As a Muslim Faiz Khan should not be part of Bhoomi Pujan in Ayodhya As a Muslim Faiz Khan should not be part of Bhoomi Pujan in Ayodhya मारिया विर्थ के मूल अंंग्रेजी लेख का ललित कुमार द्वारा हिंदी अनुवाद
मुस्लिम फैज़ खान को अयोध्या भूमि पूजन में भाग नहीं लेना चाहिये।
वर्तमान काल में वैश्विक स्तर पर ‘भूतपूर्व’ मुसलमानों की संख्या बढ़ रही है। ट्विटर पर, ‘Awesome without Allah’ (अल्लाह के बिना बहुत बढ़िया) या ‘Ex-Muslim because…’ (पूर्व-मुस्लिम क्योंकि …) जैसे शब्दचिह्नों का बहुलता से प्रयोग हो रहा है।
PEW शोध केंद्र के एक प्रख्यापन के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका में, मुस्लिम मजहब में जन्म लेने वाले २३ प्रतिशत लोग अब इसमें अपना अभिजान नहीं पाते हैं। उनमें से अधिकांश इसे गुप्त रखते हैं। तथापि, महिलाओं सहित अनेक पूर्व-मुस्लिम यू-ट्यूब पर सम्वादित होते रहते हैं।
जर्मनी में पला-बढ़ा एक तुर्क जोकि सोलह वर्ष की आयु में तुर्की लौटा और अब अमेरिका में रहता है, यू-ट्यूब पर Apostate Prophet (मजहबत्यागी पैगम्बर) के रूप में लोकप्रिय हो गया है, इतना लोकप्रिय कि उसका चैनल, जैसाकि सामान्यत: सामाजिक सञ्चार मञ्चों के धुरन्धरों के साथ होता है, विमुद्रीकृत हो गया है।
इन पूर्व-मुस्लिमों में से अधिकांश एक समय पर घोर आस्थावान दीनी थे, जिन्होंने कभी यह आशा भी नहीं की थी कि वे दीन में अपना विश्वास खो सकते हैं। ‘मजहबत्यागी पैगंबर’ ने यह भेद भी खोला कि उसने ईमानदारी से अल्लाह से प्रार्थना की थी कि मुझे कभी भी दीन न छोड़ने देना। तब भी अब वह ‘इस्लाम से दूर रहें’ संदेश के साथ अपने वीडियो को समाप्त करता है।
राजनीतिक रूप से अधिक कट्टरपंथी बनने वाले तुर्की में अनेक युवा इस्लाम से मुँह मोड़ रहे हैं। सरकार इस बात से चिंतित है कि धार्मिक शिक्षा की उनकी नीति अपेक्षानुरूप काम नहीं कर रही। सऊदी अरब में भी इस्लाम की अपने लोगों पर पकड़ दृढ़ नहीं है, ऐसी पकड़ जिसकी बाहरी लोग उस देश से आशा करेंगे जिसे ‘इस्लाम का पालना’ माना और जाना जाता है। ५०२ अरबों के मध्य २०१२ में किये गए एक गैलप सर्वेक्षण में १९ प्रतिशत ने स्वयं को मजहबी नहीं माना और ५ प्रतिशत ने स्वयं को नास्तिक भी बताया। यह प्रतिशत अब और भी अधिक हो सकता है, क्योंकि युवराज मोहम्मद बिन सलमान ने आधिकारिक रूप से धार्मिक विषयों में मौलवियों की पकड़ सामान्य जनता पर ढीली कर दी है।
स्वाभाविक रूप से, पाकिस्तान जैसे देश में जहाँ दीन-निंदा करने वालों के लिए मृत्युदण्ड का प्रावधान है, कोई भी मुखर पूर्व-मुस्लिम नहीं है। किन्तु भारत में, जो एक जीवंत लोकतंत्र है और जहाँ किसी को भी उसकी इच्छा के विरुद्ध कुछ भी करने के लिए विवश नहीं किया जा सकता, स्यात ही कोई पूर्व-मुस्लिम मिले!
