। उवाच हितमत्यर्थं वाक्यं वाक्यविशारदः॥
यह जान कर कि क्रोधवश रक्ष अधिपति ने ऐसा आदेश दिया है, विभीषण से उस आदेश के विधिक औचित्य पर विचार कर अपना कर्तव्य निश्चित किया। वाक्यविशारद विभीषण ने अपने पूज्य बड़े भाई से उसके हितार्थ सौम्य वाणी में अर्थयुक्त बातें कहना आरम्भ किया –
राजधर्मविरुद्धं च लोकवृत्तेश्च गर्हितम्। तव चासदृशं वीर कपेरस्य प्रमापणम्॥
हे वीर! इस (दूत) वानर का वध राजधर्म के विरुद्ध होगा और लोकनिंदित भी है। ऐसा कर्म आप के योग्य नहीं है। विभीषण द्वारा वीर सम्बोधन में वीरता का आदर्श सङ्केतित है कि बिना राजधर्म एवं नीतिसम्मत हुये वीरता नहीं होती।
असंशयं शत्रुरयं प्रवृद्धः कृतं ह्यनेनाप्रियमप्रमेयम्। न दूतवध्यां प्रवदन्ति सन्तो दूतस्य दृष्टा बहवो हि दण्डाः॥
वैरूप्यमङ्गेषु कशाभिघातो मौण्ड्यं तथा लक्षणसन्निपातः। [ पाठभेद – वैरूप्यामङ्गेषु कशाभिघातो; मौण्ड्यं तथा लक्ष्मणसंनिपातः ॥]
एतान् हि दूते प्रवदन्ति दण्डान् वधस्तु दूतस्य न नः श्रुतोऽस्ति॥
कथं च धर्मार्थविनीतबुद्धिः; परावरप्रत्ययनिश्चितार्थः ॥
भवद्विधः कोपवशे हि तिष्ठे;त्कोपं नियच्छन्ति हि सत्त्ववन्तः ।
न धर्मवादे न च लोकवृत्ते न शास्त्रबुद्धिग्रहणेषु चापि। [पाठभेद – वापि]
विद्येत कश्चित्तव वीर तुल्य स्त्वंह्युत्तमस्सर्वसुरासुराणाम्॥
इसमें संशय नहीं कि इस शत्रु ने बहुत ही हानि की है तथा भयानक एवं अप्रिय कर्म किये हैं, (परंतु) बुद्धिमान लोगों ने दूत के वध का निषेध किया है तथा (अपराधी होने पर) उसके लिये बहुत से दण्ड बताये गये हैं – अङ्गों से विरूप कर देना, कशा आघात, मस्तक मुण्डित करवा देना तथा दैहिक लक्षणों की हाँइ कर देना। किसी भी दूत का दण्डस्वरूप वध नहीं सुना गया है। धर्म और अर्थ में रमने वाली आप की बुद्धि गुण-दोष का निर्णय कर ही चलती है। आप कोप के वशीभूत हो ऐसा कर्म कैसे कर रहे हैं? आप जैसे सत्त्वशाली को निश्चय ही कोप पर नियंत्रण रखना चाहिये। स्यात ही कोई हो जिसकी बुद्धि राजधर्म, नीति और शास्त्र में आप के समान हो आप के तुल्य कोई वीर नहीं। निश्चय ही आप समस्त देवों और असुरों से श्रेष्ठ हैं।
प्रशंसा नहीं होती तो रावण धर्म, अर्थ एवं बुद्धिमान लोगों की दुहाई सुनता ही नहीं। विभीषण ने शत्रुभाव को तनु करने हेतु एवं उससे ध्यान हटाने हेतु आगे कहा –
