1235 ई.। नालंदा विश्वविद्यालय अपनी पूर्व कीर्ति और वैभव की जर्जर स्मृति-मात्र रह गया था। उसके बचे भग्नावशेषों में गया के राजा बुद्धसेन और ओदंतपुरी निवासी ब्राह्मण शिष्य जयदेव के अनुदानों से 70 शिष्यों के साथ भदंत राहुल श्रीभद्र शिक्षा दीक्षा की परम्परा को जीवित रखे हुये थे।
पहले के इस्लामी तुर्क आक्रमण से बचे रहे गये एक भवन में दशमी अवस्था प्राप्त कर चुके भदंत राहुल से हाथ जोड़ कर शिष्य प्रार्थना कर रहे थे कि वह स्थान छोड़ दें। ओदंतपुरी से समाचार मिला था कि नालंदा पर मुसलमान पुन: आक्रमण करने वाले थे। गुरु ने मना कर दिया और सबको प्रस्थान करने को कहा। सुदूर तिब्बत से आया शिष्य चोस-र् जे-द्पाल (धर्मस्वामी) नहीं माना और गुरु के पास रुका रह गया।
आक्रमण के पूर्व की रात उसने जरा-जर्जर गुरु को पीठ पर बिठा लिया। गुरु, चावल और नमक की पोटली लिये वह रात भर चलता रहा। उन दोनों ने एक प्राचीन मंदिर में शरण ली। दिन हुआ और बची-खुची नालंदा पर इस्लाम की जिहादी तेग गिरी। कोई जीवित व्यक्ति तो था नहीं, बचे रह गये दो विहारों धनब और घुनब में जो भी पाण्डुलिपियाँ मिलीं, नष्ट कर दी गयीं। अल्लाह का हुक़्म पूरा कर जिहादी लौट गये। गुरु राहुल श्रीभद्र धर्मस्वामी के साथ लौट आये। भग्नावशेष में पुन: वृद्ध और युवा समवेत स्वर गूँज उठे – ओं मणि पद्मे हूं ह्री:, ओं मणि पद्मे हूं ह्री:… किंतु नालंदा इस प्रहार को झेल न सका। गुरु की मृत्यु और धर्मस्वामी के तिब्बत लौटने के साथ ही सदियों लम्बी परम्परा का अवसान आरम्भ हो गया, लोग भूलते गये।
‘बुत’ और बुतपरस्तों को धरा से मिटा देने के दीनी उन्माद ने भारत को सदियों तक रौंदा। पश्चिम के प्रभास तट से पूरब के गौड़ बंग तक, उत्तर में कश्मीर से ले कर दक्षिण के मदुरइ मीनाक्षी मंदिर तक सम्पूर्ण भारत में इस्लामी हिंसा के प्रमाण इतिहास के साथ उपलब्ध हैं। शिक्षा और विद्या के केंद्र बारम्बार नष्ट किये गये, बचे खुचे भी ढूँढ़ ढूँढ़ कर ध्वस्त किये गये। ब्राह्मण एवं श्रमण गुरुओं को काट डाला गया। काफिर हिंदुओं की संस्कृति के समूल नाश में कोई कसर नहीं छोड़ी गई ताकि मूलविहीन हिंदुओं को मुसलमान बनाया जा सके किंतु अग्निसंस्कारी भारत भस्म से पुन: पुन: उठता रहा।
समय बीता, आख्यानों के संदर्भ और प्रसंग राजनीतिक स्वार्थ हेतु विकृत कर आधुनिक भारत में प्रचारित किये जाने लगे। वोट की लिप्सा ने समाज में ऐसी ठोस दरारों को स्थापित कर दिया है जिन्हें भरना असम्भव तो नहीं किंतु दु:साध्य तो है ही। एक ओर वह वर्ग है जो बिना किसी ऐतिहासिक समझ के बौद्ध धर्म के भारत से लुप्त होने का कारण पुष्यमित्र शुंग द्वारा दमन बताता हुआ यह प्रचारित करता है कि हिंदू आराध्य श्रीराम और कोई नहीं, वही है और वाल्मीकि उसका राजकवि तो दूसरा वर्ग वह है जो इस धूर्त प्रचार में अपना गर्व मिलाते हुये वक्ष पीटता है कि पुष्यमित्र न होता तो सनातन धर्म समाप्त हो गया होता। ऐतिहासिक रूप से ये दोनों गल्प मिथ्या तो हैं ही, वर्तमान भारत के लिये विष हैं। इतिहास और वर्तमान दोनों साक्षी हैं कि मत और साम्प्रदायिक भेदों के साथ भारत सहस्राब्दियों से रहता जीता चला आया है। संदिग्ध रूप में उपेक्षा, व्यंग्य, गल्प-गढ़न आदि मार्ग विरोधी मतों के लिये भले अपनाये गये हों, सुनियोजित ढंग से हिंसा के उपयोग द्वारा समूल नाश के प्रयास इस भूमि के आदर्श कभी नहीं रहे। अब जो गल्प प्रचारित किये जा रहे हैं, वे अब्राहमी मानसिकता के विस्तार और मायावी संस्करण हैं। इनका प्रभाव सामाजिक विघटन के रूप में दिखने लगा है।