सोफिया रंगवाला वैसे उन अत्यल्प लोगों में से एक हैं जिन्होंने ट्विटर और फेसबुक पर घोषित किया है कि, “मैंने एक मुस्लिम परिवार में जन्म लिया, एक मुस्लिम से विवाह किया, किंतु मैंने सनातन धर्म के पूर्ण सत्य, सुंदर दर्शन को अपनाया है।”
भारत की स्थिति एक विशेष स्थिति हो सकती है, जहाँ के मुसलमानों में दीन की मजहबी भावना मुस्लिम बहुसंख्यक देशों के मुसलमानों की तुलना में अधिक दृढ़ है। यहाँ मुल्ला-मौलवियों को यह सुनिश्चित करना होता है कि भारतीय मुसलमान अपने पूर्वजों के धार्मिक मत में लौटने के लिए प्रेरित व लालायित न हों। अतः हिंदू धर्म को तिरस्कृत करने तथा अपशब्द कहने की प्रवृत्ति उनमें बड़े स्तर पर है। उनमें हिन्दू धर्म का घनघोर अवरीकरण प्रचलित है जो अपने पूर्वजों के ज्ञान व बोध का मर्म समझ “नास्तिक” कहलाने का विकल्प चुनने में उन लोगों के लिये भी कठिन परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है जो इस्लाम में अपनी आस्था खो चुके हैं। तब भी निश्चित रूप से अनेक भारतीय मुसलमान हैं जिन्होंने अपना ‘विश्वास’ खो दिया है तथा जो हिंदू धर्म दर्शन का मोल भी समझ सकते हैं।
किंतु इस प्रकार के मुसलमान स्वयं को मुस्लिम रूप में ही क्यों दर्शाते हैं? इसका यह कारण हो सकता है: अल्पसंख्यक समुदाय से संबंधित अनेक लाभ हैं, उदाहरण के लिए विशेष छात्रवृत्ति इत्यादि। इसके अतिरिक्त सामान्यतया सञ्चार माध्यमों द्वारा और कुछ क्षेत्रों में विशेष रूप से पुलिस द्वारा एक समूह अथवा व्यक्ति के रूप में किया जाने वाला विशेष व्यवहार भी कारण है।
यदि कोई मुसलमान पाया गया एक बटुआ लौटाता है, तो यह एक ‘समाचार’ बन सकता है! यदि कोई हिंदू बटुआ लौटाता है, तो वह समाचार नहीं बनता है। यदि कोई मुसलमान अपराध करता है, तो उसे मीडिया द्वारा अनदेखा किया जा सकता है, या उसके नाम का उल्लेख तक नहीं किया जाएगा। परन्तु यदि कोई हिंदू वही अपराध करता है, तो उस घटना की उसके नाम के साथ पूरे देश के समाचारों में छा जाने की संभावना है, भले ही वह हिन्दू केवल एक संदिग्ध हो।
क्या कारण है कि प्रसिद्ध मुस्लिम व्यक्तित्व भी; यथा भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम, जिन्होंने भगवद्गीता से प्रेरणा ली, और इस हेतु जो नैष्ठिक मुसलमानों की दृष्टि में काफ़िर के रूप में प्रतिष्ठित हुए; औपचारिक रूप से अपने पूर्वजों की परंपरा में नहीं लौटे, यद्यपि उन्हें वह भाती प्रतीत होती थी?
इसका एक कारण यह हो सकता है कि हिंदू ही इन ‘नाम-का-मुसलमान’ प्रकार के प्रख्यात मुस्लिम व्यक्तित्वों को अपने पुराने अभिजान में वापस धकेलते हैं और उनके लिए अपने हिंदू प्रशंसकों को निराश किए बिना बेड़ियों से मुक्त होना कठिन होता है। यदि कोई मुस्लिम समुचित वक्तव्य देता है या हिंदू धर्म की प्रशंसा करता है, तो हिंदू न केवल उसकी प्रशंसा करते हैं वरन इस बात पर बल देते हैं कि वह एक आदर्श मुस्लिम है, जो कि निश्चित रूप से हिंदुओं की अज्ञानता पर आधारित है। वास्तव में वह एक अच्छा मनुष्य है किंतु एक अच्छा मुसलमान नहीं है, क्योंकि एक अच्छे मुसलमान को काफ़िरों को अनिवार्यत: नीची दृष्टि से देखना होता है और उसे जिहाद करने की बाध्यता होती है, जिससे कि केवल अल्लाह ही पृथ्वी पर पूजनीय रहे।
बहुत अच्छा होगा यदि हिंदू उन लोगों को अपने पूर्व-अभिजान में वापस न धकेलें जो बाहर निकलना चाहते हैं। यदि किसी ने अपने मजहब में विश्वास खो दिया है, तो यह स्वीकार्य नहीं है कि अन्य लोग उसे उस मजहब से संबंधित के रूप में ही चिह्नित करें, और मैं यहाँ यह बात स्वयं के लिये कह रही हूँ। उदाहरणतः, यदि मुझे एक ऐसे इसाई के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जो हिंदू धर्म से प्यार करती है, तो मैं उस ‘परिचय’ में सुधार करते हुए कहती हूँ कि मैंने इसाइयत में विश्वास खो दिया है और स्वयं को हिंदू मानती हूँ। यदि मैंने स्वयं को ’इसाई’ कहकर संबोधित करने की अनुमति दी, या यदि मैंने कहा कि ‘मैं मजहब से इसाई हूँ’, तो मैं सत्यनिष्ठ नहीं रहूँगी।
या वस्तुतः भारत में अत्यल्प ही ‘केवल-नाम-के-मुस्लिम’ हैं और अधिकांश अभी भी इस्लाम के साथ अपना अभिजान करते हैं?