न चाप्यस्य कपेर्घाते कञ्चित्पश्याम्यहं गुणम्। तेष्वयं पात्यतां दण्डो यैरयं प्रेषितः कपिः॥
साधुर्वा यदि वाऽसाधुः परैरेष समर्पितः। ब्रुवन् परार्थं परवान्न दूतो वधमर्हति॥
अपि चास्मिन् हते राजन्नान्यं पश्यामि खेचरम्। इह यः पुनरागच्छेत्परं पारं महोदधेः॥
तस्मान्नास्य वधे यत्नः कार्य: परपुरञ्जय। भवान् सेन्द्रेषु देवेषु यत्नमास्थातुमर्हति॥
और मैं इस कपि के वध में किञ्चित भी गुण नहीं देखता। आप उनको दण्डित करने हेतु आदेश दे सकये हैं जिन्होंने इसे यहाँ भेजा है। चाहे यह साधु है या असाधु, दूसरों के द्वारा यहाँ भेजा गया है। यह जो भी कह रहा है, वह दूसरों का संदेश मात्र है और उन पर निर्भर है। ऐसा दूत वधयोग्य नहीं होता।
राजन! यदि यह मारा गया तो मैं अन्य कोई ऐसा नहीं देखता जो आकाशमार्ग से सागर को पार कर यहाँ पुन: आ सके।
हे शत्रुओं के पुरों के विजेता, आप इस वधकार्य का यत्न न करें। आप तो इंद्रसहित अन्य देवों जैसे शत्रुओं के विरुद्ध अभियान की अर्हता रखते हैं (कहाँ एक वानर की चिन्ता में पड़े हैं!)।
शूरों की समरप्रियता पर स्नेहन एवं उस हेतु उत्प्रेरण उनका ध्यान क्षुद्र बातों से हटा देता है, ऐसा जानने वाले विभीषण ने आगे कहा –
अस्मिन्विनष्टे न हि वीरमन्यं पश्यामि यस्तौ नरराजपुत्रौ। [ पाठभेद – वरराजपुत्रौ]
युद्धाय युद्धप्रियदुर्विनीतावुद्योजयेद्धीर्घपथावरुद्धौ॥
पराक्रमोत्साहमनस्विनां च सुरासुराणामपि दुर्जयेन।
त्वया मनोनन्दन नैरृतानां युद्धायतिर्नाशयतुं न युक्ता॥
हे युद्धप्रिय! इसके मारे जाने पर मैं अन्य कोई ऐसा वीर नहीं देखता जो उन दो दुर्विनीत नरराजपुत्रों को यहाँ पहुँचने हेतु प्रेरित कर सके जिनका यहाँ तक पहुँचने का मार्ग अवरुद्ध है (अर्थात हनुमान उनके पास जीवित पहुँचेंगे, तब ही वे यहाँ आयेंगे जिनसे आप को प्रतिशोध लेना श्रेयस्कर है)। विभीषण राक्षसराज रावण का ध्यान बड़े शत्रु की ओर करते चले गये।
हे राक्षसों के मनहर, आप से तो पराक्रम व उत्साह से भरे मनस्वी सुर एवं असुर भी नहीं जीत सकते। युद्ध का अवसर छोड़ना आप के लिये युक्तियुक्त नहीं है (जब वानर अपने स्वामियों तक जीवित पहुँचेगा, तब ही वे उसके बताये अनुसार यहाँ आ पायेंगे तथा युद्ध होगा)। अहङ्कारी रावण के अभिमान पर यह स्नेहन था अन्यथा कौन राजा अपनी भूमि पर इस प्रकार युद्ध आमन्त्रित करना चाहेगा, तब जब कि बिना युद्ध के ही मिले फल के रूप में सीता उसकी बंदिनी थीं!
