आदिकाव्य रामायण भाग 28 से आगे …
… यदि मैं बिना मिले चला गया तो पहुँचने पर राम सीता का सन्देश पूछेंगे तो मैं क्या उत्तर दूँगा – रामश्च यदि पृच्छेन्मां किं मां सीताब्रवीद्वचः। किमहं तं प्रति ब्रूयामसंभाष्य?
अनुत्तरित रहने पर काकुत्स्थ राम अपनी क्रुद्ध आँखों की ज्वाला से मेरा दहन कर देंगे – निर्दहेदपि काकुत्स्थः क्रुद्धस्तीव्रेण चक्षुषा।
बिना सीताजी से बात किये यदि मैं अपने स्वामी सुग्रीव को यहाँ रामकाज हेतु ससैन्य पहुँचने को प्रेरित करूँ तो (अनाश्वस्त सीता जी द्वारा आत्मघात किये जाने की स्थिति में) उनका यहाँ आना व्यर्थ हो जायेगा – व्यर्थमागमनं तस्य ससैन्यस्य भविष्यति।
अत: मैं यहाँ ठहर कर उस उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करूँगा जब राक्षसियों से बच कर मैं इन अति दुखिया को स्नेहिल मंद स्वर में बात कर आश्वस्त कर सकूँ – शनैराश्वासयिष्यामि संतापबहुलामिमाम्।
समुद्र लङ्घन हेतु ली गयी छलांग से ही कपि के समक्ष विकट परिस्थितियाँ आती रही थीं जिन्हें वह अपने बल, बुद्धि, विद्या, विवेक से पार करते हुये यहाँ तक आ पहुँचे थे। सफलता वृक्ष से नीचे उतर कर भूमि तक आने की दूरी में सिमट आयी थी किन्तु दुविधा की जो स्थिति अब बनी थी वह अभूतपूर्व थी। एक अनजानी दुखियारी को प्रबोध देना था जो अपने प्राण लेने का निश्चय कर चुकी थी किंतु एक तो अपरिचय, दूजे वानर विशेष – अहं ह्यविदितश्चैव वानरश्च विशेषतः! (अचानक दिखने पर भय वश जाने क्या प्रतिक्रिया हो? यदि कुछ ऐसी वैसी हुई तो अब तक का सब किया धरा नष्ट हो जायेगा! संकट भी खड़ा हो जायेगा।)
हनुमान जी ने निश्चय किया ही था कि मैं इनसे मनुष्यों की परिष्कृत भाषा में बात करूँगा ताकि कम से कम मुझे राक्षस तो नहीं समझेंगी कि मन ने एक शंका प्रस्तुत कर दी – इस अति दुखिया से यदि वैसी भाषा में बात की तो मुझे (मायावी) रावण (द्वारा रूप परिवर्तन कर प्रस्तुत) समझ सीता भयभीत हो जायेंगी (रावण से सीता ने हरण पूर्व बातचीत भी की थी, उस समय भी वह वेश परिवर्तित कर आया था!)
वाचं चोदीरयिष्यामि मानुषीं च सुसंस्कृताम्
यदि चैवाऽभिधास्यामि संताप बहुलां इमाम्
रावणं मन्यमाना मां सीता भीता भविष्यति
मनुष्य अर्थभरी बातचीत जिस प्रकार करते हैं, मुझे भी अवश्य ही उसी प्रकार बात करनी होगी अन्यथा इन पुण्यात्मा को सांत्वना दे पाना शक्य नहीं होगा।
अवश्यमेव वक्तव्यं मानुषं वाक्यमर्थवत्
मया सान्त्वयितुं शक्यानाऽन्यथेयमनिन्दिता
राक्षसों के विपरीत गाँव गिराम के सामान्य मनुष्य जिस प्रकार युक्तियुक्त भाषा में अर्थ भरी बातें करते हैं, उस प्रकार करने का निश्चय हनुमान जी ने किया जिससे वानर एवं परिष्कृत भाषा का संगम देख सीता जी के मन में उठने वाली शंका की सम्भावना भी निर्मूल हो जाती।
