Sundarkand सुंदरकांड दृष्टा सीता, पिछले भाग से आगे
विविध रङ्गों के मेघों में छिपते दिखते लौटते हनुमान चंद्रमा की भाँति दिख रहे थे। कवि अद्भुत बिम्ब प्रस्तुत करते हैं :
ग्रसमान इवाकाशं ताराधिपमिवोल्लिखन्। हरन्निव सनक्षत्रं गगनं सार्कमण्डलम्॥
मारुतस्यात्मजः श्रीमान्कपिर्व्योमचरो महान्। हनुमान्मेघजालानि विकर्षन्निव गच्छति॥
पाण्डुरारुणवर्णानि नीलमाञ्जिष्ठकानि च। हरितारुणवर्णानि महाभ्राणि चकाशिरे॥
प्रविशन्नभ्रजालानि निष्पतंश्च पुनः पुनः। प्रच्छन्नश्च प्रकाशश्च चन्द्रमा इव लक्ष्यते॥
हनुमान जी अपने महान स्वर में मेघगर्जना से भी बढ़े चढ़े थे – नदन्नादेन महता मेघस्वनमहास्वनः।
अब वे पंक्तियाँ आती हैं जो वाल्मीकि जी की अद्भुत काव्य प्रतिभा एवं कल्पना शक्ति को दर्शाती हैं :
आजगाम महातेजाः पुनर्मध्येन सागरम्। पर्वतेन्द्रं सुनाभं च समुपस्पृश्य वीर्यवान्॥
ज्यामुक्त इव नाराचो महावेगोऽभ्युपागतः।
इस प्रकार वह महातेजस्वी पुन: सागर के मध्य पहुँच गये तथा पर्वतों में श्रेष्ठ सुनाभ (मैनाक) का स्पर्श द्वारा सम्मान कर महाबली धनुष से छूटे नाराच (बाण) की भाँति बड़े वेग से चल पड़े!
सागर शब्द का स्पष्ट प्रयोग दर्शाता है कि उसमें तैरते हुये हनुमान मैनाक का स्पर्श मात्र कर बढ़ चले। यह सागर सन्तरण ही है। कल्पना करें कि सागर संतरण करते हनुमान जी के साथ उनसे ऊपर बने हुये कोई उन्हें निकट से देख और सुन रहा है। वाल्मीकि जी जल में दिखते मेघों की छाया छवियों को ले कर वर्णन किये हैं जिसके कारण सागर एवं आकाश एकाकार हो गये हैं! सागर का गहरा जल नीलाभ और आकाश भी, सहसा ही सम्पूर्ण दृश्य आँखों के आगे साकार हो जाता है।
इस अनुभूति के पश्चात ऊपर की पङ्क्तियाँ पुन: पढ़ने पर काव्य का आनन्द दुगुना हो जाता है।
स किञ्चिदनुसम्प्राप्तः समालोक्य महागिरिम्॥ महेन्द्रं मेघसङ्काशं ननाद हरिपुङ्गवः।
निशम्य नदतो नादं वानरास्ते समन्ततः॥ बभूवुरुत्सुकास्सर्वे सुहृद्धर्शनकाङ्क्षिणः।
जाम्बवान् स हरिश्रेष्ठः प्रीतिसंहृष्टमानसः॥ उपामन्त्र्य हरीन् सर्वानिदं वचनमब्रवीत्।
आधे मार्ग से आगे बढ़ते हनुमान निकट होते गये। अकल्पनीय संकटों से भरा अप्रतिहत अभियान सार्थक व पूर्ण हो चुका था, देवी सीता के संधान में सफलता मिली थी। कपि ने वह काम कर दिया था जो न भूतो, न भविष्यति की श्रेणी में आता था। किञ्चित और निकट होने पर आकाश में मेघों की भाँति छाया महागिरि महेन्द्र दिखा और उनके हर्षनाद से प्रान्तर भर उठा। उस पार तट पर प्रतीक्षा करते हुये समस्त वानरों ने कपि का महानाद सुना। स्वर का अभिज्ञान कर वे सभी अपने सुहृद हनुमान के दर्शन की आकाङ्क्षा से भर उठे। उन सबमें श्रेष्ठ जामवंत का मन हर्ष से भर उठा। उन्होंने सबको निकट बुला कर कहा –
