पीड़ित मानसिकता (victimhood mindset) एक ऐसी मानसिक अवस्था है जिसमें व्यक्ति अपनी अवस्था के लिए स्वयं के स्थान पर अन्य व्यक्तियों को उत्तरदायी मानता है। विफल अंतर्वैयक्तिक सम्बन्धों के परिणाम में यह एक महत्त्वपूर्ण मानसिक अवस्था है, यथा आधुनिक समय में सम्बंधों में विफलता के लिए स्वयं के स्थान पर अपने साथी को पूर्णरूपेण उत्तरदायी बताना। ऐसी सब बातें इस श्रेणी में आती हैं – मेरे साथ किसी ने बहुत अन्याय किया; मेरे साथी की तुलना में सम्बन्धों में मैं अधिक नैतिक, न्यायपूर्ण और भला था; मैं अपने साथ किए गए अन्याय के बारे में सोचना छोड़ नहीं सकता इत्यादि। वैसे व्यक्ति जिन्हें लगता है कि उनके साथ सदा अनुचित ही होता है। वे कभी स्वयं अपनी स्थिति के नियंत्रण में नहीं रहे। उन्होंने किया ही क्या? सारा उत्तरदायित्व अन्य लोगों का था या अवस्था का या भाग्य का।
इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है – जीवन में जब अप्रिय घटना हो तो वह किसी के लिए सहज नहीं होती परंतु उसका सटीक आकलन सभी नहीं कर पाते। कुछ लोग जहाँ उचित विचार कर समुचित दिशा में कार्य करते हैं, वहीं अन्य की मानसिक अवस्था ऐसी होती है कि उन्हें यह स्वीकार ही नहीं होता और वे बहुधा इन घटनाओं के लिए अन्य व्यक्तियों या समाज को उत्तरदायी मानते हैं तथा स्वयं को पीड़ित। एक ही अवस्था में एक व्यक्ति मानसिक रूप से विजेता (victor) होने की अनुभूति कर सकता है तो दूसरा व्यक्ति पीड़ित (victim)। हम सभी ऐसे व्यक्तियों को जानते हैं जिनका वास्तविक उत्पीड़न नहीं होते हुए भी वे अपने को पीड़ित मानते हैं जिससे वे मानसिक अवसाद की स्थिति में भी रहते हैं।
जीवन तथा समाज में बहुधा स्थितियाँ अस्पष्ट होती हैं। यथा, यदि दीर्घकाल के पश्चात सम्पर्क करने पर किसी ने हमारे संदेश का उत्तर नहीं दिया तो इसके अनेक कारण हो सकते हैं। कोई व्यक्ति इस स्थिति की व्याख्या जिस प्रकार करता है – इसे व्यक्तिगत रूप से लेता है या ऐसा सोचता है कि ऐसा होना स्वाभाविक है जिसके विविध कारण हो सकते हैं, वह उक्त व्यक्ति की मानसिक स्थिति दर्शाती है। ऐसी सामाजिक या व्यक्तिगत संशयात्मक स्थितियों में अधिकतर व्यक्ति इसे सहजता से लेते हैं तथा अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखते हैं परंतु कुछ लोग अपने आपको ऐसी अवस्था में भी नित्य पीड़ित के रूप में देखते हैं।
विगत वर्ष Personality and Individual Differences में छपे शोध पत्र The tendency for interpersonal victimhood: The personality construct and its consequences में इसे इस प्रकार परिभाषित किया गया – “an ongoing feeling that the self is a victim, which is generalized across many kinds of relationships. As a result, victimization becomes a central part of the individual’s identity.”