मन एक ठाँव पाया ही था कि शंका ने पुन: सिर उठा लिया। सीता पहले से ही राक्षसों द्वारा त्रास में हैं, मुझे इस रूप में इस प्रकार बोलते देख पुन: त्रास में पड़ जायेंगी।
सेयमालोक्य मे रूपं जानकी भाषितं तथा
रक्षोभिस्त्रासिता पूर्वं भूयस्त्रासं गमिष्यति
ऐसे में मुझे बहुरुपिया रावण समझ चिल्ला उठीं तो भयानक शस्त्र धारण की हुई यम समान राक्षसियाँ यहाँ (पुन:) एकत्रित हो जायेंगी। मुझे देख कुरूप मुखों वाली राक्षसियाँ अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा पकड़ने एवं वध करने के प्रयास करेंगी।
ततो जातपरित्रासा शब्दं कुर्यान्मनस्विनी
जानमाना विशालाक्षी रावणं कामरूपिणम्
सीतया च कृते शब्दे सहसा राक्षसीगणः
नानाप्रहरणो घोरः समेयादन्तकोपमः
ततो मां संपरिक्षिप्य सर्वतो विकृताननाः
वधे च ग्रहणे चैव कुर्युर्यत्नं यथाबलम्
[वाल्मीकि जी संज्ञा प्रयोगों में अर्थ सौंदर्य भरते गये हैं, त्रास में पड़ कर चिल्लाने की सम्भावना के समय सीता हेतु मनस्विनी का प्रयोग किये हैं तो हनुमान को देख बहुरुपिया रावण समझने हेतु विशालाक्षी – विशाल नेत्रों वाली जिसकी परख भी वैसी ही है।]
कपि मन दुस्सम्भावनाओं की डाल डाल डोलता चला गया – मुझे इन विशाल वृक्षों की शाखा प्रशाखाओं पर इधर उधर भागता देख वे भय एवं शंका से ग्रस्त हो सकती हैं। मेरे विशाल रूप को इस वनिका में इस प्रकार देखना भी इन विकृत मुख वाली राक्षसियों पर वही प्रभाव डालेगा।
तं मां शाखाः प्रशाखाश्च स्कन्धांश्चोत्तमशाखिनाम्
दृष्ट्वा विपरिधावन्तं भवेयुर्भयशङ्किताः
मम रूपं च संप्रेक्ष्य वनं विचरतो महत्
राक्षस्यो भयवित्रस्ता भवेयुर्विकृताननाः
वे रावण द्वारा निवास में प्रहरी कर्म में नियुक्त अन्य राक्षसियों को भी बुला सकती हैं। शूल, शर इत्यादि विविध आयुधों से युक्त वे भी उद्विग्नता वश शीघ्रता से पहुँच इस लड़ाई में सम्मिलित हो सकती हैं। इस प्रकार उनसे घिरा फँसा उनका नाश करता मैं, हो सकता है कि महासागर के पार न पहुँच पाऊँ। यह भी सम्भव है कि कई राक्षस एक साथ मेरे ऊपर कूद कर मुझे शीघ्रतापूर्वक बंदी बना लें। मेरे इस प्रकार पकड़े जाने पर हो सकता है कि इन सीता को मैं (रामदूत उन तक) पहुँच चुका था, यह भी न पता चले (राक्षसों द्वारा कोई वानर पकड़ा जाना बताया जायेगा)।
यह भी हो सकता है कि हिंसक स्वभाव वाले राक्षस मेरा या जनकात्मजा सीता का वध ही कर दें। ऐसे में तो राम एवं सुग्रीव का (वह) कार्य उद्योग (ही) नष्ट हो जायेगा (जिस हेतु मैं यहाँ आया हूँ)।
ततः कुर्युः समाह्वानं राक्षस्यो रक्षसामपि
