चीनी वस्तुओं का बहिष्कार
चीनी वस्तुओं का बहिष्कार। इण्टरनेट है, गुगल खोज उपलब्ध है; जब आप एक योद्धा की भाँति स्थिरचित्त व दृढ़निश्चयी होंगे तो विकल्प ढूँढ़ ही लेंगे। इस कारण ही पहले मन का संस्कार आवश्यक है। चीनी मन आप से अधिक स्थिर, दृढ़ व सातत्ययुक्त है; उसकी विविध क्षेत्रों में प्रगति ही प्रमाण है। ‘हजार की यात्रा एक पग से’ को उन्होंने दशकों से अपना रखा है।
बहिष्कार ढेर सारे उपलब्ध व वरेण्य विकल्पों में से एक है जिसकी लब्धि शत्रु को आर्थिक हानि होती है । यह उसकी लाठी है जिसके पास अन्य कोई उपाय नहीं। यह उन समूहों की लड़ाई भी है जो न तो स्थूल शस्त्रास्त्र रखते हैं और न ही प्रत्यक्ष रूप से लड़ सकते हैं। यह उनकी समूह-शक्ति है जो निरुपाय व निर्बल प्रतीत होते हैं। बहिष्कार अनिवार्यत: करने वाले द्वारा अपने अन्तर्मन पर सम्पूर्ण विजय से आरम्भ होता है कि आवश्यकता है और मुझे करना ही है, सातत्य एवं विपरीत परिस्थितियों में भी, सह्य हानियाँ उठा कर भी नये लोगों को जोड़ता हुआ लम्बे समय तक चलते रहने पर बहिष्कार युद्ध की एक अपारम्परिक युक्ति के रूप में सफल होता है। ध्यान रहे कि केवल एक या कुछ जन द्वारा किसी का बहिष्कार निष्प्रभावी होता है किन्तु जैसी कि चीनी उक्ति है – ‘हजार की यात्रा, पाँव के नीचे आरम्भ 千里之行,始於足下’ यात्रा एक डग से आरम्भ होती है; एक जन या लघु समूह आरम्भ करने व सम्भावना जीवित रखने हेतु बड़े प्रभावी होते हैं। नैतिक बल तो बढ़ता ही है।
चीन हेतु भारतीय जन के पास बहिष्कार एक बड़ी युक्ति के रूप में उपलब्ध है, कारण है १६ और ७६ का अन्तर। वाणिज्य संतुलन देखें तो चीन भारत से ६० अरब डॉलर की बढ़त पर है। इस बढ़त का ही आधार ले विश्लेषक चीनी वस्तुओं के बहिष्कार को अव्यावहारिक व घातक बता रहे हैं किंतु यथास्थितिवादियों के व्यवहारशास्त्र से इतर यह अंतर बहिष्कार करने वालों हेतु एक अवसर भी है। जड़ मानसिकता को तोड़ने का अवसर है, यथास्थिति पर प्रहार करने का अवसर है और हमारी सबसे बड़ी शक्ति हमारी हिंदू उपभोक्ता जनसङ्ख्या है जो अपने धार्मिक संस्कारों के कारण आज भी ऐसे आयोजनों को देवार्चन उत्साह के साथ अपनाती है।
जैसा कि लिखा जा चुका है, बहिष्कार की यात्रा आंतरिक विजय से आरम्भ होती है। आपको पहले स्वयं को सुनिश्चित करना है, निर्णय लेना है कि बहिष्कार करना है। किंतु-परंतु वाला मानस ले कर आप ऐसा काम कर ही नहीं सकते! आप ने मन बना लिया न? चाहे जो हो, बहिष्कार करना ही है।
अगला पग है प्रतिक्रिया से मुक्ति। हम भारतीय यहीं मार खाते हैं। दूषित शिक्षा पद्धति ने हमारी चारित्रिक दृढ़ता का इतना नाश कर दिया है कि हम क्षुद्र स्वार्थों व ‘तामस तृप्तियों’ के आगे सोच नहीं पाते। रोटी, वस्त्र व छत हेतु तो दैनिक रूप से संसार के सभी विविध देशवासी लगे रहते हैं किंतु दृढ़ता व सुसङ्गत कर्म के अभाव में हमारा मन एक अति से दूसरी अति पर कूदता हुआ क्षणिक तुष्टि व तृप्तियाँ प्राप्त करता हुआ हिंडोले लेता रहता है। इसे प्रतिक्रिया कहते हैं कि कोई ठोस क्रियात्मक चिंतन नहीं, कर्म नहीं; कुछ विपरीत हुआ, कोई संकट आया तो मर्कट मन को तात्कालिक रूप से जो सूझा वही व्यापक सन्निपात mass hysteria जैसा हो गया, कुछ दिन चला, तब तक कुछ नया आ गया, मन उस पर कूद गया, पानी के बुलबुले बनते रहे, फूटते रहे, हम वहीं के वहीं रहे! यह घनघोर तामस के लक्षण हैं। इनसे कुछ नहीं होना जाना, स्थिति यथावत बनी रहनी है, दुर्गति बढ़नी ही है।
तामस से मुक्त हो ‘समरे वा नगरे वा दृढ़निश्चयी’ योद्धा कैसे बनें?