सर्वथा कृतकार्योऽसौ हनुमान्नात्र संशयः॥ न ह्यस्याकृतकार्यस्य नाद एवंविधो भवेत्।
अहो, इसमें संशय नहीं कि हनुमान सब प्रकार से अपना कार्य सिद्ध करके आ रहे हैं। कृतकार्य हुये बिना वे इस प्रकार गर्जना नहीं कर सकते।
लम्बी प्रतीक्षा पूरी हुई थी, प्राणों का संकट टल गया था। ऐसे में हर्ष से भरे वानरों की जातिसुलभ चेष्टाओं का वर्णन आदिकवि इस प्रकार करते हैं :
तस्य बाहूरुवेगं च निनादं च महात्मनः॥ निशम्य हरयो हृष्टाः समुत्पेतुस्ततस्ततः।
ते नगाग्रान्नगाग्राणि शिखराच्छिखराणि च॥ प्रहृष्टाः समपद्यन्त हनूमन्तं दिदृक्षवः।
ते प्रीताः पादपाग्रेषु गृह्य शाखाः सुविष्ठिताः॥ वासांसीव प्रशाखाश्च समाविध्यन्त वानराः।
महात्मा हनुमान की भुजाओं एवं जाँघों का महान वेग देख तथा उनका सिंहनाद सुन सभी वानर हर्ष में भर कर इधर उधर उछलने कूदने लगे। उन्हें देखने की इच्छा से वे प्रसन्नतापूर्वक एक वृक्ष से दूसरे पर एवं एक शिखर से दूसरे पर कूदने लगे।
उनकी प्रतीक्षा में वे वृक्षों की शाखा प्रशाखाओं के सिरों पर खड़े हो प्रेम से भर अपने वस्त्र हिलाने लगे।
आरम्भिक प्रतिक्रिया हो गई, निकट आते मारुति सम्मान के अधिकारी थे, गम्भीरता के साथ सत्कार के अधिकारी थे। सघन मेघ की भाँति निकट आते हुये महाकपि हनुमान को देख कर वे समस्त वानर अपने अपने हाथ जोड़ कर खड़े हो गये – तमभ्रघनसङ्काशमापतन्तं महाकपिम्॥ दृष्ट्वा ते वानरास्सर्वे तस्थुः प्राञ्जलयस्तदा।
तत्पश्चात पर्वताकार और वेगवान कपि हनुमान विविध वृक्षों से भरे महेंद्र पर्वत के शिखर पर आ कूदे – ततस्तु वेगवांस्तस्य गिरेर्गिरिनिभः कपिः॥ निपपात महेन्द्रस्य शिखरे पादपाकुले।
ततस्ते प्रीतमनसस्सर्वे वानरपुङ्गवाः॥
हनुमन्तं महात्मानं परिवार्योपतस्थिरे। परिवार्य च ते सर्वे परां प्रीतिमुपागताः॥
प्रहृष्टवदना स्सर्वे तमरोगमुपागतम्। उपायनानि चादाय मूलानि च फलानि च॥
प्रत्यर्चयन् हरिश्रेष्ठं हरयो मारुतात्मजम्। विनेदुर्मुदिताः केचिच्चक्रुः किलकिलां तथा ॥
हृष्टाः पादपशाखाश्च आनिन्युर्वानरर्षभाः ॥
तब सभी वानरश्रेष्ठों के मन हर्षपूरित हो गये। वे महात्मा हनुमान को घेर कर स्थिर खड़े हो गये। ऐसा कर उन सबने परम हर्ष की अनुभूति की और उन्होंने बिना किसी क्षति के लौट आये हनुमान को उपहारस्वरूप फल मूल अर्पित कर उनकी अभ्यर्थना की। कुछ वानर मुदित हो कर किलकारियाँ भरने लगे और हर्ष से भरे कुछ वानरवीर (उनके आसन हेतु) वृक्षों की शाखायें ले आये।
हनुमांस्तु गुरून् वृद्धाञ्जाम्बवत्प्रमुखांस्तदा॥ कुमारमङ्गदं चैव सोऽवन्दत महाकपिः।
स ताभ्यां पूजितः पूज्यः कपिभिश्च प्रसादितः॥
