ज्ञान पा लेने से अधिक कठिन उसे बाँटना होता है, सुपात्र और स्वीकार्यता की चिंतायें तो रहती ही हैं, साथ में भारी समस्या यह रहती है कि जिसे वास्तव में मिल गया है, वह उसे बिना बाँटे रह ही नहीं सकता! गृहत्याग कर संन्यस्त हुआ यायावर ज्ञानी होने पर गृहस्थों के बीच आने को निज मन से विवश होता है। बुद्ध के साथ भी ऐसा ही था।
आषाढ़ पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा। मान्यता है कि ऋषिपत्तन सारङ्गनाथ मृगदाव सारनाथ में आज के ही दिन विष्णु अवतार शाक्यसिंह तथागत गौतम बुद्ध ने सम्बोधि प्राप्ति के पश्चात अपने पहले उपदेश दिये थे। इसे धर्मचक्रप्रवर्तन कहा गया।
बुद्ध के समक्ष समस्या खड़ी हो गई – इस धर्म का उपदेश किसे करूँ? कौन ऐसा शुद्ध, सत्त्व व राग दोष से मुक्त है जो इसे समझेगा और हेठी नहीं करेगा?
बुद्ध को पात्र के रूप में रामपुत्र रुद्रक ध्यान में आये, पता चला कि सप्ताह भर पूर्व ही वे काल कवलित हो गये। दूसरे पात्र आराड कालाप ध्यान में आये तो पता चला कि वे भी तीन दिन पूर्व ही मृत्यु को प्राप्त हो गये!
कभी मृत्यु से दु:खी रहने वाला सिद्धार्थ अब बुद्ध हो चुका था किंतु उसका पीछा वह नहीं छोड़ रही थी। बुद्ध करुणा से भर उठे, अहो, सुप्रणीत धर्म को सुने बिना वह भी कालगत हो गये।
अन्तत: उन्हीं पाँच साथियों को ढूँढ़ना पड़ा जो उन्हें तपभ्रष्ट मान कर साथ छोड़ गये थे, वे सुपात्र थे – ते खलु पञ्चका भद्रवर्गीया: शुद्धा: स्वाकारा: सुविज्ञापका: सुविशोधका मन्दरागदोषमोहा अपरोक्षविज्ञाना:। तेऽश्रवणाद्धर्मस्य परिहीयन्ते।
प्रारम्भिक उपेक्षा, तिरस्कार व शङ्काओं के पश्चात कोदञ्ञ, अस्सजी, भद्दिय, वप्प और महानाम उन्हें सुनने को बैठे। बुद्ध के मुख से आर्यसत्य, आष्टाङ्गिक मार्ग आदि प्रवाहित होते चले गये – दु:ख, समुदय, निरोध, मार्ग …
… जैसा कि सामान्य है, बुद्ध के पास उस समय कोई आशुलिपिक तो था नहीं, न ही उन शिष्यों के पास था जो उपदेश को यथावत लिख कर रख सके। सारा कुछ स्मृति के आधार पर वाचिक मौखिक परम्परा में सुरक्षित रखा गया और शताब्दियों पश्चात जब प्रथम बार लिखित रूप में सङ्कलित किया गया, अनेक मत और पाठभेद हो चुके थे।
भारत की प्रतिक्रियावादी शिक्षा पद्धति में ऐसे बताया जाता है मानो बुद्ध की शिक्षायें यथावत संग्रहित हुईं और उपलब्ध हैं, जबकि ऐसा नहीं है। सम्पूर्ण बौद्ध वाङ्मय क्षेपकों, विस्तार और पाठभेदों से पुराणों की भाँति ही भरा हुआ है जिसमें अनेक स्तर हैं। यहाँ तक कि धर्मचक्रप्रवर्तन उपदेश के भी अनेक पाठ उपलब्ध हैं और उनमें पर्याप्त भेद हैं। यह स्वाभाविक है, प्राकृतिक है। इसे पान्थिक उन्माद में नकारने से सत्य का तिरस्कार तो होता ही है, उन स्वार्थी तत्त्वों की बन आती है जो येन केन प्रकारेण अपनी बनाये रखना चाहते हैं। नवबौद्ध धारा एक ज्वलंत उदाहरण है।