आज ग्रीष्म अयनांत के दिन जबकि सूर्य अपनी महत्तम स्थिति प्राप्त कर लौट रहे हैं, योग दिवस मनाया जा रहा है। योद्धा बनने हेतु योग को अपनायें जिसका एक आरम्भिक सूत्र ही है – योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:। चित्त की चञ्चलता का निरोध योग है। आपने जिसका निर्णय ले लिया, उस मार्ग पर एक योगी योद्धा की भाँति चलना होगा – स्थिरचित्त हो कर।
योग अतिवाद व प्रतिक्रियावाद का भी निषेध करता है जबकि चीनी वस्तुओं के बहिष्कार के विषय में जो कुछ भी कहा जा रहा है, वह इन्हीं दो के बीच झूल रहा है। बहिष्कार का अर्थ बिना किसी स्थायी विकल्प के न तो सम्पूर्ण समाप्ति है और न ही क्षणिक हास्यास्पद कर्म। बहिष्कार उस मार्ग पर चलना है जिसके अंत में लक्ष्य है न कि लक्ष्य को पीठ पर लाद कर अनन्त की यात्रा करना।
भारतीय पद्धति एक अहोरात्र (२४ घण्टे) को ३० मुहूर्तों में बाँटती है। एक मुहूर्त हुआ ४८ मिनट। प्रतिदिन न्यूनतम एक से डेढ़ मुहूर्त, ४८ से ७२ मिनट चित्त व देह को उच्चतर स्थिति में लाने हेतु लगायें। इस कालखण्ड में कोई विक्षेप न रहे, न टीवी का, न मोबाइल का और न ही किसी अन्य गतिविधि का। दैनिक पूजा की भाँति करें। समय के अभाव का रोना तामस का पहला लक्षण है, उससे मुक्त हों। उत्कट समर्पण होगा तो समय निकाल ही लेंगे।
१० से १५ मिनट सामान्य ध्यान, उतना ही प्राणायाम और शेष शारीरिक व्यायाम या सूर्य नमस्कार हेतु लगायें। इससे आप के व्यक्तित्त्व में स्थायी व विधायी परिवर्तन होने आरम्भ हो जायेंगे। किसी भी नये काम को करने में सबसे बड़ी बाधा अपना मन ही प्रस्तुत करता है। थकान, पीड़ा, उत्साहहीनता आदि को बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करता है। नयी गतिविधि के ‘अभ्यास’ बन जाने में न्यूनतम तीन षडह अर्थात ३x६=१८ दिन लगते हैं। स्वास्थ्य की कोई विशेष समस्या न हो तो आप को स्वयं के प्रति निर्मम व वज्र कठोर हो कर १८ दिन यह दिनचर्या अपनानी होगी, प्रतिदिन एक निश्चित समय पर जोकि प्रात:काल शौचक्रिया से मुक्त खाली पेट हो तो अत्युत्तम। ऐसा करने पर ‘अभ्यास’ बन जायेगा और आप स्वत: ही इसे करने लगेंगे। यहाँ तक कि आगे उस समय को अनिवार्य मान कर ही अपनी गतिविधियों की योजनायें बनाना आरम्भ कर देंगे।
ऐसा कर लेने के पश्चात अपने वास्तविक उद्देश्य पर आयें – बहिष्कार। जिन उत्पादों का बहिष्कार करना है, उनके निर्माता देश के बारे में कुछ बातें :
- चीन ने अपने पड़ोसी क्षेत्रों को येन केन प्रकारेण हड़प कर क्षेत्रफल बढ़ाया है, उन्हें नियंत्रण में रखने हेतु साम-दाम-दण्ड-भेद की नीतियों का प्रयोग करता है और वहाँ के शासन तंत्र सहित लोग भी इस पर किसी भी प्रकार के नैतिक पछतावे या अपराधबोध से ग्रस्त न रह कर गर्व करते हैं। इसके अनेक कारण हैं।
