तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये ।
आयासायापरं कर्म विद्यान्या शिल्पनैपुणम् ॥ १,१९.४१ ॥
कर्म वह जो बन्धन में न डाले, विद्या वह जो मुक्ति प्रदान करने वाली हो। अन्य कर्म श्रम मात्र हैं और अन्य केवल शिल्प निपुणता।
उपर्युक्त श्लोक विष्णुपुराण से है जोकि प्रह्लाद द्वारा अपने आचार्य से कहा गया है। प्रह्लाद की कथा सभी जानते हैं। गुरु गुड़ ही रह गये, चेला चीनी हो गये – यह श्लोक इस कथन की पुष्टि करता है। भारतीय परम्परा विद्या को परा एवं अपरा, दो बड़े भागों में बाँटती है। स्थूल भौतिक निपुणता एवं आध्यात्मिक उन्नति में सामञ्जस्य स्थापित कर उच्चतर गढ़न वाले मानुष गढ़ना भारतीय विद्या-परम्परा का परम उद्देश्य रहा है।
आजकल इस बात की बड़ी चर्चा होती है कि भारतीय विश्वविद्यालयों से जो स्नातक ‘उत्पादित’ हो रहे हैं, उनमें से अधिकांश नियोजन-योग्य हैं ही नहीं! ‘चाकरी’ को ‘अधम’ मानने वाला देश, उद्यमिता व उपक्रम को सर्वोच्च आदर्श मानने वाला यह देश इस स्थिति तक कैसे पहुँचा कि भौतिक व आध्यात्मिक उन्नति का सामञ्जस्य तो बहुत बड़ी बात है, चाकरी तक के लाले पड़ गये; यह अपने आप में एक बृहद विषय है।
विद्या विद् मूल से है जिसका अर्थ जानना होता है। ज्ञान-विज्ञान की हमारी परम्परा में बिना जाने बोलना निषिद्ध रहा, मौन की बड़ी महत्ता रही। अब समय कोलाहल का है, टी वी पर, सोशल मीडिया पर, समाचार पत्रों में, मार्गों पर, घरों में, संगीत में, विश्वविद्यालयों में; सर्वत्र कोलाहल का साम्राज्य है। मौन, मनन एवं सुज्ञकथन तो जैसे भुला ही दिया गया, हमारा समय चीखते विज्ञापनों का है। दुर्भाग्य से समस्त मानवीय कार्य-व्यापारों पर विज्ञापन व प्रचार चढ़े बैठे हैं। इस देश में ‘विद्या’ को अब ‘विद्यार्थियों’, ‘विद्यालयों’ एवं ‘शिक्षकों’ की एक गतिविधि मात्र माना जाता है। ढेर सारी ‘आर्थिक’ गतिविधियों में यह भी एक गतिविधि है। जिस युक्ति से मानव ‘गढ़े’ जाते हैं, उसकी ऐसी उपेक्षा एवं दुर्दशा ही हमारी समस्त समस्याओं के मूल में हैं। हम अब मानव गढ़ ही नहीं पा रहे।
जहाँ कॅरिअर बनाना ही एकमात्र उद्देश्य हो और उसमें भी असफलतायें ही प्रमुख हों, वहाँ अंधेरा रहना ही है। नवोन्मेष एवं विराट उन्नति ऐसे परिवेश में फूल फल नहीं सकते।
हमारे विद्यालय सम्मोहन तंत्र हैं जो कुछ छिछली मान्यताओं एवं घालमेली नारों पर आधारित हैं, यथा – संविधान की सर्वोच्चता, पुरातन का त्याग, निहित स्वार्थ समूहों का पोषण, स्त्री दमन-उत्थान, अधिकार, दलित उत्पीड़न, मानवाधिकार आदि इत्यादि। हमारी सकल चेतना का एक भाग समझता है, छटपटाता है कि कुछ तो है जो ठीक नहीं है, बहुत गड़बड़ है किंतु दूषित शिक्षा से संक्रमित मानस उससे आगे बढ़ ही नहीं पाता। छटपटाहट से मुक्ति पाने को वह ‘एक और नया सनसनाता कोलाहल’ ढूँढ़ता है तथा उसके लिये अवसर की निरंतर प्रतीक्षा में रहता है।
अवसर मिलते ही उस पर श्येन की भाँति टूट पड़ता है, कोलाहल कर अपने संत्रास से कुछ घण्टों व दिनों की मुक्ति का भ्रम उत्पन्न कर लेता है तथा पुन: नये अवसर की प्रतीक्षा में संत्रस्त हो लेता है, विद्या गयी तेल लेने, मनन लगे खली चूने!