बँटे हुये, भ्रमित एवं स्वार्थी धूर्त तत्वों के राजनीतिक कोलाहल बीच ही गजवा-ए-हिंद का सपना लिये जिहादी भिन्न भिन्न रूपों में समूचे भारत में चुपचाप अपने ठिकाने स्थापित कर रहे हैं। मयान्मार के आतंकी रोहिंग्या मुसलमानों को शरण देने के नाम पर घुसपैठ करने देने की अनुमति हेतु जो दबाव न्यायपालिका से ले कर विश्वविद्यालयों तक बनाये जा रहे हैं, वे ‘ट्रॉजन हॉर्स’ की नयी सम्भावना की ओर संकेत तो करते ही हैं, इन ठिकानों की सचाई उजागर भी करते हैं। अधिक दिन नहीं बीते जब कि एक कथित शरणार्थी बच्चे के शव के चित्र को ‘ट्रॉजन हॉर्स’ के रूप में प्रयोग कर भावनादोहन का लाभ लेते हुये जाने कितने जिहादी यूरोप में प्रविष्ट हो गये। आज यूरोप प्रत्यक्ष और परोक्ष जिहादी हिंसा से पीड़ित है, यौन हिंसा जिसकी एक प्रमुख प्रवृत्ति है।
नाम परिवर्तन और छद्म आवरण के साथ लक्ष्यकेंद्रित क्षेत्रों में घुसपैठ कोई नयी बात नहीं है। म्यान्मार के इन कथित पीड़ित मुसलमानों के लिये ‘रोहिंग्या’ नाम ब्रिटिश दैनिक गॉर्जियन में अगस्त 1951 में प्रकाशित हुआ जिसके मूल में तत्कालीन बर्मा (अब म्यान्मार) को काट कर एक इस्लामी राज्य की स्थापना की भावना थी।
इतिहास देखें तो उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में तत्कालीन संयुक्त बंगाल के चित्तगांग क्षेत्र से हजारो मुसलमान खेती करने के लिये ब्रिटिश शासन द्वारा बर्मा में ले जाये गये। उनमें से अधिकांश उस फरा-इ-दी आंदोलन से प्रभावित थे जो अरबी वहाबी विचारधारा का प्रचार करता था। वह खेतिहर इखवान (इस्लामी बंधु, इस्लाम में भाईचारे का अर्थ मुसलमानों के बीच के बंधुत्त्व से होता है।) को जल स्रोतों के पास बसाने की शिक्षा देता था जो खेती के साथ साथ मालिक ज़मींदार के आह्वान पर जिहाद हेतु भी सन्नद्ध रहें। इखवान के लिये मस्जिद और मदरसे तामीर करने का काम तेजी से किया गया। दूसरे और तीसरे दशक में इन मुसलमानों की रुचि ‘हिंदुस्तान’ में मुस्लिम लीग की प्रगति में थी।
द्वितीय विश्वयुद्ध में जिन बंगाली मुसलमानों को जापान के विरुद्ध मोर्चा लेने के लिये ब्रिटिश सत्ता ने शस्त्र प्रदान कर संगठित किये उन्होंने उसकी आड़ में बर्मी बौद्धों को लूटा और सामूहिक नरसंहार किये। बौद्ध विहार, मठ और गाँव के गाँव जला दिये गये। यह जिहाद द्वारा बौद्धों से क्षेत्र खाली कर दार-उल-इस्लाम की माँग और स्थापना का अभियान था। ध्यातव्य है कि उस संकट काल में भी इस्लामी इखवान की प्राथमिकतायें बहुत स्पष्ट थीं। वर्तमान में भी यह प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। पिछड़ेपन और घोर निर्धनता के होते हुये भी मुस्लिम नेतृत्त्व की प्राथमिकता दार-उल-स्थापना में दिखती है। इस प्रकार से इस्लाम स्वयं अपने अनुयाइयों का ही शत्रु है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात अभियान में तेजी आई। 1946 ई. में जमीयतुल उलेमा-ए-इस्लाम ने मुस्लिम लीग के पास अपना प्रतिनिधिमण्डल कराची भेजा जिसमें बर्मा के तीन नगरक्षेत्रों को पाकिस्तान में मिलाने का प्रस्ताव था। ब्रिटिश उपेक्षा ने आग भड़का दी और बर्मा की स्वतंत्रता से दो वर्ष पहले मुजाहिद गुरिल्ला सेना का गठन कर सशस्त्र विद्रोह भी किया गया। मुस्लिम मुक्ति संगठन (Muslim Liberation Organisation, MLO) की स्थापना हुई। स्वतंत्रता के पश्चात भी इन बंगाली मुसलमानों की दारुल इस्लाम के प्रति प्रतिबद्धता बढ़ती रही। बर्मी अराकानी बौद्ध जन द्वारा अपनी संस्कृति और नृजाति के संरक्षण हेतु चिंता और प्रतिकार के पीछे बंगाली मुसलमानों की यह प्रवृत्ति ही है।