- मुख्यभूमि चीन की प्राय: ९२ प्रतिशत जनसंख्या ‘हान’ जाति की है जिसका मानस कंफ्यूसस से ले कर माओ तक की क्रमश: नितांत व्यावहारिक व हिंसक सचाइयों द्वारा गढ़ा गया है। अन्य राष्ट्रों को पदाक्रांत करने से पूर्व चीन ने अपने ही करोड़ो नागरिकों की हत्यायें की, आज भी नहीं झिझकता। इस एक सचाई ने सत्ता से ले कर व्यापार तक, हर क्षेत्र में प्रभुत्व जमाई मस्तिष्क प्रक्षालित हान जाति को निष्ठुर, क्रूर व लक्ष्यप्राप्ति के प्रति अप्रतिहत समर्पण से युक्त बनाया है। वहाँ तिब्बत से पहुँचा अहिंसक बौद्ध धम्म भी प्रचार तंत्र के एक उपादान व पर्यटन द्वारा धनार्जन हेतु प्रयुक्त होता है। वे तो इतने क्रूर हैं कि जीवित ही जंतुओं को कच्चे खा जाते हैं, जीवित ही खौलते पानी में उबाल देते हैं!
- वहाँ लोकतंत्र नहीं है। इस कारण अपनी सूचनायें गोपनीय रख कर वह वैश्विक स्तर पर प्रचार व डिजिटल युद्ध में लग सकता है। उदाहरण हेतु जानें कि वहाँ के सामान्य जन को ट्विटर की अनुमति नहीं है किंतु आज राजनीतिक व कूटनीतिक कुप्रचार हेतु उसका सबसे दक्षता से प्रयोग करने वाला देश चीन ही है।
- भारत व चीन के बीच तिब्बत व नेपाल दो अन्त:स्थ राष्ट्रक थे, वह भारत का पड़ोसी था ही नहीं। तिब्बत को उसने हड़प लिया जिसकी मान्यता भी भारत ने दे दी और नेपाल पर लगा हुआ है।
परिणाम यह है कि जहाँ भारतीय मुख्य भूमि उसकी सीधी पहुँच में है, उसकी केंद्रस्थ मूल चीन भूमि हमसे बहुत दूर है।
- १९६२ ग्रे. की पराजय व चीन की अत्यंत बढ़ी चढ़ी शक्तियों के चलते कहीं न कहीं भारतीय मानस में हीनता व असुरक्षा के स्थायी भाव बने ही रहते हैं। ऐसा सीधे पड़ोसी पाकिस्तान या अन्य किसी पड़ोसी देश को लेकर नहीं है।
जिस नैतिकता और जिस प्रशासन तंत्र से आप बँधे हैं, चीन या चीनी उनसे नहीं बँधे। इस कारण भी चीन वस्तुओं के मूल्य लोकतांत्रिक संसार की तुलना में अत्यंत अल्प रख सकता है। किसी भी लड़ाई से पूर्व सचाइयों को स्वीकार करना होता है जिससे उनसे पार पाने की दिशा में चित्त सक्रिय हो सोचना आरम्भ करता है, सोचने के साथ ही अनुकूल कर्म भी होते हैं तथा परिणाम भी। हम ऐसा नहीं करते, हम सचाइयों को ले कर या तो बहुत ही बढ़ी चढ़ी कल्पनाओं में रहते हैं या उन्हें न मान कर मानसिक मिथक गढ़ते हैं। जब हांगकांग व ताइवान जैसे लघु ‘राष्टों’ या ‘राष्ट्रतुल्यों’ के सामान्य जन की मानसिकता से हम अपनी मानसिकता की तुलना करते हैं तो उसे बहुत ही अवांछित पाते हैं। उससे मुक्त होना होगा। यह मानना होगा कि चीन जैसा भी हो, हम जैसे भी हैं, एक सक्षम राष्ट्र के रूप में उसे घुटनों पर ला सकते हैं। विजय लेख बाहर नहीं, पहले मन में लिखे जाते हैं। कहा गया है न, मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