भाषा पालि या पाली के बारे में प्रचारित किया जाता है कि वह लोकभाषा थी तथा उसी भाषा में बुद्ध ने उपदेश दिये थे, वास्तव में ऐसा नहीं है। पालि या पाली अपेक्षतया नवीन नाम, पाळि से है – पन्ति वीथ्या’वलि सेणी, पाळि लेखा तु राजि च या हेवन च हेवन च मे पालियो वदेथ। अवली, आली की ही भाँति पाळि वा पाली शब्द का अर्थ भी पङ्क्ति या सूत्र में, श्रेणी में बद्ध रेखीय रचना होती है।
ताड़पत्रों पर सूत्रों के रूप में लिखे बौद्ध उपदेश देखने में रेखाओं के समान थे तथा ब्रह्मा (म्यान्मार), श्याम (थाईलैण्ड), सिलोन (श्रीलङ्का) आदि देशों के अनुयाइयों ने पवित्र बौद्ध भाषा को पाली कहना आरम्भ किया जो कि धीरे धीरे रूढ़ हो गया।
थेरेयाचारिया सब्बे पालिन विय तमग्गहुन … थेर वादेहि पालेहि पदेहि व्यञ्जनेहि च।
इस अर्थ का एक अन्य प्रमाण इसके अन्य नाम तन्ती में भी है जो संस्कृत में तन्त्री है। ताँत, तन्त्र आदि सभी शब्द रेखीय सीधे आकार हेतु ही प्रयुक्त होते हैं।
एक अन्य सञ्ज्ञा श्रेणी से समझें। पांथिक ग्रंथों में सङ्ग्रह को इस प्रकार रेखीय बताने का एक प्रमाण यह शब्द भी है।
सीधी रेखा वाला मार्ग या वीथि आज भी बंगाल में सरनी कहे जाते हैं। तमिळ सालइ का अर्थ भी मार्ग होता है जो श्रेणी का ही रूप है। बुनाई वाली सलाई तो जानते ही होंगे।
भारतीय मूल वाङ्मय में भाषा हेतु यह नाम मिलता ही नहीं। बुद्ध के समय की लोकभाषा का मूल नाम मगध से मागधी था जो प्राकृत थी – मगधनन भाषा मागधी। अङ्ग की अङ्गिका, वज्जि गण की भाषा वज्जिका, मल्लों की मल्लिका और काशी की काशिका – भाषा के विविध रूपों हेतु ये सञ्ज्ञायें प्रचलित थीं। ये सारे भौगोलिक क्षेत्र बुद्ध के भ्रमण के रहे हैं। सम्भव है कि इन सभी क्षेत्रों के निवासियों को समझ में आने वाली किसी औपचारिक भाषा में बुद्ध ने अपने उपदेश दिये हों जो तत्कालीन समाज की श्रेष्ठ प्राकृत रही हो,आर्यभाषा, श्रेष्ठ जन की भाषा।
बुद्ध के उपदेश अपनी मूल धरा से लुप्त हो गये तथा सिंहली भाषा में उपलब्ध संग्रहों को पालि में आधुनिक काल में अनूदित व परिवर्तित किया गया। बौद्ध वाङ्मय का बहुत बड़ा भाग मतांतरित ब्राह्मणों द्वारा रचा गया। पालि भाषा और संस्कृत का एक दूसरे में परिवर्तन बहुत सरल है जोकि एक अन्य प्रमाण है कि ऐसे यायावर भिक्षु अपनी सुविधा हेतु उपदेशों को पालि में परिवर्तित कर दूर देशों में ले गये। पांथिक प्रतिद्वन्द्विता के चलते वे विद्या की तत्कालीन भाषा में नहीं लिख सकते थे जोकि संस्कृत का कोई पाणिनी-पूर्व रूप रही होगी। तथागत की भाषा एक पवित्र व विशिष्ट भाषा होनी चाहिये थी जो ब्राह्मणों से भिन्न हो तथा पालि को इन आवश्यकताओं हेतु गढ़ा गया होगा।