स्वतंत्रता के पश्चात ग्रामीण बर्मा में संघर्ष छिड़ गया। जिहादी मुजाहिदों ने लूट, हत्या, बलात्कार और आगजनी का वही पुराना पथ अपनाया और देखते देखते लगभग 200 अराकानी गाँवों में से मात्र 64 ही बर्मी मूल के बौद्धों के रहने के योग्य बचे। 1948 ई. के एक सम्मेलन में एम एल ओ ने अपना नाम परिवर्तन कर मुजाहिद पार्टी कर लिया। बर्मा सरकार को भेजे पत्र में अन्य के साथ मुस्लिमों के राष्ट्रीय क्षेत्र की स्थापना और उर्दू को मुस्लिम राष्ट्रभाषा घोषित करने की माँगें भी थीं। सरकारी व्यय पर मुसलमानों को बसाने और उनके द्वारा किये गये अपराधों के लिये समग्र क्षमादान भी सम्मिलित थे। अरबी फारसी लिपि में लिखी जाने वाली उर्दू के प्रति यह प्रेम भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों की उससे जुड़ी मजहबी पहचान को रेखांकित करता है। सरकार द्वारा नकार के पश्चात लूट आदि की वही समयसिद्ध युक्तियाँ अपनाई गईं। अपहरण और फिरौती भी उनमें जुड़ गये।
जून 1951 में हुई आल अराकान मुस्लिम कॉन्फ्रेंस में मुस्लिम और बर्मी मघ (बौद्ध) ‘नृजातियों’ के बीच सत्ता शक्ति संतुलन की माँग के साथ उत्तरी अराकान को काट कर ‘मुक्त मुस्लिम राज्य’ स्थापना भी सम्मिलित की गयी।
व्यवस्थित और संगठित ढंग से मूल ‘काफिर’ संस्कृति के विनाश का जिहादी अभियान तब से जारी है। वहाँ सत्तातंत्र के कठोर होने से जिहादियों को मनचाही सफलता तो नहीं मिल पाई है किंतु स्थिति अत्यंत चिंताजनक है। म्यान्मार के बौद्धों द्वारा पहले अराकानी और अब रोहिंग्या मुसलमानों के विरुद्ध अभियान को इस पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिये।
इतना तो स्पष्ट हो ही गया होगा कि आपदा की स्थिति में भी इस्लाम उसका उपयोग येन केन प्रकारेण अपने प्रसार हेतु करता रहा है और कर रहा है। रोहिंग्या मुसलमानों को भारत में शरण देने के बहाने घुसपैठ कराने की अनुमति के लिये न्यायालय से ले कर विश्वविद्यालयों तक जो अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर दबाव चल रहे हैं, उन्हें बर्मा (म्यान्मार) के उदाहरण से समझा जाना चाहिये। दीन हीन दिखते रोहिंग्या संक्रामक आक्रांता हैं, मानवता की दुहाई रूपी ‘ट्रॉजन हॉर्स’ में छिपे जिहादी शस्त्र हैं। तेरहवीं शताब्दी के बौद्धों ने प्रतिकार और संघर्ष का मार्ग नहीं अपनाया, अब म्यान्मार के बौद्धों ने अपना लिया है।
क्या इस संकट को बौद्ध धर्म की मूल भारत भूमि समझेगी? केंद्र और राज्य सरकारें क्षुद्र राजनीति से ऊपर उठ इनके विरुद्ध क्या सामञ्जस्य और संयुक्त कार्यवाही का मार्ग अपनायेंगी? या निष्क्रियता एवं सक्रिय नासमझी के साथ शत्रुओं को पोषित करेंगी?
संदर्भ:
- CHOS-RJE-DPAL – A Tibetan Monk Pilgrim (A.D. 1234-1236), Dr. A S Altekar
- The Development of a Muslim Enclave in Arakan (Rakhine) State of Burma (Myanmar), Aye Chan, Kanda University of International Studies, SOAS Bulletin of Burma Research, Vol. 3, No. 2, Autumn 2005, ISSN 1479-8484
- Roots of the Ongoing Jihad in Western Myanmar, Andrew Bostom
- https://pjmedia.com/homeland-security/2017/09/08/former-state-dept-diplomat-rohingya-muslims-myanmar-dont-accept-narrative/
घोर अंधकार, आज स्थिति और भी भयावह है, हर हाथ कलम हर विरोधी साक्षर हो गया है जिसे जो चाहे लिखने की स्वतंत्रता मिली हुई है। वह इतना लिखते हैं कि जानकारों का आधा जीवन उनके लिखे का खंडन करने में ही चूक जायेगा, कचरा सफाई पर तो किसी का ध्यान न कोई अभियान 🙏
समझ तो यह नहीं आता कि इस्लाम का समर्थन करने वाले लोग क्या सचमुच ही इनकी सच्चाई से अपरिचित हैं या निरे आत्महत्यारे ही हैं! पता नहीं अबतक इन लोगों को इन वहशी पशुओं से ऐसा कौनसा सुख हासिल हो गया है कि इन्होंने अपनी आँखों पर अंधत्व की पट्टी बाँध ली है।