संक्षेप में, ऐसे व्यक्ति को लगता है कि उसकी मानसिक अवस्था का नियंत्रण अन्य बाह्य कारणों पर निर्भर है – अन्य व्यक्ति, भाग्य, समाज इत्यादि। शोधों में यह पाया गया कि ऐसे व्यक्ति दूसरों से भी अपेक्षा रखते हैं कि वे उनके पीड़ित होने की बात से सहमत हों। वे स्वयं को उत्कृष्ट स्तर का नैतिक व्यक्ति मानते हैं तथा अन्य व्यक्तियों को अनैतिक मानते हैं, दूसरों के दुःख और पीड़ा को निम्न मानते हैं तथा अतीत में स्वयं के पीड़ित होने की बात बहुधा करते हैं। यहाँ रोचक यह भी है कि वास्तविक रूप में पीड़ित नहीं होते हुए व्यक्ति ऐसी मानसिक अवस्था विकसित कर लेते हैं। इसी प्रकार यह भी आवश्यक नहीं कि सच में जिस व्यक्ति का उत्पीड़न हुआ हो, वह ऐसी मानसिक अवस्था विकसित करे।
इसे सरल शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि ऐसे व्यक्ति स्वयं तथा संसार, दोनों को ही उनकी जटिलता और उलझनों को यथावत नहीं समझ पाते। बोध के स्थान पर उनपर उनकी इंद्रियों तथा भावनाओं का नियंत्रण रहता है। इस प्रकार के व्यक्ति अपनी पीड़ित होने की मानसिकता से इस प्रकार प्रभावित होते हैं कि उन्हें दूसरों की पीड़ा की समझ ही नहीं होती, अनुभूति व करुणा तो दूर की बातें हैं। Journal of Personality and Social Psychology में वर्ष २०१० में छपे शोधपत्र Victim Entitlement to Behave Selfishly के अनुसार ऐसे व्यक्ति का व्यवहार अतीत की अवस्था की स्मृति में आक्रामक तथा स्वार्थी होता जाता है। अर्थात् ऐसे व्यक्ति ऐसा सोचते हैं कि उन्होंने इतना झेला है कि यह उनका दायित्व ही नहीं कि वे किसी अन्य की पीड़ा को समझें। स्पष्ट ही है कि वे अन्य व्यक्तियों की सहायता भी नहीं करते। ऐसे व्यक्ति दूसरों को क्षमा भी नहीं कर पाते तथा घटनाओं की विकृत रूप में स्मृति रखते हैं।
मनोवैज्ञानिक इस अवस्था के लिए तीन मुख्य भ्रांतियों को उत्तरदायी मानते हैं – विवेचन (interpretation), आरोपण (attribution) तथा स्मृति भ्रांति (memory biases)।
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विवेचन अर्थात किसी घटना को आवश्यकता से अधिक प्रभावी रूप में देखना या अस्पष्टता की अवस्था में बहुधा अन्य व्यक्ति को दोषी तथा अपने को पीड़ित के रूप में देखना।
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आरोपण अर्थात् अन्य व्यक्ति की मंशा को सदा ही नकारात्मक रूप में देखना। यदि घटना सामान्य भी हो तो अन्य व्यक्ति की मंशा को नकारात्मक रूप में देखना तथा किसी अशुभ घटना के पश्चात अधिक समय तक तथा तीव्रता से नकारात्मक भावनाओं को स्मृति में रखना।
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स्मृति भ्रांति अर्थात् नकारात्मक स्मृतियों को बनाये रखने की प्रवृति तथा सकारात्मक को भूलने की।स्वाभाविक है ऐसे व्यक्ति अंतर्वैयक्तिक सम्बन्धों में दूसरों को क्षमा भी नहीं करते, भले ही त्रुटि स्वयं से हुई हो। ऐसे व्यक्ति बहुधा अपनी सोच के स्थान पर ऐसे कार्य करते हैं जिसके लिए उन्हें अन्य व्यक्तियों से पुष्टि (validation) की आवश्यकता होती है।
इस मानसिक अवस्था का हल पुनः आधुनिक मनोविज्ञान में भी वही है – ध्यान, विपश्यना, वस्तुस्थिति का अवलोकन – एक कठिन एवं धीमी प्रक्रिया। परामर्शदाता अंततः इन्हीं सुझावों पर आते हैं।
पीड़ित से विजेता की मानसिक अवस्था की योगसूत्र (१.३०-३९) में अत्यंत सटीक एवं सुगम व्याख्या मिलती है।
सरल शब्दों में जिसके अनुसार व्यक्ति आत्मभावनाओं, मानसिक और भौतिक मोह के आवरण से घिर जाता है। इच्छापूर्ति नहीं होने पर मन में क्षोभ, कम्पन, श्वास-प्रवास विक्षेप, निराशा इत्यादि होते हैं, जिससे व्यक्ति सत्य का आकलन नहीं कर पाता, साथ ही उसके ध्यान में भी बाधा आती है। इसके निवारण की विधि भी बतायी गयी है यथा – सुखी, दु:खी, पुण्यात्मा तथा पापात्मा व्यक्तियों के बारे में, यथाक्रम मैत्री, करुणा, हर्ष तथा उदासीनता, की भावना रखने से चित्त निर्मल एवं प्रसन्न होता है।
योग सूत्र में मानसिक अवस्थाओं, विकृतियों तथा उनके हल की सनातन विधियाँ तो हैं ही, परंतु इस विशेष अवस्था की एक सटीक परिभाषा इस प्रकार भी हो सकती है – भावनाओं से आच्छादित बुद्धि, मोह के आवरण में फँसा मनुष्य, गीता के प्रथम अध्याय में अर्जुन की अवस्था सदृश, जिसमें अर्जुन स्थिति के लिए स्वयं को उत्तरदायी नहीं मानते हुए पीड़ित ही अनुभव करता है।
मोह और भावनाओं से आच्छादित अर्जुन जैसा वीर योद्धा भी अपने आपको स्थिति का नियंत्रक नहीं परंतु दास पाता है – खेद, शोक और आश्चर्य जैसे शब्दों का प्रयोग करता है। यह कथन सत्य ही है कि अवसाद-सहित हर मानसिक विकृति का सटीक हल गीता से सहज ग्राह्य है।
जितेन्द्रिय के लिए क्या शत्रु, क्या मित्र?
बन्धुरात्माऽऽत्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अर्थात् इंद्रिय तथा मोह के विजेता बनों, पीड़ित नहीं।
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