आज पांथिक दुराग्रह वश यह सिद्ध करने को कि वैदिकी व पाणिनि-पूर्व संस्कृत भी पालि की उत्तरवर्ती हैं, एक वर्ग हास्यास्पद स्थापनाओं में लगा हुआ है। ऐसा ब्राह्मण शब्द के उस अर्थ के कारण भी है जिसे सामान्यतया एक वर्ण या जाति तक सीमित कर के देखा जाता है। यह सच है कि बुद्ध के समय में भी यह शब्द जातीय अर्थ में प्रयुक्त था किंतु यह भी सच है कि इसका एक अर्थ ब्रह्म अर्थात वेद के मार्ग को मानने वालों का मत भी था। इस मार्ग से इतर श्रमण मत थे जो कर्मकाण्डों की प्रमुखता के स्थान पर तप, ध्यान, समाधि आदि ‘श्रम’ आधारित मार्गों का अवलम्ब लेते थे। श्रमण मत बुद्ध के पूर्ववर्ती रहे हैं तथा ब्राह्मण मार्ग के समांतर प्रचलित रहे, बहुत पहले से, ऋक् संहिता में भी पर्याप्त सङ्केत उपलब्ध हैं। श्रमण वेदों की सत्ता मानने वाले भी हो सकते थे तथा वेदविरोधी भी। बौद्ध श्रमण दूसरी श्रेणी के श्रमण थे।
मानव मन एक अति से दूसरी अति पर छलाँग मारता है। बुद्ध मध्यमार्गी थे किंतु उनके कथित अनुयायी अतिवाद पर ही केंद्रित रहते हैं। स्वाभाविक भी है कि जब ‘धम्म’ के स्थान पर ‘संघ’ अधिक महत्त्वपूर्ण हो जायेगा तो ऐसा होगा ही। बुद्ध इसे समझते थे। उनके जीवनकाल में ही संघ से सम्बंधित अनेक अवांछित घटनायें होने लगीं। स्त्रियों के संघ में प्रवेश को ले कर जब उन्होंने कहा कि अब सद्धर्म केवल पाँच सौ वर्ष ही रहेगा तो यथार्थ ही कह रहे थे जिसके नेपथ्य में अन्य कारण भी थे।
बौद्ध धर्म श्रेष्ठियों और राजकीय सत्ता के संरक्षण पर जीवित रहा, फला फूला। भिक्षुओं को स्वयं भौतिक जगत के काम नहीं करने होते थे, निवेश शून्य था किंतु संसाधनों का व्यय तो था ही। वे उत्पादक नहीं थे तथा अनुयाइयों से दूर मठों व विहारों में रहते थे। उनके विपरीत ब्राह्मण पुरोहित विकेन्द्रीकृत व्यवस्था का अङ्ग था, वह गाँव में ही रहता था, सबके सुख दु:ख का साथी, परामर्शदाता। उसके निर्धन जीवन का बोझ ग्राम पर बहुत भारी नहीं था। बड़े साम्राज्यों के तिरोहण के साथ साथ श्रेष्ठियों की दशा भी वैसी अच्छी नहीं रही। संरक्षण के अभाव में सामान्य जन-जीवन से कटे बौद्ध विहार जनशून्य होते गये तथा अनुयाई भी उनसे कटते चले गये। वस्तुत: जनसामान्य हेतु ब्राह्मण एवं श्रमण में कोई तीखी साम्प्रदायिक विभेदक रेखा कभी थी ही नहीं। धार्मिक जनता हेतु दोनों सामान्य रूप से पूज्य थे और जब बौद्ध धर्म का क्षरण होने लगा तो भी उसे ऐसे किसी विशेष अभाव का अनुभव भी नहीं हुआ, विकल्प के रूप में ब्राह्मण सहित अन्य श्रमण मार्ग सदैव उपलब्ध थे।
एक अति के विरोध में दूसरी अति का एक उदाहरण समता भाव भी है। ऐसे प्रस्तुत किया जाता है जैसे बौद्ध धर्म में जातीय भेदभाव थे ही नहीं। यह सच है कि ब्राह्मण धारा की तुलना में श्रमण धारा उदार होती थी और बौद्ध मत श्रमण केंद्रित होने के कारण तुलनात्मक रूप से उदार था किंतु जातिवाद का पूर्ण अभाव बताया जाना आधुनिक काल का सावधानी के साथ गढ़ा गया मिथक ही है, जिसकी शक्ति वही है कि जन सामान्य में मूल ग्रंथ पढ़ने वाले हैं ही कितने और समय भी किसके पास है?