चीन की मोटी सचाइयों को हृदयङ्गम करने के पश्चात अपने घर की वस्तुओं को देखें। जो हैं, उन पर आप चीन को लाभ दे चुके हैं, उन्हें नष्ट करने का भले टोकेन प्रभाव हो, स्फुरदीप्ति हो किंतु ऐसा काम है प्रतिक्रियावादी ही। जो हैं, उन्हें न तो नष्ट करें और न ही उन्हें ले कर कोई अपराधबोध पालें। चीनी प्रचारतंत्र का एक समूह इस काम में भी लगा हुआ है – आप को हीनता व अपराधबोध से भर देने हेतु। उससे बचें।
अतिवादी बन कर जीवन का संतुलन नष्ट न करें। आप संतुलन बनाये रख कर भी प्रभावी रूप में चीनी वस्तुओं का बहिष्कार कर सकते हैं।
दैनिक उपयोग की वस्तुओं से चीनी व हलाल वस्तुओं को चरणबद्ध ढङ्ग से बाहर करें। जहाँ विकल्प न हों, विकल्पों पर काम करें। छोटी बचतों की उपेक्षा करें। योद्धा को मूल्य भी चुकाने पड़ते हैं, उन्हें वही समझें। उदाहरण के लिये यदि आप के स्टोर में यदि हलाल पैक्ड आटा ही उपलब्ध है तो गेहूँ का क्रय कर चक्की पर पिसाने के विकल्प पर काम करें। शारीरिक कष्ट व असुविधा हो सकते हैं किंतु ऐसा करना सार्थक है।
पर्व व त्योहारों पर होने वाली विशेष खरीदों पर ध्यान दें जिनसे आप के समाज के विशिष्ट वर्गों के जीवन भी जुड़े हैं। दीपक, पटाखे, खिलौने, साज सज्जा के उपादान, पूजा सामग्री आदि पर होने वाला व्यय वार्षिक व्यय का अल्पांश होता है किंतु समूह से जुड़ कर अर्थव्यवस्था का बड़ा भाग हो जाता है। इनके लिये भारत-निर्मित व स्थानीय सामग्रियाँ ही प्रयोग करें। अपने पंसारी व व्यापारी बंधुओं से माँग करें, चीनी वस्तुओं के प्रयोग के निषेध हेतु आंदोलन चलायें। इनमें से अधिकांश उधारी पर सरकार को बिना कोई कर दिये भी चीन से आते हैं। अत: हर प्रकार से हानिकर हैं। इनके बहिष्कार पर कोई ‘Made in China’ मोबाइल का उपालम्भ दे तो उसे प्यार से बहिष्कार प्रक्रिया समझायें। न समझे तो उसे मूर्ख मान कर आगे बढ़ लें। जो रुचि दिखाते हैं, उनके प्रति उदासीन न रह कर जोड़ते चलें।
कुछ दीर्घकालिक बड़े निवेश होते हैं यथा सोफा, टी वी, ए सी, फ्रिज आदि। इनमें भारतीय कम्पनियाँ स्थापित हैं। हो सकता है कि वे भी माल चीन में ही बनवा कर यहाँ बेंच रही हों। ऐसे निवेश में हजार दो हजार की बचत की उपेक्षा करें तथा निर्णय इस क्रम में लें :
- भारतीय कम्पनी व भारत में निर्मित
- भारतीय कम्पनी व चीन में निर्मित
अन्य दो विकल्प चीनी कम्पनी व भारत में निर्मित निकृष्ट चयन हो अर्थात पूर्ण बाध्यता में ही लिया जाय तथा चीनी कम्पनी व चीन में निर्मित तो कदापि न लें। अन्य विदेशी कम्पनियों के ऐसे उत्पाद भी विकल्प हैं जो भारत में बने हों, उन्हें चीन पर वरीयता दें।