हनुमान ने भी प्रमुख वानर गुरुजनों, वृद्ध जाम्बवान सहित कुमार अङ्गद की भी वंदना की और उन के एवं वानरों के द्वारा पूजित हो कर पूज्य हनुमान प्रसन्न हो गये। (तब) महावीर हनुमान ने यह संक्षिप्त निवेदन किया – मैंने सीता का दर्शन किया! दृष्टा सीतेति विक्रान्त स्संक्षेपेण न्यवेदयत्।
निषसाद च हस्तेन गृहीत्वा वालिनस्सुतम्॥ रमणीये वनोद्देशे महेन्द्रस्य गिरेस्तदा।
हनुमानब्रवीद्धृष्टस्तदा तान्वानरर्षभान्॥
हनुमान वालिपुत्र अङ्गद का हाथ थाम महेंद्र पर्वत के उस रमणीय वनप्रांतर में बैठ गये तथा हर्षित हो वानरों में श्रेष्ठ अङ्गद से कहने लगे :
अशोकवनिकासंस्था दृष्टा सा जनकात्मजा। रक्षमाणा सुघोराभी राक्षसीभिरनिन्दिता॥
एकवेणीधरा बाला रामदर्शनलालसा। उपवासपरिश्रान्ता जटिला मलिना कृशा॥
मैंने जनकपुत्री सीता को अशोकवनिका में देखा। अनिंद्य सीता बहुत ही भयानक राक्षसियों द्वारा रक्षित थीं। राम के दर्शन की लालसा में एक वेणी धारण करने वाली भोली भाली सीता उपवासों के कारण परिश्रांत दिखती हैं, वे कृशकाय व मलिन हो गयी हैं तथा उनके केश जटा के रूप में परिणत हो गये हैं।
ततो दृष्टेति वचनं महार्थममृतोपमम्। निशम्य मारुतेस्सर्वे मुदिता वानराभवन्॥
हनुमान के महान अर्थ से भरे वे अमृततुल्य वचन सुन कर सभी वानर प्रमुदित हो गये।
और तब –
क्ष्वेलन्त्यन्ये नदन्त्यन्ये गर्जन्त्यन्ये महाबलाः। चक्रुः किलकिलामन्ये प्रतिगर्जन्ति चापरे॥
केचिदुच्छ्रितलाङ्गूलाः प्रहृष्टाः कपिकुञ्जराः। अञ्चितायतदीर्घाणि लाङ्गूलानि प्रविव्यधुः॥
अपरे च हनूमन्तं वानरा वारणोपमम्। आप्लुत्य गिरिशृङ्गेभ्यस्संस्पृशन्ति स्म हर्षिताः॥
कुछ हूह भरने लगे तो कोई महानाद करने लगे और कुछ महाबली वानर गरजने लगे। कितने ही किलकारियाँ भरने लगे और कुछ वानर दूसरों के प्रत्युत्तर में गरजने लगे। हर्ष में भरे कुछ वानरश्रेष्ठ अपने लाङ्गूल ऊपर उठा उठा नाचने लगे तो कुछ अपने दीर्घ वलयाकार लाङ्गूल भूमि पर पटकने लगे।
हाथियों के समान विशाल कुछ अन्य वानर चोटियों से उतर कर हनुमान का स्पर्श व आलिङ्गन कर हर्षित होने लगे।
उक्तवाक्यं हनूमन्तमङ्गदस्तमथाब्रवीत्। सर्वेषां हरिवीराणां मध्ये वचनमुत्तमम्॥
हनुमान जी की उपर्युक्त बात सुन कर अङ्गद ने उस समय समस्त वानरवीरों के मध्य ये उत्तम वचन कहे –
सत्त्वे वीर्ये न ते कश्चित्समो वानर विद्यते। यदवप्लुत्य विस्तीर्णं सागरं पुनरागतः॥
दिष्ट्या दृष्टा त्वया देवी रामपत्नी यशस्विनी॥ दिष्ट्या त्यक्ष्यति काकुत्स्थश्शोकं सीतावियोगजम्।
हे वानर, बल व वीर्य में तुम्हारे समान कोई नहीं है, तुम इस विस्तीर्ण सागर को पार कर पुन: लौट जो आये हो! यह सौभाग्य की बात है कि तुम श्रीराम की पत्नी यशस्विनी देवी सीता के दर्शन कर आये, अब देवी सीता के वियोग से उपजा काकुत्स्थ राम का शोक दूर हो जायेगा, यह भी सौभाग्य की बात है।