ब्राह्मण श्रेष्ठता के उत्तर में बौद्धों ने क्षत्त्रिय श्रेष्ठता का उद्घोष है। स्वयं बुद्ध के जाने कितनों संवादों में विस्तार से ऐसी बातें मिलती हैं। जनसामान्य को धम्म दीक्षा का अधिकार दिया, कोई भी अर्हत् हो सकता था किंतु तत्कालीन समाज में प्रचलित उन प्रथाओं के विरुद्ध कोई क्रांति नहीं की जिनके विरुद्ध जाने पर राजन्य या श्रेष्ठि समाज का कोप उन पर पड़ता। नव-मत अभिवृद्धि हेतु संरक्षण पर निर्भर था और सबसे रार ठान कर फल फूल नहीं सकता था, तब और जब हिंसा उसकी शक्ति नहीं थी तथा उसकी आस्था विराट मानवीय मूल्यों में थी।
ऐसी ही एक प्रथा थी – दासप्रथा। सामान्यतया म्लेच्छ देशों के विद्वान भारतीय दास प्रथा को उनके यहाँ की slavery के तुल्य बताने की प्रवृत्ति रखते हैं किंतु भारत की दास प्रथा बहुत ही उदार व मानवीय थी। भारत में प्रचलित दासत्व म्लेच्छों की slavery की भाँति लाभ कमाने हेतु न तो उन्हें पशुओं की भाँति रखता था और न ही काम की अमानवीय परिस्थितियों के साथ साथ यातनायें भी देता था। दास मुक्त हो सकता था और स्वतंत्रता के अभाव के साथ भी उसके साथ मानवीय व्यवहार होता था तथा उसके लिये विधि-विधान भी उपलब्ध थे। slavery में ऐसी कोई सुरक्षा उपलब्ध नहीं थी, न ही slaves के साथ मानवीय व्यवहार होता था।
बुद्ध के संघ में दासों का प्रवेश निषिद्ध था। जिस प्रकार से ब्राह्मण पुराणों में समय के साथ ही समायोजन के चक्कर में प्रक्षेप भरे जाते रहे, परिवर्तन किये जाते रहे, उसी प्रकार, उसकी प्रति-सममिति में बौद्ध मत में समय के साथ साथ उसे और करुणापरक व जनहितसम्बद्ध दर्शाते हेतु मूल को तिरोहित या परिवर्तित किया जाता रहा।
दीक्षा हेतु आये व्यक्ति से पहला प्रश्न होता कि क्या वह मनुष्य है? स्त्रियों के प्रवेश को बुद्ध द्वारा कालांतर में अनुमति देने से पूर्व-काल में दूसरा प्रश्न होता कि क्या वह पुरुष है? तीसरा प्रश्न होता – भुजिस्सो’सि? – क्या तुम स्वतंत्र हो? और चौथा प्रश्न होता – अणणो’सि? – क्या तुम ऋणमुक्त हो?