कहीं धर्षण ‘rape’ होना भी एक अवसर है। वास्तव में हुआ हो या नहीं, यदि सम्भावनायें बनती हैं तो ‘सम्भावना’ से ‘अवश्यमेव घटित’ बना देने में, त्वरित सोशल मीडिया के इस युग में कुछ घण्टे ही लगते हैं, ‘कोलाहल की विद्या’ आनी चाहिये! बड़े प्रभावी दबाव समूह हैं जो सच को ‘गढ़ने’ में पूरी आस्था रखते हैं और पूरे समर्पण के साथ उसके प्रचार में लग जाते हैं। ‘आँखन देखी’ से ‘कानन सुनी’ की महत्ता बहुत अधिक है, तब और जब कानों को जाली दृश्यावली का भी सहयोग प्राप्त हो। इस युग में सब बिकता है और ग्राहक कौन हैं?
ग्राहक वही लोग हैं जो वर्तमान शिक्षातंत्र के उत्पाद हैं – आयासायापरं कर्म विद्या अन्यथा शिल्पनैपुणम् वाले। शिल्प की निपुणता भी तो नहीं पास में! सभी अपनी दृष्टि किसी बड़े आंदोलन के, किसी बहुत अड़े आदर्श के महान कार्यकर्ता हैं जबकि वास्तव में वे मात्र ‘उपयोग’ में लाये जा रहे हैं। वे चतुर लोगों के ऐसे भोंपू हैं, useful idiots! जिनकी विद्या मुक्त करने वाली थी ही नहीं। उनका भी दोष नहीं है किंतु ऐसे में सकल राष्ट्रीय अवमूल्यन तो होते ही रहना है। चिंतनीय स्थिति है किंतु ‘चिंतन मनन’ हेतु भी तो वरेण्य शिक्षा का अवलम्ब चाहिये न! वह तो है ही नहीं। कोई जाति, कोई राष्ट्र ऐसे ही पतित नहीं हो जाते, उनके साथ ऐसा ही कोई बड़ा गर्हित चक्र लगा होता है।
शीलापहरण युक्त बलात्कार, rape बड़ा ही सम्वेदनशील विषय है, निकृष्टतम अपराध तो है ही। किंतु यह भी एक कटु यथार्थ है कि इसे ले कर जिस प्रकार के कथ्य स्थापित किये जाते रहे हैं और आज भी किये जा रहे हैं, वे एक राष्ट्र हेतु बड़े ही घातक हैं। यदि आप फेमिनिज्म को नारी कल्याण से जुड़ा मात्र मानते हैं तो भ्रम में हैं।
फेमिनिज्म, toxic feminism, एक ऐसी युक्ति, tool भी है जो समाज को ध्वस्त करने का उद्देश्य ले कर चलने वाले जिहादियों द्वारा प्रयोग में लाई जा रही है। सामान्यत: उग्र (radical) एवं ethical (नैतिक) जैसे भेद बताये जाते हैं किंतु वे आवरण मात्र हैं जो घिनौने अभियान को छिपाने हेतु प्रयुक्त होते हैं। एक पूरी पीढ़ी की नवयौवनाओं को पुरुष जाति के प्रति वितृष्णा एवं घृणा से भर देने का यह बड़ा षड्यंत्र भी है जिसका अंतिम उद्देश्य विवाह एवं परिवार संस्था को ध्वस्त कर एक ऐसे निर्बल एवं कुत्सित समाज की परिणति लाना है जिस पर विजय सरल हो। आत्मग्लानि से संक्रमित हो या औचित्य के अभिनय में या छवि चमकाने हेतु कथित विद्वान एवं विदुषियाँ भी ऐसे कोलाहल के प्रसार में लगे हैं जो हास्यास्पद तो है ही, उनकी मानसिक गढ़न को भी नग्न करता है। विद्या विद्या हो ही न, केवल उदरम्भरि गढ़ती रही हो तब स्वार्थ में ऐसा पतन होते देख मन हाहाकार करता है कि जिन्हें दिशा दिखानी थी, वे तो स्वयं कुँये के अंधेरे में पड़े हैं!