राक्षसेन्द्रनियुक्तानां राक्षसेन्द्रनिवेशने
ते शूलशरनिस्त्रिंश विविधायुधपाणयः
आपतेयुर्विमर्देऽस्मिन्वेगेनोद्विग्नकारिणः
संक्रुद्धस्तैस्तु परितो विधमन्रक्षसां बलम्
शक्नुयं न तु संप्राप्तुं परं पारं महोदधेः
मां वा गृह्णीयुराप्लुत्य बहवः शीघ्रकारिणः
स्यादियं चागृहीतार्था मम च ग्रहणं भवेत्
हिंसाभिरुचयो हिंस्युरिमां वा जनकात्मजाम्
विपन्नं स्यात्ततः कार्यं रामसुग्रीवयोरिदम्
सागर से घिरी (इस लंका में) सीता छिपा कर रखी गयी हैं – सागरेण परिक्षिप्ते गुप्ते वसति जानकी। यदि मैं पकड़ा एवं मारा गया तो मैं नहीं देखता कि राम का कोई अन्य सहायक इस कार्य में सक्षम है। विचार करने पर भी मुझे कोई ऐसा वानर नहीं दिखता जो शत योजन विस्तीर्ण महासागर को लाङ्घ सके। मैं सहस्रो राक्षसों का संहार करने में सक्षम हूँ किन्तु उस बड़ी लड़ाई के पश्चात मेरे लिये सागर पार करना सम्भव नहीं हो सकता है।
नान्यं पश्यामि रामस्य सहायं कार्यसाधने
विमृशंश्च न पश्यामि यो हते मयि वानरः
शतयोजनविस्तीर्णं लङ्घयेत महोदधिम्
कामं हन्तुं समर्थोऽस्मि सहस्राण्यपि रक्षसाम्
न तु शक्ष्यामि संप्राप्तुं परं पारं महोदधेः
युद्ध अनिश्चयात्मक होता है (जय किसी की भी हो सकती है), मुझे संशययुक्त कार्य प्रिय नहीं एवं ऐसा कौन प्रज्ञावान होगा जो संशयरहित कार्य में संशय के साथ प्रवृत्त होगा?
असत्यानि च युद्धानि संशयो मे न रोचते
कश्च निःसंशयं कार्यं कुर्यात्प्राज्ञः ससंशयम्
सीता से बात करने का प्रयास करता हूँ तो यह महान दोष घटित होना है, नहीं करता हूँ तो वह प्राण त्याग देंगी।
एष दोषो महान्हि स्यान्मम सीताभिभाषणे
प्राणत्यागश्च वैदेह्या भवेदनभिभाषणे
दुविधाओं के गुञ्जलक आञ्जनेय को अपने में लीन करते चले गये। मन प्रबोध देता कि सोच समझ कर काम कर किन्तु मन में उठते किन्तु परन्तुओं का क्या, वे भी तो निरर्थक न थे!
दुविधाग्रस्त दूत के हाथ में पड़ने पर बने बनाये काम भी देशकाल के विरोधी हो कर उसी प्रकार विनष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार सूर्योदय होने पर अन्धकार।
निश्चित (उद्देश्य) होने पर भी अर्थ एवं अनर्थ के बारे में बुद्धि का डाँवाडोल रहना नहीं शोभता। अपने को पण्डित समझने वाले दूत कार्य का नाश कर डालते हैं।
भूताश्चार्था विनश्यन्ति देशकालविरोधिताः
विक्लवं दूतमासाद्य तमः सूर्योदये यथा
अर्थानर्थान्तरे बुद्धिर्निश्चितापि न शोभते
घातयन्ति हि कार्याणि दूताः पण्डितमानिनः
काम कैसे न बिगड़े? विकलता एवं दुविधा कैसे न हों? मेरे द्वारा किया गया समुद्र लङ्घन कैसे व्यर्थ न हो? कैसे मेरी पूरी बात को सीता जी बिना उद्विग्नता के साथ शांतमना हो सुन सकें?