तीसरे प्रश्न का सम्बंध दासत्व से है तथा चौथे का उधारी से, दोनों प्रतिष्ठित, धनी एवं श्रेष्ठियों से जुड़ते हैं। चारो प्रश्नों में से किसी का भी उत्तर नहीं होने पर वह व्यक्ति दीक्षित नहीं किया जा सकता था। कालांतर में व्यक्ति के ऊपर कोई ऋण होने पर उससे पूछा जाता कि क्या प्रवज्या में रहते हुये वह ऋण चुकता कर पायेगा। उत्तर हाँ होने पर उसे प्रवज्या दे दी जाती थी। कालभेद से यह छूट भिक्षुओं द्वारा जनता में पैठ के बढ़ने एवं उनके द्वारा किसी प्रकार की व्यापारिक गतिविधियों में लगने का संकेतक है जोकि स्पष्टत: दूषण ही है।
पालि परम्परा के विपरीत मूलसर्वास्तिवादी धारा में दासत्व को लेकर प्रश्न अधिक विशद हैं –
- मासि दासो
- मा आहृतक:
- मा प्राप्तको
- मा वक्तव्यक:
- मा विक्रीतको
इनमें दास वह है जो दास के घर उत्पन्न हुआ हो; आहृतक वह जो किसी अन्य राज्य से बंदी बना कर लाया गया हो; प्राप्तक वह है जो किसी ऋण हेतु बंधक के रूप में दिया गया हो; वक्तव्यक वह है जो ऋण चुकाने में अक्षम होने पर स्वयं को दास घोषित कर चुका हो तथा विक्रीतक वह है जिसने स्वयं को बेच दिया हो।
ये सभी प्रवज्जित नहीं किये जा सकते – न भिक्खवे दासो पब्बाजेत्तब्बो। धम्मदीक्षा दास हेतु नहीं है। दासत्व के कुछ अन्य उल्लेख इस प्रकार हैं :
दासोपि न पब्बाजेतब्बो ‘‘न, भिक्खवे, दासो पब्बाजेतब्बो, यो पब्बाजेय्य, आपत्ति दुक्कटस्सा’’ति (महाव॰ ९७) वचनतो। तत्थ चत्तारो दासा अन्तोजातो धनक्कीतो करमरानीतो सामं दासब्यं उपगतोति। तत्थ अन्तोजातो नाम जातिया दासो घरदासिया पुत्तो। धनक्कीतो नाम मातापितूनं सन्तिका पुत्तो वा सामिकानं सन्तिका दासो वा धनं दत्वा दासचारित्तं आरोपेत्वा कीतो। एते द्वेपि न पब्बाजेतब्बा। पब्बाजेन्तेन तत्थ तत्थ चारित्तवसेन अदासे कत्वा पब्बाजेतब्बा। करमरानीतो नाम तिरोरट्ठं विलोपं वा कत्वा उपलापेत्वा वा तिरोरट्ठतो भुजिस्समानुसकानि आहरन्ति, अन्तोरट्ठेयेव वा कतापराधं किञ्चि गामं राजा ‘‘विलुम्पथा’’ति च आणापेति, ततो मानुसकानिपि आहरन्ति, तत्थ सब्बे पुरिसा दासा, इत्थियो दासियो। एवरूपो करमरानीतो दासो येहि आनीतो, तेसं सन्तिके वसन्तो वा बन्धनागारे बद्धो वा पुरिसेहि रक्खियमानो वा न पब्बाजेतब्बो, पलायित्वा पन गतो गतट्ठाने पब्बाजेतब्बो। रञ्ञा तुट्ठेन ‘‘करमरानीतके मुञ्चथा’’ति वत्वा वा सब्बसाधारणेन वा नयेन बन्धनमोक्खे कते पब्बाजेतब्बोव।
अर्थात आधुनिक ‘परम समता absolute equality’ की अवधारणा का जो आरोपण बौद्ध धर्म पर किया जाता है, वास्तविकता में स्थिति उससे नितान्त भिन्न थी। बुद्ध या संघ दासों को दीक्षित नहीं करते थे जिससे कि उनके स्वामी कुपित न हों। आर्थिक दृष्टि से यह व्यावहारिक बात थी। जो आश्रयदाता या भक्त थे, उनकी समृद्धि में ही संघ एवं विहारों का हित था।
निजी आग्रहों एवं उनके पुरातन पर आरोपणों से मुक्त होने पर ही पुरातन भारत एवं उसके वर्तमान को यथार्थत: विश्लेषित किया और समझा जा सकता है अन्यथा विकृत एवं मिथ्या दृढ़कथन व मान्यतायें ही स्थापित होती हैं। दुर्भाग्य से वैश्विक स्तर पर राजनीतिक एवं स्वार्थी आग्रहों से बँधी अकादमिकी का यही सच है।
चित्र आभार : pixabay.com
सुंदर कार्य। वामपंथ, मिशनरी, पाश्चात्य षड्यंत्र, नवप्रतिरूपीकरण, और नवबौद्धिक छद्मस्वातंत्र्यछलित भेड़िकरण तिमिर में अब कुछ पावन दीप उस ओर प्रवाहमान हैं जहाँ से भोर होना है।
धन्यवाद