अनेक बार लक्ष्य हमें ऐसा सम्मोहित कर देता है कि हमें उससे दायें, बायें, ऊपर, नीचे कुछ दिखता ही नहीं। ‘एके साधे सब सधै’ उक्ति में समर्पण एवं एकनिष्ठा पर बल दिया गया है किन्तु किसी भी सुभाषित या महत कथन पर आचरण का प्रसार उसके औचित्य, प्रसंग एवं प्रभावक्षेत्र से बाहर कर देने पर एवं उसका सामान्यीकरण कर देने पर होने वाले नकारात्मक परिणाम बहुधा लाभ के स्थान पर हानि दे जाते हैं।
महत्वाकांक्षा अच्छी बात है किन्तु उसके साथ अपनी सीमाओं, भौतिक एवं मानव संसाधनों, विविध पक्षों की स्थिति, तात्कालिक एवं दीर्घकालिक आवश्यकताओं पर समेकित कार्रवाई न हो तो बात बनती नहीं, बिगड़ जाती है। विराट सम्मोहन के साथ समस्या जड़त्त्व की भी होती है, एक बार जब तंत्र उसके प्रभाव में गति पकड़ लेता है तो रुकता नहीं। वैश्विक स्तर पर ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं जहाँ समस्त सदाशयता के होते हुये भी दूरदृष्टि के अभाव एवं त्वरा के कारण व्यापक जन, धन एवं पर्यावरणीय हानियाँ तो हुईं ही, विकास के स्थान पर विनाश हो गया तथा पुन: अपने पाँव खड़े होने में दशकों लग गये।
संतुलित, समेकित एवं सब पर दृष्टि रखने वाली मेधा एकदेशीय लक्ष्य के सम्मोहन से बचती है तथा समग्रता पर केंद्रित रहती है।
भारत पहले से ही ट्रिलियन (वैदिक शब्दावली में शङ्कु) डॉलर अर्थव्यवस्था की श्रेणी में है तथा उसकी विकास दर इस श्रेणी के समस्त राष्ट्रों में सर्वाधिक है, अति आशा एवं महत्त्वाकांक्षा के कारण समझ में आते हैं किन्तु अप्रैल २०१८ के २.६१ से अप्रैल २०२४ में ५ ट्रिलियन के प्लवन का लक्ष्य सावधान विश्लेषण की माँग करता है। वृद्धि दर का अधिक होना यह दर्शाता है कि अपनी सम्भावनाओं की तुलना में भारत उतना नहीं प्राप्त कर सका जितना अन्य देशों ने बहुत पहले ही प्राप्त कर लिया। इसका एक सुखद पक्ष यह भी है कि अब उन सम्भावनाओं की लब्धि हेतु अनुकूल वातावरण है तथा अर्थव्यवस्था फल फूल रही है किन्तु जटिल एवं विशाल तंत्र में मोटी बातें बहुत कुछ सूक्ष्म किन्तु महत्त्वपूर्ण को छिपा ले जाती हैं। उन पर विचार की आवश्यकता है।
एक वैचारिकी यह भी है कि भले लक्ष्य न मिले (लक्ष्य कैसा जो मिल जाय?), उसे प्राप्त करने के लिये किये जाने वाले उद्यम एवं एकनिष्ठा के कारण लब्धि भले लक्षित से लघु ही रहे, तब भी बड़ी उठान तो मिल ही जायेगी। पार्श्व लाभों की बातें करने वाले बहुधा पार्श्व हानियों की सम्भावनाओं या वास्तविकताओं पर बात ही नहीं करते, तब तो पूर्णत: मौन धारण कर लेते हैं जब नायक का प्रभावलय बहुत बड़ा हो। इस देश ने सोवियत अनुकरण में पञ्चवर्षीय योजनाओं के लक्ष्यों एवं लब्धियों को भूतकाल में देखा है, उन पर बहुत विमर्श हुये हैं, पक्ष एवं विपक्ष में बहुत सी बातें भी होती रही हैं किन्तु एक बात चाहे क्षीण स्वर में या उच्च स्वर में सभी गम्भीर समकालीन अध्येताओं ने स्वीकारी है कि ‘आयातित’ विचारतंत्र के कारण हानि ही हुई तथा ‘हिन्दू विकास दर’ से तब तक मुक्ति की आशा तब तक बलवती नहीं हुई, जब तक कि हमने केवल आवरण को रखते हुये भीतर व्यापक मौलिक परिवर्तन नहीं कर दिये। समय अंधा नहीं बनाता, बहुधा हम ही उसे ऐसा करने को बाध्य कर देते हैं। इतिहास-पुरुष होने की महत्त्वाकांक्षा रखने वाले त्वरा में इतिहास, वर्तमान एवं भविष्य, तीनों का सत्तानाश करते भी पाये गये हैं। जितने व्यापक स्तर पर भूल होगी, उसका घातक प्रभाव भी उतना ही घातक होगा।
हमें ठहर कर गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है तथा इस पर ध्यान देने की भी कि अर्थव्यवस्था के अतिरिक्त शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, जल संसाधन, जनसंख्या नियंत्रण, संसाधनों के धर्मसम्मत दोहन आदि क्षेत्रों में आज क्या स्थिति है तथा यदि ऐसे ही चलते रहने दिया जाय तो आगे के पाँच वर्षों में क्या होने वाली है?
सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर की यथार्थ स्थिति पर विशेषज्ञों में कतिपय असहमतियाँ हैं। तदपि उसे यदि ६.४ प्रतिशत के आस पास मानें तथा इससे एक प्रतिशत भी अधिक वृद्धि दर यदि आगामी पाँच वर्षों तक बनी रहे तो अप्रैल २०२४ तक भारत चार ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था होगा; उस अति महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य से मात्र एक ट्रिलियन डॉलर पीछे, जिसे प्राप्त करने के लिये दर को वर्तमान से पाँच प्रतिशत बढ़ाना पड़ेगा! इस दर में दशमलव प्रतिशत की वृद्धि भी बड़ी बात होती है, पाँच प्रतिशत तो महाकाय है!
चार ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के लक्ष्य के साथ यदि विकास की समग्रता पर ध्यान दिया जाये तो सकल स्तर पर भारत की प्रगति प्रशंसा की अधिकारी होगी। यह लक्ष्य सम्भव है तथा इतना अल्प भी नहीं कि इसे अगम्भीर लक्ष्य माना जाये। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि क्रय-क्षमता-तुल्यता (Purachasing Power Parity, PPP) के आधार पर हम दस ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था पहले से ही हैं तथा अमेरिका एवं चीन के पश्चात विश्व में तीसरा स्थान रखते हैं।
लोग यह कहेंगे कि अर्थव्यवस्था के विशाल होने पर अन्य पक्ष स्वत: सध जायेंगे, हाथी के पाँव में समस्त पाँव समा जाते हैं आदि किन्तु जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, प्रयासों का संकेंद्रण कहाँ है, एकदेशीय है या बहुद्देशीय, एक साथ अनेक पर समांतर है या असम्पकृत अपवर्जी; इन तथ्यों पर सकल विकास या कहें कि जनता का सकल सुख निर्भर करता है। हम समृद्ध किन्तु एक रोगी भारत तो नहीं बनाना चाहते न? एक बाँह में भीम का बल हो जाये तथा पूरी देह में पक्षाघात हो तो ऐसा विकास किस काम का? समय के साथ बल वाली बाँह भी क्षीण हो जायेगी।
भारत सामाजिक दुर्भिक्ष एवं संकटों की दिशा में भी बढ़ रहा है। जो विविधता शक्ति है, उसी का एक स्वार्थी, क्रूर एवं हिंसक वर्ग तंत्र के दोहन में ‘विशेष सुविधाओं’ एवं ‘मजहबी हुकूक’ के नाम पर लगा है तथा समूचा तंत्र उसके आगे असहाय है। घुसपैठ का आतंक तो है ही, अंतर्देशीय क्षेत्रों से भी लोग पलायन कर रहे हैं। शिक्षा की स्थिति सब को दिख रही है। उजड़ते गाँव एवं लोगों के जीवन की गिरती गुणवत्ता स्पष्ट हैं।
ऐसे में हमें एक ऐसे निपट लघु देश से सीख लेनी चाहिये जो अपनी सुरक्षा हेतु भी अन्यों पर निर्भर है – भूटान, जहाँ ‘सुखाङ्क, Happiness Index’ की बात होती है। ठीक है कि वह हमारा ‘मॉडल’ नहीं बन सकता किन्तु सीख लेने में क्या बुराई है? ‘सुखाङ्क’ को तो भारत अपने अनुसार व्याख्यायित कर ही सकता है, पहले यह समझ में तो आये कि देश देशवासियों से होता है, उसका अपना कोई पृथक अस्तित्त्व नहीं होता। वासी नहीं रहेंगे तो वह भूमि एवं आकाश का टुकड़ा मात्र होगा। देश की परिभाषा बहुसंख्यक जनता के हितों से आती है। हम देश को मिस्र के अति सम्पन्न एवं शिल्प कौशल में समय के कीर्तिमान किन्तु मृत जन को संरक्षित रखते पिरामिडों के समान तो नहीं बनाना चाहते न?