न विनश्येत्कथं कार्यं वैक्लव्यं न कथं भवेत्
लङ्घनं च समुद्रस्य कथं नु न वृथा भवेत्
कथं नु खलु वाक्यं मे शृणुयान्नोद्विजेत च
इन सब पर विचार करते हुये बुद्धिमान हनुमान ने मन में ऐसा निश्चय किया – इति संचिन्त्य हनुमांश्चकार मतिमान्मतिम्।
जो राम उनके अपने हैं, जिन जीवनबंधु में उनका मन रमा हुआ है, सहजता से (महान) कर्म सम्पन्न कर देने वाले सीता के प्रिय बंधु राम की कीर्ति का मैं बखान करूँगा जिसे सुन कर सीता के उद्विग्न होने की सम्भावना नहीं रहेगी।
राममक्लिष्टकर्माणं स्वबन्धुमनुकीर्तयन्
नैनामुद्वेजयिष्यामि तद्बन्धुगतमानसाम्
मैं सीता को इक्ष्वाकुकुल वरिष्ठ विदितात्मा राम के शुभ सुंदर संदेश वचन सुनाऊँगा। वह जिससे मुझ पर विश्वास कर लें, उनका सब प्रकार से समाधान हो जाय, उस प्रकार मैं सब कुछ मधुर वाणी में सुनाऊँगा।
इक्ष्वाकूणां वरिष्ठस्य रामस्य विदितात्मनः
शुभानि धर्मयुक्तानि वचनानि समर्पयन्
श्रावयिष्यामि सर्वाणि मधुरां प्रब्रुवन्गिरम्
श्रद्धास्यति यथा हीयं तथा सर्वं समादधे
इस प्रकार भाँति भाँति से विचार कर वृक्ष की शाखाओं में छिप कर बैठे हनुमान जी पृथ्वीपति श्रीराम की भार्या को देखते हुये मधुर यथार्थ बात कहने लगे।
इति स बहुविधं महानुभावो; जगतिपतेः प्रमदामवेक्षमाणः
मधुरमवितथं जगाद वाक्यं; द्रुमविटपान्तरमास्थितो हनूमान्
एवं बहुविधां चिन्तां चिन्तयित्व महाकपिः
संश्रवे मधुरं वाक्यं वैदेह्या व्याजहार ह
दुविधा, शंका, संशय, अनर्थ चिंता, उद्विग्नता, व्यग्रता इत्यादि सब का शमन हो गया। रामकथा की निर्झरिणी जनसामान्य की अर्थवान भाषा में हनुमान के मुख से प्रवाहित हो चली:
इक्ष्वाकुकुल में रथ, हाथी एवं अश्वसम्पदा के स्वामी एक महान यशस्वी राजा दशरथ हुये।
राजा दशरथो नाम रथकुञ्जरवाजिमान्
पुण्यशीलो महाकीर्तिरिक्ष्वाकूणां महायशाः
वह राजर्षियों में सर्वश्रेष्ठ थे एवं तप में ऋषियों के समान। चक्रवर्ती कुल में जन्मे वह बल में इन्द्र के समान थे।
राजर्षीणां गुणश्रेष्ठस्तपसा चर्षिभि स्समः
चक्रवर्तिकुले जातः पुरन्दरसमो बले
उनके मन में अहिंसा के प्रति रति थी एवं क्षुद्रता नहीं थी। वे दयालु, सत्यपराक्रमी, इक्ष्वाकुवंश में मुख्य, सुसमृद्ध एवं अन्यों की समृद्धि वर्धन के प्रणेता भी थे।
अहिंसारतिरक्षुद्रो घृणी सत्यपराक्रमः
मुख्यश्चेक्ष्वाकुवंशस्य लक्ष्मीवान् लक्ष्मिवर्धनः
राजोचित श्री चिह्नों से संयुक्त वह समुद्र से घिरी पृथ्वी के राजाओं में श्रेष्ठ थे। वह सुखी थे एवं सुख के प्रसिद्ध प्रदाता भी थे।
पार्थिवव्यञ्जनैर्युक्तः पृथुश्रीः पार्थिवर्षभः
पृथिव्यां चतुरन्तायां विश्रुतस्सुखदस्सुखी
चंद्र के समान सुंदर मुख वाले उनके प्रिय ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम हैं जो समस्त धनुर्विद्या विशेषज्ञों में श्रेष्ठ हैं।
तस्य पुत्रः प्रियो ज्येष्ठस्ताराधिपनिभाननः
रामो नाम विशेषज्ञः श्रेष्ठ स्सर्वधनुष्मताम्
वह स्वधर्म की रक्षा करने वाले हैं, स्वजनों एवं समस्त जीवलोक के रक्षक हैं। वह धर्मरक्षक हैं एवं शत्रुओं को सन्ताप देने वाले हैं।