मैं इस पर तब गम्भीरता से विचार करने लगी जब कल अनेक टीवी चैनलों ने फैज़ खान के बारे में सूचना दी, एक गौ रक्षक, जिसका कि एक You Tube चैनल है, जहाँ वह सामान्यतया तार्किक प्रस्तुतियाँ करता है।
वह अपने पैतृक गाँव से, जिसे राम की माँ कौसल्या की जन्मभूमि माना जाता है, मिट्टी लेकर राम मंदिर के भूमिपूजन के लिए अयोध्या पहुँच रहा है, और वह इस समारोह में सम्मिलित होना चाहता है क्योंकि वैसा करना ‘साम्प्रदायिक सद्भाव’ का एक दृष्टान्त होगा। उसने कहा कि वह मजहब से मुस्लिम है, किंतु रामभक्त भी है, क्योंकि राम उसके पूर्वज हैं और जिन्हें मुसलमान ‘इमाम-ए-हिंद’ के रूप में देखते हैं।
पहले तो मुझे विश्वास नहीं हुआ कि यह वही फैज़ खान था जिसके वीडियो मुझे अच्छे लगे थे, किंतु वह वास्तव में वही था। मुझे यह देखकर बहुत निराशा हुई कि उसे इस बात का भान ही नहीं है कि उसे कभी भी भूमि पूजा के लिए नहीं जाना चाहिए।
हिंदू बहुत अच्छे स्वभाव के हैं और कुछ उसके इस अभियान का समर्थन करते हैं, या कदाचित उसे प्रोत्साहित भी करते हैं किंतु यह ऐतिहासिक क्षण, जब अन्ततः श्रीराम अपना महल पुन: प्राप्त कर रहे हैं, जिसे उसी मजहब के बर्बर लोगों ने नष्ट कर दिया था, जिसे फैज़ खान के पूर्वजों ने अपनाया और जिसे उसने अस्वीकार भी नहीं किया है, भले ही वह ऐसा कर सकता था; सांप्रदायिक सौहार्द का दिखावा करने का क्षण नही है, उस सांप्रदायिक सौहार्द का जो सदैव ही पूर्णत: हिंदू कंधों पर टिका होता है।
यह कहकर कि वह मजहब से मुसलमान है, फैज़ खान ने स्वेच्छा से स्वयं को ‘पूर्व-मुस्लिम’ घोषित करने का विकल्प बंद कर दिया, या अल्पत: यह घोषित करने का विकल्प भी समाप्त कर दिया कि वह इस्लाम के कुछ सिद्धांतों पर विश्वास नहीं करता है, जैसे कि हिंदू प्राणियों में सबसे बुरे हैं (कुर’आन ९८.६) तथा और भी बहुत अधिक भयानक बातें।
पूजा में उसकी सम्मिलित होने की आकांक्षा यह दर्शाती है कि वह हिंदुओं की मित्रता और अज्ञानता को बिना किसी कृतज्ञता के स्वीकार करता है। उसे यह विश्वास है कि केवल अपने नाम के कारण उसका उस विशिष्ट लघु सभा में स्वागत किया जाएगा, जबकि उन हिंदुओं को टीवी पर पूजा देखने के लिए कहा गया है जिन्होंने राम मंदिर के लिए संघर्ष किया।
या वह उस इस्लामिक सीख को कभी भूला ही नहीं जो उसने एक बच्चे के रूप में सुनी होगी कि मुसलमान श्रेष्ठ हैं?
मैं गायों को बचाने के लिए उसकी सक्रियता की बहुत सराहना करती हूँ और इस बात की भी प्रशंसा करती हूँ कि वह प्राय: अपने चलचित्र संदेशों में हिंदुओं के पक्ष की समझ दर्शाता है। अधिकांश समय उसकी प्रस्तुति एक तार्किक व्यक्ति की प्रस्तुति होती है किंतु जब तक वह अपने मजहब के कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांतों को अस्वीकार नहीं करता है, जिसके लिए उसे हिन्दुओं को नीची दृष्टि से देखने और यहाँ तक कि हिंदुओं से घृणा करने की आवश्यकता होती है, उसे इतिहास के इस विशेष क्षण में उपस्थित नहीं होना चाहिए जबकि हिंदुओं ने क्रूर मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा नष्ट अपने अत्यंत पवित्र स्थान को ५०० वर्षों पश्चात पुनः प्राप्त किया है।
यदि वह संवेदनशील नहीं तथा उसे स्वयं भी इसका भान नहीं है तो यह दुःखद है। यदि उसे वहाँ प्रवेश से वंचित कर दिया जाता है, तो विश्व भर के मुख्यधारा के सञ्चार माध्यम प्रतिष्ठान हिंदुओं पर टूट पड़ेंगे, यद्यपि वे प्रतिष्ठान सऊदी अरब या चीन में लगे प्रतिबंधों की कभी भी तीखी आलोचना नहीं किये।
चाहे जो परिणति हो, इसकी पूरी सम्भावना है कि वे सञ्चार माध्यम हिंदुओं पर चढ़ बैठने का कोई न कोई कारण ढूँढ़ ही लेंगे। As a Muslim Faiz Khan should not be part of Bhoomi Pujan in Ayodhya.
He is invited as a gesture coz he supported the cause. He is not part of worship. He will be in the audience.