हिताश्च शूराश्च समाहिताश्च कुलेषु जाताश्च महागुणेषु ।
मनस्विनश्शस्त्रभृतां वरिष्ठाः कोट्यग्रतस्ते सुभृताश्च योधाः॥ [पाठभेद – कोट्यग्रशस्ते]
तदेकदेशेन बलस्य तावत्केचित्तवाऽऽदेशकृतोऽभियान्तु । [पाठभेद – केचित्तवादेशकृतोऽपयान्तु]
तौ राजपुत्रौ विनिगृह्य मूढौ परेषु ते भावयितुं प्रभावम्॥
आप के पास ऐसे सुपालित करोड़ो हितैषी शूर हैं जो कुलीन, महागुणवान, मनस्वी एवं श्रेष्ठ शस्त्रविद हैं। आप उन आज्ञाकारियों में से कुछ को आदेश दें कि शत्रु पर आप की शक्ति दर्शाने हेतु वे अभियान करें और उन दो राजपुत्रों को पकड़ लायें।
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा दशग्रीवो महाबल:। देशकालहितं वाक्यं भ्रातुरुत्तरमब्रवीत्॥
सम्यगुक्तं हि भवता दूतवध्या विगर्हिता। अवश्यं तु वधादन्यः क्रियतामस्य निग्रहः॥
कपीनां किल लाङ्गूलमिष्टं भवति भूषणम्। तदस्य दीप्यतां शीघ्रं तेन दग्धेन गच्छतु॥
ततः पश्यन्त्विमं दीनमङ्गवैरूप्यकर्शितम्। समित्रज्ञातयस्सर्वे बान्धवाः ससुहृज्जनाः॥
आज्ञापयद्राक्षसेन्द्रः पुरं सर्वं सचत्वरम्। लाङ्गूलेन प्रदीप्तेन रक्षोभिः परिणीयताम्॥
महाबली दशानन ने वे देशकालहितयुक्त वचन सुने और अपने भाई विभीषण से बोला –
तुमने बहुत ही सम्यक बात कही है। दूत का वध निंदनीय है। इसे दण्डित करने हेतु निश्चय ही वध के अतिरिक्त कुछ अन्य उपयुक्त किया जा सकता है। वानरों को अपनी पूँछ बहुत प्रिय होती है तथा वह इनकी शोभा भी होती है। इसे शीघ्र ही आग लगा दो तथा जलती हुई पूँछ के साथ इसे जाने दो।
इस प्रकार इसके मित्र, बंधु, सुहृद और जाति वाले इसे अङ्ग छिन्नता के कारण दीन और विरूपित हुआ देखेंगे। राक्षसराज की आज्ञा पा कर राक्षस, हनुमान जी को उनकी पूँछ में आग लगा कर नगर के सभी चतुष्पथों पर घुमाते ले चले।
विभीषण के कारण मारुतिनंदन हनुमान को जीवनदान तो मिला ही, आगे भी कुछ कर दिखाने का अवसर मिल गया।
टिप्पणी :
इस अंश में कालांतर में जोड़े गये श्लोक भी हैं। ‘अनार्यजुष्टम्’ जैसे प्रयोग से प्रतीत होता है कि किसी महाभारत प्रणेता द्वारा भी इस अंश का सम्पादन किया होगा। निम्नलिखित अंश रामायण के शोधित चिकित्सित पाठ में नहीं हैं अर्थात इनके प्राचीन होने की सम्भावना अल्प है।
इनका कालांतर का होना दुहराव व विशेष पौराणिक शैली से भी सिद्ध होता है जिसमें रावण पर महानता आरोपण का अतिरिक्त प्रयास स्पष्ट परिलक्षित है। प्रचलित पाठ के वे श्लोक निम्नवत हैं :
क्षमस्व रोषं त्यज राक्षसेन्द्र प्रसीद मद्वाक्यमिदं शृणुष्व।
वधं न कुर्वन्ति परावरज्ञा दूतस्य सन्तो वसुधाधिपेन्द्राः॥
…
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च राजधर्मविशारदः। परावरज्ञो भूतानां त्वमेव परमार्थवित्॥
गृह्यन्ते यदि रोषेण त्वादृशोऽपि विचक्षणः। तत श्शास्त्रविपश्चित्त्वं श्रम एव हि केवलम्॥
तस्मात्प्रसीद शत्रुघ्न राक्षसेन्द्र दुरासद। युक्तायुक्तं विनिश्चित्य दूतदण्डो विधीयताम्॥
विभीषणवचः श्रुत्वा रावणो राक्षसेश्वरः। रोषेण महताविष्टो वाक्यमुत्तरमब्रवीत्॥
न पापानां वधे पापं विद्यते शत्रुसूदन। तस्मादेनं वधिष्यामि वानरं पापचारिणम्॥
अधर्ममूलं बहुदोषयुक्तमनार्यजुष्टं वचनं निशम्य। उवाच वाक्यं परमार्थतत्त्वं विभीषणो बुद्धिमतां वरिष्ठः॥
…
निशाचराणामधिपोऽनुजस्य विभीषणस्योत्तमवाक्यमिष्टम्। जग्राह बुद्ध्या सुरलोकशत्रु र्महाबलो राक्षसराजमुख्यः॥
…
शूरेण वीरेण निशाचरेन्द्र सुरासुराणामपि दुर्जयेन। त्वया प्रगल्भाः सुरदैत्यसङ्घा जिताश्च युद्धेष्वसकृन्नरेन्द्राः॥