रक्षिता स्वस्य धर्मस्य स्वजनस्य च रक्षिता
रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य च परन्तपः
अपने सत्यसंध पिता के वचनों के पालन हेतु उन्होंने भार्या एवं अपने वीर भ्राता के वन को प्रस्थान किया।
तस्य सत्याभिसन्धस्य वृद्धस्य वचनात्पितुः
सभार्यस्सह च भ्रात्रा वीरः प्रव्राजितो वनम्
वहाँ घने वन में विचरण करते हुये उन्होंने बहुत से इच्छाधारी राक्षस वीरों का संहार किया।
तेन तत्र महारण्ये मृगयां परिधावता
राक्षसा निहताश्शूरा बहवः कामरूपिणः
जनस्थान में खर दूषण का वध सुन कर अमर्षवश रावण ने मायारूपी मृग की वञ्चना कर उनकी पत्नी जानकी का अपहरण कर लिया।
जनस्थानवधं श्रुत्वा हतौ च खरदूषणौ
ततस्त्वमर्षापहृता जानकी रावणेन तु
वञ्चयित्वा वने रामं मृगरूपेण मायया
उन पुण्या देवी सीता को वन प्रांतर में ढूँढ़ते हुये श्रीराम की मैत्री सुग्रीव नामक वानर से हो गई।
स मार्गमाणस्तां देवीं रामस्सीतामनिन्दिताम्
आससाद वने मित्रं सुग्रीवं नाम वानरम्
महाबली पुरञ्जयी राम ने वालि का वध कर कपिराज्य सुग्रीव को प्रदान किया।
तत स्स वालिनं हत्वा रामः परपुरञ्जयः
प्रायच्छत्कपिराज्यं तत्सुग्रीवाय महाबलः
सुग्रीव की आज्ञा से इच्छाधारी सहस्रों वानरों ने देवी सीता के संधान हेतु सभी दिशाओं में प्रस्थान किया।
सुग्रीवेणापि सन्दिष्टा हरयः कामरूपिणः
दिक्षु सर्वासु तां देवीं विचिन्वन्ति सहस्रशः
(उनमें से एक) मैं सम्पाती के कहे अनुसार विशालाक्षी सीता को खोजते सौ योजन विस्तार वाले सागर को वेगपूर्वक लाङ्घ गया।
अहं सम्पातिवचनाच्छतयोजनमायतम्
अस्या हेतोर्विशालाक्ष्याः सागरं वेगवान्प्लुतः
जैसा राघव के मुख से सुना था, मैंने निश्चित ही यथारूप, यथावर्ण, यथासुंदर महिला का यहाँ दर्शन किया है।
यथारूपां यथावर्णां यथालक्ष्मवतीं च निश्चिताम्
अश्रौषं राघवस्याहं सेयमासादिता मया
इस प्रकार यहाँ तक कह कर महावीर वानर हनुमान चुप हो गये। जानकी वे वचन सुन कर विस्मय में पड़ गईं।
विररामैवमुक्त्वासौ वाचं वानरपुङ्गवः
जानकी चापि तच्छ्रुत्वा परं विस्मयमागता
तब सुंदर घँघराले केशों वाली सीता ने अपने केशों से ढके मुख को ऊपर उठा कर भीरुता के साथ शिंशुपा वृक्ष को देखा (जिस दिशा से ध्वनि सुनाई दी थी।)
कपि के वचन सुन कर अति हर्ष में भर कर सर्वात्मा श्रीराम का अनुस्मरण करती सीता ने समस्त दिशाओं, प्रदिशाओं में देखा (कि कहाँ है, कौन है जो ऐसा शुभ समाचार सुना रहा है!)
ततस्सा वक्रकेशान्ता सुकेशी केशसंवृतम्
उन्नम्य वदनं भीरुश्शिंशुपावृक्षमैक्षत
निशम्य सीता वचनं कपेश्च दिशश्च सर्वाः प्रदिशश्च वीक्ष्य
स्वयं प्रहर्षं परमं जगाम सर्वात्मना राममनुस्मरन्ती
तिरछे देखा, उचक कर ऊपर देखा, किञ्चित नीचे देखा।
पिङ्गाधिपति सुग्रीव के अमात्य, अचिन्त्य बुद्धि सम्पन्न वातात्मज हनुमान उदित होते सूर्य की भाँति दिख गये।
सा तिर्यगूर्ध्वं च तथाप्यधस्तान्निरीक्षमाणा तमचिन्त्यबुद्धिम्
ददर्श पिङ्गाधिपतेरमात्यं वातात्मजं सूर्यमिवोदयस्थम्
सन्ताप बहुला सीता के लिये सूर्यवंशी श्रीराम के दूत हनुमान आन पहुँचे थे। दु:खों की रजनी बीत चुकी थी।
(क्रमश:)