समता एवं विशिष्टता का सम्+तुलन न होने से युवा वर्ग में विष बढ़ रहा है। युवतियाँ अनुचित एवं घातक आक्रामकता से ग्रस्त हो रही हैं और युवक आत्मघृणा से। मनोबल का गिरना किसी भी राष्ट्र के पतन का एक बड़ा कारण होता है। सत्य के स्थान पर कृत्रिम ‘औचित्य’ मात्र को वरीयता देने से हमारी जो बड़ी हानि हो रही है, वह पौरुष की है।
किसी भी सभ्य समाज में जननी स्वरूपा स्त्री का सम्मान व सुरक्षा बड़े आदर्श होते हैं, हमारे यहाँ भी हैं और रहेंगे किंतु यह भी सच है कि उन्हें बनाये रखने हेतु मानसिक रूप से स्वस्थ, आत्मग्लानि या आत्मघाती वितृष्णा से मुक्त धर्मनिष्ठ साहसी पुरुष परम आवश्यक हैं, तब और जब कोई समाज चहुँओर आक्रमणों को झेल रहा हो। आज भी रक्षा-सुरक्षा में, हानिकारक स्थलों पर, दैहिक शक्ति की आवश्यकता वाले कामों में, जुगुप्सा जगाने वाले अनिवार्य कर्मों में, आक्रमण के विरुद्ध प्रतिरोध में पुरुष ही प्रमुख हैं। इन क्षेत्रों में स्त्री का आना अभी आरम्भ हुआ है, कुछ क्षेत्रों में स्यात कभी भी वह बड़े स्तर पर नहीं आयेगी और कुछ में तो सम्भवत: कभी नहीं।
जिन देशों में बहुत पहले से ऐसा होने लगा था, वहाँ अभी भी पुरुष ही प्रमुख हैं। पुरुष मानसिक रूप से निर्बल होगा या कृत्रिम औचित्य के चक्कर में यदि अपने पुरुषोचित गुणों को ही गँवा देगा तो वह एक महती क्षति होगी जो स्त्रियों को अधिक कुप्रभावित करेगी। स्त्री अपने प्रकाश हेतु, विकास हेतु लगे, यह परम आवश्यक है किंतु साथ ही यह भी आवश्यक है कि वह विष से मुक्त रहे और उसका प्रचार-प्रसार न करे। जन को जन्म देने वाली जननी ही विष-संक्रमित हो गयी तो बड़े भयावह परिणाम होंगे।
स्त्री हों या पुरुष, सभी मुक्तमना हों। आग्रहों से मुक्त हों, सत्यान्वेषण हेतु लगें, वाणी का संयम रखें और समय का सदुपयोग करें। कोल्हू के बैल की भाँति उसी पुराने ढर्रे में घूमते रहने से चलेंगे तो बहुत किंतु पहुँचेंगे कहीं नहीं – आयासायापरं कर्म। कुण्ठाओं एवं जड़ता से मुक्त हो अपने कर्तव्य पर केंद्रित हों, अपने क्षेत्र में निपुणता एवं उत्कृष्टता की साधना करें, उद्योगी हों।