गुणी नेता के लक्षण दर्शात हुये चतुर अङ्गद ने मात्र दो श्लोकों में ही अभियान की सफलता को समेटते हुये तीन मुख्य बातों को रेखाङ्कित भी कर दिया – (१) कठिन अभियान पर गया नायक सकुशल लौट आया, प्रशंसा होनी चाहिये, (२) जो उद्देश्य था वह पूरा कर के आया, (३) अभियान का परिणाम कि जिस स्वामी ने इस अभियान पर भेजा था, वह अवश्य ही प्रसन्न होगा।
ततोऽङ्गदं हनूमन्तं जाम्बवन्तं च वानराः॥
परिवार्य प्रमुदिता भेजिरे विपुलाश्शिलाः। श्रोतुकामास्समुद्रस्य लङ्घनं वानरोत्तमाः॥
दर्शनं चापि लङ्कायास्सीताया रावणस्य च। तस्थुः प्राञ्जलयस्सर्वे हनुमद्वचनोन्मुखाः॥
तस्थौ तत्राङ्गदः श्रीमान् वानरैर्बहुभिर्वृतः। उपास्यमानो विबुधैर्दिवि देवपतिर्यथा॥
तब प्रमुदित वानर अङ्गद, हनुमान एवं जाम्बवंत को घेर कर विपुल शिलाओं पर आसीन हो गये। वे समस्त वानर वानरोत्तम हनुमान द्वारा समुद्रलङ्घन के बारे में सुनना चाहते थे और लङ्कादर्शन, सीता तथा रावण के बारे में भी हनुमान से सुनने की इच्छा से हाथ जोड़ उनका मुख निहार रहे थे।
अनेक महान वानरों से घिरे अङ्गद उनके बीच उसी प्रकार विराजमान थे जिस प्रकार देवराज इन्द्र स्वर्ग में देवताओं द्वारा सेवित हो कर बैठते हैं।
हनूमता कीर्तिमता यशस्विना तथाङ्गदेनाङ्गदबद्धबाहुना। मुदा तदाऽध्यासितमुन्नतं महन्महीधराग्रं ज्वलितं श्रियाभवत्॥
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तं ततः प्रतिसंहृष्टः प्रीतिमन्तं महाकपिम् । जाम्बवान्कार्यवृत्तान्तमपृच्छदनिलात्मजम् ॥
कथं दृष्टा त्वया देवी कथं वा तत्र वर्तते । तस्यां वा स कथं वृत्तः क्रूरकर्मा दशाननः ॥
तत्त्वतः सर्वमेतन्नः प्रब्रूहि त्वं महाकपे । श्रुतार्थाश्चिन्तयिष्यामो भूयः कार्यविनिश्चयम् ॥
तब हर्ष में भरे हुये जाम्बवान ने पवनपुत्र महाकपि हनुमान से प्रेमपूर्वक उनका कार्यवृत्तांत पूछा – तुमने देवी सीता को कैसे देखा? वे वहाँ किस प्रकार रहती हैं? उनके साथ वह क्रूरकर्मा रावण कैसा व्यवहार करता है? हे महाकपि! तुम हमें ये सब बातें ठीक ठीक बताओ। इन सब बातों को सुनकर हमलोग आगे की कार्रवाई निश्चित करेंगे।
कार्यसिद्ध हो गया था किंतु स्वामी से सम्प्रेषण की गुरुता जाम्बवंत समझ रहे थे। कार्यसिद्धि के कारण हनुमान के प्रति उमड़ा प्रेम इस समझ से जुड़ कर सम्मान में परिवर्तित हो गया कि जिसने ऐसा महान कर्म कर दिखाया है, वही आगे के लिये भी सक्षम होगा। जाम्बवान तुम से आप पर आ गये!
यश्चार्थस्तत्र वक्तव्यो गतैरस्माभिरात्मवान् । रक्षितव्यं च यत्तत्र तद्भवान्व्याकरोतु नः ॥
वहाँ (किष्किंधा में) पहुँचने पर हमलोगों को कौन-सी बात कहनी चाहिये तथा किस बात को गुप्त रखना चाहिये? आप बुद्धिमान हैं, आप ही बतायें।
(क्रमश:)