कुछ निर्णय ऐसी वस्तुओं हेतु भी लेने होते हैं जो दो से तीन वर्ष चलती हैं, यथा – मोबाइल, लैपटॉप, अन्य इलेक्ट्रॉनिक वस्तु आदि। यहाँ ध्यान दें कि बहुधा ये समाहृत होती हैं अर्थात जिन उपादानों से ये बनती हैं, वे विविध स्रोतों से होते हैं तथा निर्माता उन्हें लगा कर उत्पाद बनाता है। प्रॉसेसर इण्टेल जैसी कम्पनियों के होंगे तो मेमोरी सैमसंग जैसों के। इन उपादानों के अधिकांश निर्माता चीनी नहीं हैं। व्यर्थ के दिखावे व अनुप्रयुक्त ही रह जानी वाली अनावश्यक सुविधाओं के व्यामोह से मुक्त हो कर ऐसे उत्पाद पूर्णत: भारतीय या भारत में बने लिये जा सकते हैं और चीनी कम्पनियों का पूर्ण बहिष्कार सम्भव है। इसी प्रकार चीनी सॉफ्टवेयरों के भी बड़े ही अच्छे विकल्प उपलब्ध हैं। यदि आप चीनी कम्पनी का उत्पाद लेंगे ही नहीं तो इसकी सम्भावना भी अधिक रहेगी कि चीनी सॉफ्टवेयरों से पाला न पड़े। इण्टरनेट है, गुगल खोज उपलब्ध है; जब आप एक योद्धा की भाँति स्थिरचित्त व दृढ़निश्चयी होंगे तो विकल्प ढूँढ़ ही लेंगे। इस कारण ही पहले मन का संस्कार आवश्यक है। चीनी मन आप से अधिक स्थिर, दृढ़ व सातत्ययुक्त है; उसकी विविध क्षेत्रों में प्रगति ही प्रमाण है। ‘हजार की यात्रा एक पग से’ को उन्होंने दशकों से अपना रखा है। आप को भी बहिष्कार के साथ साथ विकल्प विकास पर वैसे ही लगना होगा। परिवर्तन एक दिन में नहीं होगा किंतु यह भी सच है कि आरम्भ नहीं करेंगे तो होगा तो अवश्य क्योंकि परिवर्तन सृष्टि का नियम है किंतु आप के अनुकूल नहीं होगा। अत: ‘उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:’।
जो कुछ भी ऊपर लिखा है, एक खाका मात्र है। मात्र सैद्धान्तिकी व गलचउर पर सीमित न रह कर वास्तविक कर्म करने वालों हेतु है। सहमति या असहमति गौण हैं। जैसा आप को वरेण्य लगे, इससे इतर भी वैसा अपने लिये स्वयं निश्चित कर सकते हैं। हर किसी का ‘पहला पग’ एक जैसा ही हो, आवश्यक नहीं। महत्त्वपूर्ण यह है कि पहला पग उठाया जाय और आज के दिन, अभी से उपयुक्त कोई अन्य मुहूर्त नहीं। हाँ, तामसी जन के व्यङ्ग्य बाणों व उनके द्वारा हँसी उड़ाने की चिन्ता करने वाले कुछ नया कर ही नहीं सकते, इसका भी सतत ध्यान रहे। यह देखें तो, आप के यहाँ भी वही सिखावन है, अपनाने की आवश्यकता है –
योजनानां सहस्रं तु शनैर्गच्छेत् पिपीलिका । आगच्छन् वैनतेयोपि पदमेकं न गच्छति ॥
मन्द गति से चलती हुई चींटी भी हजार योजन (की दूरी) चल लेती है, परन्तु बिना चले तो वैनतेय गरुड़ (जिनकी गति जग प्रसिद्ध है) भी एक पग आगे नहीं बढ़ सकते।